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प्रेरक वाक्यरचना 10. प्रेरक की वाक्य-रचना में मूल क्रिया का कर्ता दुसरी अथवा तीसरी
विभक्ति में रखा जाता है । उदा. सीसो गंथं रएइ, तं गुरू पेरणं करेइ त्ति गुरू सीसं सीसेण वा गंथं
रयावेइ । (गुरु शिष्य के पास ग्रंथ की रचना करवाते हैं ।) 11. अपवाद - अकर्मक धातु तथा शब्दकर्मक धातु, गति-ज्ञान-भोजन अर्थवाले
धातु और देक्ख-पास इत्यादि धातुओं की वाक्यरचना में मूल क्रिया का
कर्ता प्रायः दूसरी विभक्ति में रखा जाता है । उदा. कर्तरि
प्रेरक बालो जग्गइ
- पिआ बालं जग्गावेइ । [अकर्मक] समणो सिद्धन्तं पढेइ - सूरी समणं सिद्धन्तं पढावेइ । [शब्दकर्मक] समणा विहरन्ति - आयरिओ समणे विहरावेइ । [गति-अर्थ) सावगो तत्ताइं जाणेइ - गुरू सावगं तत्ताइं जाणावइ । [ज्ञानार्थी पुत्तो आहरेइ
- पिआ पुत्तं आहारेइ । [भोजनार्थ वच्छो जिणपडिमं देक्खइ - जणओ वच्छं जिणपडिमं देक्खविइ ।
देक्ख-पास धातु]
अन्य प्रक्रिया 12. संस्कृत में इच्छादर्शक आदि अन्य प्रक्रियाएँ हैं वैसी प्राकृत में नहीं हैं,
लेकिन कुछ प्रक्रिया के रूप आर्ष प्राकृत में दिखाई देते हैं । वे पूर्वोक्त वर्ण विकार के नियमानुसार परिवर्तन होकर सिद्ध होते हैं । उदा.
संस्कृत | प्राकृत | हिन्दी अनुवाद । कृदन्त सन्नन्त जुगुप्सते जुगुच्छइ | निन्दा करने की जुगुच्छिअ-भूत कृ. (इच्छादर्शक) जुउच्छड | इच्छा करता है - जुगुच्छमाण-वर्त. कृ.
| पिपासति पिवासइ | पीने की इच्छा करता है।। पिवासिअ-भूत कृ. बुभुक्षति | बुहुक्खइ | खाने की इच्छा करता है। बुहुक्खिअ-भूत कृ. लिप्सति | प्राप्त करने की
इच्छा करता है। सेवा करता है, सुस्सूसंत । वर्त. कृ. सुनने की इच्छा करता है । | सुस्सूसमाण )
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