Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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अहिंसा के उत्सर्ग अपवाद : जिन्होंने गच्छ छोड़ कर जिनकल्प स्वीकार कर लिया हो, वे एकाकी निष्ठावान् श्रमण, ऐसा नहीं कर सकते। उन्हें तो उक्त प्रसंगों पर अपनी मृत्यु ही स्वीकार होती थी, किन्तु किसी को कुछ भी अपनी प्रोर से कष्ट पहुँचाना स्वीकार नहीं था और न वह शास्त्र-विहित ही था। इस प्रकार अहिंसा में पूर्ण निष्ठा रखने वाले श्रमणों की भी कमी नहीं थी। किन्तु जब यह देख लिया जाता कि अन्य समर्थ श्रमण-संघ की रक्षा करने के योग्य हो गये हैं, तभी ऐसे निष्ठावान् श्रमण को संघ से पृथक होकर विचरण करने की आज्ञा मिल सकती थी, और वह भी जीवन के अन्तिम वर्षों में'। तात्पर्य यह है कि जब तक संघ में रहे, संयमी के लिए शासन और संघ की रक्षा करना-प्रावश्यक कर्तव्य है, और एतदर्थ यथाप्रपंग व्यक्तिगत साधना को गोण भी करना होता है। जब संघ से पूर्णतया पृथक् हो जाए, तभी व्यक्तिगत साधना का चरमविकास किया जा सकता है। अर्थात् फलितार्थ रूप में यह मान लिया गया कि व्यक्तिगत विकास की चरम पराकाष्ठा संघ में रहकर नहीं हो सकती। संघ में तो व्यक्तिगत विकाम की एक अमुक मर्यादा है।
यहाँ पर यह भी ध्यान देने की बात है कि व्याख्याकार ने जिन अपवादों का उल्लेख किया है, जिनके पाचरण करने पर भी प्रायश्चित्त न लेने की प्रेरणा की है, यदि उन अपवादों को हम सूत्रों के मूल शब्दों में खोजें तो नहीं मिलेंगे। फिर भी शब्द की अपेक्षा अर्थ को ही अधिक महत्त्व देने की मान्यता के आधार पर, व्याख्याकारों ने शब्दों से ऊपर उठकर अपवादों की सृष्टि की है। अपवादों की प्राज्ञा देते समय कितनी ही बार औचित्य का सीमातीत भंग किया गया है, ऐसा आज के वाचक को अवश्य लगेगा। किन्तु उक्त अपवादों की पृष्ठभूमि में तत्कालीन संघ की मनःस्थिति का ही चित्रण हमें मिलता है; अत: उन अपवादों का प्राज के अहिंसक समाज की दृष्टि से नहीं, अपितु तत्कालीन समाज की दृष्टि से ही मूल्यांकन करना चाहिए । संभव है आज के समाज की अहिंसा तत्कालापेक्षया कुछ अधिक सूक्ष्म और सहज हो गई हो ; किन्तु उस समय के प्राचार्यों के लिये वही सब कुछ करना उचित रहा हो। मात्र इसमें आज तक की अहिंसा की प्रगति का ही दर्शन करना चाहिए, न कि यह मान लेना चाहिए कि जीवन में उस समय अहिंसा अधिक थी और आज कम है; अथदा यह भी नहीं समझ लेना चाहिए कि संपूर्ण अहिंसा का परिपालन आज के युग में नहीं हो सकता है, जोकि पूर्व युग में हुप्रा है। और यह भी नहीं मान लेना चाहिए कि हम अाज अहिंसा का चरम विकास जितना सिद्ध कर सके हैं, उप काल में वह विकास उतना नहीं था। भेद वस्तुतः यह है कि आज समुदाय की दृष्टि से भी अहिंसा किस प्रकार उत्तरोत्तर बढ़ सकती है, यह अधिक सोचा जाता है। व्यक्तिगत दृष्टि से तो पूर्वकाल में भी संपूर्ण अहिंसक व्यक्ति का मिलना संभव था, और आज भी मिलना संभव है। किन्तु अहिंसक समाज की रचना किस प्रकार हो सकती है-इस समस्या पर गांधी जी द्वारा उपदिष्ट सत्याग्रह के बाद अधिक विचार होने लगा है-यही नई बात है। समग्र मानव समाज में, युद्ध-शक्ति का निराकरण करके प्रात्म-शक्ति का साम्राज्य किस प्रकार स्थापित हो-यह आज की समस्या है। और आज के मानव ने अपना केन्द्र बिन्दु.
१. बृ० भा० गा० १३५८ से । संघ की उचित व्यवस्था किये बिना जितकल्पी होने पर प्रायश्चित्त
लेना पड़ता था-नि० गा० ४६२६, ६० गा० १०६३ ।।
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