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ज्ञान के पांच प्रकार]
[३५ किसी छोर में। इसी प्रकार अन्तवर्ती आत्म-प्रदेशों के किसी भाग में विशिष्ट क्षयोपशम होने पर ज्ञान उत्पन्न होता है उसे अन्तगत अवधिज्ञान कहते हैं। कहा है-"अन्तगतम् आत्मप्रदेशानां पर्यन्ते स्थितमन्तगतम्।" जैसे गवाक्ष जाली आदि के द्वार से बाहर आती हुई प्रदीप की प्रभा प्रकाश करती हैं, वैसे अवधिज्ञान की समुज्ज्वल किरणें स्पर्द्धकरूप छिद्रों से बाह्य जगत् को प्रकाशित करती है। एक जीव के संख्यात तथा असंख्यात स्पर्द्धक होते हैं। उनका स्वरूप विचित्र प्रकार का होता है।
आत्मप्रदेशों के आखिरी भाग में जो अवधिज्ञान उत्पन्न होता है उसके अनेक प्रकार हैं। कोई आगे की दिशा को प्रकाशित करता है, कोई पीछे की, कोई दाईं और कोई वाईं दिशा को। कोई इनसे विलक्षण मध्यगत अवधिज्ञान होता है, जो सभी दिशाओं को प्रकाशित करता है।
अन्तगत और मध्यगत में विशेषता ११–अन्तगयस्स मज्झगयस्स य को पइविसेसो ? पुरओ अंतगएणं ओहिनाणेणं पुरओ चेव संखेन्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाणि जाणइ पासइ, मग्गओ अंतगएणं ओहिनाणेणं मग्गओ चेव संखेन्जाणि वा असंखेज्जाणि वा जोयणाणि जाइण पासइ, पासओ अंतगएणं ओहिणाणेणं पासओ चेव संखेन्जाणि वा असंखेन्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ, मझगएणं ओहिणाणेणं सव्वओ समंता संखेन्जाणि वा असंखेन्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ। से तं आणुगामियं ओहिणाणं।
११-शिष्य द्वारा प्रश्न अन्तगत और मध्यगत अवधिज्ञान में क्या अन्तर है?
उत्तर—पुरतः अवधिज्ञान से ज्ञाता सामने संख्यात अथवा असंख्यात योजनों में स्थित द्रव्यों को विशेष रूप से जानता है तथा सामान्य रूप से देखता है।
मार्ग से-पीछे से अन्तगत अवधिज्ञान द्वारा पीछे से संख्यात अथवा असंख्य योजनों में स्थित द्रव्यों को विशेष रूप से जानता है तथा सामान्य रूप से देखता है।
___पार्वतः अन्तगत अवधिज्ञान से पार्श्व (बगल) में स्थित द्रव्यों को संख्यात अथवा असंख्यात योजनों तक विशेष रूप में जानता व सामान्य रूप से देखता है। मध्यगत अवधिज्ञान से सभी चारों दिशाओं में स्थित द्रव्यों को संख्यात या असंख्यात योजनों तक विशेष रूप से जानना व सामान्य रूप से देखना है। इस प्रकार आनुगामिक अवधिज्ञान का वर्णन किया गया है।
विवेचन सूत्रकार ने अन्तगत और मध्यगत अवधिज्ञान में रहे हुए अन्तर को विस्तृत रूप से बताया है। अवधिज्ञान का विषय रूपी पदार्थ है। वह ऊँचे-नीचे तथा तिर्छ सभी दिशाओं में विशेष व सामान्य रूप से देख व जान सकता है।
मध्यगत अवधिज्ञान देवों, नारकों एवं तीर्थंकरों को निश्चित रूप से होता है, तिर्यंचों को केवल अन्तगत हो सकता है किन्तु मनुष्यों को अन्तगत तथा मध्यगत दोनों ही प्रकार का आनुगामिक अवधिज्ञान हो सकता है। प्रज्ञापनासूत्र के तेतीसवें पद में बताया गया है—नारकी, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को सर्वतः अवधिज्ञान होता है, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों को