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भूमिका होता है कि उनका आधार क्या है ? दो शताब्दी से-पूर्ववर्ती साहित्य में जो तथ्य नही है, वे दो शताब्दी वाद लिखे गए साहित्य में कहाँ से आए ? इसका समाधान देने के लिए हमारे पाम पर्याप्त साधन सामग्री नहीं है, फिर भी इस विषय मे इतना कहा जा सकता है कि सामयिक परिस्थितियो को ध्यान में रख कर वर्तमान आचायाँ ने उत्सर्ग और अपवाद के सिद्धान्त की स्थापना और उसके आधार पर विधि-विधानो का निर्माण किया था। आचार-चूला उसी शृङ्खला की प्रथम कडी है। जैन-आचार की समीक्षा करते समय इस तथ्य को विस्मृति नहीं होनी चाहिए कि आचाराग मे वर्णित आचार मौलिक है और महावीर-कालीन है तथा जो याचार आचारांग मे वर्णित नहीं है, वह उत्तरवर्ती है तथा उसको प्रारम्भ-तिथि अन्वेपणीय है। - समसामयिक विचार
थाचारांग में वैदिक, औपनिपदिक और बोद्ध विचारधाराओं के संदर्भ में अनेक तथ्यो का प्रतिपादन हुआ है। वैदिक-साधना को हम अरण्य-साधना कह सकते है । वैदिक-धारणा के अनुसार धर्म की साधना के लिए मनुप्प को अरण्य मे रहना आवश्यक है। वैदिक ऋपि तत्त्वचिन्ता के लिए भी अरण्य मे रहते थे। आरण्यकसाहित्य उसी अरण्यवास की निष्पत्ति है। भगवान महावीर ने अरण्यवाम की अनिवार्यता मान्य नहीं की। उन्होने कहा-"साधना गॉव में भी हो सकती है और अरण्य में भी हो सकती है।" ___ "धर्म का उपदेश जैसे बडे लोगो को दिया जा सकता है, वैसे ही छोटे लोगो को दिया जा सकता है ।"२ उच्च-वर्ग को ही धर्म सुनने का अधिकार है, शद्र को धर्म सुनने का अधिकार नहीं है, इम सिद्धान्त के प्रतिवाट मे ही भगवान महावीर ने उक्त विचार का प्रतिपादन किया था। __ "न कोई व्यक्ति हीन है योर न कोई व्यक्ति उच्च है'३-इम विचार का प्रतिपादन जातिवाद के विरुद्ध किया गया था।
इस प्रकार उपनिपद्, गीता और बौद्ध-साहित्य के संदर्भ में याचाराग का तुलनात्मक अध्ययन करने पर विचारधारा के अनेक मौलिक खोत हमें प्राप्त हो सकते है । १. आचाराग, ८१४ .
गामे वा अवा रण्णे, 'धम्ममायाणह-पवेदित मार्गेण मईमया । २ वही, २२१७४
जहा पुण्णस्म कत्थइ, तहा तुच्छस्स कत्थई । जहा तुच्छरम कत्थद, नहा पुण्णत कत्थड ।। ३. वहीं, २२४९
णो होणे, णो अइरिते।