Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान और अहिंसा श्री सरतरगच्छीय ज्ञान मन्दिर, जयपु लेखक गणेशमुनिजी शास्त्री' साहित्यरत्न १० ( मुनिप्प, १० प्रश्रद्धेयमत्री श्री पुष्कर मुनिजी) सम्पादक मुनि कान्तिसागरजी - सर्वोदयी सत नेमिचन्द्रजी ABS 1902 आत्माराम एण्ड सस प्रकाशक तथा पुस्तक विक्रता काश्मीरी गेट दिल्ली-6 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ADHUNIK VIGYAN AUR AHINSA (Modern Science and Non-Violence) by Ganeshmuniji Shastri Rs 350 ल भण्डारी (मारवाड़) अधिष्ठाता, जैन गुन्कुल, सादडी स्टेगन, राजस्थान प्रकाशक रामलाल पुरी, संचालक प्रात्माराम एण्ड संस काठमीरी गेट, दिल्ली-6 शाखाएं हौज खास, नई दिल्ली माई हीरा गेट, जालन्धर चौडा रास्ता, जयपुर वेगमपुल रोड, मेरठ विश्वविद्यालय क्षेत्र, चण्डीगढ मूल्य 350 रुपए रकरण । प्रथम : 1962 मुद्रक हिन्दी प्रिंटिंग प्रेस दिन्ला Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मति प्रस्तुत कृति के लेखक साहित्यरत्न शास्त्री श्री गणेश मुनि जी महाराज हैं । दिनांक 31 8 1000 ई० को व्यावर श्री मघ द्वारा मेरे श्रद्धय गुरु व ० दौलतसिंह जी कोठारी, वैज्ञानिक सलाहकार भारत सरकार व अध्यक्ष विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की सेवा में उनके अवप्रेषित की गई थी। में अपना परम सौभाग्य समझता है कि मेरे गुरुदेव ने मुझे इमे अवलोकन की श्राप प्रदान की। मैंने इसे याद्योपान्त पवार अनुभव किया कि सिह आधुनिक विज्ञान और महिमा वे लेख मुनिराज यो न क्वन विमान में रुचि ही है अपितु धम गास्त्रो के साथ साथ वनानि साहित्य या भी सुन्दर श्रव्ययन है । प्रस्तुत कृति भावी महिमा विश्वविद्यालय के विद्यार्थियो के पाठ्यक्रम म उपयोगी सिद्ध होगी। श्री गणेग मुनि जी महाराज के विचार हमारे विश्व धम सम्मलन के उत्प्रेख मुनिश्री मुगीलकुमार जी महाराज के अनु रूप हैं । मुझे पूर्ण धाता है गणेश मुनिजी और सुशीलकुमार जी महाराज से विश्व मे धम और ग्रहिसा वे प्राधार पर शान्ति स्थापनाथ ऐसी भय कृतिया का भजन पर सरस्वती वा भण्डार भरगे । भारत की राजधानी दिल्ली में निकट भविष्य म ही श्रहिंसा विश्वविद्यालय बनने जा रहा है, तदथ भारत सरकार ने पर्याप्त भूमि भी प्रदान पर दो है । लामो रुपये दान द्वारा भी एकत्र विय जा रह है। प्रश्न रह जाता है पाठ का सो मुझे इस वृति का देवर प्रातरि प्रमाद हुआ वि हमार मुनिराजा का ध्यान भी इस महत्त्वपूर्ण विषय की ओर श्राष्ट हुआ है और साहित्य वा निर्माण भी होने लगा है | मुळे भाषा ही नही पर पूरा विश्वास है रि "श्रापुनिर विनान और महिमा 'मे प्रबुद्ध पाठव ग्यास्सादा पर श्रेयाभिमुस बनेगे । भावारी टा० डी० वी० परिहार M Sc, PhD ( Delhi ), PhD (Cantab) Senior Scientific Officer Government of India, New Delhi सम्मिति Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार शब्द आज का युग विकास के मोड पर है। उन्नति और विकास को ध्वनियाँ चारों ओर से सुनाई पड़ती है। पर मानव यह नहीं सोच पा रहा है कि उन्नति किसकी और उसके उपाय क्या है ? क्योकि जब तक योजनाबद्ध मुनियन्त्रित विकास पथ का अनुसरण न किया जाएगा तब तक उन्नति के शिखर पर चरण स्थापित नही किये जा सकते। आज बौद्धिक दक्षता और शोधन विधि के विकास तक ही उन्नति सीमित है और प्राकृतिक प्रसुप्त शक्तियो के अन्तर्रहस्यो को जानकर मानव-समाज को सुख, शान्ति और समृद्धि की ओर गतिमान करना ही विकास या मानवोन्नति समझी जाती है । विज्ञान इसी की परिणति है। पर यही हमारा साध्य नहीं है। जीवन के नित नूतन के प्रति आस्थावान रहते हुए भी स्थायी जगत के प्रति उसका केन्द्र विन्दु लक्षित होना चाहिए । भौतिक या अस्थायी जगत की क्रान्तिपूर्ण स्थिति आन्तरिक जगत को जहाँ तक पालोकित या प्रभावित करती है, वही तक इसकी उपयोगिता है। केवल दृश्य जगत की ओर अधिक नैष्ठिक जीवन और साम्पत्तिक विकास भविष्य के लिए क्या दृष्टि छोड जाता है, यह विचारणीय प्रश्न है । सुख-सुविधाओ की अभिवृद्धि और सामाजिक शान्ति विज्ञान द्वारा प्राथमिक रूप से अनुभव मे आने लगी, तव मानव अानन्द का अनुभव करता था। ज्यो-ज्यो वैज्ञानिक साधनों का प्राचुर्य अपनी चमत्कृति से विश्व को पाश्चर्यान्वित करता रहा, त्यो-त्यों ससार इसके प्रति अधिक आकृष्ट हुया जैसे अन्तिम लक्ष्य का यही एकमात्र स्वर्णिम या शाश्वत पथ हो । आगे चलकर विज्ञान की सर्वोच्च संहार शक्ति की भीपणता से मानवता कराह उठी और अनुभव किया जाने लगा कि मूचित उन्नति गक्ति पर अकुश की आवश्यकता है ताकि संहार शक्ति को सृजन की ओर मोडा जा सके। मानवता का इसी मे कल्याण है। विकास और उन्नति बडे सुन्दर शब्द है पर कभी-कभी निरंकुग गति से सकट का सामना भी करना पड़ता है। केवल भौतिक विकास भले ही Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणिक मुख सष्टि कर उनति की श्राभा दिखला दे पर न तो यह स्थायी है श्री न चिर शान्ति वा प्रतीक ही । चिराचरित साधना द्वारा प्राप्त वस्तु देश की ऐसी सम्पत्ति होनी चाहिए, जिसका विनिमय वृद्धि की चार सवेत करता हो । शक्ति के स्रोत को तब ही समुचित स्थान प्राप्त हो सकता है जब उनके वहन की क्षमता उस पृष्ठभूमि में विद्यमान हो । अत्यधिक शक्ति मचम उचित उपयोग के प्रभाव म साध पैदा कर देता है । विवास ग्रव बाग चाहता है । मनुष्य ऐसा मानता है कि आज वह उन्नति और विकास की सर्वोच्च सीमा पर पहुँच गया है। हाँ, इसम बोई नही कि पूर्वापया श्राज वह प्रकृति का दासत्व उतना स्वीकार नहीं करता जितना विगत ताब्दिमा का मानव करता आया है । पूणता केवल इतनी ही ह ि ग्राज वहिदष्टिमूलर जीवन पद्धति के परिणामस्वरूप वह प्राध्यात्मिक जागरण के उज्जस्वल पथ को विम्मत किये हुए है। उसका मानस ज्ञानविमान के प्रति वटा उदार है। वह प्रत्यक वस्तु को तक वो कमाटी पर वसन वा अभ्यस्त हो चुका है । पर विनम्र शब्दो मे कहना चाहूँगा कि आचार निहीन नान सत्य के प्रति प्रागे बढने में बाधा उपस्थित करता है । और न ससार की सभी वस्तुएँ तक्गम्य है । मत्योपल ध के लिए गहन अनु भन, विचार, भाषा और सर्वोकृष्ट भाव शुद्धि श्रपक्षित है और वह सस्कृनिनिष्ठ श्रयात्मिक परम्परा के विकास द्वारा ही सम्भव है जिसका मूल आधार अहिंसा है । श्रहमा भारतीय मस्कृति का श्रात्मा है । वयक्तिक, सामाजिक यार राष्ट्रीय जीवन का शाश्वत विकास अहिमा की सफन साधना पर ही यव लम्मित है । जिम प्रकार अहिंसा तरन द्वारा आध्यात्मिन पृष्ठभूमि का पोषण होता है उसी प्रकार जीवन का भौतिक क्षेत्र भी सतुलित रह मक्ता है । कहने की शायद ही आवश्यकता रहती है कि वह केवल प्रातरिख जगन के उन तक भी सीमित नहीं है अपितु राजनीतिक क्षेत्र तक म इसी प्रतिष्ठा निर्विवाद प्रमाणित हो चुकी है। भयात्रान्त मानव श्रहमा की श्रोर दष्टि गाय हुए है। विधान के विकास वा खूब अनुभव हो चुका है । श्रप वह पुन लोटवर देखना चाहता है कि हम ऐसे तत्व की आवश्य Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कता है जो मानवता मे जीवनी शक्ति का मिन्टन कार नक, प्रोत्साहित कर सके और मानव-मानव मे मता और ग्वार्थों को लेकर पनपने वाली नघर्ष परम्परा को सदा के लिए ममात्र गरयात्म-ज्योनि का नबर्वोन्नत पथ प्रदगिन कर सके, ननी विश्व शान्ति का नृजन सम्भव है । निद्धान्नन रिली भी तत्त्व को स्वीकार करने की अपेक्षा उने जीवन के दैनिक व्यवहार में लाना वांछनीय है । उन्नति और विकास का वास्तविक रहस्य तभी प्रगट हो सकता है जब नत्य जीवन में नाकारहो, और वही भावी परम्परा का रूप ले । साँच्च निदीप पार बलिष्ठ जीवन पद्धनि मानव ही नहीं प्राणीमात्र के प्रति समत्व मूलर जीवन की दिगा स्थिर कर नानी है। जीवन भी मवमुत्र याज एक जटिल समस्या को न्प मे वटा है। राजनीति औरत द्वारा इसे और भी विपम बनाया जा रहा है। और साथ ही पाव्यात्मिक जागृति के पथ पर भी प्रहार किये जा रहे हैं. पर ग्रान्चर्य तो इस बात का है कि उन्ननिमूलक यात्मिक तत्वनाधक नथ्यो नो अतरग दृष्टि से देखने का प्रयत्न नही किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में सुरक्षित और गान्तिमय जीवन की स्थिति और भी गभीर हो जाती है। जीवन को जगत की दृष्टि ने संतुलित बनाये रखने के लिए विकारों पर प्रहारो का स्वागत है, पर वे सन्कारमूलक होने चाहिए । मान लीजिये परिस्थितिजन्य वै पम्य के कारण आज हिसा के नाम पर जोअहिंमा पनप रही है उनमे लगोधन अनिवायह। सचमुच उत्कृप्ट तत्त्व कोत्राचार पद्धति मे उतारने के लिए कुछ काठिन्य अनुभव होता है, पर असम्भव नहीं। जीवन मे अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए तत्त्व मनीपियो ने अपरिग्रहवाद की ओर सकेत दिया है । अनावश्यक बार अनुचित मचयही नघर्ष और हिंसा को प्रोत्साहन देते है। आज अधिक उत्पादन की ओर नसार जुटा हुआ है। दिनानुदिन आवश्यकताएँ इतनी वढी जा रही है कि उनकी पूर्ति में ही जीवन समाप्त हो जाता है। उपभोग के लिए भी अवकाश नहीं मिलता । जब कि व्यक्ति स्वातन्त्र्य मूलक और जनतान्त्रिक परम्परा का अनुगमन करने वाली श्रमणो की साधना ने यह नकेत दिया है कि यदि समाज और राष्ट्र मे शान्ति एव सन्तुलन की स्थापना करनी है तो व्यक्ति को ही सर्वप्रथम अपनायाभ्यन्तरिक विकास करते हुए जीवन की आवश्यकतायो को कम करना होगा, ताकि अनावश्यक स्वार्थ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिप्सा और वासना विपद्धक नवा को पनपन वा श्रवसर ही न मिले । जीवन एक ऐसी वस्तु है कि उसे किसी भी टाचे में ढाला जा सकता है । अपरिग्रहवाद जनतंत्र की बहुत बडी शक्ति है। मरल जीवन चोर उच्च याद ही अहिंसा और अपरिग्रह वा पोपण कर सकते है । विज्ञान एक एमी दष्टि है जिससे मानव किसी भी वस्तु वे प्रति चमलारपूण दष्टि नही रम सकता । अर्थात तथ्या वेषण के प्रति वह बुद्धि या बल देता है । वह ऐसा मापदण्ड बन गया है कि प्रत्यन वस्तु को इमी से नापा जाता रहा है। इसमे धम का भी अ तर्भाव हो जाता है । वस्तुत श्राज की परिभाषा के अनुसार विज्ञान और धम भले ही समीपवर्ती तत्त्व जान पडता, पर इनका भिनन भी उतना ही स्पष्ट है । या ता धम भी जीवन प्रति व्यवस्थित विश्वासा की एवं दष्टि है जिसका सम्बन्ध प्राप्तरिय जगत् म है । वह ग्रात्मन वस्तु है । विज्ञान श्रात्मा जसी वस्तु म तनिक भी विश्वास नहीं करता । वह तो केवल द्रव्या मे स केवल पोदग्नि है । अदृश्य जगत की घोर विमान की गति नही है। ऐसी स्थिति म विनान श्रीर धम एन नहीं माना जा मकता । हाँ, जहाँ तर दष्टि साम्य का प्रश्न है यह कहा जा सकता है वि वनानिव गोधन प्रक्रियामूलक दृष्टि से भी धम को देखा जा सकता है | श्राज व वनानिव युग में निशिता का धर्म के प्रति भाषण बहुत ही निथिन हा चला है । वे इस विज्ञान ज्योति में देखना चाहते हैं । तव नान को भी इसी कोटि में ना सड़ा किया है । इम को मह नही और विमान का निवास है । विमान को जहां प्रातस्तल देवन वा प्रयत्न प्रारम्भ होता है वही अवस्था तत्त्वनान के प्रवेश का ६ और तत्त्वमान का जहाँ विषद व गंभीर विचार किया जाता है, वहाँ विमान क्षेत्र स्वतप्रणस्त हो जाता है । भाग म तन्वनान का विज्ञान पृथक रमन को प्रथा रहा है जम कोई यह विभिष्ट बाट हो । घम के प्रति नरमतवादी जागत मानम के आस्थावान न होन का एक यह भी है युग म धमकी, श्रात्मा को तो गौण समझा गया और गाय प्रणाामा वे इतने व पोषण व परिवद्धन पर बल दिया गया जग जीवन वाध्य हा । वहीं साम्प्रदायिता पा . Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सृजन हुग्रा और धर्म जैसा मौलिक तत्त्व नाम्प्रदायिक विकार के कारण तिमिराच्छन्न हो गया । वस्तुत धर्म जैनी पवित्र और व्यवहार गुद्धि नोपान स्वरूप वस्तु के प्रति किमी की अरुचि हो ही नहीं सकती, पर जव मस्कार के नाम पर विकारो का पोपण होता है वहाँ श्रद्धा जम नहीं सकती। धर्म के प्रति अनास्था का कारण वैज्ञानिक प्रगति नहोकर उनके प्रति नव-मानस की आन्तरिक दृष्टि का न होना है। अनुभव तो और माधना की कमी के कारण ही वह विवाद की वस्तु बन गया है। यदि धर्म को एक विशुद्ध और व्यवहारवादी दृष्टि के स्प मे स्वीकार कर लिया जाय और इसके आगे किसी भी प्रकार की विगिप्ट सज्ञा ने इसे अभिगिप्त न किया जाय तो यह एक ऐनी आत्मोपन्यमूलक दृष्टि प्रदान करेगा कि प्रत्येक विचार को सहानुभूति और महिष्णुता मूलक दृष्टि से दूसरी को समझने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होगा, जिससे न वैयक्तिक मनमुटावो की वृद्धि होगी न जन-जन मे वैर-विरोध और मंतुलन विकृत होने की ही स्थिति का निर्माण होगा। "आधुनिक विज्ञान और अहिंसा के लेखक श्रीगणेश मुनिजी ने वर्तमान जीवनं और जगत की विभीपिकायो पर दृष्टि केन्द्रित करते हुए, विशिष्ट अनुभवो द्वारा जो प्रकाश डाला है वह विज्ञान और प्राध्यात्मिक सस्कृति मे रुचिशील पाठको के लिए नया मोड़ देने में सहायता करेगा । विनान जैसे महत्त्वपूर्ण विषय के साथ धर्म, अहिंसा और दर्शन का जो समन्वय प्रस्तुत कृति मे दृष्टिगोचर होता है, वह उनकी अनुभूति की एक किरण है। मेरा विश्वास है कि प्राथमिक विज्ञान के अभ्यासियो के लिए यह कृति मार्गदर्शन का काम देगी तथा धार्मिक क्षेत्र मे विज्ञान के प्रति जो अरुचि फैली हुई है, उसे दूर करने मे भी मार्गदर्शन कराती हुई मुनिश्री के प्रयास को साफल्य • प्रदान करेगी। 77, भूपालपुरा, उदयपुर दिनांक 9.2 1962 -मुनि कान्तिसागर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी वात याज वा युग विनान प्रधान होने से विश्व इतिहास में नित नये महत्त्व पूण अध्याय जुटते जा रहे हैं । विनान द्वारा मानवीय सुख समृद्धि के पोषण में पपाप्न अभिवृद्धि हुई है। मध्यकाल में उच्च कोटि के शासक व श्रीसपन नागरिप जिन मुखोत्पादन उपादानो को परपना तक नही करते थे, वे अद्य नन मामाय नागरिक तप को मुलम हैं । आवश्यकता से अधिक साधो की समाप्ति कभी-कभी व्यक्ति को प्रमादी बना देती है तो कभी-कभी अल्प श्रम द्वारा अजित शक्ति विकराल रूप भी धारणारलेती है। वामनावर प्रत्येक वस्तु पी अभिवद्धि चाह भले ही प्रारम्भिर काल में अनुक्ल प्रतीत होने लग पर जब वह सोच्च विवास की चोटी पर पहुंचती है तो उसके परिणाम मनुष्य के लिए मुग्वद नहीं हाते । जरो विनान को ही ल, इमको प्रारम्भिक परिणतिया में मानव चमत्त मा पर इसके अकल्पिन ध्वमात्मा परि णामा मे सिहर भी उठा। भय, पाशवा और अविश्वास मे अाज विश्व का मानव प्राकुल है । वह चाह रहा है कि विमान का प्रयोग निर्माण के पम हो। मानवीय मरगुण और सहिष्णुता या युग अव परसट ले रहा है। भौतिर मुरापमा पर प्राध्यात्मिक तत्व बी और मनुष्य की सहन प्रेरणा गतिगीर हो रही है। जो पश्चिमी राष्ट्र प्रत्यक्ष जगत काही मय पुत्र मानते पाए धे, रे पर इतन ज्य गए है कि विवातावा अपगीय जगत के प्रति प्राप्ट औरह-यान-पान, रहन-मन में भी प्राव यातायों को मीमित र रहे है । प्रत्पर यस्तु का ग्रौचित्य-अनौचिय वस्तुपरव न हारर व्यक्ति परप होता है, प्रति दृष्टिकोण पर अवलम्बित है। गायर-वापर तत्व भी व्यगिकी दृष्टि पर निभर है। विनान भी इगप्टि गे यदि मानव पो ममुनति के गिर पर पहुँगापर गुस, नाति, समृद्धि, महिष्णता पौर मह-अग्निल की मार उप्रेग्नि करता है ता वह मानवता के लिए वरदान मी परम्परा ग्यापिन या मोगा। यदि उत्तीग्न मे इमया उपयोग पिया गया नो गये पगितामा ने मानने या मोचने के लिए भी मानव मस्निप्प Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहेगा या नहीं - यह प्रश्न हे ! ग्रहिसा मानवीय व्यवस्थित जीवन पद्धति का ग्रालोकपूर्ण पथ है । सर्वागीण जीवन के सहग्रस्तित्व के आधार पर किए जाने वाले विकास को आलोकित करती हैं । मानव मे ऋजुता उत्पन्न कर समत्व की साधना की र सकेत कर प्राणी मात्र का सर्वोदय ही इसका मुख्य लक्ष्य है। विज्ञान पर भी हिंसा का कुछ ग्रव तो परिस्थितिजन्य विषम वातावरण को देखते हुए अनिवार्य - सा प्रतीत होने लगा है। पारस्परिक निर्वैरभाव जगत को अहिसा की साधना ही वल प्रदान कर मानव को मानव के नाते जीवित रहने की प्रेरणा देती है । संस्कृति और सभ्यता का वास्तविक विकास अहिंसा और विज्ञान के समन्वयात्मक सुख प्रयत्नो पर निर्भर है । प्रस्तुत कृति मे यथामति विज्ञान की श्रावश्यकता, लाभालाभ और इस की सर्वोत्तम परिणति ग्रादि विषयो पर सक्षेप मे प्रकाश डालने का प्रयत्न कर मानव काम्य तत्त्वो के प्रति ध्यान आकृष्ट करने का प्रयत्न किया गया है । यह विज्ञान के सामान्य बोधगम्य तथ्यो का एक प्रकार से सकलन-सा है । प्रस्तुत कृति के प्रथम प्रेरक सर्वोदयी सत श्री नेमीचन्द जी है, जिन्होने मुझे उत्साहित करते हुए सुझाया कि अहिसा के ग्रालोक मे विज्ञान पर मै कुछ लिखूँ । परिणाम प्रापके सम्मुख है । उन्होने इसके सपादन के लिए जो श्रम किया है, तदर्थ किन गब्दो मे कृतज्ञता व्यक्त करूं । जब 1960 का व्यावर का वर्षावास समाप्त कर उदयपुर पहुँचने पर मुनिश्री कातिसागर जी का समागम हुआ, प्रस्तुत कृति अवलोकनार्थ उन्हें दी गई । ग्रापने इसकी उपयोगिता को देखकर भाषा विषयक आवश्यक सपादनार्थ सुझाव प्रेपित किये। मुझे भी जँचा कि सचमुच कुछ ग्रावश्यक और भी परिवर्तन करने पर कृति मे निखार आ जायेगा । यह परम सौभाग्य है कि मुनिश्री ने इसके सपादन व श्रावश्यक परिवर्तन-परिवर्द्धन का दायित्व स्वीकार कर लिया, साथ ही चार शब्द भी लिखकर जो अनुग्रह किया है, वह शब्दातीत है । सर्वप्रथम मै सद्गुरुवर्य श्रद्धेय मंत्री श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के ति कृतज्ञता प्रकट करना चाहूँगा कि उन्ही की प्रवल प्रेरणा और दिशा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन द्वारा मैं कुछ हो सपा । उही की कृपा के कारण उत्साहित होकर मैं लेखनी मभाव सा। ___ श्रमण राघ के उपाध्याय प०प्रवर श्रद्धेय श्री हस्तीमल जी महाराज के चिन्तन और मनन भी मेरे लिए उचित पथ प्रदर्शन बन है। पूज्य सदगुरु वय व उपाध्याय जी महाराज की अनुपमेय प्रियागीलता का मैंन सदर ही साध्य दृष्टि से देया है। ___ अपन अभिन म्नही माथी माहित्यरत्न और शास्त्रीपद विभूपित श्री देवेद्र मुनि महाराज के सौजन्य को इमलिए विस्मृन नहीं कर सकता कि उनकी प्रति अस्वस्थ रह्ने के बावजूद भी, मैं उनम मनत महयोग लेता रहा हूँ। १० श्री नारा मुनिजी महाराज व वदीभिन ती चेतन मुनिजी महारान के स्नहास्पद व्यवहार तो म्मरणीय हो हैं। जन प्रगत व यास्त्री नगर व वरिष्ठ मपाइप १० श्री शोभानद्र जी भारिल्ल ने इसे ध्यान से देपर सत परामर्श द्वारा सुदानाने म जो योग दिया है, वह हृदयपटन पर अक्ति रगा। मुप्रसिद्ध पनानिर व विश्व विद्यालय अनुदान प्रायाग के अध्यक्ष डा० दौमिह जी कोठारी, दिल्ली ने दम पटवर जो वहमूत्य विचार य्यात पिए है व मर उत्माह का वहा रह हैं। भारतीय गासन के माय विगिप्ट वैमानिक डा० टी० बी० परिहार साय मी मम्मति के प्रनिस्वरूप में उननी या प्रासा बहँ । सद्गुरु भक्त सम्माननीय वनील श्री रागनलाल जी मेहता, गागदा निवामी व चागपुरा (मैनाद) निवामी श्री टक्चद जी पारवाड या सह्याग प्रवि स्मरणीय रहगा जिहान अमूल्य मह्योग दार पानुलिपि का मुद्रण याय बनाया। प्रत म मैं उन सभी सराय सह्यागिया का हदय ग ग्राभार मानता हैं, जिनरा वि मैन प्रस्तुन वृति मे सह्योग लिया है। मैं वामला परता हूँ कि मानवता में विभाग यह पनि युछ भी पय प्रगाहा मगीता में अपना प्रयन सफ्त ममभूगा। यसन मी, ~गणेशमुनि शास्त्री मादडी (मारवाद) 'साहि यरल' विकार 1962 Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाँ क्या है ? 1 दो शक्तियां 0 प्राकृतिक और आध्यात्मिक . भारत की विशेषता ० भौतिकता की प्रार ० दो घट ० मुखावेपण या परिणाम 3 विशान या पोर कसे? ० विनान क्या है? + जन दृष्टि से विनान 5 दान वा स्वस्प और प्रयोजन ० दशन की परिभापा ० दान का उद्गम स्थल 0 भारतीय संस्कृति मे दानो या स्वरूप 0 बौद्ध दान ० याय दान ० सान्य दा ० जादान भोपिन दान ० जमिनी दान ० पारि दान 7 दान और विमान ० यिनात की पानी तस्वारे ० विमापौर दान का समय s भाजपा युग ० दिनाना उदेर 85555752520Na er ert-- Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० आधुनिक विज्ञान का प्रारम्भ ० विज्ञान की प्रगति ने पूर्व 9. अविकसित धर्म और विज्ञान का नघर्ष 10. विज्ञान का सार्वभीम प्रभाव ० विश्व को निकट लाने मे विनान का हाथ 11. धर्म का स्वल्प भारतवर्ष मे धर्म ० धर्म की परिभाषा ० धर्म का प्रादुर्भाव ० धर्म की आवश्यकता ० धार्मिक गिना 12. धर्म और विज्ञान 13. विज्ञान द्वारा नुख समृद्धि 14. विज्ञान के महारे प्राकृतिक गक्ति का उपयोग 15. आधुनिक विज्ञान द्वारा मानव सेवा 16. विज्ञान के नए उच्छ्वास 17. वैज्ञानिक विजय ० अन्तरिक्ष मे मानव की सफल यात्राएँ 18. विज्ञान पर एक तटस्य चिंतन 19. वर्तमान विज्ञान वरदान या अभिशाप? 20. आणविक अस्त्र प्रयोगो की भयंकर प्रतिक्रिया 21. वर्तमान युद्ध, विज्ञान और अणु अस्त्र 22 अणुपरीक्षण प्रतिवन्ध एवं नि.गस्त्रीकरण 23 अहिमा और विज्ञान ० विश्व गान्ति और अहिंसा ० हिमा का प्रतिकार अहिंसा से ० अहिह्मा का चमत्कार 24. विश्व गान्ति अहिंसा से या अणुअस्त्रो से? 25. हिंसात्मक उपायगे मे विश्व सुरक्षा के स्वप्न 83 87 90 97 98 99 100 101 108 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 115 121 125 127 132 134 138 16 विश्व शाति के अहिंसा मर आप ० मयुक्न राष्ट्र मध ० पचणील ० विश्व शान्ति पे दम मूत्र 27 विना पर अहिंसा का प्रयुग १९ प्राधुनिय विनान या रचनात्मर उपयोग 90 हिमर प्रयोग ये रतु धम और विशान म मामजस्य 30 विमान की मधि हिमा के साथ 31 विनाा पर अहिंगा या वाहन 32 अहिंसा का स्वरूप ० अहिसा का उदय ० अहिंसा की परिमापा ० हिमा पहिसा वा मानदण्ड 33 अहिंमा की शक्ति बढ़ानी है 34 सामूहिव अहिमा के अभिनव प्रयोग 37 अस्मिा की मावभौम गपित 36 एक उपमहारामा दष्टि अाधारभूत अथ व पत्र-पविताएँ 140 142 142 142 144 163 100 162 104 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याधुनिक विज्ञान और अहिंसा सार्थक और समान जीवन की ओर उत्प्रेरित भी करती है । इन दोनो शक्तियो ने अपनी चमत्कृति द्वारा मानव समाज को खूब प्रभावित किया है | विज्ञान के अद्भुत रहस्यों से मानव जगत भलीभांति सुपरिचित है तो अहिसा ने भी अपनी व्यक्तिस्वातत्र्यमूलक समत्व की मौलिक भावना का परिचय देकर मानव समाज को अनुप्राणित किया है । मानव जगत् के भौतिक क्षेत्र को विज्ञान ने इसलिए अधिक प्रभावित किया है कि सामाजिक जीवन-यापन की प्रक्रियाओ का सीधा सम्बन्ध इसी से है, क्योकि सामाजिक सगठन और अन्य आवश्यक शक्ति स्रोतो को सुदृढ बनाये रखने के लिए विज्ञान अत्यन्त आवश्यक शक्तिपुज है । इसकी प्राप्ति के लिए मानव को कठिन साधनाओ का सामना करना पडा है । चिन्तन, मनन एव प्रयोगो द्वारा इसकी सार्थकता पर जहाँ गम्भीर गवेषणा विवक्षित रही है, वहाँ ग्रहिसा तत्त्व की उपलब्धि के लिए भी ऋषि-मुनियों को तपोमय जीवन व्यतीत करना पडा है । ग्रहिसा का सीधा सम्बन्ध प्राध्यात्मिक शक्ति अर्थात् आत्मपरक होकर भी उसका स्वरूप सामाजिक ही रहा है। भौतिक प्राकृतिक शक्ति, जो पौद्गलिक शक्ति का ही एक अग है, पर आध्यात्मिक शक्ति का नियन्त्रण, सामाजिक शाति के लिए बनाये रखना आवश्यक है और यह अहिंसा प्राध्यात्मिक शक्ति द्वारा ही सम्भव है । अहिंसा के सफल प्रयोगो द्वारा सहस्राब्दियों तक मानव समाज ने ही नही, अपितु, प्राणी मात्र ने शान्ति और सन्तोष का अनुभव किया है । ये शक्तियाँ ही राष्ट्र की अनुपम सम्पत्ति है, जिनके सदुपयोग पर मानव समाज का वास्तविक गठन अवलम्बित है । तीत इसका साक्षी है कि इनकी साधना मे मानव ने कभी सफलता और कभी विफलता ही प्राप्त की है । 2 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की विशेषता प्रत्येव राप्ट की एक ऐसी साम्कृतिक मौलिक सम्पत्ति होती है, जिससे न वेवल राप्ट निवासी ही, अपितु, परराष्ट्रीय समाज भी अनुप्राणित होता रहा है। भारलवप की अपनी निजी विशेषता अध्यात्मशक्ति की मौलिकता पर अवलम्बित रही है । भारतीय चितन का केद्र विन्दु अहिंसा-अध्यात्म रहा है । सस्कृति इस महान् शाश्वत तथ्य मे आवत है । साहजिक वृत्ति और दृष्टि अध्यात्म मे प्रोत प्रोत रही है। यही कारण है कि भारत शताब्दिया तक विभिन्न जातियो के सास्कृतिक प्रारमण के बावजूद भी अपना मौलिक व्यक्तित्व मुरक्षित रखने म समथ रहा है। आत्मपरक सिद्धात ही विसी भी राष्ट्र की नीव है । यहाँ प्रमगत स्पष्ट कर दना आवश्यक जान पड़ता है वि भारतीय चितन का स्वर अत्यधिर पामलक्षीय रहने का यह तात्पय नहीं है कि वह प्रारतिक-भौतिक--जगत के प्रति पूणत उपक्षित रहा। अतीत से पालोक से स्पष्ट है कि भारतीय मनीपिया ने जितना श्रम और शक्ति का व्यय आत्मपरव गवेपणा म लगाया है उतना ही भौतिक शक्ति की विभिन्न गावामा के अनुशीलन में भी। प्रारमलभीय गस्कृति के प्रति यहाँ के सन्त महन्त और तीयङ्करी का भुसाव इमलिए विरोप रहा है कि वेवल भौतिक पाक्तिकी उपासना या प्राप्ति ही मानव का चरम साध्य न रहकर, एक मात्र साधन रहा है। साध्य की प्राप्ति तो अतमुखी चित वृत्ति के वियाम द्वारा ही सम्भव है, जो अहिंसा वा मत्रिय मायना द्वारा प्राप्य है। दानिव चिन्नों न भौतिय शक्ति को वाम करना ही मानव की अन्तिम विजय नही माना। वाह्य शक्ति का पीपरण या विकास भले ही राष्ट्र और ममाज म क्षणिक सुख गालिका प्रमार पर मरे पर वह स्थायी शान्ति पा जनव नही हो मरना । पाश्वत शातिमा गम्भीर मन्दश वीतराग वाणीम इस प्रकार प्रतिध्वनिन हुआ है Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान और अहिसा का सक्रिय अग बनाने मे है । जो प्राणी या जाति सुन्दर, प्रेरक और उपादेय विचारकणो को स्वजीवन में प्रतिष्ठित नही करती, वह न तो उन्नति के शिखर पर पहुँच सकती है और न ससम्मान जीवित रह सकती है, और न भविष्य के लिए उत्क्रान्तिपूर्ण विकास परम्परा ही छोड़ जाती है । इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि मानव ने अपनी शक्ति के बल पर सदैव यह चेष्टा की है कि पौद्गलिक शक्ति एकान्तरूपेण उस पर अपना अधिकार कही स्थापित न कर ले। मानवेतर प्राणियो के समान भौतिक शक्ति के वशवर्ती कभी नही रहा । हाँ, भौतिक वैभव वृद्ध्यर्थ अधिक-से-अधिक श्रम कर सुख के साधन एकत्र करने मे आशातीत सफलता प्राप्त्यर्थ अवश्य ही प्रयत्नशील रहा व आशिक रूप मे कृतकार्य भी हुमा । आज मानव पौद्गलिक शक्ति की चरम सीमा पर पहुँचने के लिए आशान्वित है ।। मानव स्वीकृत सुख आधिभौतिक था।याधुनिक विज्ञान को भी सुखान्वेषण वृत्ति का ही परिणाम, कुछ अंशो मे मान लिया जाय तो अत्युक्ति न होगी । आज की अपेक्षा अतीत के मानव की सुख की परिभाषा भिन्न थी। उसका रहन-सहन, रीति-नीति और जीवन-यापन का ढग सापेक्षत सर्वथा था। ज्यो-ज्यो जिज्ञासु वुद्धि के प्रकाश मे मानव ने विकास के लिए चिन्तन भिन्न को विस्तृत किया त्यो त्यो उसकी लौकिक भावना गतिमान होती गई। अर्वाचीन और अतीत के मानवो की चिन्तन-धारा मे बहुत बड़ा अन्तर रहा है। समाजशास्त्र का यह अकाट्य नियम रहा है कि विकास-मात्र युगानुकूल साधन और परिस्थितियो पर निर्भर रहता है। यहाँ एक बात का स्पष्टीकरण आवश्यक जान पडता है कि पशुप्रो मे परिवर्तन की वृत्ति का अभाव होता है । वह जैसा अतीत मे था वैसा आज भी है। उदाहरणार्थ उसकी मॉद मे अन्य पशु के प्रविष्ट हो जाने पर उसे समझा-बुझाकर विदा करने का ढग पशु के समाज मे नही है, बल्कि इसके विपरीत घुर्राना, झपटना, नोचना, शृगो से प्रहार करना, लाते मारना और घुरकना आदि प्रवृत्तियो द्वारा रक्षा की जाती रही है । तात्पर्य यह कि पशु प्रकृति प्रदत्त सुख-सुविधायो तक ही अपने को सीमित रखता है जब कि मानव केवल प्रकृति के प्रासरे न रहकर सतत् चिन्तन और श्रम द्वारा जीवन-रक्षा के नित नये साधनो का आविष्कार कर रहा है । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन विज्ञान क्यो और कैसे मानव जी मुखावेषण वृत्ति का परिणाम हो विनान है। इसके प्राविप्पारन नूतनत्व के कारण मनुष्य को भूल-भुलैया मे डाल दिया है। यह यह मोचन की स्थिति म नहीं है कि वास्तविक सुख वहां और क्सिमे है ? क्योरि अतीत में उन दिना के विनान की परिमापा के अनुसार जोबनानिक प्राविष्कार होते थे उनका उपभोग आज के समान जन माधारण न करपाना था, जब पि प्राज एक वैज्ञानिक की साधना के परिणाम से विश्व के मानव न केवल प्रभावित ही होते हैं, अपितु, उससे लाभान्वित होकर दैनिक जीवन को समुचित पावश्यकतामा की पूर्ति भी सरलतापूवर कर सकते हैं। प्राचाय हेमचन्द्र भूरि ने विज्ञान कामणे शाने।' मत्रिय ज्ञान (Practical Knowledge) का ही विज्ञान कहा है। जिस पान के द्वारा मनुष्य को प्रत्यक्ष काय करते हुए नपुण्य प्राप्त हो, वही विनान है । भौतिर विनान की दप्टि में प्रतिम तथ्य के रूप में माना जाने वाला प्रत्यक्ष दाशनिक प्रत्यक्ष मे भिन होता है, अर्थान् पोद्गलिक शारित और उसके पर्याया का पूण मान तव तव गम्भव नहीं है जब तक कि मनुप्य नान की समस्त शाखामा के प्रकाश का प्राप्त नहीं कर लेता है। बमानिक प्रत्यक्ष सीमित है और ज्ञान प्रभा से पालोपित प्रत्यक्ष अमीमित है। मान प्रना में से एक की ओर ले जाता है तो विनान एन मे मे अनय की पोर। मानप्राध्यात्मिा अहिंसामूला पिन वा प्रतिनिधि है तो विनान भौतिय "क्ति का प्रतीक है। आध्यात्मिा जीवन विनाम के लिए मान को नितान्त प्रायश्यकता है ता भौति गुख-समृद्धि और वभव की प्राप्ति के लिा विनान उपादय है। विज्ञान पयार मारव जीवन मत्या वपण की एक बहुत बही प्रयागशाना है। इगये Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 आधुनिक विज्ञान और हिंसा है । जैन वैज्ञानिक पुद्गल के विभिन्न पर्यायों का सूक्ष्म और गम्भीर विवेचन करते हुए अणु तक पहुँचे है। पुद्गल की अनन्त शक्ति का भी विलेपण जैन साहित्य में वर्णित है । पर जहाँ तक वैज्ञानिक अनुशीलन का प्रश्न है इसे किसी धर्म, सम्प्रदाय या देश की सकीर्ण सीमाओ मे नही बांधा जा सकता । वह तो मानवमात्र की अनुभूति की अभिव्यक्ति है । प्राचीन भारतीय साहित्य पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट विदित होता है कि विश्व स्वरूप को जानने के लिए नाना प्रकार के प्रश्न और समाधान ऋग्वेद व उपनिषद् काल से लगा कर आज तक होते आये है । ऋग्वेद मे उल्लिखित दीर्घतमा ऋषि को यह शका हुई कि विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई ? इसे कौन जानता है ? क्या इसका पता लगना सम्भव है ? वही आगे कहता है, मैं तो इस रहस्य से परिचित नही हूँ । पर इतस्ततः भ्रमण से ज्ञात हुआ कि वाणी द्वारा सत्य के दर्शन होते है । सत्य एक है किन्तु उसके वर्णन के प्रकार अनेक है । एक ही सत्य के वाणी द्वारा सैकडो प्रयोग देखे जाते है । इस ऋषि के द्वारा तात्कालिक सम्पूर्ण मानवीय जिज्ञासुवृत्ति के दर्शन होते है । नासदीय सूक्त के ऋषि भी जगत की गम्भीर गवेपणा करते हुए सत्य और सत्य की चर्चा करते है । यद्यपि इनके व्यक्तिकरण मे पर्याप्त मतभिन्नता दृष्टिगोचर होती है, किन्तु जिज्ञासा सभी की वही है । