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[नन्दीसूत्र स्थान पर एक आसन बिछा दिया। कपटी मित्र सहज भाव से उसी आसन पर बैठ गया। उसके मित्र ने दोनों बन्दरों को एक कमरे से बाहर निकाल दिया। दोनों उछलते-कूदते हुए सीधे उस मायावी मित्र के पास आए और अभ्यासवश उसके सिर पर कंधों पर व गोद में बैठकर किलकारियाँ भरते हुए अपनी भाषा में खाना मांगने लगे। क्योंकि उसी स्थान पर पहले उसकी प्रतिमा थी जिससे दोनों परिचित थे। यह देखकर मायावी ने पूछा-'मित्र, यह क्या तमाश है? ये दोनों बन्दर तो मेरे साथ इस प्रकार व्यवहार कर रहे हैं, जैसे मुझ से परिचित हों।'
यह सुनकर उस व्यक्ति ने गर्दन झुकाकर उदास भाव से कहा-'मित्र, ये दोनों तुम्हारें ही पुत्र हैं। दुर्भाग्य से बन्दर बन गये, इसी कारण तुम्हें प्यार कर रहे हैं।' मायावी मित्र अपने मित्र की बात सुनकर उछल पड़ा और उसे पकड़कर झंझोड़ते हुए बोला—'क्या कह रहे हो? मेरे पुत्र तो तुम्हारे घर भोजन करने आये थे! बन्दर कैसे हो गये? क्या मनुष्य भी कभी बन्दर बन सकते हैं?'
पहले वाले मित्र ने शान्तिपूर्वक उत्तर दिया- 'मित्र! लगता है आपके अशुभ कर्मों के कारण ऐसा हुआ है, क्या सुवर्ण कभी कोयला बना करता है, पर हमारे भाग्यवश वैसा हुआ।' मित्र की यह बात सुनकर कपटी मित्र के कान खड़े हो गये, उसे लगा कि इसको मेरी धोखेबाजी का पता चल गया है किन्तु उसने सोचा अगर मैं शोर मचाऊँगा तो राजा को पता लगते ही मुझे पकड़ लिया जायेगा और धन तो छिनेगा ही, मेरे पुत्र भी पुनः मनुष्य न बन सकेंगे। यह विचार कर उस मायावी ने यथातथ्य सारी घटना मित्र को कह सुनाई। जंगल से लाए हुए धन का आधा भाग भी उसे दे दिया। सरल स्वभावी मित्र ने भी उसके दोनों पुत्रों को लाकर उसे सौंप दिया। यह उदाहरण सरल स्वभावी मित्र की औत्पत्तिकी बुद्धि का सुन्दर उदाहरण है।
(२४) शिक्षा : धनुर्वेद—एक व्यक्ति धनुर्विद्या में बहुत निपुण था। किसी समय वह भ्रमण करता हुआ एक नगर में पहुंचा। वहाँ जब उसकी कलानिपुणता का पता चला तो बहुत से अमीरों के लड़के उससे धनुर्विद्या सीखने लगे। विद्या सीखने पर उन धनिक-पुत्रों ने अपने कलाचार्य को बहुत धन दक्षिणा के रूप में भेंट किया। जब लड़कों के अभिभावकों को यह ज्ञात हुआ तो उन्हें बहुत क्रोध आया और सबने मिलकर तय किया कि जब वह व्यक्ति धन लेकर अपने घर लौटेगा तो रास्ते में इसे मार कर सब छीन लेंगे। इस बात का किसी तरह धनुर्विद्या के शिक्षक को पता चल गया।
यह जानकर उसने एक योजना बनाई। उसने अपने गांव में रहने वाले बन्धुओं को समाचार भेजा—'मैं अमुक दिन रात्रि के समय कुछ गोबर के पिण्ड नदी में प्रवाहित करूंगा। उन्हें तुम लोग निकाल लेना।' इसके बाद शिक्षक ने अपने द्रव्य को गोबर में डालकर कुछ पिण्ड बना लिये और उन्हें अच्छी तरह सुखा लिया। तत्पश्चात् अपने शिष्यों को बुलाकर उन्हें कहा—'हमारे कुल में यह परम्परा है कि जब शिक्षा समाप्त हो जाये तो किसी पर्व अथवा शुभ तिथि में स्नान करके मंत्रों का यह उच्चारण करते हुए गोबर के सूखे पिण्ड नदी में प्रवाहित किये जाते हैं। अतः अमुक रात्रि को यह कार्यक्रम होगा।'