Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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निशीथ : एक अध्ययन जाति-जु गित में कोलिग जाति-विशेष णेक्कार का और वरुड़ का समावेश किया है ( नि. गा. ३७०७ ) । चूणिकार ने मतान्तर का निर्देश किया है, जिसके अनुसार लोहार, हरिएस. चांडाल।, मेया, पाणा, मागासवासि, डोम्ब, वरुड (सूप आदि बनाने वाले ), तंतिवरत्ता, उवलित्ता-ये सत्र जुगित जाति हैं (नि० गा० ३७८७ चू०)। भाष्यकार ने कम्म-जु गित में और भी कई जातियों का समावेश किया है-पोषक (स्त्री. मयूर और कुक्कुट के पोषक-चूर्णि), संपरा (एहाविगा और सोधगा-चू०), नट, लंख (बांस पर नाचने वाले-चू०), वाह (व्याध) (मृगलुब्धक, बागुरिया, सुगकारगा-चू०), सोगरिया (शौकरिक ) (खटिका-चू०), मच्छिगा ( माछीमार), (नि. गा० ३७०८)।
ये जु गित यदि महाजन के साथ या ब्राह्मण के साथ भोजन करने लग जाएं, और शिल्प तथा कर्म-जु गित यदि अपना धंधा छोड़ दें, तो दीक्षित हो सकते हैं। अतएव इन्हें इत्वरिक जु गित कहा गया है । (नि० गा० ३७११, १६१८) ।
प्रसंगतः इन जातियों का भी उल्लेख है - भड, णट्ट, चट्ट, मेंठ, ग्रारामिया, सोल्ल, घोड, गोवाल, चक्किय, जंति और खरग (नि० गा० ३५८५ चू०)। ये सब भी हीन कुल ही माने जा रहे थे। अन्यत्र णड, वरुड, छिपग, चम्मार, और डम्ब का उल्लेख है-गा० ६२६४ चू० ।
मालवक स्तेनों (चोरों ) का बार बार उल्लेख है। उन्हें मालवक नामक पर्वत के निवासी बताया गया है-गा० १३३५ ।
जाति का सम्बन्ध माता से है और कुल का सम्बन्ध पिता से है । जाति और कुलों के अपने आजीविका-सम्बन्धी साधन भी नियत थे। कोई कर्म से, तो कोई शिल्प से आजीविका चलाते थे। कर्म वह है, जो बिना गुरु के सीखा जा सके-जैसे, लकड़ी एकत्र करके आजीविका चलाना। और शिल्प वह है, जिसे गुरुपरंपरा से ही सीखना होता है-जैसे, गृह-निर्माण प्रादि । इसी प्रकार मल्ल आदि गणों की आजीविका के साधन भी अपने अपने गणों के अनुसार होते थे। (नि० गा०४४१२-१६ )।
___ व्यापारी वर्ग के दो प्रकार निर्दिष्ट हैं--जो दूकान रख कर व्यापार करे, वह 'वणि' ; और जो बिना दूकान के व्यापार करे, वह 'विवणि'-नि. गा० ५७५० चू०।
'सार्थ' के पाँच प्रकार बताये गये हैं :(१) 'भंडी' गाडियाँ लेकर चलने वाला।
( २ ) 'बहिलग' बैल आदि भारवाही पशुओं को लेकर चलने वाला। इसमें ऊंट, हाथी और घोड़े भी होते थे-(नि० गा० ५६६३; बृ० ३०७१) 1
(३) 'भारवहा'-गठरी उठाकर चलने वाले मनुष्य, जो 'पोट्टलिया' कहे जाते थे । ये तीनों प्रकार के साथ अपने साथ विक्रय की वस्तुएं ले जाते थे, और गन्तव्य स्थान में बेचते थे। और अपने साथ खाने-पीने की सामग्री भी रखते थे।
१. नि० गा० ५६५८ से; वृ० ३०३६ से ।
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