Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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निशीथ : एक अध्ययन दिगम्बरों के यहाँ केवल १४ ग्रन्थों को ही अंगबाह्य बताया गया है, और उन चौदह में छः तो प्रावश्यक के छः अध्ययन ही हैं । ऐसी स्थिति में निशीथ को प्राचीनता स्वतः सिद्ध हो जाती है । और इस पर से यह भी संभवित है कि वह श्वेताम्बर-दिगम्बर के भेद के बाद ही कभी आचारांग का अंश माना जाने लगा हो । निशीथ के कर्ता :
आचारांग की नियुक्ति में तो प्राचारांग की चूलिकामों के विषय में स्पष्टरूप से कहा गया है कि
"थेरेहिऽण गहहा सीसहि होउ पागडत्य च। प्रायारामो प्ररथो प्रायारम्गेसु पविभत्तो ॥"
-प्राचा०नि० २८७ अर्थात् प्राचाराग्र-प्राचारचूलिकाओं के विषय को स्थविरों ने प्राचार में से ही लेकर शिष्यों के हितार्थ चूलिकानों में प्रविभक्त किया है।
स्पष्ट है कि गणधरकृत' प्राचार के विषय को स्थविरों ने याचारांग की चूलानों में संकलित किया है । प्रस्तुत में 'प्राचार' शब्द के दो अर्थ किये जा सकते हैं। प्रथम की चार चूला तो प्राचार अंग में से संकलित की गई हैं, किन्तु पांचवीं चूला आयारपकप्प-निशीथ, प्रत्याख्यान नामक पूर्व की प्राचारवस्तु नामक तृताय वस्तु के वीसवें प्राभृत में से संकलित है। अर्थात् आचार शब्द से प्राचारांग और प्राचारवस्तु- ये दोनों अर्थ अभिप्रेत हों , यह संभव है। ये दोनों अर्थ इसलिये संभव हैं कि नियुक्तिकार प्रथम चार चूलाओं के आधारभूत प्राचारांग के तत्तत् अध्ययनों का उल्लेख करने के अनन्तर लिखते हैं कि
"मायारपकप्पो पुण पञ्चक्खाणस्स तइयवत्थूरो। अायारनामधिज्जा वीसइमा पाहुढच्छेया ॥3
- प्राचा० नि० गा० २८१ पूर्वोक्त आचारांग-नियुक्ति की 'थेरेहि' (गा० २८७) इत्यादि गाथा के 'स्थविर' शब्द की व्याख्या शीलांक ने निम्न प्रकार से की है-"तत्र इदानी वायं- केनैतानि नियूढानि, किमय, कुतो वेति । अत प्राह -'स्थविरै': अतवृद्धश्चतुर्दशपूर्वविदि नियूं ढानि-- इति"। उक्त कथन पर से हम कह सकते हैं कि शोलांक के कथनानुसार आचार चूला-निशीथ के कर्ता स्थविर थे, और वे चतुर्दश पूर्वविद् थे। किन्तु प्राचारांग-चूणि के कर्ता ने प्रस्तुत गाथा में पाए 'स्थविर' शब्द का अर्थ 'गणधर' लिया है-"एयाणि पुण प्राधारम्गाशि प्रायारा व निज्जूढाणि । केण णिज्जूढाणि ? थेरेहि (२८७) धेरा--गणधरा।" - प्राचा० चू० पृ० ३२६
१. प्राचा०नि० चू० और टी०८ २. प्राचा०नि० गा० २८८-२६० । ३. इसी का समर्थन व्यवहार भाष्य से भी होता है-व्यव० विभाग २, गा० २५४
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