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संघ-सूर्य एवं संघ-समुद्र स्तुति]
[७. ९-हे तप प्रधान! संयम रूप मृगचिह्नमय! अक्रियावाद रूप राहु के मुख से सदैव दुर्द्धर्ष! अतिचार रहित सम्यक्त्व रूप निर्मल चाँदनी से युक्त! हे संघचन्द्र! आप सदा जय को प्राप्त करें।
विवेचन—प्रस्तुत गाथा में श्रीसंघ को चन्द्रमा की उपमा से अलंकृत किया गया है।
जैसे चन्द्रमा मृगचिह्न से अंकित है, सौम्य कान्ति से युक्त तथा ग्रह, नक्षत्र, तारों से घिरा हुआ होता है, इसी प्रकार श्रीसंघ भी तप, संयम, रूप चिह्न से युक्त है, नास्तिक व मिथ्यादृष्टि रूप राह से अग्रस्य अर्थात ग्रसित नहीं होने वाला है, मिथ्यात्व-मल से रहित एवं स्वच्छ निर्मल ! निरतिचार सम्यक्त्व रूप ज्योत्स्ना से सहित है। ऐसे संघ-चन्द्र की सदा जय विजय हो।
संघ-सूर्य की स्तुति १०. परतित्थिय-गहपहनासगस्स, तवतेय-दित्तलेसस्स।
नाणुजोयस्स जए, भदं दमसंघ-सूरस्स ॥ १०-प्रस्तुत गाथा में श्रीसंघ को सूर्य की उपमा से उपमित किया गया है।
परतीर्थ अर्थात् एकान्तवादी, दुर्नय का आश्रय लेने वाले परवादी रूप ग्रहों की आभा को निस्तेज करने वाले तप रूप तेज से सदैव देदीप्यमान, सम्यग्ज्ञान से उजागर, उपशम-प्रधान संघ रूप सूर्य का कल्याण हो।
विवेचन स्तुतिकार ने यहाँ संघ को सूर्य से उपमित किया है। जैसे सूर्योदय होते ही अन्य सभी ग्रह प्रभाहीन हो जाते हैं, वैसे ही श्रीसंघ रूपी सूर्य के सामने अन्य दर्शनकार, जो एकान्तवाद को लेकर चलते हैं, प्रभाहीन—निस्तेज हो जाते हैं। अतः साधक जीवों को चतुर्विध श्रीसंघ-सूर्य से दूर नहीं रहना चाहिए। फिर अविद्या, अज्ञान तथा मिथ्यात्व का अन्धकार जीवन को कभी भी प्रभावित नहीं कर सकता। अतः यह संघ-सूर्य कल्याण करने वाला है।
संघ-समुद्र की स्तुति ११. भदं धिई-वेला-परिगयस्स, सज्झाय-जोग-मगरस्स।
___अक्खोहस्स भगवओ, संघ-समुदस्स रुंदस्स॥ ११—जो धृति अर्थात् मूल गुण तथा उत्तर गुणों से वृद्धिंगत आत्मिक परिणाम रूप बढ़ते हुए जल की वेला से परिव्याप्त है, जिसमें स्वाध्याय और शुभ योग रूप मगरमच्छ हैं, जो कर्मविदारण में महाशक्तिशाली हैं, और परिषह, उपसर्ग होने पर भी निष्कंप-निश्चल है तथा समस्त ऐश्वर्य से सम्पन्न एवं विस्तृत है, ऐसे संघसमुद्र का भद्र हो।
विवेचनप्रस्तुत गाथा में श्रीसंघ को समुद्र से उपमित किया गया है। जैसे जलप्रवाह के बढ़ने से समुद्र में ऊर्मियाँ उठती हैं, और मगरमच्छ आदि जल-जन्तु उसमें विचरण करते हैं, वह अपनी मर्यादा में सदा स्थित रहता है। उसके उदर में असंख्य रत्नराशि समाहित है तथा अनेक नदियों का समावेश होता रहता है। इसी प्रकार श्रीसंघ रूप समुद्र में भी क्षमा, श्रद्धा, भक्ति, संवेग