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नन्दीसूत्र
अर्हत्स्तुति १. जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरू जगाणंदो।
- जगणाहो जगबंधू जयइ जगप्पियामहो भयवं॥ १–धर्मास्तिकाय आदि षड् द्रव्य रूप संसार के तथा जीवोत्पत्तिस्थानों के ज्ञाता, जगद्गुरु, भव्य जीवों के लिए आनन्दप्रदाता, स्थावर-जंगम प्राणियों के नाथ, विश्वबन्धु, लोक में धर्मोत्पादक होने से संसार के पितामह स्वरूप अरिहन्त भगवान् सदा जयवन्त हैं, क्योंकि उनको कुछ भी जीतना अवशेष नहीं रहा।
विवेचन—इस गाथा में स्तुतिकर्ता के द्वारा सर्वप्रथम शासनेश भगवान् अरिहन्त की तथा सामान्य केवली की मंगलाचरण के साथ स्तुति की गई है।
__ 'जयइ' पद से यह सिद्ध होता है कि भगवान् उपसर्ग, परिषह, विषय तथा घातिकर्मसमूह के विजेता हैं। अतएव वे अरिहन्त पद को प्राप्त हुए हैं और जिनेन्द्र भगवान् ही स्तुत्य और वन्दनीय हैं।
जो अतीत काल में एक पर्याय से दूसरे पर्याय को प्राप्त हुआ, वर्तमान में हो रहा है और भविष्य में होता रहेगा, वह जगत् कहलाता है। जगत् पंचास्तिकायमय या षड्द्रव्यात्मक है। यहाँ जीव शब्द से त्रस-स्थावररूप समस्त संसारी प्राणी समझना चाहिए।
'जीव'—पद यह बोध कराता है कि लोक में आत्माएँ अनन्त हैं और तीनों ही काल में उनका अस्तित्व है।
'जोणी'—पद का अर्थ है—कर्मबन्ध से युक्त जीवों के उत्पत्ति स्थान। ये स्थान चौरासी लाख हैं। संक्षेप में योनि के नौ भेद भी कहे गए हैं।
'वियाणओ'—पद से अरिहन्त प्रभु की सर्वज्ञता सिद्ध होती है जिससे वे लोक, अलोक के भाव जानते हैं।
'जगगुरू' इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् जीवन और जगत् का रहस्य अपने शिष्य-समुदाय को दर्शाते हैं अर्थात् बताते हैं। 'गु' शब्द का अर्थ अंधकार है और 'रु' का अर्थ उसे नष्ट करने वाला। जो शिष्य के अन्तर में विद्यमान अज्ञानान्धकार को नष्ट करता है, वह 'गुरु' कहलाता है।
___'जगाणंदो'–भगवान् जगत् के जीवों के लिए आनन्दप्रद हैं। 'जगत्' शब्द से यहाँ संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव समझना चाहिए, क्योंकि इन्हीं को भगवान् के दर्शन तथा देशनाश्रवण से आनन्द की प्राप्ति होती है।