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[ नन्दीसूत्र
४८ ]
उन्हें वर्ण, रस आदि रूप में बदलता है उसकी पूर्णता को आहारपर्याप्ति कहते हैं 1
(२) शरीरपर्याप्ति - जिस शक्ति द्वारा रस, रूप में परिणत आहार को अस्थि, मांस मज्जा एवं शुक्र - शोणित आदि में परिणत किया जाता है उसकी पूर्णता को शरीरपर्याप्ति कहते हैं ।
( ३ ) इन्द्रियपर्याप्ति—इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके अनाभोगनिर्वर्तित योगशक्ति द्वारा उन्हें इन्द्रिय रूप में परिणत करने की शक्ति की पूर्णता को इन्द्रियपर्याप्ति कहते हैं ।
(४) श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति उच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को जिस शक्ति के द्वारा ग्रहण करके छोड़ा जाता है, उसकी पूर्ति को श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति कहते हैं।
(५) भाषापर्याप्ति - जिस शक्ति के द्वारा आत्मा भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा के रूप में परिणत करता और छोड़ता है उसकी पूर्णता को भाषापर्याप्ति कहते हैं।
(६) मन: पर्याप्ति – जिस शक्ति के द्वारा मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें मन के रूप में परिणत करता है, उसकी पूर्णता को मनःपर्याप्ति कहते हैं । मनःपुद्गलों के अवलम्बन से ही जीव मनन- संकल्प-विकल्प करता है ।
आहारपर्याप्ति एक ही समय में पूर्ण हो जाती है । एकेन्द्रिय में प्रथम की चार पर्याप्तियाँ होती हैं । विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में पाँच पर्याप्तियाँ पाई जाती हैं, मन नहीं । संज्ञी मनुष्य में छ: पर्याप्तियाँ होती हैं। ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि जिस जीव में जितनी पर्याप्तियाँ पाई जाती हैं, वे सब हों तो उसे पर्याप्त कहते हैं । जब तक उनमें से न्यून हों तब तक वह अपर्याप्त कहा जाता है। प्रथमं आहारपर्याप्ति को छोड़कर शेष पर्याप्तियों की समाप्ति अन्तर्मुहूर्त्त में होती है । जो पर्याप्त होते हैं वे ही मनुष्य मनः पर्यवज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं ।
३३–जइ पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं, किं सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, मिच्छदिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय - कम्मभूमग- गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, सम्मामिच्छदिट्ठि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउयकम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं ?
गोमा ! सम्मद्दिट्टि - पज्जत्तग-संखेज्जवासाय - कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय- मणुस्साणं, णो मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, णो सम्मामिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं ।
३३–यदि मनःपर्यवज्ञान पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले, कर्मभूमिज, गर्भज, मनुष्यों को होता है तो क्या वह सम्यक्दृष्टि, पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले, कर्मभूमिज-गर्भज मनुष्यों को होता है, मिथ्यादृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है अथवा मिश्रदृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है ?
उत्तर—सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है । मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को नहीं