Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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निशीथ : एक अध्ययन
साधक की आहार विषयक साधना है । उक्त साधना के मुख्य नियम यही बने कि वह अपने लिये बनी कोई भी वस्तु भिक्षा में स्वीकार न करे, और न अपने लिये आहार की कोई वस्तु स्वयं ही तैयार करे। दी जाने वाली वस्तु भी ऐसी होनी चाहिए जो शरीर की पुष्टि में नहीं; किन्तु जीवन-यापन में सहायक हो अर्थात् रूखा-सूखा भोजन ही ग्राह्य है । और खास बात यह है कि वह ऐसी कोई भी वस्तु आहार में नहीं ले सकता, जो सजीव हो या सजीव से सम्बन्धित हो। इतना ही नहीं, किन्तु भिक्षाटन करते समय यदि संयमी से या देते समय दाता से, किसी को किसी प्रकार का कष्ट हो, जीव- हिंसा की संभावना हो तो वह भिक्षा भी स्वीकरणीय नहीं है। इतना ही नहीं, दाता के द्वारा पहले या पीछे किसी भी समय यदि भिक्षु के निमित्त हिंसा की संभावना हो तो वह इस प्रकार की भिक्षा भी स्वीकार नहीं करेगा । इत्यादि मुख्य नियमों को लक्ष्य में रखकर जो उपनियम बने, उनकी लम्बी सूचियाँ शास्त्रों में हैं ( दशवें० प्र० ५ ); जिन्हें देखने से यह निश्चय होता है कि उन सभी नियमोपनियमों के पीछे अहिंसा का सूक्ष्मतम दृष्टिकोण रहा हुआ है । अस्तु जहाँ तक संभव हो, हिंसा को टालने का पूरा प्रयत्न है ।
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ग्राहार-विषयक नियमोपनियमों का ग्रथवा उत्सर्ग अपवाद-विधि का विस्तार आचारांग, दशवैकालिक, बृहत्कल्प, कल्प आदि में है; किन्तु वहाँ प्रायश्चित्त की चर्चा नहीं है । प्रायश्चित्त की प्राप्ति प्रर्थतः फलित होती है । किन्तु क्या प्रायश्चित हो, यह नहीं बताया गया । निशीथ मूल सूत्र में ही तत्तत् नियमोपनियमों की क्षति के लिये प्रायश्चित्त बताया गया है" । साथ ही नियुक्ति, भाष्य तथा चूर्णिकारों के लिये यह भी श्रावश्यक हो गया कि प्रत्येक सूत्र की व्याख्या के समय और प्रायश्चित्त का विवरण देते समय यह भी बता दिया जाए कि नियम के भंग होने पर भी, क्रिस विशेष परिस्थिति में साधक प्रायश्चित्त से मुक्त रहता है- अर्थात् बिना प्रायश्चित्त ही शुद्ध होता है ।
आहार विषयक उक्त नियमों का सर्जन श्रौत्सर्गिक अहिंसा के आधार पर किया गया है । अतएव हिंसा के अपवादों को लक्ष्य में रखते हुए आहार के भी अपवाद बनाये जाएँ यह स्वाभाविक है | स्वयं अहिंसा के विषय में भी अनेक अपवाद हैं. किन्तु हम यहाँ कुछ की ही चर्चा करेंगे, जिससे प्रतीत होगा कि जीवन में अहिंसा का पालन करना कितना कठिन है और मनुष्य ने अहिंसा के पालन का दावा करके भी क्या क्या नहीं किया ?
हिंसा की चर्चा करते हुए कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति अपने विरोधी का पुतला बनाकर उसे मर्माहत करे तो वह दर्पप्रतिसेवना है - अर्थात् हिंसा है । किन्तु धर्म-रक्षा के
१२. ४, १४-१५,
१. नि०सू० २. ३२-३६, ३८-४६; ३. १-१५; ४. १६-२१, ३५-३६, ११२, ५. १३-१४, ३४-३५; ८. १४-१८; ६. १-२, ६ ११. ३, ६, ७२-८१; ३०-३१, ४१; १३. ६४-७८; १५. ५ १२, ७५-८६; ३३-३७; १७. १२४-१३२; १८. २०-२३; १६ १७ ।
१६.
४-१३, १६-१७, २७,
नि० गा० १५५ ।
२.
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