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँच दर्शन का स्वरूप और प्रयोजन दशन मानव मस्तिष्क की वौद्धिक उपलब्धि है। प्रश्न है दशन की समस्या और प्रयोजन क्या है ? इस सम्बध में प्रत्येक पारम्परिक विचारका म मत भिनता है। एक ही देश के दाशनिक दशन के प्रति एक मम नहीं हैं। ऐसी स्थिति मे जीवन और जगत के प्रति दृष्टिकोण मे ही जहाँ अतर है वहाँ विभिन्न मतभेदोका होना पाश्चय की बात नहीं। पूर्व और पश्चिम वे विभिन्न दाशनिको मे पयाप्त मत बभिन्य दृष्टिगोचर होता है। यद्यपि विश्व की दाशनिक चितन प्रणाली वा विश्लेपण यहाँ विवक्षित नहीं, तो भी केवल स्यूल रूप से उल्लेस मात्र पर्याप्त होगा। यूरोपीय दशन का उद्देश्य और उसकी एक मात्र समस्या विश्व व्याख्या परने की है अर्थात विश्व के सभी विमिन अर्वाचीन दानिव इसी तथ्य को लेकर चले हैं । यद्यपि यूरोपीय मध्ययुगीन दशन मे भिन्नत्व अवश्य है। यूना मान-सायों यीच उच्चतम विचारसायो शताब्दियो से माधना स्थली के म्प में विन्यात रहा है। थलीज एनरनीमेण्टर, हैराकनाईटग और ऐनविजमिनीज प्रादि या मतव्य रहा है कि ददयमान जगन की विभिन व्यक्तियों का उद्भव से सभव हो। डिमाकाइटस जीव और जगत की व्याख्या के प्रति शायद इमलिए प्रारपित रही हैं कि उह इसका पान ही था। सौपिस्ट शिक्षा मापवाद मे ही दान को उभापर मनुष्य के सामाजिक वनतिम विनामो वा बौदिर मण्डा कर गरे । तत्वमीमासा या क्षेत्र समस्त विश्व है, पर यूरोपीय दान मारमा और परमात्मा के प्रति जिनामा जगो कोई वस्तु नती है । या तो अद्यतन यूरोपीय दान के प्राधार-म्नम्भ ठेवाड प्रात्मा मे ही अपन चिन्ता या प्रारम्भ करत हैं, पर दान पो दप्टि ग वह पय सिदान्न लेकर चले हैं। यहाँ प्रात्म मिति, ईश्वर मिति द्वार या पररण मात्र है। तात्पप यूरोपीय दानिव बाह्य जगत तर ही चितन Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान और अहिंसा तर्क को वास्तविकता की कसौटी पर कसकर उसका समीचीन समाधान भी करता है । जगत् के मूल मे कौन-सा तत्त्व काम करता है ? जीवन का उस तत्त्व के साथ क्या सम्बन्ध है ? आध्यात्मिक और भौतिक तत्त्वो की सत्ता मे क्या अन्तर है ? जीव और शीव के बीच कौन-सा तत्त्व वाधक है ? वह उनसे भिन्न कैसे हो सकता है ज्ञान और वाह्य पदार्थों के बीच क्या सम्बन्ध हो सकता है ? हेय, जेय और उपादेय का सम्यक् विश्लेपण करना आदि तात्त्विक विपयों की खोज ही दर्शन का प्रमुख समुद्देश्य है। दर्शन भौतिक विज्ञान की भांति वस्तु या पदार्थ का विश्लेपण ही नहीं करता, किन्तु उसकी उपयोगिता पर भी विचार करता है। वह जीवन और जगत् की वास्तविकता, अवास्तविकता का भी पूर्ण परिचय कराता है । इस प्रकार दर्शन का स्वरूप दर्शाने के पश्चात् दर्शन का उद्गम स्थल कौन-सा है, और क्या हो सकता है, इस पर विभिन्न परम्पराग्रो का दृष्टिकोण प्रकाश मे लाना आवश्यक हो जाता है। दर्शन का उद्गम स्थल मानव चिन्तनशील प्राणी है । चिन्तन मानव का आदि स्वभाव है। वह प्रत्येक वस्तु पर चिन्तन-मनन करता है । जहाँ से मानव चिन्तन-मनन प्रारम्भ करता है, वही से दर्शन प्रारम्भ हो जाता है। इस सिद्धान्तानुसार दर्शन उतना ही पुरातन है जितना कि मानव स्वय । फिर भी दर्शन की उद्भूति के सम्बन्ध मे दार्शनिक विद्वानों के विभिन्न दृष्टिकोण रहे हैं। जिनको जैसी परिस्थिति तथा वातावरण प्राप्त होता रहा, उसके अनुरूप दर्शन उद्भूत चिन्तन की अनुभूति होती रही है। किसी ने तर्क को प्रधानता दी, किसी ने वाह्य जगत् को, किसी ने आत्म तत्त्व को तो किसी ने सन्देह और आश्चर्य को। इन सव दृष्टिकोणो के अतिरिक्त इसमे कुछ और भी वाह्य परिस्थितियाँ कार्य करती हुई दिखलाई पडती है। तर्क-कुछ दार्शनिको का यह अभिमत है कि दर्शन का उद्गम स्थल तर्क है। "कि तत्त्वम्' इस तर्क से ही दर्शन का आविर्भाव होता है। दर्शन युग के प्रसव से पूर्व श्रद्धा युग था। श्रद्धा युग मे प्राप्त पुरुपो की वाणी को अत्यन्त श्रद्धा की दृष्टि से मानते थे। क्योकि मानवों के मस्तिष्क मे यह कल्पना होती थी कि यह जो कहा जारहा है वह हमारे परम आराध्य देव के श्रीमुख से उच्च Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 दान या स्वस्प और प्रयोजन रित है, प्रत वह बिना विमी सोच के उसे स्वीकार कर लेता है। यह वाणी महावीर की है, यह उपदेश बुद्ध का दिया हुआ है, यह शिक्षा मनु की दी हुई है, इस प्रकार जिरा व्यक्ति को श्रद्धा जिगके प्रति होती थी, उस पुस्प के वचन उमवे लिए शास्त्र रूप बन जात हैं। युग परियतनशील है। इस दृष्टि ने युग ने करवट बदनी, मानव मस्तिप्त यी उवरा भूमि से श्रद्धा के स्थान पर तर दे सकुर प्रस्फुटित होने लगे । मनुष्य के विचारों का मयन चला पौर तक ने अपना बन पड निया। यह उम पुरुष ने कहा है, इमलिए हम तरय माने, एमा क्या ' गत्य का मानदण्ड तक, युक्ति और प्रमाण होना पाहिा । स यही स दान का उदगम हाना है। प्राश्चय--प्रतिभासम्पन पाश्चात्य दानिय 'प्लेटा' प्रादि का यह मनव्य है रिदाबी उद्भूति प्राश्चय मे हुई है। जब मानव प्रारम्भ में रिसी अदभुत वस्तु या प्रत्यक्षीकरण करता है तो सहसा उसके हृदय में मा नप उत्सान होता है, और यह होना भी स्वाभाविप है। उमाश्चय को मान भरने के लिए उमपी जिलासा, चितन पौर पल्पना माग बढ़ती है। अमर धीरे धीरे यही जिनामा,चिनन पोर यल्पना दान के Fप मे परि वनित हो जाती है। सह-इमी प्रसार कुछ दागनिमीका विश्वास है विदशनकी उदभूति प्रावप से नहीं रिन्नुमन्दह रेहुई है। जर मानय याम्वय वे विषय मे अथवा इम भौतिष जगत् वी गता वे गम्मघ म सहममुत्पन्न होता है, उस समय उगमी विचारपारा जिम माग का अनुसरण करती है, वही माग दान पा धारण परता है। प्रसिद्ध विद्वान् वाड मादिका अभिमत भी इमी पगार या है। बुद्धिप्रेम-~बहागे दागनिर दायो उति या माधार बुद्धि प्रेम मेमान दगान अपनी बुदि म त रह वरमा है, यह उगे विपगित देगना पाहता है । बुद्धि प्रेम को पमिम्पमितही दान में मप में प्रकट होता है।इम पारामार दान गाभर याई प्रयाजन नहीं, येवर बुद्धि शाही गुप पिशाम । यहाँ जिग पुदि का प्रयोग हुपाई उम सामाय विचार. नाममनार पिचर पुरा भिगमन्ना उपशुपत होगा। मायास्मिाना-पानिरम भी नी दान मोरनि माय Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा मे रही हुई अाध्यात्मिक शक्ति की प्रेरणा मानते है । जव मनुष्य को वाह्यभौतिक पदार्थ मे शान्ति का अनुभव नही होता है, तब वह 'चिर शान्ति' की खोज करने लगता है। आध्यात्मिक पिपासा पूर्त्यर्थ नवीन मार्ग का अनुगमन करता है । मानव के इस प्रयत्न कोही दर्शन का नाम दिया गया है। प्राध्यात्मिक प्रेरणा का प्रमुख आधार है वर्तमान से असतोप और भविप्य की उज्ज्वलता का दर्शन । यही भारतीय परम्परा मे दर्शन की आधार भूमि रही है । आध्यात्मिक प्रेरणा से जिस दर्शन की उद्भूति होती है, वह दर्शन उच्चकोटि का समझा जाता है । कुछ दार्शनिक व्यावहारिकता से भी दर्शन उद्भूति का सम्बन्ध लागू करते है। इस प्रकार पाश्चात्य दार्शनिको की दृष्टि मे तर्क, सशय, आश्चर्य आदि दर्शन के प्रादुर्भाव के कारण माने गए है। पर पौर्वात्य दार्शनिको की दृष्टि से दुख ही दर्शन-उत्पत्ति का प्रधान कारण है। दुख से मुक्ति पाना यही भारतीय दर्शनशास्त्र का मुख्य ध्येय है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छह भारतीय संस्कृति में दर्शनो का स्वरूप प्रतापपूर्ण प्रतिभा सम्पन्न श्राचाय हरिभद्र ने अपने 'पदान समुच्चय' में भारतवप में प्रचलित प्रधान दाना का विवेचन प्रस्तुत किया है। उसम सवप्रथम बौद्धन्दणन वा उल्लेख है । बौद्ध वगन बौद्ध दान में प्रणता महात्मा बुद्ध हैं । इस दगन में मुख्य चार तत्त्व हैं, जिन्ह व ग्राम सत्य के नाम से सम्बोधित करत हैं ( 1 ) दुस, ( 2 ) समु दय, (3) भाग और (1) निराय । प्रथम प्राय सत्य दुम है। बोद्ध-दशन मा प्रमुख उद्देश्य इस दुख मे मुक्त होना है । ससारावस्था के पांच स्वाध है और न ही दुरा ये प्रमुख कारण है । व पाच स्वध इस प्रकार हैंविमान, वेदना, गा, गम्पार और रूप । जब ये पांचों स्वाध समाप्त हो जाते हैं, दुम्नत समाप्त हो जाता है। दूसरा श्राप सत्य है ममुदय । तालय है पात्मा म रागद्वेष की भावना उत्पन होना। इस विराट विश्व में यह मरा है यह तग है। यह जो राग द्वेपमय भाषा को ग्रभिय्यजना* यागमुदय है । ननीय पाय रात्य है माग | भाग का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि मगार म जितन भी पट, पट आदि पदाय हैं, व सभी क्षणित है । जा प्रथम ग म ध व द्वितीय क्षण म नहीं है, किन्तु मिथ्या वासना ये कारण यह यही है मा पाभाग होने लगता है। इसके विपरीत समस्त पाय 1 सरग करन बिना भवा मश्या रूपमव च । 2 141 MF, numai szefa 1 --- 1 -ikan, 9027 Agent i Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा क्षणिक हैं, ऐसा संस्कार उत्पन्न हो जाना मार्ग है। चतुर्थ आर्य सत्य निरोध है । सर्व प्रकार के दुःखो से मुक्ति मिलने का नाम ही निरोध है। इस प्रकार वौद्ध-दर्शन का मूलाधार दुःख ही है । संसारी जीव का स्कन्ध रूप दु.ख से पृथक् करना, यही बौद्ध-दर्शन के आविर्भाव का समुद्देश्य है। न्याय दर्शन न्याय दर्शन के संस्थापक अक्षपाद ऋपि थे। इस दर्शन के आराधक देव महेश्वर है जो सृष्टि के उत्पादक, रक्षक और संहारक है । वह विभु, नित्य तथा सर्वन है, जिनकी प्रेरणा से ही समस्त सृष्टि का संकलन, आकलन होता है। न्याय दर्शन ने सोलह तत्त्व माने है । प्रमाण, प्रमेय, सशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह और स्थान । जव इन सोलह तत्त्वो का परिज्ञान जीव को होता है, तव उसके दुख और कारणो की परम्परा समाप्त होती है। इस प्रकार दु.