Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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उत्संग प्रार अपवाद उतना महत्त्व नहीं दिया, जितना कि अर्थों को दिया और फलस्वरूप शब्दों को छोड़ कर वे तात्पर्यार्थ की ओर आगे बढ़ने में समर्थ हुए । तात्पर्यार्थ को पकड़ने में सदैव समर्थ हुए या नहींयह दूसरा प्रश्न है, किन्तु शब्द को छोड़ कर तात्पर्य की ओर जाने की छूट उन्हें थी, यही यहाँ पर महत्त्व को बात है । इसी दृष्टि से शब्दों के अर्थ के लिये 'भाषा', 'विभाषा', और 'वातिक'ये भेद किये गये । 'शब्द' का केवल एक प्रसिद्ध अर्थ करना 'भाषा' है, एक से अधिक अर्थ कर देना 'विभाषा' है, और यावत् अर्थ कर देना 'वार्तिक' है। जो श्रुतकेवली पूर्वधर है, वही 'वार्तिक' कर सकता है।
एक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि जिन अर्थों का उपदेश ऋषभादि तीर्थंकरों ने किया, क्या उन्हीं अर्थों का उपदेश, वर्धमान-जो आयु में तथा शरीर की ऊंचाई में उनसे हीन थे-कर सकते हैं ? उत्तर दिया गया है कि शरीर छोटा हो या बड़ा, किन्तु शरीर की रचना तो एक जैसी ही थी, धृति समान थी, केवलज्ञान एक जैसा ही था, प्रतिपाद्य विषय भी वही था, तब वर्धमान उनही अर्थों का प्रतिपादन क्यों नहीं कर सकते ? हाँ, कुछ तात्कालिक बातें ऐसी हो सकती हैं, जो वर्धमान के उपदेश की मौलिक विशेषता कही जा सकती हैं । इसी लिये श्रुत के दो भेद होते हैं- 'नियत', जो सभी तीर्थंकरों का समान है, और 'अनियत', जो समान नहीं होता।
उपयुक्त विचारणा से स्पष्ट है कि प्राचार्यों के समक्ष यह वैदिक विचारणा थी कि शब्द नित्य हैं, उनके अर्थ नित्य हैं और शब्द तथा अर्थ के संबंध भी नित्य हैं। इसी वैदिक विचार को नियत श्रुत के रूप में अपनाया गया है । साथ ही अनेकान्तवाद के आश्रय से अनियत श्रुत की भी कल्पना की गई है। प्राचार्य अपनी प्रोर से व्याख्या करते हैं, किन्तु उस व्याख्या का तीर्थंकरों की किसी भी माज्ञा से विरोध नहीं होना चाहिए। अतएव सूत्रों में शब्दतः कोई बात नहीं भी कही गई हो, किन्तु अर्थतः वह तीर्थंकरों को अभिप्रेत थी, इतना ही कहने का अधिकार प्राचार्य को है। तीर्थंकर की आज्ञा के विरोध में अपनी आज्ञा देने का अधिकार आचार्य को नहीं है। क्योंकि तीर्थकर और प्राचार्य की प्राज्ञा में बलाबल को दृष्टि से तीर्थकर की आज्ञा ही बलवती मानी जाती है, प्राचार्य की नहीं। प्रतएव तीर्थंकर की आज्ञा की अवहेलना करने वाला व्यक्ति प्रविनय एवं गर्व के दोष से दूषित माना गया है। जिस प्रकार श्रुति और स्मृति में विरोध होने पर श्रुति ही बलवान मानी जाती है, उसी प्रकार तीर्थंकर की आज्ञा आचार्य की आज्ञा से बलवती है। उत्सर्ग और अपवाद* :
एक बार जब यह स्वीकार कर लिया गया कि विचारणा को अवकाश है, तब परिस्थिति को देखकर मूल सूत्रों के अपवादों की सृष्टि करना, प्राचार्यों के लिये सहज हो गया।
१. वृ० भा० गा० १६६-६ । २. वृ० भा० गा० २०२-४ । ३. नि० गा० ५४७२ । * इसका विशेष विवेचन उपाध्याय श्री अमरमुनिजी लिखित निशीथ के तृतीय भाग की प्रस्तावना में द्रष्टव्य है । तथा मुनिराज श्री पुण्यविजयजी की बृहत्कल्प के छठे भाग की प्रस्तावना भी द्रष्टव्य है।
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