Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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साधना का अनेकान्त
जे पासवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते पासवा। -जो पास्रव के हेतु हैं वे कभी संवर के हेतु हो जाते हैं, और जो संवर के हेतु हैं वे कभी प्रास्रव के हेतु भी बन.जाते हैं ।
-आचारोग सूत्र १।४ा? जे जत्तिा य हेऊ, भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्खे ।
गणणाईया लोगा, दुण्हवि पुना भवे तुल्ला ॥२४२॥ -अज्ञानी एवं रागद्वेषी जीवों के लिए जो संसार के हेतु है, वे ही समभावी एवं विवेकी प्रात्मानों के लिए मोक्ष के हेतु हो जाते हैं। ये भव तथा मोक्ष सम्बन्धी हेतु, संख्या की दृष्टि से, परस्पर तुल्य असंख्यात लोकाकाश परिमाण हैं।
-प्राचार्य हेमचन्द्र, पुष्पमाला प्रकरण कल्प्याकल्प्यविधिज्ञः संविग्नसहायको विनीतात्मा।
दोषमलिनेऽपि लोके प्रविहरति मुनिनिरुपलेपः ॥१३६।। -जो कल्पनीय और अकल्पनीय की विधि को जानता है, संसार से भयभीत संयमी जन जिसके सहायक है, और जिसने अपनी प्रात्मा को ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार-विनय से युक्त कर लिया है, वह साधु राग द्वेष से दूपित लोक में भी राग-द्वेष से अछूता रहकर विहार करता है ।
किश्चिच्छुद्धकल्प्यमकल्प्यं स्यात्स्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् ।
पिण्ड: शय्या वस्त्रं पात्रं वा भेषजाद्यं वा ॥१४५।। -भोजन, शाय्या, वन्न, पात्र अथवा औषध आदि कोई वस्तु कभी शुद्ध, प्रतएव कल्पनीय होने पर भी अकल्पनीय हो जाती है और कभी अकल्पनीय होने पर कल्पनीय हो जाती है ।
देशं कालं पुरुषमवस्थामुपधातशुद्ध परिणामान् ।
प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नंकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम् ॥१४६।। -देश, काल, क्षेत्र, पुरुष, अवस्था, उपघात और शुद्ध परिणामों की अपेक्षा से अकलनीय वस्तु भी कल्पनीय हो जाती है। और कोई कल्पनीय वस्तु भी सर्वथा कल्पनीय नहीं होती।
-प्राचार्य उमास्वाति. प्रशमरति प्रकरण भोजन, वन, तथा मकान आदि जो कुछ पदार्थ साधु को दान देने के उद्देश्य से बनाये जाते हैं, वे प्राधाकर्म कहलाते हैं। ऐसे प्राधाकर्म आहार आदि का उपभोग करने वाला साधु कर्म से उपलिप्त होता ही है, ऐसा एकान्त वचन न कहना चाहिए, क्योंकि प्राधाकर्मी आहार आदि भी शास्त्र-विधि के अनुसार अपवाद-मार्ग में कर्मबन्ध के कारण नहीं होते हैं। किन्तु शास्त्रीय विधि का उल्लंघन करके प्राहार की गृद्धि से जो प्राधाकर्मी अाहार लिया जाता है वही कर्मबन्ध का कारण होता है।
-आचार्य जवाहरलाल जी म० के तत्त्वावधान में सम्पादित
सूत्रकृताङ्ग, द्वितीय श्रुतस्कंध, पृ० २६६
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