ख की निवृत्ति और मोक्ष-अपवर्ग की प्राप्ति हेतु ही प्रस्तुत दर्शन का प्रादुर्भाव होता है। यांख्य दर्शन साख्य दर्शन का प्रयोजन भी दुःख निवृत्ति है । इसके मुख्य दो भेद हैं। एक ईश्वरवादी और दूसरा निरीश्वरवादी। जो ईश्वरवादी है वे सृष्टि की उत्पत्ति ईश्वर से मानते है, और जो निरीश्वरवादी है, वे सृष्टि के निर्माण मे ईश्वर का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करते । सांख्य दर्शन के विचारानुसार दुःख की तीन राशियाँ है । आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक । शारीरिक और मानसिक ये दुःख आध्यात्मिक कहलाते है तथा राक्षस आदि के आवेग से जोदुख होते है वे आधिदैविक दुख है और अन्य स्थावर तथा जगम आदि प्राणियों से जो दु ख उत्पन्न होते है वे आधिभौतिक दुख कहलाते है । इन दु खो का नाश वाह्य साधन व उपायो से नही होता है। किन्तु इनका सर्वनाश ज्ञान से ही होता है । ज्ञान क्या है ? उसका प्राप्ति के 1. क्षणिका. सर्वसस्कारा, इत्येव वासना मता । स मार्ग इह विधेयो, निरोधो, मोक्ष उच्यते ।। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय मस्कृति मे दरानो का स्वम्प 19 क्या उपाय हैं ' प्रादि विचारधारा मे ही सास्य दान की उत्पत्ति हुई है। जैन दशन जन दान का प्रमुख उद्देश्य है, प्रारमा दुग में मुफ्त होकर अन त मुख यी पोर चढे । जीव और पुद्गल इन दोना कामम्बध अनन्त काल मे चना पा रहा है। वाह्य पुदगलो के सयोग मे ही जीव नाना प्रकार के क्प्टो का अनुभव प्ररता है । जव तर जीव और पुदगल कामम्ब धविच्छेद नहीं होगा तब तक आ यात्मिक सुख असम्भव है। जीव और पुद्ान दोनो तत्त्व अलग कसे हो सकते है ? उसके सम्बध म आचाय उमास्वाति ने अपने तत्त्वाथमूत्र म-"सम्यव दान, सम्यक नान और सम्यक चारित्र" ये तीन माग बतलाय हैं। तीना के प्राचरण से ही जीव और पुदगल सवथा अलग हो सकते हैं। एक बार जीव और पुदगल पृथव होन पर पुन उनका कभी मन प नहीं होता। वह जीव अनन नान, अन तदान, अनन्त भुग और अनन्त वीय चाला बन जाता है । इस प्रकार उन दशन का उद्देश्य स्पष्ट मना रहा है कि प्राणी दुख मे निवत होवर अनन्त सुप मे प्रवृत्ति करें। योपिक वशन ___वशेपिन दान के सस्थापक कणाद ऋषि थे । प्रस्तुत दशन का उद्देश्य भी नि श्रेयस की प्राप्ति हेतु ही धम का प्रादुर्भाव होता है। कणाद ने अपने बैशेपिर सून मे लिया है-धम वह पदाय है जिसमे मासारिक उत्थान और पारमाथिप नि मम दोना मिलते हैं।' जमिनी दशन प्रस्तुत दान के प्रणेता जमिनी प्रापि हैं । जमिनी ऋपि के दो गिप्य थे। पूर मीमामय और उत्तर मोमासर । उनके नाम गे ही यह दान, पूर्व भीमानय और उत्तर मीमामक के नाम से प्रसिद्ध है। पूर्व मीमामर यनादि सामाननपाते हैं। इसरे दो भेद हैं-प्रभागर और भाट्टा उत्तर मौमामय सहतवादी वेदाली हैं । उरावे भी अनेर भेद हैं । म देशन ने भी धम यो 1 मम्यादरानमानचारित्रापि मोदमाग । -तत्याय गत्र।1-1 2 सोनियममिति स धम । ---रोपिक सूम। 1-2 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान और अहिंसा ही प्रधानता दी है। मानव, धर्म के द्वारा ही कल्याण का मार्ग जान सकता है। अतः धर्म के स्वरूप को ठीक तरह से समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि धर्म क्या है ? उसके साधन क्या हो सकते हैं ? तथा उसका अन्तिम प्रयोजन कैसे पूर्ण किया जा सकता है ? ग्रादि प्रश्नो की मीमासा (युक्तियुक्त पूर्ण) का नाम ही दर्शन है। इस प्रकार प्रस्तुत दर्शन का भी वही उद्देश्य प्रतीत होता है, जो अन्य दर्शनो का है । चार्वाक दर्शन भारतीय दर्शनो मे चार्वाक एकान्त भौतिकवादी दर्शन है । इस दर्शन की मान्यतानुसार सुख-दुःख इसी लोक तक सीमित हैं । यह लोक अर्थात् पुनर्जन्म को नही मानता । इस जीवन मे जितना मुख का उपभोग किया जाय उतना ही श्रेयस्कर है। इसके सम्बन्ध मे उनका एक सिद्धान्त-मूत्र प्रसिद्ध है कि ऋण करके भी इन्सान को खूब घी पीना चाहिए । मृत्यु के पश्चात् पुन. जन्म लेना पड़ेगा, ऐसा कहना सव मिथ्या है । क्योकि गरीर की राख हो जाने पर कोई चीज नही वचती, जो पुन. जन्म धारण कर सके । 1 चार्वाक के मतानुसार ऐहिक सुख की प्राप्ति के लिए ही दार्शनिक विचारधारा का जन्म होता है। इस प्रकार भारतीय दर्शनो मे चार्वाक दर्शन को छोड़कर शेष सभी दर्शन दुःख से मुक्त होकर नि.श्रेयस की प्राप्ति मे ही निष्ठा रखते है । 1. यावत् जीवेत् सुख जीवेत् ऋण कृत्वा नं पिवेत् । भन्मीभूतत्य देहस्य पुनरागमन कुत ॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात दर्शन और विज्ञान श्राज इस भौतिकतावाद के चकाचौंध मे पानवाले व्यक्तिया की प्रास्था दर्शन के प्रति जितनी नहीं है, वही उससे अधिक विज्ञान के प्रति है | इसका मूल कारण मानव का श्रापण मदा बाह्य जगत् की चार रहता है, श्रया मिक्ता की श्रीर बहुत कम । दीर्घ-दृष्टि से चिन्तन करने पर यह स्पष्ट है विदशन श्रीर विज्ञान वा अनिम साध्य प्रगत एक है। वे दोना सत्य के द्वार तक पहुँचने म पूण सहायक हैं। एक ज्ञानयक्ति द्वारा उन सत्य-तथ्यो तन पहुँचान वा प्रयाग करता है तो दूमरा प्रयोग गक्ति के आधार पर । दान चिन्तन प्रधान है, मस्तिप्य की वस्तु है । अत यह मत्य के सही तथ्य का उद्घाटा स्थूल रूप में जनसमाज के सम्मुस रवन में सक्षम नहीं है और यह नान यी वस्तु होने के कारण स्थूत रूप म रमा भी तो नहीं जा सकता, किन्तु, विधान वा काय उन तथ्यों का सही-सही प्रयोग द्वारा स्थून रूप म है | यह नमो वस्तु वो गोपनीय न रखकर क्षपणको भांति जन समाज के सम्मुन स्पष्ट रस देना चाहता है । एतदय विज्ञान जन मानस वो तिना अपनी ओर आकर्षित कर मरता है उतना दशन नहीं । दान श्रात्मतत्त्व प्रधान है और विमान भौतिक गति प्रधान है। दान श्रात्मा, परमात्मा पर गम्भीर चित्तन प्रदान करता है और विमान बाह्य तत्व पर अपने मोति विचार अभिव्यक्त करता है। दान विद एक गम्पूर्ण तत्व समभवर उमा परिमान कराता है और विमान जगत् वे पृथक-पृथर पहनुमा वा भिन्न भिन्न दिग्दान कराता है। इस दृष्टि से दान क्षेत्र विमान में बहुत व्यापर व विस्ता प्रतीत होता है । दनमान वैश्रमित हुँने का प्रयास करता है पर वकी हृदय जगत् तर ही सीमित है। दा युति और अनुमन पो महत्व है, तो वार युक्ति वो दुरावर वेवन धनु वा ही प्रधा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा नता देता है। दूसरा विज्ञान और दर्शन मे मुख्य अन्तर यह है कि विज्ञान का निर्णय हमेशा अपूर्ण रहता है जब कि दर्शन अपने विपय का सर्वागीण स्पष्टीकरण करता है । कारण कि विज्ञान सत्य के एक अंश को ही ग्रहण करता है जिसका आधार दृश्य जगत् ही है। विज्ञान की बदलती तस्वीरें विज्ञान एक स्वतन्त्र धारा है। ज्ञात होता है कि इस धारा ने धर्म और दर्शन के विवादास्पद द्वन्द्वो से अपना एक अलग-थलग मार्ग निकाला है । विज्ञान की दृष्टि मे सत्य वही है, जिस पर प्रयोगशाला की मुद्रा लग चुकी है। यह अन्धविश्वास को प्रश्रय नही देता है। कारण यह है कि तार्किक जगत् मे प्रत्येक विश्वास को तर्क की कसौटी पर कसकर ही मूल्यांकन किया जाता है, आज का मानव अपनी व्यक्तिगत तथा अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का समाधान अपने पूर्वजो की अपेक्षा अधिक वैज्ञानिक ढंग से निकालता है। ___ यह सब कुछ होने पर भी एक बात विचारणीय है कि विज्ञान के निर्णय अब तक स्थिर नही रहे है । इतिहास से यह स्पष्ट जात होगा कि विज्ञान के निर्णय किस स्थिति मे किस प्रकार परिवर्तनशील है । एक वैज्ञानिक की सत्य वात दूसरे वैज्ञानिक के युग मे असत्य लगने लगती है। जैसे चन्द्र, सूर्य, पृथ्वी तथा अन्य ग्रह गणो की गति, स्थिति और स्वरूप आदि के विषय मे 'टोलेमी' के युग की वात 'कोपरनिकस' के युग मे नही रही और 'कोपरनिकस' के नये निर्णयो पर प्रो० आइन्स्टाइन के सापेक्षवाद ने एक नया रूप लेकर अपना प्रभाव जमा लिया। क्या ऐसी स्थिति मे अधिकार की भाषा मे यह कहा जा सकता है कि प्रो० पाइन्स्टाइन के ये निर्णय अन्तिम है ? कदापि नही, भले ही जो निर्णय आज सत्य प्रतीत हो रहे है वे ही कल भ्रान्ति के रूप में परिवर्तित हो सकते है। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त से कौन अपरिचित है। विज्ञान जगत् मे गुरुत्वाकर्षण की धूम मच गई थी। पर आज के इस सापेक्षवाद के युग मे गुरुत्वाकर्पण का सिद्धान्त निष्प्रभ हो गया है। "कहते हे, आइन्स्टाइन के अनुसधान का प्रभाव न्यूटन के गुरुत्वाकर्पण वाले नियम पर भी पड़ा है। गुरुत्वाकर्पण को लेकर वैज्ञानिको मे कुछ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशन और विनान दाकाएँ चला करती थी। प्रथम शका यह थी कि गुरत्वारपण यदि शक्ति है तो उसके मित्रमण करने में कुछ भी समय क्यो नहीं लगता, जसे प्रकाश को लगता है। दूसरी यह है कि कोई भी प्रावरण गुरुवारपण के माग म अवरोध क्यो नही डालता है। प्राइस्टाहाने बताया कि गुरुत्वावपण गपित नहीं है। पिण्ड एक दूसरे की ओर इमलिए खिचे दीखते हैं कि हम जिस विश्व में अवस्थित हैं यह यूक्लिट के नियमा से परे का विश्व है। विश्व को चार पायामा से सयुक्त मानने पर प्रत्येक द्रव्य के पास बुधवाना होगी। इसी को हम गुरुत्वारपण समझत पाये हैं । इस प्रकार गुरुत्वाक्पण को आइन्स्टाइन ने देश और काल का गुण स्वीकार किया है।" वास्तव में देखा जाय तो यह उस पग्भ्रिमणशील वेगवती वस्तु का ही एप विशिष्ट गुण है । इमरा आन्तरिक रहस्य न जानन के कारण ही लोग उसे नावपण की वस्तु समभकर आश्चय प्रकट करते हैं, पर यह सत्य नही है। जो सिद्धात एक दिन विश्व म इतना ऊहापोह कराया था, आज उसमा उफान बिलकुल शात है । और भी बतलाया जाता है कि "एक दिन पदाथ का अन्तिम अविभाज्य प्रा अणु माना जाता था और लोग उमे मिलकुल ठोस समझते थे । फिर जव परमाणु का पता चला तब विनान उसी को ठोस मानने लगा। किन्तु अाज परमाणु ठोस नही, पोला माना जाता है, जिसके नाभिक (यूक्लियस) के चारो ओर इलक्ट्रोन और प्रोटोन नाच रहे हैं । परमाणु इतो पोले माने जाते हैं