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[नन्दीसूत्र प्रश्न–अन्तगत अवधिज्ञान कौनसा है?
उत्तर—अन्तगत अवधिज्ञान तीन प्रकार का है—(१) पुरत:अन्तगत—आगे से अन्तगत (२) मार्गतः अन्तगत—पीछे से अन्तगत (३) पार्वतः अन्तगत—पार्श्व से अन्तगत।
प्रश्न—आगे से अन्तगत अवधिज्ञान कैसा है?
उत्तर—जैसे कोई व्यक्ति दीपिका, घास-फूस की पूलिका अथवा जलते हुए काष्ठ, मणि, प्रदीप या किसी पात्र में प्रज्वलित अग्नि रखकर हाथ अथवा दण्ड से उसे आगे करके क्रमशः आगे चलता है और उक्त पदार्थों द्वारा हुए प्रकाश से मार्ग में स्थित वस्तुओं को देखता जाता है। इसी प्रकार पुरतः-अन्तगत अवधिज्ञान भी आगे के प्रदेश में प्रकाश करता हुआ साथ-साथ चलता है।
प्रश्न मार्गतः अन्तगत अवधिज्ञान किस प्रकार का है?
उत्तर—जैसे कोई व्यक्ति उल्का, तृणपूलिका, अग्रभाग से जलते हुए काष्ठ, मणि, प्रदीप एवं ज्योति को हाथ या किसी दण्ड द्वारा पीछे करके उक्त वस्तुओं के प्रकाश से पीछे-स्थित पदार्थों को देखता हुआ चलता है, उसी प्रकार जो ज्ञान पीछे के प्रदेश को प्रकाशित करता है वह मार्गतः अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है।
प्रश्न—पार्श्व से अन्तगत अवधिज्ञान किसे कहते हैं?
उत्तर—पार्श्वतो अन्तगत अवधिज्ञान इस प्रकार जाना जा सकता है--जैसे कोई पुरुष दीपिका, चटुली, अग्रभाग से जलते हुए काठ को, मणि, प्रदीप या अग्नि को पार्श्वभाग से परिकर्षण करते (खींचते) हुए चलता है, इसी प्रकार यह अवधिज्ञान पार्श्ववर्ती पदार्थों का ज्ञाम कराता हुआ आत्मा के साथ-साथ चलता है। उसे ही पार्श्वतो अन्तगत अवधिज्ञान कहते हैं। कोई-कोई अवधिज्ञान क्षयोपशम की विचित्रता से एक पार्श्व के पदार्थों को ही प्रकाशित करता है, कोई-कोई दोनों पार्श्व के पदार्थों को।
यह अन्तगत अवधिज्ञान का कथन हुआ। तत्पश्चात् शिष्य ने पुनः प्रश्न किया—भगवन्! मध्यगत अवधिज्ञान कौन सा है?
उत्तर दिया_भद्र। जैसे कोई परुष उल्का. तणों की पलिका. अग्रभाग में प्रज्वलित काठ को, मणि को या प्रदीप को अथवा शरावादि में रखी हुई अग्नि को मस्तक पर रखकर चलता है। वह पुरुष उपर्युक्त प्रकाश के द्वारा सर्व दिशाओं में स्थित पदार्थों को देखते हुए चलता है। इसी प्रकार चारों ओर के पदार्थों का ज्ञान कराते हुए जो ज्ञान ज्ञाता के साथ चलता है उसे मध्यगत अवधिज्ञान कहा गया है।
विवेचन—यहाँ सूत्रकार ने आनुगामिक अवधिज्ञान और उसके भेदों का वर्णन किया है। आत्मा को जिस स्थान एवं भव में अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो यदि वह स्थानान्तर होने पर भी तथा दूसरे भव में भी आत्मा के साथ चला जाए तो उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं। इसके दो भेद हैं—अन्तगत और मध्यगत। यहाँ 'अन्त' शब्द पर्यंत का वाची है। यथा—'वनान्ते' अर्थात वन के