Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 140
________________ अहिंसा का स्वरूप 146 सनकता से चल रहा है । क्सिी जीव के प्राणो की पात न होने देने की बुद्धि उममे विद्यमान है । ऐसी स्थिति में अचानक कोई जीव उसके पैरा के नीचे आकर कुचल जाता है तो वह साधक हिंसा के पाप मे लिप्त नहीं होना। अभिप्राय यह है कि कपाय और प्रमाद में किया जाने वाला प्राणध हिंसा है। हिमा वी व्याख्या के दो प्रश हैं । एक अश है-प्रमत्त योग अर्थात् रागद्वैप युक्त और दूसरा नाहै--प्राण बघ । पला अस कारण रूप में है, और दूसरा काय रूप मे है। इसका प्रथ यह हुमा विजोप्राण वध प्रमत्त योग से हो वह हिंसा है। एतदथ साधक प्रमाद और कपाय से जितने जितने अशा मे बचने का प्रयास करेगा उतने उतने अशो मे वह हिंसा से बचेगा। पाय और प्रमाद प्रारमा की अशुद्ध परिणति है, और यात्माकी जो अशुद्ध परि णति है वही हिंसा है। अत अहिंसा प्रेमी व्यक्ति इनसे अपने को सदा बचाये रमे, जिसमे कि वह हिंसा के गह्वर से ऊपर उठकर अहिमा के दिव्य पालोव मैं अपनी प्रात्मा का सही मूल्याकन न सके। जन समाज की दिव्य विभूति स्वामी समत भद्र न एक स्थान पर अहिंसा का महात्म्य बतलाते हुए कहा कि "अहिंसा भूताना जगति विदित ब्रह्म परमम् ।।1 धम ने मानव जाति को अनेकानेक महान् विभूतियां प्रदान की हैं, पर उन सत्र में हिसाही उत्कृष्ट है । मानव जीवा मे देवत्व और मानवत्व की प्रतिष्ठा करने वाली एकमात्र अहिंसा ही है । यदि मानव में अहिंसात्मक सुमधुर कोमल वमनीय विचारो के विचिमाली का उदय न हुमा तो मानन पिम नगण्यतम स्थिति की अधेरी गुहा मे चला जायगा जिसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है । मानव ने परिवार, समाज और राष्ट्र या निर्माण किया तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बध स्थापित किये, इन सबका मूला धार अहिंसा ही है। व्यक्ति और समाज की जीवन यात्रा का पाथेय भी अहिंसा ही है । महिमा के प्राण ही उसमे स्पदित दिखलाई पडन हैं। प्राण वे प्रभाव में व्यक्ति के शरीर की काई वीमत नही होनी, उसी प्रकार महिमा के प्रभाव म देश, समाज और राष्ट्र का भी कोई मूल्य नही है । 1 हर स्व"मलोत्र ।

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