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संघ महामन्दर स्तुति ]
अशुभ अध्यवसायों से रहित प्रतिक्षण कर्म - कलिमल के धुलने से तथा उत्तरोत्तर सूत्र और अर्थ के स्मरण करने से उदात्त चित्त ही उन्नत कूट हैं एवं शील रूपी सौरभ से परिव्याप्त संतोषरूपी मनोहर नन्दनवन है। संघ - सुमेरु में स्व-परकल्याण रूप जीव दया ही सुन्दर कन्दराएँ हैं । वे कन्दराएँ कर्मशत्रुओं को पराजित करने वाले तथा परवादी- मृगों पर विजयप्राप्त दुर्घर्ष तेजस्वी मुनिगण रूपी सिंहों से आकीर्ण हैं और कुबुद्धि के निरास से सैकड़ों अन्वयव्यतिरेकी हेतु रूप धातुओं से संघ रूप सुमेरु भास्वर है तथा विशिष्ट क्षयोपशम भाव जिनसे झर रहा है ऐसी व्याख्यान - शाला रूप कन्दराएँ देदीप्यमान हो रही हैं।
संघ - मेरु में आश्रवों का निरोध ही श्रेष्ठ जल है और संवर रूप जल के सतत प्रवहमान झरने ही शोभायमान हार हैं। तथा श्रावकजन रूपी मयूरों के द्वारा आनन्द-विभोर होकर पंच परमेष्ठी की स्तुति एवं स्वाध्याय रूप मधुर ध्वनि किये जाने से संघ - सुमेरु के कंदरा रूप प्रवचनस्थल मुखरित हैं ।
विनयगुण से विनम्र उत्तम मुनिजन रूप विद्युत् की चमक से संघ - मेरु के आचार्य उपाध्याय रूप शिखर सुशोभित हो रहे हैं। संघ - सुमेरु में विविध प्रकार के मूल और उत्तर गुणों से सम्पन्न मुनिवर ही कल्पवृक्ष हैं, जो धर्म रूप फलों से सम्पन्न हैं और नानाविध ऋद्धि-रूप फूलों से युक्त हैं। ऐसे मुनिवरों से गच्छ-रूप वन परिव्याप्त हैं ।
जैसे मेरु पर्वत की कमनीय एवं विमल वैडूर्यमयी चूला है, उसी प्रकार संघ की सम्यक्ज्ञान रूप श्रेष्ठ रत्न ही देदीप्यमान, मनोज्ञ, विमल वैडूर्यमयी चूलिका है। उस संघ रूप महामेरु गिरि के माहात्म्य को मैं विनयपूर्वक नम्रता के साथ वन्दन करता हूँ ।
विवेचन-प्रस्तुत गाथा में स्तुतिकार ने श्रीसंघ को मेरु पर्वत की उपमा से अलंकृत किया है । जितनी विशेषताएँ मेरु पर्वत की हैं उतनी ही विशेषताएँ संघ रूपी सुमेरु की हैं। सभी साहित्यकारों ने सुमेरु पर्वत का माहात्म्य बताया है । मेरु पर्वत जम्बूद्वीप के मध्य भाग में स्थित है, जो एक हजार योजन पृथ्वी में गहरा तथा निन्यानवै हजार योजन ऊँचा है। मूल में उसका व्यास दस हजार योजन है। उस पर चार वन हैं— (१) भद्रशाल, (२) सौमनस-वन, (३) नन्दन - वन (४) और पाण्डुक - वन । उसमें तीन कण्डक हैं— रजतमय, स्वर्णमय और विविध रत्नमय । यह पर्वत विश्व में सब पर्वतों से ऊँचा है । उसकी चालीस योजन की चूलिका (चोटी) है।
मेरु पर्वत की वज्रमय पीठिका, स्वर्णमय मेखला तथा कनकमयी अनेक शिलाएं हैं। दीप्तिमान उत्तुंग अनेक कूट हैं। सभी वनों में नन्दन विलक्षण वन है, जिसमें अनेक कन्दराएँ हैं और कई प्रकार की धातुएँ हैं । इस प्रकार मेरु पर्वत विशिष्ट रत्नों का स्रोत है । अनेकानेक गुणकारी औषधियों से परिव्याप्त है। कुहरों में अनेक पक्षियों के समूह हर्षनिनाद करते हुए कलरव करते हैं तथा मयूर नृत्य करते हैं। उसके ऊँचे-ऊँचे शिखर विद्युत् की प्रभा से दमक रहे हैं तथा उस पर वनभाग कल्पवृक्षों से सुशोभित हो रहा है । वे कल्पवृक्ष सुरभित फूलों और फलों से युक्त हैं इत्यादि विशेषताओं से महागिरिराज विराजमान है और वह अतुलनीय है । इसी पर्वतराज की उपमा से चतुर्विध संघ को उपमित किया गया है।
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