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क्र.सं. प्राकृत कर्तरि प्राकृत कर्मणि संस्कृत धातु
24.
भण्
भण्ण
भण्
25.
छुव्
छुव्व
स्पृश्
रुव्
रुव्व
रुद्
लह
लभ्
27. 28.
कह
कथ्
29. भुंज्
भुज्
30.
हर्
ह
26.
कर्
31. 32. तर्
33. जर्
34. fadd}
अज्ज्
जाण्
वाहर्
आढव्
35.
36. 37.
38. सिणिज्झ 39. सिच्
40. गह-गिण्ह्
41. छिव्
लब्भ
कत्थ
भुज्ज
हीर
कीर
तीर
जीर
विढप्प
णव्व णज्ज
वाहिप्प
आढप्प
"
सिप्प
सिप्प
घेप्प,
छिप्प
घिप्प
कृ
तृ
ज्
अर्जु
ज्ञा
वि+आ+ह
आ+भ्
स्निह
सिच्-सिञ्च्
ग्रह
स्पृश्
अर्थ
बोलना, पढ़ना
स्पर्श करना
रोना
प्राप्त करना
कहना
खाना
हरण करना,
ले जाना
करना
तैरना
जीर्ण होना पैदा करना,
जानना
बोलना,
बुलाना
शुरू करना,
आरंभ करना
कमाना
स्नेह करना छांटना,
सिंचन करना
ग्रहण करना
स्पर्श करना
6. चिव्व से छिप्प पर्यन्त के धातुओं का कर्मणि और भावे प्रयोग में ही विकल्प से प्रयोग होता है । जब उनका प्रयोग होता है तब कर्मणि-भावे के प्रत्यय लगाये बिना उस-उस काल के पुरुषबोधक प्रत्यय लगाये जाते हैं । 7. दीस् और वुच्च धातु में यह प्रयोग नित्य होता है ।
8. जब चिव्व, जिव्व आदि धातुओं का प्रयोग नहीं करना हो तब चिण्-जिण् वगैरह मूल धातुओं को कर्मणि-भावे प्रत्यय लगाकर अंग बनाकर उस-उस काल के पुरुषबोधक प्रत्यय लगाने से भी रूप बनते हैं ।
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