Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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निशीथ : एक अध्ययन व्यक्तिगत अहिंसा से हटाकर प्रस्तुत सामूहिक हिसा में स्थिर किया है-यही पाज के अहिंसाविचार की विशेषता है। आहार और औषध के अपवाद :
अब कुछ आहार-विषयक अपवादों की चर्चा की जाती है। यह विशेषतः इसलिये यावश्यक है कि जैन समाज में आहार के प्रश्न को लेकर बारबार चर्चा उठती है और वह सदैव अाज के जैन समाज के ग्राहार-सम्बन्धी प्रक्रिया को समक्ष रखकर होती है। जैन-समाज ने आहार के विषय में दीर्घकालीन अहिंसा की प्रगति के फलस्वरूप जो पाया है वह उसे प्रारंभकाल में ही प्राप्त था, उक्त मान्यता के अाधार पर ही प्रायः प्रस्तुत चर्चा का सूत्रपात होता है। अतएव यह आवश्यक है कि उक्त मान्यता का निगकरण किया जाए और आहारविषयक सही मान्यता उपस्थित की जाए और आज के समाज की दृष्टि से पूर्वकालीन समाज पाहार के विषय में अहिंसा की दृष्टि से कितना पश्चात्ताद था- यह भी दिखा दिया जाए। आज का जैन साधु अपवाद की स्थिति में भी मांसाहार ग्रहण करने की कल्पना तक को असह्य समझता है, तो लेने की बात तो दूर ही है। अतएव ग्राज का भिक्ष 'प्राचीनकाल में कभी जैन भिक्षु भी प्रापवादिक स्थिति में मांस ग्रहण करते थे'-इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
पाहार का विचार करते समय दो बातों का विचार करना आवश्यक है । एक तो यह कि कौनसी वस्तु साधु को आहार में लेने योग्य है ? अर्थात् शाकाहार या मांसाहार दो में से साधु किसे प्रथम स्थान दे ? दूसरी बात यह है कि वह गोवरी या पिण्डैषणा के प्राधाकर्म वर्जन आदि नियमों को अधिक महत्त्व के समझे या वस्तु को? अर्थात् अहिंसा के पालन की दृष्टि से "साधु अपने लिये बनी कोई भी चीज, चाहे वह शाकाहार-सम्बन्धी वस्तु हो या मांसाहार-सम्बन्धी, न लें' इत्यादि नियमों को महत्त्व दे अथवा पाहार की वस्तु को ? ...
वस्तु-विचार में यह स्पष्ट है कि साधु के लिये यह उत्सर्ग मार्ग है कि वह मद्य-मांस आदि वस्तुओं को आहार में न ले। अर्थात् उक्त दोषपूर्ण वस्तुओं की गवेषणा न करे और कभी कोई देता हो तो कह दे कि ये वस्तुएं मेरे लिये प्रकल्प्य हैं । और यह भी स्पष्ट है कि भिक्षु का उत्सर्ग मार्ग तो यही है कि वह पिण्डैषणा के नियमों का यथावत् पालन करे । अर्थात् अपने लिये बनी कोई भी चीज न ग्रहण करे। तारतम्य का प्रश्न तो अपवाद मार्ग में उपस्थित होता है कि जब अपवाद मार्ग का अवलम्बन करना हो, तब क्या करे ? क्या वह वस्तु को महत्व दे या नियमों को? निशीथ में रात्रि भोजन सम्बन्धी अपवादों के वर्णन प्रसंग में जो कहा गया है, वह प्रस्तुत में निर्णायक हो सकता है । अतएव यहाँ उसकी चर्चा की जाती है। कहा गया है कि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक का मांस हो तो अल्पेन्द्रिय जीवों का मांस लेने में कम दोष है
और उत्तरोत्तर अधिकेन्द्रिय जीवों का माँस ग्रहण करने में उत्तरोत्तर अधिक दोष है । जहाँ के लोगों को यह पता हो कि 'जैन श्रमण मांस नहीं लेते' वहाँ प्राधाकर्म-दूषित अन्य पाहार लेने १. दश वै० ५.७३, ७४; गा० ७३ के 'पुग्गल' शब्द का अर्थ 'मांस' है। इसका समर्थन निशीथ
चूणि से भी होता है-गा० २३८, २८८, ६१०० ।
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