Book Title: Achar Pradip
Author(s): Ratnashekharsuri
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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आ० प्र०पतेभिषग्गदगगोत्पातं कलिं नाग्दः । दोषपाहिजनस्तु पश्यति परछिद्रं छलं शाकिनी, निष्पुत्रं मियमाणमाढयमवनीपालो चारित्राचा.
इहा वाञ्छति ॥ १॥" अन्नेसि सव्वेसि जणाणं जेण समग्गआरुग्गत्तणेण महाहरिसो हवेइ तेण चेव तेगिच्छिओ अभग्गो S दुबनिसग्गा उलुभोन सहस्सकरेण बहुधन्न गहीव पाउसजलहरेण महासंतावं अणुहवेइ, इत्य गाहा- बहुधन्नसंगहकरों
गधि विजा थ मयग उपजीवी। तंदुलमच्छुच्च इस मणसा चत्वारि महपावा ॥१॥न य अणज्जस्स विज्जस्स विविहओसहाइवंचणयारेहिं पहारेहि व अणवरयं जगवयं पीडयंतस्स मुलहपरदोहेगमहालोहेग अप्परोगपि नरं महारोगसागरे पाडय तस्स महाअकंदठाणाओवि कंगयपाणाआ दविणविहं गहि उकामस्स जमस्सेव महानिदयतणेण अणादेअनामस्स को नाम सुमिणेऽवि अणुका संपावइ हिअयगुहं कप्पाल्ली। मरुत्थलीवसुहं, एवं च बहुअहीअविजाणंषि विजाणं सम्बपि नाणं अन्नाणमेव, तं हि किं नाम नागं जेण अहिआहिअंपि न जाणेइ ?, किंवा तं निम्मल लोअगं जेग समविसमंतिन निरि
खेइ, अओ भणि-"बलवानप्यशक्तोऽसौ, धनवानपि निर्धनः । श्रुतवानपि मूखेश्व, यो धर्मविमुखो नरः॥१॥"न 11य विजा अगजा एव सः ति एर्गतो, भाति हि केवि केऽपि विज्जा अजाणवि पूजा, जे निचं िसद्धम्मकम्मनिरग कूड. 2
कवडाइकुकरमावरया अप्पलोहाइदोसा अगप्प ( अप) संगहिअसतासा सव्वस्य परोक्यारत्यकपघावारा सम्मताइसुसावयगुणसारा, ते खलु पढमतित्थयरजीवजीवाणंदविजय विजकम्म गावि निरवज्जेग महाणुभागा समागहभाइणो भाति, तम्हा
भो महाणुभाग ! तुमपि करहि सम्म धम्मे र ई चएहि परचणाइरई बहेहि हिअयंनि संतोस मा आरोवेहि निअलन्छोर अण2. यज्जियत्तणदोस आगेहि धम्मिअनगे बहुमाण उज्झेहि विजत्त गाभिनाग आरोदेहि चोभाय आपरेहि सुहगु सेव कुगा
निदशना॥ दीणाइजणेसु अणुकप जेण भवदुहाओ न लहेसि कहावि कप, धरसु सम्बत्थ परोक्यारबुद्धि जेण अचिरेण पावे सि कम्म
सम्रारापहासमाहर
विद्यायमु
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