कि वज्ञानियों का यह अनुमान है कि यदि एक भरे पूरे मनुष्य को इस सन्नी से दवा दिया जाय वि उसबै प्रग का एक भी परमाणु पाला न रहे तो उसकी देह सिमटकर एक ऐमे विदु मे समा जायगी जो आँसो मे शायद ही दिखाई पडे।" बनावि जगत में हमारा ऐसे उदाहरण भरे पड़े है जिसकी एक लम्बीचोटी सूची तयार हो सकती है। इन बदलते हुए निणयो के कारण ही विनान का सत्य रादा मदिग्ध रहा है । एक बात यह है कि दिनान ने जिस बात के लिए कभी सोचा नहीं, खोज नहीं कि, अथवा जो विनान के वातावरण म विज्ञान सम्मत नहीं है उसे क्लानिन असत्य पहबर ठुकरा देते हैं जो 1 भानोदय का विधान अक 2 (1959) नवम्बर, 'न्यूटन से आगे आधुनिक भौतिक विज्ञान व विकास की दिशाएँ । निषध, पृ. न.91 Page #33 --------------------------------------------------------------------------  Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान और विनान तीय मसति म पड्दाना का मगम देखने का मिलना है। इस प्रकार का विनान के क्षेत्र मे पहा । समी बनानिर प्राय एस ही माग पर स्थित है और जो विभिन्न दिखलाई पटते ह, उह भी एव स्थान पर बाज नही तोक्न घाना ही पडेगा । यो दान और घिनान का जीवन में अपना एव म्वतत्र महत्व है। उसकी पूण उपयागिता है। दोना जीवन के श्य तक पहुँचन वे प्रान्त माग है। हाँ, इतना अन्तर अवय नात होता है कि दान वा प्रमुग भुनान पाम तत्त्व को पोर है, इससे मानव को परम तत्त्व यी उपनधि होती है, जबपि विनान का प्रवाह भौतिर तत्व की अोर ही प्रवाहित हुना है। इसमे मारव को नवीनतम भौतिक साधन प्रमाथन प्राप्त होते हैं। अन म हम इम निप्प पर पहुंचते हैं कि विनान और दान में कुछ भतर प्रतीत होने पर भी मम वय यापन ही अधिक मामा म पाया जाना है। पर स्वर यह भी है रिदान और विनार में विभेद ही क्या है। भारतीय विलेपमा ने दान शास्त्र द्वारा ममम्त नानिर रहम्यो को अपने मानमिव श्रम-तक द्वारा समुपस्थित कर दिया है, फिर मानर निगान को क्या अपनाये । दानिय शास्त्र भी मुमा वेपण यत्तिका ही प्रामाहित करते हैं पर विचारणीय प्रश्न यहाँ यह है निदान कापाय अतीत को अपना पाह मिलना ही विस्नत मान लें, पर यतमान विमान वी अपशा दानिशा पा चितन कुछ प्रातर मामित ही था। दान और शिान म कुछ मौनिक भेद है, इमे समझना मावश्यय है। दानितान मप्ति के विभिन तय्या का पता लगाया और धनानिय पिनेपली न उर प्रत्या पर दिमाया। गगन का प्राधार घमास्त्र रहा है, प्राी धमशास्त्र पथिा तथ्यों का प्राटिकरण दानाम म दुना है। इसलिए वही नहीं अधवि'वामा को भी राम प्रकाश मिला है, जब मिदिमान विमी भी पाश्चयजनय पटना को ईश्वरीय गोया प्रारतिर पटना न मान पर उनो धारणा पी गोप मी पोर युदि रोगतिमान करना है । दानिर ता प्राप्त पुरपा पी पापा कोही पनिम गत्य मानवा पाया है । इसम ना करना नाम्निाना है। दान भग पापापही प्राज धम और अध्यात्म पी विविध मा रताया पर रियन है, जाति विनाायाक्षम प्रत्यन व्यापर और मनुष्य पापाय क्षम यामी प्ररणारनाहै। दानचिन्नन प्रधान है पार विमा पार Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याधुनिक विज्ञान और हिमा और उत्पत्ति का तत्त्व नमभ कर उन्हें जीवनोपयोगी बनाने का मार्ग प्रस्तुत करता है । सचमुच यह महा देवता है । विज्ञान ने अन्धविश्वासजन्य नम्पूर्ण मान्यता को चुनौती दे रखी है। उपर्युक्त माने जाने वाले वैज्ञानिक तथ्यो मे वायु और पृथ्वी को ग्राज का वैज्ञानिक स्वतन्त्र तन्त्र मानने को तैयार नही । 28 त्रायुनिक विज्ञान का प्रारम्भ विज्ञान मानवी चेतना का ही एक विशिष्ट रूप है । तव धरातल पर जब से मानव और उसकी चेतना का अस्तित्व है, तब ही में विज्ञान का अस्तित्व स्वीकार करना होगा। उसका आदि काल निर्धारित करना "ऋषियो के कुल और नदियों के मूल" खोजने के समान होगा। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि याधुनिक विज्ञान का जन्म ईना के पन्द्रहवी शती ने माना जाना युक्तिनगत है । जो भी हो, इसमें संदेह नहीं कि विज्ञान के प्रभाव ने मानव समाज की काया पलटने मे अनुपम योग दिया है । यद्यपि प्राचीन विज्ञान की गति में मानव नमाज को शीघ्र परिवर्तन की क्षमता न थी, साथ ही कई बाधाएँ भी खड़ी कर दी जाती थी । पर विज्ञान के नवीन स्वरूप में, बाधक तत्त्व के प्रभाव में, नमाज को शीघ्र परिवर्तित करने की अद्भुत शक्ति है । विज्ञान की प्रगति से पूर्व विज्ञान के नमुचित विकास और प्रगति के पूर्व मानव समाज के ऋषिकांग कार्य और विचार पुरातन धार्मिक सिद्धांतो द्वारा नियन्त्रित थे । वार्मिक पहलुओं का सभी क्षेत्रो मे प्रभाव था । ज्ञान के समग्र विषयों का वर्मशास्त्रो मे ही अन्तर्भाव था । इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल और समाजशास्त्र आदि विषयों का केन्द्र विन्दु भी धर्म शास्त्र ही था । इसका परिणाम यह हुआ कि जहाँ धर्म के द्वारा अपनी प्रगति में कुछ प्रेरणा मिली, वहाँ धर्म मे बढ़ते हुए जड विश्वासो के कारण हानि भी कम नही हुई । धर्म अत्यन्त पवित्र वस्तु है और अन्तर्जगत् से सम्वत्र है, पर स्थितिपानको या अत्यन्त पुरातनवादियों की दर्प-वृत्ति के कारण कभी-कभी इस पवित्र वस्तु मे भी स्वार्थका ऐसा विकार उत्पन्न हो जाता है कि वह प्रेरणा का स्रोत होकर भी स्वयं प्रेरणा का पात्र वन जाता है । तभी निरकुन वार्मिक व्यक्तियों Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 आज का युग द्वाग प्रतिपादित घम अपनी वास्तविक्ता खो वठता है। इनका स्थान रुढि और ज्ञानहीन परम्पराए ले लेती हैं। भारत मे धम के नाम पर जातिवाद और मानव-मानव में भी भेद को वल्पना को, रूढि प्रावल्य के कारण ही, प्रथय मिना । परिणामस्वरूप वुद्धिजीवी वगधम के प्रति वफादार रहने की भावना से दूर हटता गया। विज्ञान की प्राभातिर विरणा ने धम के स्वर्णोदय से नवीन चेतना और सस्वारा सा बल दिया। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविकसित धर्म और विज्ञान का संघर्ष जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है-वैनानिक जागरण ने धर्म के प्रति जड़ विश्वास हिलने लगे। धर्म प्रतिपादको ने स्थितिपालक वृत्ति के प्रावेग मे इन वैनानिको की न केवल निन्दाही करनी प्रारम्भ की, अपितु, उन मनीपियो को अकस्य यातनाएं भी दी जाने लगी। गैलिलियो को नमत्रो की खोज पर कारावान भुगतना पडा। कोपरनिकस के 'सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ भ्रमण नहीं करता' कहते हो उने धर्मद्रोही घोषित किया गया । डार्विन के विकासवाद ने वार्मिक जगत मे भारी हलचल पैदा कर दी चूंकि तात्कालिक कथित धर्मवेना केवल धर्म बास्त्रो के सिद्धान्तो के अन्धभक्त थे, क्योकि वाईविल मे तो मानव को यादम और हवा का उत्तराधिकारी बताया गया है। तात्पर्य, वाईविल या तदनुरूप वर्मशास्त्रो के विरुद्ध समस्त शुद्ध वैज्ञानिक प्रयत्नो की न केवल उपेक्षा ही होने लगी, अपितु गवेपको पर नाना प्रकार के अत्याचार भी होने लगे । पर विजयश्री वैज्ञानिको के साथ ही रही। कालान्तर मे उनकी गोध आदरणीय वन गई। 19वी गताब्दी के समाप्त होते-होते विज्ञान का प्रभाव प्रचुर परिमाण मे बढ़ चला । सम्प्रदायवाद और जातिवाद उन पर तनिक भी अपना प्रभाव न डाल सके। इसके विपरीत सम्राट्, राजा और अन्य शासक ने वैनानिको को खोज मे सहायता देकर उन्हें प्रोत्साहित करने मे गर्व का अनुभव करने लगे। प्रमंगतः यहाँ एक बात का उल्लेख अनिवार्य प्रतीत होता है कि सापेमत. विज्ञान के प्रति भारतीय दृष्टिकोण सहिष्णुतापूर्ण रहा है । यहाँ प्राचीन और अर्वाचीनों मे मतभेदों की कमी न रहने के वावजूद भी कभी किसी नूतन चित्रार प्रवर्तक को न फांसी पर लटकाया गया और न उसे अन्य किसी प्रकार की नागरिक यातनात्रों का ही सामनाकरना पड़ा है। भारतीय संस्कृति अहिंसा प्रधान होने के कारण समन्वयवादी दृष्टिकोण से प्रोत-प्रोत है। यहाँ यह भी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविकसिन धम और पिनान का मघप 31 विस्मान करना चाहिए कि विनान ने कभी भी चरम सत्य उपलब्धि का पाग्रह नही रगा और भविष्य मशोध के काय बदनहीं दिये। जिन साधना माधार पर जो कालिय” सत्य शोध मे उदभूत हुए वे कालान्तर मे अय साधन उपलब्ध होने पर बदन भी मरते हैं। तात्पय विनान विसामो मुखी तत्त्व है। विमी वस्तु को वह अपरिवर्तित नहीं मानता। सुप्रसिद्ध अमेसिन दानिक और वनानिव विनियम जेम्स ने टीरही का है 'विनान ने मान तक जिन तथ्यो की गवेषणा की है वे केवल समाव * पिमी का पूण एर अतिम सत्य नही माना जा सकता। उनमे गसाधन और परिपना मा पूण अवसर है। यह भी मभन है कि कुछ बद्धमूर धारणाएं भ्रान मिड हो जाएँ और उह पूर्ण पण छाडना पडे। जिज्ञासु वो नये विचारो यात्रागन करने के लिए मदा उद्यत रहना चाहिए।" Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस - - - विज्ञान का सार्वभौम प्रभाव धर्म विज्ञान द्वारा प्रभावित होने के कारण तदनुरूप प्रचलित दर्शनो को भी विज्ञान का मार्ग निर्देशक मानना पड़ा । जिन मूल दार्गनिक तथ्यो पर वैज्ञानिको को आपत्ति थी वह उनने दार्शनिको के समक्ष रख दी। चाहे इनने उनका मत मान्य न रखा, पर विज्ञान का लोहा तो मानने ही लगे । राजनीति, जो एक अचिर स्थायी तत्त्व है, तो विज्ञान की दासी ही बनी हुई है। परिवर्तन विज्ञान पर ही निर्भर है। कहने का तात्पर्य है कि चित्र, संगीत, वाद्य, लेखन, सम्भाषण, गिल्प और शिक्षा आदि कलापो के प्रत्येक क्षेत्र पर विज्ञान ने अपना इतना प्रभाव जमाया कि विना इसके कार्यक्षेत्र को गति नहीं मिलती थी । यहाँ तक कि खान-पान, रहन-सहन, यातायात, युद्धकला, दर्शन-स्पर्शन आदि इन्द्रियजन्य सभी विषयो पर विज्ञान का अक्षुण्ण प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । प्रत्येक देश की संस्कृति और सभ्यता के समस्त उपकरण विज्ञान की छाया मे पनप रहे है। विश्व को निकट लाने में विज्ञान का हाथ मानव-समाज पर विज्ञान का सर्वोत्कृष्ट और सीधा जो प्रभाव पड़ा है वह है विश्व के समस्त राष्ट्रो मे नकट्य स्थापित करना । यही कारण है आज वैज्ञानिक दृष्टि से माना जाने वाला सारा विश्व 19 करोड मील क्षेत्रफल वाली पृथ्वी पर एक सयुक्त परिवार के समान अपने-आपको अनुभव करता है । द्रुतगामी साधनों ने विभिन्न देशो मे सामीप्य स्थापित कर यह सिद्ध कर दिया है कि चाहे कोई राष्ट्र या उसका प्रमुख व्यक्ति कितना ही बड़ा और गक्ति-सम्पन्न क्यो न हो, पर वह एकाकी अपना राष्ट्रीय कार्य सहृदयतापूर्वक सम्पन्न नही कर सकता, या अपने को अन्य राष्ट्री मे पृथक नही रख सकता। इसीलिए तो प्रत्येक क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय सह्योग दिनानुदिन बढ़ते जा रहे है । यद्यपि इस पवित्र कार्य में संकीर्ण Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशान का सावभौम प्रभाव और स्मार्थी राष्ट्र बाधा अवश्य उपस्थित करते हैं, पर चज्ञानिक दृष्टिपोण अन्तर्राष्ट्रीय विकास में उल्लेखनीय योग देता है। विश्व सरकार और विश्व घम की कल्पना विज्ञान को व्यापरता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। विश्व यायालय तो स्थापित हो ही चुका है। सो वप पूर्व इसकी पल्पना ही असम्भव थी। दिनान या वास्तविक विकास अहिंमा पर विशेष निभर करता है। उमीने मानव जीवन म मच्चे सौदय और ऐक्य वा स्थायित्त्व सभव है। महिमाहीन विनान परिणाम क्या हागे? यह पाज की अन्तर्राष्ट्रीय राजनतिक परिस्थितिया को देखते हुए, गायद ही बताने की आवश्यक्ता हो। