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आयारो तह आयार-चूला है। आचारांग में निर्वाण को 'अनन्य-परम' कहा गया है। वहाँ सब उपाधियाँ समाप्त हो जाती हैं, इसलिए उससे अन्य कोई परम नहीं है। 'निर्वाण के उपायभूत सम्यग-दर्शन, सम्यग-ज्ञान और सम्यग-चारित्र का स्थान-स्थान पर प्रतिपादन हुआ है। इन दृष्टियो से आचारांग को जेन-दर्शन का आधारभूत ग्रन्थ कहा जा सकता है। श्रद्धा और स्वतंत्र-दृष्टि
आचारांग श्रद्धा का समुद्र है। "सिड्ढी आणाए मेहावी', 'आणाए मामगं धम्म आदि वाक्यो में अपने आराध्य के प्रति आत्मार्पण की भावना प्रस्फुटित होती है। आचाराग को श्रद्धा में स्वतंत्र-दृष्टिकोण का स्थान असुरक्षित नही है । सत्य की उपलब्धि के तीन साधन बतलाए गए हैं---
१-सहसम्मति, 2-परव्याकरण और
३-श्रुतानुश्रुत । इन तीन साधनो मे पहला साधन है अपनी बुद्धि के द्वारा सत्य का अवबोध करना । 'मइमं पास इस शब्द का प्रयोग भी दृष्टि की स्वतंत्रता को अवकाश देता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है 'न केवलं अहमेव कथयामि त्वमेव पश्य'- केवल मै ही नही करता हूँ, तू स्वयं भी देख । इस प्रकार आचारांग में श्रद्धा और स्वतंत्र-दृष्टि का सुन्दर संगम हुआ है। केवल श्रद्धा और केवल स्वतंत्र-दृष्टि-ये दोनो अतियाँ हैं। इनसे अच्छे परिणाम की उपलब्धि नही हो सकती। श्रद्धा और स्वतंत्र दृष्टि का समन्वय ही सत्य-संधान का समुचित मार्ग है । कयोपल
आचारांग सबसे प्राचीन सूत्र है, इसलिए यह उत्तरवर्ती सूत्रों के लिए 'कषोपल' के समान है। इसमे वर्णित आचार मूलभूत हैं । वे भगवान महावीर के मौलिक आचार के सर्वाधिक निकट हैं। उत्तरवर्ती सूत्रो में वर्णित आचार उसका परिवर्धन या विकास है। आचारांग-चूला में भी आचार का परिवर्धन या विकास हुआ है। जो तथ्य मूल आचारांग में नही हैं, वे आचार-चूला में प्राप्त होते हैं, तब सहज ही प्रश्न खड़ा
१. आचारांग, ३० २. वही, ६४८1 ३. वहीं, २३ः ___ सह-सम्मइयाए, पर-वागरणेण, अण्णेसि वा अंतिए सोचा। ४. वही, २१२॥