Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
View full book text
________________
१६
निशीथ : एक अध्ययन ___ अब इस प्रश्न पर विचार करें कि केवल इसी चूला को पृथक् क्यों किया गया ? और कब किया गया ? नाम से सूचित होता है कि यह ग्रन्थ रहस्यरूप है-- गुप्त रखने योग्य है । और यह भी कहा गया है कि यह ग्रन्थ अपवाद मार्ग से परिपूर्ण है । अतः उक्त विशेषतामों के कारण यह आवश्यक हो गया कि हर कोई व्यक्ति इसे न पढ़े। उक्त मान्यता के मूल में यह डर भी था कि कहीं अनधिकारी व्यक्ति इसे पढ़कर अपने दुराचरण के समर्थन में इसका उपयोग न करने लगें । अतएव इसके अध्ययन को मर्यादित करना यावश्यक था।'
प्राचीन काल में जब तक दशवकालिक की रचना नहीं हुई थी, तब तक यह व्यवस्था थी कि दीक्षार्थी को सर्वप्रथम आचारांग का प्रथम अध्ययन शस्त्रपरिज्ञा पढ़ाया जाता था। और दीक्षा देने के बाद भी प्राचारांग के पिंडैषणा संबन्धी प्रमुख अंश पढ़ने के बाद हो वह स्वतन्त्र भाव से पिंडैषणा के लिये जा सकता था। इससे पता चलता है कि दीक्षा के पहले ही प्राचारांग की पढ़ाई शुरू हो जाती थी। किन्तु निशीथ की अपनी विशेषता के कारण यह आवश्यक हो गया था कि उसे परिपक्व बुद्धि वाले ही पढ़ें, और इसीलिये यह नियम बनाना पड़ा कि कम से कम तीन वर्ष का दीक्षा-पर्याय होने पर ही निशीथ का अध्ययन कराया जाए। संभव है, ऐसी स्थिति में निशीथ को शेष प्राचारांग से पृथक् करना अनिवार्य हो गया हो ?
दूसरी बात यह भी है कि निशीथ सूत्र मूल में ही अपवाद-बहुल ग्रन्थ है । और जैसे-जैसे उस पर नियुक्ति,- भाष्य-चूणि-विशेष चूणि आदि टीका ग्रन्थ बनते गये, वैसे-वैसे उसमें उत्तरोत्तर अपवाद बढ़ते ही गये । ऐसी स्थिति में वह उत्तरोत्तर अधिकाधिक गोपनीय होता जाए, यह स्वाभाविक है। फलस्वरूप शेष ग्रन्थ से उसका पार्थक्य अनिवार्य हो जाए, यह भी सहज है। इस प्रकार जब प्राचारांग के शेषांश से निशीथ का पार्थक्य अनिवार्थ हो गया, तब उसे सर्वथा प्राचारांग से पृथक कर दिया गया।
अब प्रश्न यह है कि नंदी और अनुयोगद्वार की तरह नवीन वर्गीकरण में उक्त सूत्र को चूलिका सूत्र-रूप से पृथक् ही क्यों न रखा गया, छेद में ही शामिल क्यों किया गया ? इसका उत्तर सहज है कि जब दशा, कल्प, पीर व्यवहार, जिनका कि मूलाधार प्रत्याख्यान पूर्व था, छेद ग्रन्थों में संमिलित किये गये, तो निशीथ भी उसी प्रत्याख्यान पूर्व के आधार से निर्मित होने के कारण छेद ग्रन्थों में शामिल कर लिया जाए, यह स्वाभाविक है। इतना ही नहीं, किन्तु निशीथ का भी वैसा ही विषय है, जैसा कि अन्य छेद ग्रन्थों का। यह भी एक प्रमाण है, जो निशीथ सूत्र को छेद सूत्रों की शृंखला में जोड़े जाने की अोर महत्त्व पूर्ण संकेत है ।
१. नि० गा० ६६, ७० की पूणि २. व्यवहार उद्देश ३. विभाग ४, गा० १७४-१७६ ३. व्यवहार उद्देश १०, सू० २१ पृ० १०७ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org