Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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पाहार और प्रौषध के अपवाद : में कम दोष है और मांस लेने में अधिक दोष; क्योंकि परिचित जनों के यहाँ से मांस लेने पर निन्दा होती है। किन्तु जहाँ के लोगों को यह ज्ञान नहीं कि 'जैन श्रमण मांस नहीं खाते', वहाँ मांस का ग्रहण करना अच्छा है और प्राधाकर्म-दूषित आहार लेना अधिक दोषावह है। क्योंकि प्राधाकर्मिक आहार लेने में जीवधात है। अतएव ऐसे प्रसंग में सर्वप्रथम द्वीन्द्रिय जीवों का मांस ले, उसके अभाव में क्रमश: त्रीन्द्रिय आदि का। इस विषय में स्वीकृत साधुवेश में ही लेना या वेष बदलकर, इसकी भी चर्चा है' । उक्त समग्र चर्चा का सार यह है कि जहाँ अपनी आत्मसाक्षी से ही निर्णय करना है और लोकापवाद का कुछ भी डर नहीं है, वहाँ गोचरीसम्बन्धी नियमों के पालन का ही अधिक महत्व है। अर्थात् औद्देशिक फलाहार की अपेक्षा मांस लेना, न्यून दोषावह, समझा जाता है-ऐसी स्थिति में साधक की अहिंसा कम दूषित होती है । यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जबकि फासुग-चित्त वस्तु मांसादि का सेवन भी अपने बलवीय की वृद्धि निमित करना अप्रशस्त है, तो जो प्राधाकर्मादि दोष से दूषित अविशुद्ध भोजन करता है, उसका तो कहना ही क्या ? अर्थात् वह तो अप्रशस्त है ही। इससे यह भी सिद्ध होता है कि मांस को भी फासुग-प्रचित माना गया है ।
इस प्रसंग में निशीथगत विकृति की चर्चा भी उपयोगी सिद्ध होगी। निशीथ सूत्र में कहा गया है कि जो भिक्षु प्राचार्य तथा उपाध्याय की प्राज्ञा के बिना विकृत-विगय का सेवन करता है, वह प्रायश्चित्त-भागी होता है (उ० ४. सू० २१)। निशीथ नियुक्ति में विकृति की गणना इस प्रकार है
तेल, घृत, नवनीत-मक्खन, दधि, फाणिय-गुड, मद्य, दूध, मधु, पुग्गल-मांस और चलचल प्रोगाहिम ( गा० १५६२-६३)
योगवाही भिक्ष के लिये अर्थात् शास्त्र पठन के हेतु तपस्या करने वाले के लिये कहा गया है कि जो कठिन शास्त्र न पढ़ता हो, उसे प्राचार्य की आज्ञा पूर्वक दशों प्रकार की विकृति के सेवन की भजना है। अर्थात् प्राचार्य जिसकी भी आज्ञा दे, सेवन कर सकता है। किन्तु अपवाद मार्ग में तो कोई भी स्वाध्याय करने वाला किसी भी विकृति का सेवन कर सकता है ( नि० गा० १५६६ )।
विकृति के विषय में निशीथ में अन्यत्र भी चर्चा है। कहा गया है कि विकृति दो प्रकार की है-(१) संचतिया और (२) असंचतिया । दूध, दधि, मांस और मक्खन-ये असंचतिया विकृति हैं । और किसी के मत से प्रोगाहिम भी तदन्तर्गत है। शेष विकृति, संचतिया कही गई हैं । और उनमें मधु, मांस और मद्य को अप्रशस्त विकृति भी कहा गया है (नि० चू० गा० ३१६७ ) । यह भी स्पष्ट किया गया है कि विकृति का सेवन साधक की आत्मा को विकृत बना
१. नि० गा० ४३६-३६, ४४३-४४७ । २. नि० च० गा० ४६६ । ३. पकाने के लिये तवे पर प्रथमवार रखा गया तप्त घृत । जिसमें तीन बार कोई वस्तु तली न
जाय, तब तक वह विकृत है।
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