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारह धर्म का स्वरूप भारतवर्ष में धर्म बहुत प्राचीन काल से भारत की ख्याति एक धर्मप्रधान देश के रूप मे रही है। यहाँ की संस्कृति और सभ्यता का पल्लवन धर्म के ही मूल्यवान सिद्धान्तो के ग्राधार पर हुआ है। ऋषि-मुनि व तत्त्व समीक्षको ने तपोवन मे रहकर त्यागमूलक जीवन व्यतीत करते हुए जो अनुभूतियाँ प्राप्त की, उनका व्यक्तिकरण भी अधिकतर धर्म के माध्यम से हुआ है। धर्म का सम्बन्ध भले ही ग्रात्मस्थ हो पर वह एक सामाजिक वस्तु है । समाज इतिहासवद संस्था है जो स्वय अपने ग्रापमे एक विज्ञान है, अत समाज की अन्तरात्मा का यथोचित पोषण यदि धर्म द्वारा होता है तो बाहरी आवश्यकताओ की पूर्ति विज्ञान द्वारा होती है, यत धर्म और विज्ञान को समीक्षात्मक दृष्टि से भिन्न मानने मे बुद्धिमत्ता नही है । धर्म जीवन का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंग है, जहाँ मानव कुछ क्षणो के लिए अपने-आपको सांसारिक यत्रणात्रो मे मुक्त पाता हुया प्राध्यात्मिक श्रानन्द का अनुभव करता है । वह लौकिक जीवन मे रहकर भी धर्म द्वारा ग्रान्तरिक चित्तवृत्ति मे लीन रहने के कारण लोकोतर या अनिर्वचनीय सुख का वोध करता है । व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की सुख-शान्ति और समृद्धि धर्म के समुचित विकास पर अवलम्बित है । ग्रन्तर्जगत् से सम्बद्ध रहने के बावजूद भी उसका वास्तविक स्वरूप व्यावहारिक है और वह बाह्य क्रियाश्रोद्वारा ही जाना जाता है । इसे ग्राचार की सजा दी जाती है । चाचार परम्परा के कारण ही इसे इतिहास - सम्बद्ध मानना पडता है। कारण कि ससार मे चाहे कोई भी वस्तु कितनी भी ग्रान्तरिक हो पर व्यवहार द्वारा ही अनुभूत होने के कारण वह श्राचारमूलक होती है और सामयिक प्रवाह के अनुसार उसकी ग्रात्मा के परिवर्तनीय रहने पर भी आचारो मे समय के अनुसार परिवर्तन करना Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घम का स्वरुप 35 पडता है या स्वय हो जाता है । घम के प्राचारमूलक विकास को देखते हुए कहाा पडता है कि समय-ममय पर एक ही घम ने वाह्य स्थिति मे बहुत-कुछ परिवतन इमलिए किया कि उसे जीवित रहना था। सामाजिन परिस्थितियो के आधार पर अधिकागत' पनपन वाले तत्वो मे परिवतन पाना स्वाभाविक है। परिवतन ही इससी मजीवनी शक्ति है । जब हम अातु के अनुसार वस्त्र परिवतन कर मूल म्प मे अपनी देह का रक्षण कर सकते हैं तो व्यापक रूप में परिवतिन परिस्थितिया मे भी बाह्य व्यवहार मे परि वतन कर अपनी मूल वस्तु की रक्षा कर सकते है। यह परिवतन जीवनशक्ति ही प्रदान नहीं करता कि तु विचाराम भी शान्ति समुत्पनकरता है। धम की परिभाषा अत्यधिक यात्मिक वस्तु को परिभाषा में बांधना बडा दिन हो जाता है, क्यापि अधिर चचनीय वस्तु या जब जीवन से सम्बध क्षीण होने लगता है तन मनुष्य इसे व्याग्या द्वारा स्थायित्व देने की चेष्टा करता है। धम की लगभग यही स्थिति है, क्यापि धम की चर्चा शब्दत तो बहुत होती है, पर जीवन से गहरा सम्य व अल्प ही रहता है। इस प्रकार के वाणी विलास का व्यापक प्रभाव यहाँ तब प्रसरित है कि अनपढ या घम के सम्बप में प्रत्यल्प मान रखने वाला भी ब्रह्म, मोन और अनेकातवाद की चर्चा करते नहीं अपाता । ईमानदारी के साथ यदि देखा जाय तो धम देवन वाणी तक ही सीमित रहने वाला तत्त्व नहीं, अपितु इसके सिद्धान्त दनिय जीवन म मोन प्रोत रह्ने चाहिये । धमदे मम तर बहुत कम लो। पहुंच पाते हैं। जिनकी पहुँच है उनकी वाणी मौन रहती है। भारत मे सचमुच धमकी बहुलता है । व्याख्यातार भी मनेव है। कोई दान के द्वारा धम को समझाने की चेप्टा करता है, तो कोई वेवलमाचार द्वारा ही इसकी व्याच्या परने म प्रय नगील है । अन धम की भारत मे प्रचुर व्याम्याएँ व परिमापा मिनती हैं। जनदशन के उद्भट विद्वान प्रज्ञा चप० श्री मुगनालजी मघत्री ने अपने 'दर्शन और चिनन' नामक प्रय में नॉर मॉल के मतानुसार यह बताया है पि "धम की लगभग दस हजार ध्यास्याएं हो चुरी हैं फिर भी दगम गभी पो काममावेश नहीं होता। माविर बौर, जन प्रादि धम उा व्यायामी मे बाहर ही रह जाते है ।" Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान और अहिंसा व्याख्याकार मात्र सम्प्रदाय या अपने धर्म तक ही सीमित रहता है । किसी भी प्रकार के व्यामोह या पूर्वाग्रह से प्रभावित व्यक्ति से व्यापक या सर्वजनगम्य व्याख्या की ग्रागा नही की जा सकती है । धर्म शब्द की उत्पत्ति इस प्रकार की जाती है- "धारणात् धर्मः" जो धारण किया जाय वही धर्म है। धर्म शब्द धू धातु से निप्पन्न हुआ है जिसमे 'मय' प्रत्यय जोडने से धर्म शब्द बनता है, जिसका तात्पर्य हे धारण करने वाला । पर वह क्या धारण करता है ? यह एक प्रश्न है । जहाँ तक धारण करने का प्रश्न है समस्त धर्म र सम्प्रदाय इससे सहमत है पर जो धारण कराया जाता है मत भिन्नता वही है । क्योकि प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय के सदस्य अपने अनुकूल तथ्यों को ही धारण करते हैं और वह ही आगे चलकर उनकी दृष्टि मे धर्म बन जाता है। जैन दर्शन बहुत ही व्यापक और व्यक्तिस्वातत्र्यमूलक दर्शन के रूप मे बहुत प्राचीन काल से प्रतिष्ठित रहा है । प्राणी मात्र का सर्वोदय ही इस दर्शन का काम्य है । वह मानव-मानव मे उच्चत्व, नीचत्व की कल्पना का विरोधी है । वह प्राणीमात्र के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है । वह इतनी क्रांतिकारी घोषणा करता है कि अपने उत्थान - पतन मे किसी को साधक-बाधक नही मानता, वह अपने विकास के लिए ईश्वर तक की पराधीनता मे तनिक भी विश्वास नही रखता । उत्थान-पतन का दायित्व व्यक्ति के पुरुषार्थ पर अवलम्बित मानता है । वरदान या अभिशाप जैसी कोई वस्तु जैन दर्शन मे नही पनपी । अवतारवाद को भी वह अस्वीकार करता है । वह मनुष्य को इतना विकसित प्राणी मानता है कि उसे परमात्मा तक होने का अधिकार प्राप्त है । परमात्मा मे और मानव मे केवल इतना ही अन्तर है कि परमात्मा ने प्रकाश का पूर्णत्व प्राप्त कर लिया है, और मानव अपने मे स्थित प्रकाश को आवरण द्वारा ढंके रखने के कारण ही मानव बना हुग्रा है । यदि मनुष्य चाहे तो विशिष्ट प्राध्यात्मिक पुरुषार्थ द्वारा अनावृत्त होकर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है । 36 जहाँ त्यागमूलक जीवन-यापन करने वाले मनीषियो द्वारा धर्म जैसे पवित्र तत्त्व की व्याख्या प्रस्तुत की जाय वहाँ स्वभावतः सर्वजनोपयोगी व्यापक दृष्टिकोण रहे यह स्वाभाविक है । आचार्य कुन्दकुन्द ने धर्म की Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घम का स्वम्प 37 बहुत सुन्दर, मक्षिप्त मौर मारगर्भित व्यास्या करते हुए "वत्यु सहावी धम्मो " वस्तु के स्वभार वो ही धर्म नहीं है । प्रत्येक पदाथ या वस्तु वा अपना निज स्वभाव होता है और वह स्वभाव ही उसका मूल धम है । उदाहरणाय गीततत्व जल का भूल घम है, अग्नि वा उष्णल | श्राघ्या मिव दप्टि में आत्मभाव में रहना आत्मा का मूल धम है। पुदगनो के विकारो में रमण करना प्रथम है । श्रर्थात् मागारिक वृत्तियों में लीन रहपर लिाग और वभव वो ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानवर जीवन व्यतीत करना तात्त्विक दृष्टि में प्रथम ही है । परिग्रह मात्र का पोषण धम यी चोटि म नही श्राता, क्योकि इससे हिंसा वृत्ति प्रोत्साहित होती है । परवर्ती जैनाचार्यों ने सममामयिक परिस्थिति के अनुसार धर्म की प्रास्त व्यास्याएँ एवं उसे जीवन वे दनिय श्रम में किस प्रकार आचार म लाया जा गरता है? समाज भौर नीति से इसका क्या सम्बाध है श्रादि अनक निपयो वा सारगर्भित विवेचन कर धर्म वा अधिर लोग भाग्य बनाने का अनु वरणीय प्रयास किया है। परवर्ती श्राचार्यों की व्यास्याएँ मौनिक रूप म उपयुक्त सूचित सिद्धान्त का ही अनुगमन करती हैं। धम वा प्रादुर्भाव धर्म समाज का अत्यावश्यष भग रहा है। इसकी उत्पत्तिका आदिरात एतिहासिक ष्टि से बना है। समाज विज्ञान की दृष्टि से जब मे मानव या अस्तित्व है तभी से धम का भी मस्तित्व स्वीकार करना होगा। मार मे किसी भी कोने में निर्मित या अनिश्रित मानव या भम्भनत पाई भी मग एगा न होगा जिसका अपना कोई धर्म न हो। घमहीन समाज मे जीवन समुना नही रह गरना, पाह वह विचारमूनर हो या माचाग्यूलर | यद्यपि यह स्थान धम या ऐतिहामि ममीशा मा नहीं है, प्रमिय विषाम वे पर चरण पर गम्भीर विचार करो पाही है. यहां प्रागिन गत मे ही मतोष करना होगा, क्योकि धम र श्रद्धा प्राह्म तत्व है। भा अब दम पर हासित दृष्टि से विचार दिया जाना है तो श्रद्धा यो स्वभा पाटपहुंची है। पर विचार धारा जय गवाज में मानी है तब पुरा विविध परम्परानुयायी उपाय मोर र समभ गते हैं। देवता है "विशेष प्रकार के विचारों में गश्यम Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 आधुनिक विनान और अहिंसा वैज्ञानिक