Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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निशीथ : एक अध्ययन
प्रस्तुत ग्रन्थ:
आचारांग सूत्र की अन्तिम चूला 'पायारपकप्प' नाम की थी। जैसाकि उसके 'चूला नाम से प्रसिद्ध है, वह कभी आचारांग में परिशिष्ट रूप से जोड़ी गई थी। प्रतिपाद्य विषय की गोप्यता के कारण वह चूला 'निशीथ' नाम से प्रसिद्ध हुई, और आगे चलकर प्राचारांग से पृथक् एक स्वतंत्र शास्त्र बनकर 'निशीथ सूत्र' के नाम से प्रचलित होगई । प्रस्तुत ग्रन्थराज, उसी निशीथ सूत्र का संपादन तथा प्रकाशन है । प्रस्तुत प्रकाशन की विशेषता यह है कि इसमें मूल निशीथ सूत्र के अतिरिक्त उसकी प्राकृत पद्यमय 'भाष्य' नामक टीका है, जो अपने में 'नियुक्ति' को भी संमिलित किए हुए है। साथ ही भाष्य की व्याख्यास्वरूप प्राकृत गद्यमय 'विशेष चूर्णि' नामक टीका और चूणि के २०३ उद्देश की संस्कृत व्याख्या भी है। इस प्रकार निशीथ सूत्र का प्रस्तुत सम्पादन मूलसूत्र, नियुक्ति, भाष्य, विशेष चूणि और चूर्णि-व्याख्या का एक साथ संपादन है।
इसके संपादक उपाध्याय कवि श्री अमरमुनि तथा मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' ---मुनिद्वय हैं। इसके तीन भाग प्रथम प्रकाशित हो चुके हैं । यह चौथा भाग है । इस प्रकार यह महान् ग्रन्थ विद्वानों के समक्ष प्रथम बार ही साङ्गोपाङ्ग रूप में उपस्थित हो रहा है । इसके लिये उक्त मुनिद्वय का विद्वद्वर्ग चिरऋणी रहेगा । गोपनीयता के कारण हम लोगों के लिये इसकी उपलब्धि दुर्लभ ही थी । चिरकाल से प्रतीक्षा की जाती रही, फिर भी दर्शन दुर्लभ ! मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि प्रस्तुत ग्रन्थराज को इस भांति विद्वानों के लिए सुलभ बनाकर उक्त मुनिद्वय ने तथा प्रकाशक संस्था-सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा ने वस्तुतः अपूर्व श्रेय अजित किया है।
__ प्रस्तुत में इतना कहना आवश्यक है कि छेद ग्रन्थों के भाष्यों और चूणियों का संपादन अपने में एक अत्यन्त कठिन कार्य है । यह ठीक है कि सद्भाग्य से संपादन की सामग्री विपुल मात्रा में उपलब्ध है, किन्तु यह सामग्री प्राचुर्य जहाँ एक ओर संपादक के कार्य को निश्चितता की सीमा तक पहुँचाने में सहायक हो सकता है, वहाँ दूसरी ओर संपादक के धैर्य
और कुशलता को भी परीक्षा की कसौटी पर चढ़ा देता है। प्रसिद्ध छेद सूत्र-दशा', कल्प, व्यवहार और निशीथ तथा पंचकल्प का परस्पर इतना निकट सम्बन्ध है कि कुशल संपादक
१. विजयकुमुद सूरि द्वारा संपादित होकर प्रकाशित है। २. 'वृहत्कला' के नाम से मुनिराज श्री पृण्य विजय जी ने यः भागों में संपादित करके प्रकाशित
कर दिया है। ३. श्री माणेक मुनि ने प्रकाशित कर दिया है । किन्तु वह प्रत्यन्त प्रशुद्ध है, अत: पुन: संपादन
पावश्यक है।
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