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विमान के सहारे प्राकृतिक शक्ति का उपयोग
इसमें कोई संदेह नही कि प्राकृतिक शक्ति का सर्वाधिक उपयोग इटली तथा जापान ने दिया है। इटली में इधन का प्रपेशात प्रभाव था, वहाँ ये वैज्ञानिको की दृष्टि भूमिगर्भस्थ उपमा पर वेद्रित हुई । नमो न इस कामा वा उपयोग किया जाय ? फक्त फ्लोरेस के विटवर्ती एक जगह लावा में से निकलने वाली ऊष्मा से वे प्रिंस वोटि विद्युत पदा करने में यहाँ तक सफल रहे कि फ्लोरेस, सीमा का समीपवर्ती भू भाग और नेपल्म इस विद्युत से प्रकाशित हो उठे ।
वायु तत्त्व भी जीवन का एक अत्यत अनुपक्षणीय तत्व है । वायु वी शक्ति अप्रूव है। वायु शुद्धि ही प्राध्यात्मिक दृष्टि से योग भाग या एक मापान है। वाय वा पानिक महत्त्व भी किसी भी दृष्टि से कम नही । शक्ति के नूतन साधनो के लिए वैनानियों ने वायु शक्ति की श्रावश्यक्ता नातीत्र अनुभव किया। बृहत्तर सागर और महाद्वीपा पर तीव्र गति मे वायु सचार होता रहता है। पर मानव के इसवे भूल से परिचित होने के बावजूद भी इस पर कसे नियंत्रण रसा जाए, यह एक समस्या थी । क्योकि मुक्त विचरण करने वाली वायु को मानव सीमा में विस प्रकार आवद्ध रहे। श्रभी कुछ ही वर्ष हुए, वायु शक्ति का नियन्त्रित वर इसका उपयोग यत्र चालित मीना में किया गया। इससे विद्युत भी उत्पन्न वो जाती है। अमेरिका म वायु चानित यत्रोद्योग विस्तृत हो चुना है । मेजर विल्सन ने सन् 1024 में एक अत्यधिन शक्ति सम्पन वायु चालित यत्र मा प्राविष्कार किया था । बनावामी पेन्मेडन ने एक बार ब्रिटिश एसामिएन वे समय सम्भाषण करत हुए कहा था "यदि इग्लण्ड के सभी ऊँचे पठारा पर वायु यत्र स्थापित किये जाएँ तो उनमे विद्युत् पदा की जा सकता है जिससे देश में यत्रोद्योग वो प्रात्साहन मिलेगा।"
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यह तो माना हुई बात है सूप भी दावि का एक बहुत वहा महास्रोत है । प्रध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति में गत सूर्य को धामिय जगत् में जा प्रतिष्ठा प्राप्त है वह सर्वोकृष्ट है । स्वरोदय व योगातगन तत्त्व में भूय या महत्त्व सवविदिन है। सूय ने भारतीय कला के विकास में बहुत बड़ा योग प्रदान किया है। प्राचीनतम सूय पूजोपाना प्रचुर परि माण में उपलब्ध हैं। भारत में सूर्य पूजव जाति विकसित रही है। न केवल