Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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हिंसा के उत्सर्ग- अपवाद :
श्रहिंसा के उत्सर्ग - अपवाद :
संयमी जीवन का सर्वस्व अहिंसा है - ऐसा मानकर सर्व प्रथम संयमी जीवन के जो भी नियमोपनियम बने, उन सब में यही ध्यान रखा गया कि साधक का जीवन ऐसा होना चाहिए कि जिसमें हिंसा का श्राश्रमं न लेना पड़े। इसी दृष्टि से यह भी श्रावश्यक समझा गया कि संयमी के पास अपना कहने जैसा कुछ भी न हो। क्योंकि समग्र हिंसा के मूल में परिग्रह का पाप है । अतएव यदि सब प्रकार के परिग्रह से मुक्ति ली जाए, तो हिंसा का संभव कम से कम रह जाए । इस दृष्टि से सर्व प्रथम यह आवश्यक माना गया कि संयमी अपना परिवार और निवास स्थान छोड़ दे। अपनी समस्त संपत्ति का परित्याग करे, यहाँ तक कि शरीराच्छादन के लिए आवश्यक वस्त्र तक का परित्याग कर दे । अन्ततः साधना का अर्थ यही हुआ कि सब कुछ त्याग देने पर भी प्रात्मा का जो शरीर रूप परिग्रह शेष रह जाता है, उसका भी परित्याग करने की प्रक्रियामात्र है। प्रर्थात् दीक्षित होने के बाद लंबे काल तक की मारणांतिक आराधना का कार्यक्रम ही जीवन में शेष रह जाता है। इस आराधना में राग द्वेष के परित्याग-पूर्वक शरीर के ममत्व का परित्याग करने का ही अभ्यास करना पड़ता है। ज्ञान, ध्यान, जप, तप प्रादि जो भी साधना के अंग हैं, उन सबका यही फल होता है कि श्रात्मा से शरीर का संबंध सर्वथा छूट जाए।
सावना, आत्मा को शरीर से मुक्त करने की एक प्रक्रिया है । किन्तु, आत्मा और शरीर का सांसारिक अवस्था में ऐसा तादात्म्य हो गया होता है कि शरीर की हठात् सर्वथा उपेक्षा करने पर ग्रात्म-लाभ के स्थान पर हानि होने की ही अधिक संभावना है । इस दृष्टि से दीर्घकाल तक जो साधना करनी है, उसका एक साधन शरीर भी है, (दश वै०५, ९२ ) ऐसा माना गया । अतएव उतनी ही हद तक शरीर की रक्षा करना अनिवार्य है, जितनी हद तक वह साधना का साधन बना रहता है। जहाँ वह साधना में बाधक हो, वहाँ उसकी रक्षा त्याज्य है; किन्तु साधन का सर्वथा परित्याग कर देने पर साधना संभव नहीं - यह भी एक ध्रुव सत्य है । अतएव ग्रात्म शुद्धि के साथ-साथ शरीर शुद्धि की प्रक्रिया भी अनिवार्य है । ऐसा नहीं हो सकता कि साधना स्वीकृति के प्रथम क्षण में ही शरीर की सर्वथा उपेक्षा कर दी जाए । निष्कर्ष यही निकला कि सर्वस्व त्यागी संयमी जीवन-यापन की दृष्टि से ही प्रहार ग्रहण करेगा, न कि शरीर की या रसास्वादन की पुष्टि के लिए । ग्राहार जुटाने के लिए जो कार्य या व्यापार एक गृहस्थ को करने पड़ते हैं, यदि साधक भी, वे ही सब कुछ करने लगे, तब तो वह पुनः सांसारिक प्रपंच में ही उलझ जाएगा । इस दृष्टि से यह उचित माना गया कि संयमी अपने आहार का प्रबंध माधुकरी वृत्ति से करे ( दशवै ० १ २-५ ) । इस वृत्ति के कारण जैसा भी मिले, या कभी नहीं भी मिले, तब भी उसे समभाव पूर्वक ही जीवन यापन करना चाहिए, यही
१. 'अहिंसा निउणा दिट्ठा सव्वभूएस संजमो' ६.१० ।
सब्वे जीवा वि इच्छंति जीविउ न मरिज्जिउ ।
तम्हा पाणिवहं घोरं निग्गंथा वज्जयंति णं ।। ६.११ ।। दशवे०
दश वं० ४.१७-१८ ।
२.
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