Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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निशीथ : एक अध्ययन इस गाथा में चूर्णिकारने अपने भ्रातामों का नाम दिया है। वे सब मिलकर सात भाई थे। देहड़, सीह और थोर-ये तीन उनसे बड़े थे और देउल, णण्ण, और तिइज्जग-ये तीन उनसे छोटे थे । अर्थात् वे अपने माता-पिता की सात संतानों में चौथे थे-बीचके थे।
इसके अलावा वे अपने को 'मंद' भी कहते हैं। यह तो केवल नम्रता-प्रदर्शन है। उनके ज्ञान की गंभीरता और उसके विस्तार का पता, चूर्णि के पाठकों से कथमपि अज्ञात नहीं रह सकता।
(५) चूणि के अंत में बीसवें उद्देश की समाप्ति पर अपने परिचय के सम्बन्ध में चूर्णिकार ने दो गाथाएं दी हैं। प्रथम गाथा है :
तिघड पण अट्ठमकम्गे ति पणग ति तिग अक्खरा व तेसि ।
पढमततिएहि तिदुसरजुहि णामं कयं जस्स । सबोधा व्याख्या के अनुसार पाठ वर्ग ये हैं - १ अ, २ क, ३ च, ४ ट, ५ त, ६ प, ७ य, ८श । इन पाठ वर्गों में से तृतीय 'च' वर्ग, चतुर्थ 'ट' वर्ग, पंचम 'त' वर्ग और अष्टम 'श' वर्ग के अक्षर इनके नाम में हैं। 'च' वर्ग का तृतीय-'ज' ; 'ट' वर्ग का पंचम-'ण' ; 'त' वर्ग का तृतीय-'द' ; और 'श' वर्ग का तृतीय-'स' । इन व्यंजनाक्षरों में जो स्वर मिलाने हैं उनका उल्लेख गाथा के उत्तरार्ध में किया गया है। वे स्वर इस प्रकार हैं-प्रथम और तृतीयाक्षर में तृतीय = 'इ' और द्वितीय = 'पा'। अस्तु क्रमशः मिलाकर 'जिणदास' यह नाम फलित होता है। द्वितीय गाथा है :
गुरुदिण्णं च गणितं महत्तरतं च तस्स तुढेहिं ।
तेण कयेसा एणी विसेसनामा निसीहस्स । अर्थात् गुरु ने जिसे 'गणि' पद दिया है, तथा उनसे संतुष्ट लोगों ने जिसे 'महत्तर' पदवी दी है । उसने यह निशीथ की विशेष चूणि निर्माण की है।
सारांश यह है कि जिनदास गणि महत्तर ने निशीथ विशेष चूणि की रचना की है।
नन्दी सूत्र की चूणि भी जिनदास कृत है। और उसके अंत में उसका निर्माण-काल शक संवत् ५९८ उल्लिखित है' । अर्थात् वि० सं० ७३३ में वह पूर्ण हुई । अतएव जिनदास का काल विक्रम की आठवीं शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित है।
चूर्णिकार जिनदास किस देश के थे, यह उन्होंने स्वयं स्पष्ट रूप से तो कहा नहीं है; किन्तु क्षेत्र-संस्तव के प्रसंग में उन्होंने कुरुक्षेत्र का उल्लेख किया है । अतः उससे अनुमान किया जा सकता है कि वे संभवतः कुरुक्षेत्र के होंगे।
१. विशेष चर्चा के लिये, देखो-प्रकलंक ग्रन्यत्रय का प्राचार्य श्री जिनविजयजी का प्रास्ताविक पृ० ४। २. नि. गा० १०२६ चूणि । गा० १०३७ चू० ।
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