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[नन्दीसूत्र हेतु, उपस्थित अनेक शिष्यों के संशय के निवारणार्थ, लोगों को ज्ञान हो तथा उनकी अभिरुचि संयमसाधना एवं तप में बढ़े। यह दृष्टिकोण ही गौतम स्वामी के प्रश्न पूछने में संभव है।
इससे यह भी परिलक्षित होता है कि आत्मज्ञानी गुरु के सान्निध्य का लाभ लेते हुए निकटस्थ शिष्य को अति विनम्रता से ज्ञानार्जन करते रहना चाहिए।
२९-जइ मणुस्साणं, किं सम्मुच्छिम-मणुस्साणं गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं ? गोयमा! नो संमुच्छिम-मणुस्साणं, गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं उपपज्जइ।
२९–यदि मनुष्यों को उत्पन्न होता है तो क्या संमूर्छिम मनुष्यों को या गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) मनुष्यों को उत्पन्न होता है?
उत्तर—गौतम! संमूर्छिम मनुष्यों को नहीं, गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है।
विवेचन—भगवान् ने गौतम स्वामी को बताया कि मन:पर्यवज्ञान गर्भज मनुष्यों को ही होता है। गर्भज वे होते हैं जो माता पिता के संयोग से उत्पन्न हों। संमूर्छिम मनुष्य को यह ज्ञान नहीं होता। संमूर्छिम वे कहलाते हैं जो निम्नलिखित चौदह स्थानों में उत्पन्न हों, यथा—गर्भज मनुष्यों के मल, मूत्र, श्लेष्म, नाक का मैल, वमन, पित्त, रक्त-राध, वीर्य, शोणित में तथा आर्द्र हुए शुष्क शुक्रपुद्गलों में, स्त्री-पुरुष के संयोग में, शव में, नगर तथा गांव की गंदी नालियों में तथा अन्य सभी अशुचि स्थानों में संमूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। संमूर्छिमों की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र की ही होती हैं। वे मनरहित, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, सभी प्रकार से अपर्याप्त होते हैं। उनकी आयु सिर्फ अन्तर्मुहूर्त की होती है, अतः चारित्र का अभाव होने से इन्हें मनःपर्यवज्ञान नहीं होता।
__३०–जइ गब्भवक्कंतियमणुस्साणं किं कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं, अकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं, अंतरदीवगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं ? गोयमा! कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं, णो अकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं, णो अंतरदीवगगब्भवक्कंतियमणुस्साणं।
३०–यदि गर्भज मनुष्यों को मनःपर्यवज्ञान होता है तो क्या कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है, अकर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है अथवा अन्तरद्वीपज गर्भज मनुष्यों को होता है?
उत्तर–गौतम! कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है, अकर्मभूमिज गर्भज और अन्तरद्वीपज गर्भज मनुष्यों को नहीं होता।
विवेचन —जहां असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, कला, शिल्प, राजनीति एवं चार तीर्थों की प्रवृत्ति हो वह कर्मभूमि कहलाती है। ३० अकर्मभूमि और ५६ अंतरद्वीप अकर्मभूमि या भोगभूमि कहलाते हैं। अकर्मभूमिज मानवों का जीवनयापन कल्पवृक्षों पर निर्भर होता है। इनका विस्तृत वर्णन जीवाभिगमसूत्र में किया गया है।
३१-जइ कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं किं संखेन्जवासाउय-कम्मभूमगगब्भ