Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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सम्पादकीय
प्राचीन जैन आगम साहित्यः
प्राचीन भारतीय वाङ्मय में जैन पागम साहित्य का अपना एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है । वह स्थूल अक्षरदेह से जितना विराट् एवं विशाल है, उतना हो, अपितु उससे भी कहीं अधिक, सूक्ष्म अन्तर् विचार चेतना से महान् है, महत्तर है। भारतीय चिन्तन क्षेत्र से जैन आगमसाहित्य को यदि कुछ क्षण के लिए एक किनारे कर दिया जाए तो भारतीय चिन्तन की चमक कम हो जाएगी और वह एक प्रकार से धुंधला-मा मालूम पड़ेगा। इसका एक कारण है। जैन आगम साहित्य केवल कल्पना की उड़ान नहीं है, केवल बौद्धिक विलास नहीं है, केवल मत-मतान्तरों के खण्डन-मण्डन का तर्क - जाल नहीं है ; वह है ज्ञान सागर के मन्थन मे समुद्भूत जीवन-स्पर्शी अमृत रस । इसकी पृष्ठभूमि में त्याग वैराग्य का अखण्ड तेज चमकता है आत्म-साधना का अमर स्वर गूजता है, और मानवीय सद्गुणों के प्रतिष्ठान की मोहक सुगन्ध महकती है। ..
___ अागम दर्शन-शास्त्र ही नहीं, साधना शास्त्र भी हैं । जनागमों के पुरस्कर्ता मात्र दार्शनिक ही नहीं, साधक रहे है। उन्होंने अपने जीवन का एक बहुत बड़ा भाग साधना में गुजारा है। अपने अन्तर्मन को साधना की अग्नि में तपाया है, उसे निर्मल बनाया है । क्या आश्रव है, क्या संवर है, क्या संमार है, क्या मोक्ष है - यह सब जाँचा है, परखा है। अहिंसा और सत्य के विचारों को प्राचार के रूप में उतारा है, और अन्ततः प्रात्मा में परमात्म - भाव के अनन्त ऐश्वर्य का साक्षात्कार किया है। यही कारण है कि प्रागमसाहित्य में साधना के क्रमबद्ध चरण-चिन्ह मिलते है । यह ठीक है कि प्राचीन वैदिक साहित्य भी भारतीय जन-जीवन की दिव्य झांकी प्रस्तुत करता है । परन्तु वेद और ब्राह्मण आध्यात्मिक चिन्तन की अपेक्षा देव-स्तुतिपरायण अधिक है। उनमें आत्म चिन्तन की अपेक्षा लोक-चिन्तन का स्वर अधिक मुखर है । उपनिषद् आध्यात्मिक चिन्तन की ओर अग्रसर अवश्य हुए है किन्तु वे भी आत्म-साधना का कोई खाम वैज्ञानिक विश्लेषण उपस्थित नहीं कर पाए। उपनिषदों का ब्रह्मवाद और आत्म-चिन्तन दार्शनिक चर्चा के लौह प्रावरण में ही आबद्ध रहता है, वह सर्वसाधारण जनता को प्रात्म-निर्माण की कला का कोई विशिष्ट देखा-परखा व्यवहार-सिद्ध मार्ग नहीं बतलाता। किन्तु आगम साहित्य इस सम्बन्ध में अधिक स्पष्ट है। वह जितनी ऊँचाई पर माधना का विचारपक्ष प्रस्तुत करता है. उतनी ही ऊँचाई पर उसका प्राचारपक्ष भी उपस्थित करता है । आगम साहित्य बतलाता है-साधक कैसे चले, कैसे खडा हो, कैसे बैठे, कैसे सोए. कैसे खाए, कैसे बोले, कैसे जीवन की दैनिक चर्या का अनुगमन करे, जिससे कि आत्मा पाप कर्म से लिप्त न हो, भव-भ्रमण से भ्रान्त न हो । यह बात अन्यत्र दुर्लभ है । दर्शन और जीवन का विचार और प्राचार का. भावना और कर्तव्य का. यदि किसी को सर्वसुन्दर एवं साथ ही बैज्ञानिक ममन्वय देखना हो, तो वह जैन आगमों में देख सकता है।
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