Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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निशीथ एक अध्ययन
लिखा है वैसा ही ग्राचरण किया जाए- प्रर्थात् केवल सूत्रों के मूल शब्दों को आधार मान कर ही आचरण किया जाए और उसमें विचारणा के लिए कुछ अवकाश ही न हो, तो दृष्टि प्रधान पुरुषों द्वारा कालिक सूत्र अर्थात् द्वादशांग की व्याख्या क्यों की गई ?" यही सूचित करता है. कि केवल शब्दों से काम नहीं चल सकता । उचित मार्ग यही है कि उसकी परिस्थित्यनुसार व्याख्या की जाय । ' सूत्र में अनेक अर्थों की सूचना रहती है । आचार्य उन विविध अर्थों का निर्देश व्याख्या में कर देते हैं ।' सिद्ध है कि विचारणा के बिना यह संभव नहीं । अतएव सूत्र के केवल शब्दों को पकड़ कर चलने से काम नहीं चल सकता । उसकी व्याख्या तक जाना होगा - तभी उचित आचरण कहा जायगा, अन्यथा नहीं । यह आचार्यों का निश्चित अभिप्राय है । 'जिस प्रकार एक ही मिट्टी के पिंड में से कुम्भकार अनेक प्रकार की प्राकृति वाले बर्तनों की सृष्टि करता है, उसी प्रकार आचार्य भी एक ही सूत्र शब्द में से नाना प्रर्थों की उत्प्रेक्षा करता है । जिस प्रकार गृह में जब तक अंधकार है तब तक वहाँ स्थित भी अनेक पदार्थं दृष्टिगोचर नहीं होते हैं, उसी प्रकार उत्प्रेक्षा के अभाव में शब्द के अनेकानेक विशिष्ट अर्थं अप्रकाशित ही रह जाते हैं ।" प्रतएव सूत्रार्थ की विचारणा के लिए अवकाश है ही । यह प्राचार्यों की विचारणा का ही फल है कि विविध सूत्रों की विचारणा करके उन्होंने निश्चय किया कि किस सूत्र को उत्सर्ग कहा जाय और किस को अपवाद सूत्र ? और किस को तदुभय कहा जाय । तदुभय सूत्र के चार प्रकार हैं- उत्सर्गापवादिक, अपवादौत्सर्गिक, उत्सर्गौत्सर्गिक और ग्रपवादापवादिक । इस प्रकार कुल छः प्रकार के सूत्र होते हैं" । इतना ही नहीं, किन्तु ऐसा भी होता है कि 'अनेक में से केवल एक का ही शब्दतः सूत्र में ग्रहण करके शेष की सूचना की जाती है, कोई सूत्र केवल निग्रन्थ के लिये होता है, कोई केवल निग्रन्थी के लिये होता है तो कोई सूत्र दोनों के लिये होता है ।' सूत्रों के ये सब प्रकार भी विचारणा की अपेक्षा रखते हैं । इनके उदाहरणों के लिये, वाचक, प्रस्तुत ग्रन्थ की गा० ५२३४ से आगे देख लें - यही उचित है ।
जैन प्राचार्यो ने 'शब्द' के उपरान्त 'अर्थ' को भी महत्त्व दिया है । इसके मूल की खोज की जाए तो पता लगता है कि जैन मान्यता के अनुसार तीर्थंकर तो केवल 'अर्थ' का उपदेश करते हैं । 'शब्द' गणधर के होते हैं ।' अर्थात् मूलभूत 'अर्थ' है, न कि 'शब्द' । वैदिकों में तो मूलभूत 'शब्द' है, उसके बाद उसके अर्थ की मीमांसा होती है' । किन्तु जैन मत के अनुसार मूलभूत 'अर्थ' है, शब्द तो उसके बाद आता है । यही कारण है कि सूत्रों के शब्दों का उतना महत्त्व नहीं है, जितना उनके अर्थों का है, और यही कारण है कि प्राचार्यों ने शब्दों को
१. नि० गा० ५२३३, बृ० गो० ३३१५
२.
नि० गा० ५२३३ की चूणि ।
३.
नि० गा० ५२३२ की चूर्णि ।
४. नि० गा० ५२३४, बृ० गा० ३३१६ । ५. वही चूरिंग ।
६. नि० गा० ५.३५, बृ० गा० ३३१७
७.
बृ० भा० गा० १९३ ।
८.
ब्र० भा० गा० १६१ ।
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