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आधुनिक विज्ञान और हिंसा
है । जैन वैज्ञानिक पुद्गल के विभिन्न पर्यायों का सूक्ष्म और गम्भीर विवेचन करते हुए अणु तक पहुँचे है। पुद्गल की अनन्त शक्ति का भी विलेपण जैन साहित्य में वर्णित है । पर जहाँ तक वैज्ञानिक अनुशीलन का प्रश्न है इसे किसी धर्म, सम्प्रदाय या देश की सकीर्ण सीमाओ मे नही बांधा जा सकता । वह तो मानवमात्र की अनुभूति की अभिव्यक्ति है ।
प्राचीन भारतीय साहित्य पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट विदित होता है कि विश्व स्वरूप को जानने के लिए नाना प्रकार के प्रश्न और समाधान ऋग्वेद व उपनिषद् काल से लगा कर आज तक होते आये है । ऋग्वेद मे उल्लिखित दीर्घतमा ऋषि को यह शका हुई कि विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई ? इसे कौन जानता है ? क्या इसका पता लगना सम्भव है ? वही आगे कहता है, मैं तो इस रहस्य से परिचित नही हूँ । पर इतस्ततः भ्रमण से ज्ञात हुआ कि वाणी द्वारा सत्य के दर्शन होते है । सत्य एक है किन्तु उसके वर्णन के प्रकार अनेक है । एक ही सत्य के वाणी द्वारा सैकडो प्रयोग देखे जाते है । इस ऋषि के द्वारा तात्कालिक सम्पूर्ण मानवीय जिज्ञासुवृत्ति के दर्शन होते है । नासदीय सूक्त के ऋषि भी जगत की गम्भीर गवेपणा करते हुए सत्य और सत्य की चर्चा करते है । यद्यपि इनके व्यक्तिकरण मे पर्याप्त मतभिन्नता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु जिज्ञासा सभी की वही है ।