Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 143
________________ 148 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा है। क्योंकि यह स्पष्ट है कि किसी भी तथ्य को मौलिक रूप से यदि परिवर्तित करने का प्रयास नहीं किया गया तो वह आगे चलकर उतना विस्तृत हो जायेगा कि जिस पर अंकुश भी नहीं लग सकेगा ! ईट का जवाब पत्थर से देना हिंसा को प्रोत्साहित करना है, प्रतिहिंसा की भावना को बढ़ावा देना है। यदि हिंसा को न रोका गया तो उसकी परम्परा द्रोपदी का चीर बन कर रहेगी। अव हमे देखना यह है कि इन दो पारस्परिक विचारधामो मे से किसे अपनाने मे मानव और मानवता के साथ प्राणी मात्र का हित निहित है। साथ ही जीवन के क्षेत्र मे कौन-सी सर्वगम्य विचारधारा अधिक प्रभाव उत्पन्न कर स्थायित्त्व परम्परा का रूप ग्रहण कर सकती है । जहाँ तक पूर्व और पश्चिम के दार्गनिको का प्रश्न है, प्रारम्भ से ही दोनो मे पर्याप्त वैभिन्न्य रहा है । पाश्चात्य दर्शन मानसिक श्रम तक ही सीमित है । सभव है उनके चिन्तन का क्षेत्र व तात्कालिक मानवीय समस्याएँ तद्नुकूल ही रही हो । इसके विपरीत भारतीय तत्त्वज्ञान का स्वर मस्तिष्क से सम्बद्ध रहते हुए भी हृदय के मर्म स्थान को स्पर्श किये हुए है। मस्तिष्क द्वारा विश्व रहस्य के अन्तस्तल तक पहुँचने का प्रयास करते हुए भी उसकी सम्पूर्ण प्रवृत्तियाँ अहिंसा व अध्यात्ममूलक रही है । यहाँ दर्शन भी मानसिक विकास तक सीमित न रहकर यात्मिक विकास का सफल सोपान माना गया है । पौद्गलिक शक्तियो द्वारा हिसा प्रोत्साहित होती है तो अाव्यात्मिक शक्ति की किरणो से अहिंसा को बल मिलता है। भारतीय दर्शन का मुख्य आधार ही अहिंसा, अर्थात् समत्त्व है। प्रकर्ष ज्ञान को ही विज्ञान मान लिया जाय तो विज्ञान भी अहिंसा की श्रेणी मे आ ही जायेगा। पर वर्तमान परिभाषा कुछ और ही मार्ग पर इसे प्रेरित करती है। प्रथम विचारधारा भौतिकवादी होने के कारण उन्ही लोगो के सिए श्रेयस्कर है जिनके पास आर्थिक शक्ति प्रवल है, वे ही अधिक से अधिक प्रसाधन वसा कर वैयक्तिक सुखोपलब्धि का अनुभव कर सकते है । अहिंसामूलक प्राध्या त्मिक भारतीय विचार परम्परा और सुखोपलब्धि के उपकरण को ग्रानन्द का कारण न मानकर त्याग और सयम की प्रतिष्ठा मे सुख मानता है और वह अपनी सुखोपलब्धि मे आने वाली वाधानो पर भी समत्त्व ही धारण

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