Book Title: Aayaro Taha Aayar Chula
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 9
________________ भूमिका । दृष्टिवाद है । उसका एक विभाग है पूर्वगत | चौदह पूर्व इसी 'पूर्व' के अन्तर्गत किए गए है | भगवान् महावीर ने प्रारम्भ में पूर्वगत का अर्थ 'प्रतिपादित' किया था और गौतम आदि गणधरो ने भी प्रारम्भ में पूर्वगत श्रुत की रचना की थी। इस अभिमत से यह फलित होता है कि चौदह पूर्व और वारहवाँ अङ्ग - ये दोनो भिन्न नही है । पूर्वगतश्रुत बहुत गहन था । सर्व साधारण के लिए वह सुलभ नही था । अङ्गो की रचना अल्पमेधा व्यक्तियों के लिए की गई । जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ने बताया है कि 'दृष्टिवाद मे समस्त शब्द- ज्ञान का अवतार हो जाता है फिर भी ग्यारह अङ्गो की रचना अल्पमेधा पुरुषो तथा स्त्रियो के लिए की गई ।' ग्यारह अङ्गो को वे ही साधु पढ़ते थे, जिनकी प्रतिभा प्रखर नही होती थी । प्रतिभा सम्पन्न मुनि पूर्वी का अध्ययन करते थे | आगम-विच्छेद के क्रम से भी यही फलित होता है कि ग्यारह अङ्ग दृष्टिवाद या पूर्वो से सरल या भिन्न क्रम मे रहे है। दिगम्बर- परम्परा के अनुसार वीर- निर्वाण के बासठ वर्प याद केवली नही रहे । उसके बाद सौ वर्षं तक श्रुत- केवली (चतुर्दश-पूर्वी ) रहे । उसके पश्चात् एक सौ तिरासी वर्ष तक दशपूर्वी रहे। इनके पश्चात् दो सौ बीस व तक ग्यारह अधर रहे । उक्त चर्चा से यह स्पष्ट है कि जब तक आचार आदि अङ्गो की रचना नही हुई थी, तब तक महावीर की श्रुत-राशि 'चौदह पूर्व' या 'दृष्टिवाद' के नाम से अभिहित होती थी और जब आचार आदि ग्यारह अङ्गो की रचना हो गई, तब दृष्टिवाद को बारहवे अह्न के रूप में स्थापित किया गया । यद्यपि बारह अङ्गो को पढ़ने वाले और चौदह पूर्वो को पढ़ने वाले----ये भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलते है, फिर भी यह नही कहा जा सकता कि चौदह पूर्वो के अध्येता बारह अङ्गो के अध्येता नही थे और बारह अगो के अध्येता चतुर्दश-पूर्वी नहीं थे । गौतम स्वामी को 'द्वादशांगवित्' कहा गया है ।" वे चतुर्दश पूर्वी और अङ्गधर दोनो थे । यह कहने का प्रकार-भेद रहा है कि श्रुत- केवली को कही 'द्वादशागवित्' और कही 'चतुर्दश-पूर्वी' कहा गया । ग्यारह अङ्ग पूवाँ से उद्धृत या संकलित हैं । इसलिए जो चतुर्दश-पूर्वी होता है, १. विशेषावश्यक भाप्य, गाथा ५५४ : वि य भूतावाए, सव्वस्त वओगयस्स ओयारो | निज्जूहणा तहावि हु, दुम्मेहे पप्प इत्थी य ॥ २. जयधवला, प्रस्तावना पृ० ४६ । ३. देखिए - भूमिका का प्रारम्भिक भाग । ४. उत्तराध्ययन, २३७ ॥

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