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[ नन्दीसूत्र
(१) द्रव्य से अवधिज्ञानी जघन्यतः — कम से कम अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता और देखता है। उत्कृष्ट रूप से समस्त रूपी द्रव्यों को जानता- देखता है ।
(२) क्षेत्र से अवधिज्ञानी जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र को जानता देखता है । उत्कृष्ट अलोक में लोकपरिमित असंख्यात खण्डों को जानता - देखता है।
(३) काल से अवधिज्ञान जघन्य — एक आवलिका के असंख्यातवें भाग काल को जानता- देखता है । उत्कृष्ट — अतीत और अनागत—– असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी परिमाण काल को जानता व देखता है।
(४) भाव से अवधिज्ञानी जघन्यतः अनन्त भावों को जानता देखता है और उत्कृष्ट भी अनन्त भावों को जानता देखता है। किन्तु सर्व भावों के अनन्तवें भाग को ही जानता देखता
।
विवेचन — भाव से जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अनन्त भावों– पर्यायों को जानना कहा गया है किन्तु उत्कृष्ट पद में जघन्य की अपेक्षा अनन्तगुणी पर्यायों को जानना समझना चाहिए । अवधिज्ञानी पुद्गल की अनन्त पर्यायों को जानता व देखता है, किन्तु सर्वपर्यायों को नहीं। वह सर्व द्रव्यों को जानता व देखता है पर सर्वपर्याय उसका विषय नहीं है।
अवधिज्ञानविषयक उपसंहार
२६. ओहीभवपच्चतिओ, गुणपच्चतिओ य वण्णिओ एसो ।
तस्स य बहू वियप्पा, दव्वे खेत्ते य काले य ॥ से त्तं ओहिणाणं ।
२६—–यह अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक और गुणप्रत्ययिक दो प्रकार से कहा गया है। और उसके भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप से बहुत-से विकल्प ( भेद - प्रभेद) होते हैं।
विवेचन — पूर्वोक्त गाथाओं से अवधिज्ञान के भेदों के विषय में तथा उनमें से भी प्रत्येक के विकल्पों का निर्देश किया गया है ।
गाथा में आए हुए 'य' शब्द से भाव अर्थात् पर्याय ग्रहण करना चाहिए ।
अबाह्य-बाह्य अवधिज्ञान
२७. नेरइय-देव- तित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुंति । पासंति सव्वओ खलु सेसा देसेण पासंति ॥
से त्तं ओहिणाणपच्चक्खं ।
२७ –नारक, देव एवं तीर्थंकर अवधिज्ञान से युक्त (अबाह्य) ही होते हैं और वे सब दिशाओं तथा विदिशाओं में देखते हैं। शेष अर्थात् इनके सिवाय मनुष्य एवं तिर्यंच ही देश से देखते.. हैं। इस प्रकार अवधिज्ञान प्रत्यक्ष का वर्णन सम्पूर्ण हुआ ।