युग में आवश्यकता ही क्या है ? इन अतिरेकपूर्ण विचार धारा मे कितना तथ्य है । यह बताने की शायद ही आवश्यकता रहती हो, पर इतना कहने का लोभ मवरण नहीं किया जा सकता कि जो धर्म वास्तविकता को लिए हुए है वहाँ तो भंयकर बैषम्य मे भी साम्य प्रस्थापित हो जाता है। विकार और वासना का जहाँ क्षय हो जाय तो फिर विवाद को अवकाग ही कहाँ मिलता है। सच बात तो यह है कि धर्म के नाम यापत्तियां नव बडी होती है जब इस यात्मिक और परम निमल वस्तु के साथ ही अपने-अपने सम्प्रदाय को संयुक्त कर देते हैं और तब असहिष्णु वृत्ति के प्रोत्साहन ने ही धर्म अपयन का भागी बनता है। प्रांतरिक धर्म एकत्व का ही प्रतिपादक है, भेद का नहीं । व्यवहार मे आचरित नियमो में भले ही भिन्नत्व हो ! मौलिक तथ्य तो त्रिकालाबाधित है। धर्म के मर्म को आत्मसात् न करने के कारण ही समाज मे अशांति फैलती है। मैं पूर्ण आस्था और विश्वास के साथ कहना चाहूंगा कि आज के बौद्धिक युग में वास्तविक जीवन के संतुलन को बनाये रखने के लिए परमार्य वृत्ति या धर्म का होना नितान्त आवश्यक है। अनैतिकता द्वारा आज जो राष्ट्रीय चरित्र का दिनानुदिन ह्रास हो रहा है, इसका एक मात्र कारण धार्मिक गिक्षा का अभाव ही है । बालक के मन मे प्राथमिक शिक्षा के साथ ही नैतिकता और धर्म के संस्कार डाल दिये जाएँ तो कोई कारण नही कि राष्ट्रीय चरित्र का धरातल गिरता रहे। ___ यहाँ इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि धर्म के नाम पर साम्प्रदाविक वृत्ति का पोपण न हो, जो राष्ट्रीय विकास की सबसे बडी बावा है। साम्प्रदायिक भावना ने ही धर्म को बदनाम कर रखा है। धर्म समत्व का अमर सदेग देता है। तात्पर्य यह कि वर्म सभी परिस्थितियो में अतीव पावव्यक है वगर्ते कि उस पर साम्प्रदायिकता का प्रावरण न हो। धार्मिक शिक्षा भारतवर्ष अतीतकाल से अव्यात्म-विद्यायो का केन्द्रस्थल रहा है। जहाँ पाश्चात्य वैचारिकों ने अपनी शक्ति का प्रयोग अणु-परमाणु के अन्वेपणा मे किया वहाँ भारत के तत्त्वचिंतक मनीषियों ने आध्यात्मिक तत्त्व की खोज में । इसका अर्थ यह नहीं कि भारतवर्ष भौतिक कला और विद्यालो Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धमका स्वरूप मैसूय ही रहा । वितु यहां पर भौतिक और आध्यात्मिक दोनो क्लानो पामुदर मगम रहा है जिसका प्रकन इतिहास के पृष्ठा पर स्पष्ट अक्ति है। तमशिला और नालदा विश्वविद्यालयों की प्रख्याति दूर-दूर के प्रातो और देशों में फैली हुई थी। उन विद्यालयों की प्रयोगशाला मे अपना सास्थ. तिक जीवन हासन के लिए बडे-बडे पहाडा और मरितामा को ही नही किंतु विशाल ममुद्रा को भी नांधकर विद्याप्रेमी विद्यार्थी समुपस्थित होते थे। यहां उह न्यायदान, साग्यदान, गणित, ज्योतिपणास्म, नीतिशास्त्र पौर प्राध्यात्मिक फिनॉसपी अध्ययन कराया जाता था। एप कुलपति के सानिध्य में संक्डो अध्यापय और हजारो विद्यार्थियो का समूह रहता था। इसमे स्पष्ट है कि भारतीय परम्परा में भौतिय विनान मी अल्पता नहीं थी। पर उन मबसराप्रयोगात्मस्वरूप में विकास में ही दिया जाता था। वहाँ हेय, गेय और उपादेय का पूर्ण विवेक होना था । उन गुम्युनो में १ पलाएँ और विद्याएं मिवलाई जाती थी जो बौद्धिक विकास के माथ ही अन्तश्चेतना में भी पान या सचलाइट जगमगा सक और मास्कृनिर जीवन पा निर्माण कर मवें । जो विद्या मानव यो विलासिता पपन में गिरा दे पौरपरत प्रतापी जजीरागे आवेप्टिन कर दे, उराका मारतीय दृष्टि से कोई मूल्य नहीं था। महर्षि माने विद्या फी माययता बताते हुए पया ही मुदर पहा है "सा विद्या या विमुक्तये" विद्या यही है जो व्यक्ति वा समार ये बचना में मुमत करमाक्ष की दिशा म प्रेरित परती हो। उक्त दृष्टि में जय हम चिनन परते हैं तोपाते हैं कि भारतवप शक्षणिक मोर माध्यातिववाद मे प्रत्पतममुन्नत था ।पर बनमान सिा पद्धति को देता माध्यारिमा विकासमा नारा पुरातन युग की वीती यात मा हो गया है। मात्र पायारिमा गिता में मार्ग पर भौनिय निभा ने भरना गुदामा गार दिहै। यति पान ये पियापी से यह प्रश्न पिया जाप शिदावन या पिरामाद मार मारगाम यादन्द्रामर मोनिस्वाद तथा गाम्यवाद पा है ? गो गम्भव है वह न विषयों पर घटाता प्रभाव भाषा म भाषामा गरिनु उमग या पागमपि भगवा महागीर Page #47 --------------------------------------------------------------------------  Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 विमान के सहारे प्राकृतिक शक्ति का उपयोग इसमें कोई संदेह नही कि प्राकृतिक शक्ति का सर्वाधिक उपयोग इटली तथा जापान ने दिया है। इटली में इधन का प्रपेशात प्रभाव था, वहाँ ये वैज्ञानिको की दृष्टि भूमिगर्भस्थ उपमा पर वेद्रित हुई । नमो न इस कामा वा उपयोग किया जाय ? फक्त फ्लोरेस के विटवर्ती एक जगह लावा में से निकलने वाली ऊष्मा से वे प्रिंस वोटि विद्युत पदा करने में यहाँ तक सफल रहे कि फ्लोरेस, सीमा का समीपवर्ती भू भाग और नेपल्म इस विद्युत से प्रकाशित हो उठे । वायु तत्त्व भी जीवन का एक अत्यत अनुपक्षणीय तत्व है । वायु वी शक्ति अप्रूव है। वायु शुद्धि ही प्राध्यात्मिक दृष्टि से योग भाग या एक मापान है। वाय वा पानिक महत्त्व भी किसी भी दृष्टि से कम नही । शक्ति के नूतन साधनो के लिए वैनानियों ने वायु शक्ति की श्रावश्यक्ता नातीत्र अनुभव किया। बृहत्तर सागर और महाद्वीपा पर तीव्र गति मे वायु सचार होता रहता है। पर मानव के इसवे भूल से परिचित होने के बावजूद भी इस पर कसे नियंत्रण रसा जाए, यह एक समस्या थी । क्योकि मुक्त विचरण करने वाली वायु को मानव सीमा में विस प्रकार आवद्ध रहे। श्रभी कुछ ही वर्ष हुए, वायु शक्ति का नियन्त्रित वर इसका उपयोग यत्र चालित मीना में किया गया। इससे विद्युत भी उत्पन्न वो जाती है। अमेरिका म वायु चानित यत्रोद्योग विस्तृत हो चुना है । मेजर विल्सन ने सन् 1024 में एक अत्यधिन शक्ति सम्पन वायु चालित यत्र मा प्राविष्कार किया था । बनावामी पेन्मेडन ने एक बार ब्रिटिश एसामिएन वे समय सम्भाषण करत हुए कहा था "यदि इग्लण्ड के सभी ऊँचे पठारा पर वायु यत्र स्थापित किये जाएँ तो उनमे विद्युत् पदा की जा सकता है जिससे देश में यत्रोद्योग वो प्रात्साहन मिलेगा।" 55 यह तो माना हुई बात है सूप भी दावि का एक बहुत वहा महास्रोत है । प्रध्यात्म प्रधान भारतीय संस्कृति में गत सूर्य को धामिय जगत् में जा प्रतिष्ठा प्राप्त है वह सर्वोकृष्ट है । स्वरोदय व योगातगन तत्त्व में भूय या महत्त्व सवविदिन है। सूय ने भारतीय कला के विकास में बहुत बड़ा योग प्रदान किया है। प्राचीनतम सूय पूजोपाना प्रचुर परि माण में उपलब्ध हैं। भारत में सूर्य पूजव जाति विकसित रही है। न केवल Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह धर्म और विज्ञान "पाश्चर्य पूर्ण विश्व सबसे सुन्दर है। ऐसा अनुभव होता है। सच्ची कला का और विज्ञान का वही उद्गम स्थान है। जिसके मन में इस भावना का उदय नहीं होता, जिसे चमत्कार और विस्मय मालूम नही होता, कहना चाहिए कि उसके नेत्र हमेशा के लिए फूट गये, वह मर गया । इस दृष्टि से केवल मै धार्मिक हूँ।" -आइन्स्टाइन धर्म आत्म सम्वद्ध होते हुए भी समाजमूलक वस्तु के रूप मे शताब्दियों से जन जीवन मे प्रतिप्ठित रहा है । विज्ञान का भौतिक जगत् से सम्बद्ध होते हुए भी धर्म के क्षेत्र में इसका प्रभाव रहा है । धर्म की वास्तविक अभिव्यक्ति आचारमूलक परम्परालो मे निहित है जो समाज की नैतिक सम्पत्ति है। उच्चतम प्राचार और विचारो द्वारा वासना क्षय ही धर्म का एक सोपान है। प्राचार विपयक परिस्थितियाँ परिवर्तित होती रहती है-उसका मुख्य कारण विज्ञान है । विज्ञान ने धर्म के वाह्य स्वरूप के अन्वेषण मे जो क्रातिकारी रूप दिया है-वह मानव गास्त्र और समाज शास्त्र की दृष्टि से अनुपम है। पुरातन काल मे, वर्तमान अर्थ मे प्रयुक्त विज्ञान गब्द सार्थक न रहा हो, पर जहाँ तक इसकी भावमूलक परम्परा का प्रश्न है, इसका नकट्य स्पष्ट है । समाजमूलक क्रातियो का जो धर्म पर प्रभाव पड़ा है और जो अपेक्षित संगोधन भी करने पड़े है यह सब कुछ विज्ञान की ही मौलिक देन है, क्योकि विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन यापन करने वालोका अस्तित्व भीभौतिक जगत् पर ही निर्भर रहता आया है अत समाज से वद्ध वैज्ञानिक प्रयोगो को भी धर्म द्वारा समर्थन मिला है। जव हम ज्ञान की विशेष स्थिति को विज्ञान के रूप मे अगीकार करते है तो स्वत स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञान भी आत्मा का एक मौलिक गण है। उपनिषद। मे 'एक से अनेक की ओर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घम और विज्ञान 45 प्रेरित करने वाली शक्ति' को विनान कहा गया है। पौर्वात्य विनान की परम्परा की जहें धम के प्रादिकाल तव विखरी हुई है । हो, कुछ काल एसा अवश्य व्यतीत हुआ कि विज्ञान या स्थान श्रद्धा ने ग्रहण किया, पर इसस हमारी सत्या वेपिगी वत्ति को अधिक प्रोत्साहन नहीं मिला । विज्ञान एवं एसी दृष्टि प्रदान करता है कि जिसके समुचित उपयोग द्वारा आत्म तत्व गवपण ये प्रशस्त क्षेत्र म भी प्राति की जा सकती है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरह विज्ञान द्वारा सुख-समृद्धि "विनान मानव को मानव के निकट लाने का तथा मानव के लिए सम्पूर्ण सुख सामग्री जुटाने का एक चमत्कारपूर्ण प्रयत्न है । जो इसके विरुद्ध आचरण करता है वह विज्ञान को समझता ही नहीं।" -आइन्स्टाइन अनेक प्रागंकाओं के बावजूद आज मानवीय दृष्टिकोण विज्ञान के प्रति अागान्वित है। क्योकि इन्द्रिय सम्भूत सुखोपलब्धि के समन साधन वह जुटाता है । अतीत मे सम्राटो के लिए भी दुर्लभ साधन आज अकिंचनो के लिए भी सर्व सुलभ हो चले है। विज्ञान की चमत्कृतियाँ अद्भुत है। टेलीविजन कोही लीजिए, हजारों मील दूर होने वाली प्रत्येक प्रक्रिया को जहाँ कही भी, वैज्ञानिक साधन उपलब्ध है, बैठकर देख सकते हैं । औद्योगिक सस्थान का व्यवस्थापक अपने कमरे से ही सस्थान की कार्यवाही का निरीक्षण कर सकता है। हीटर का 'प्लग' लगाते ही आपको गर्म-गर्म पानी तत्काल मिल जाता है। आटा पीसने के लिए विज्ञान ने आपको पवन चक्कियाँ या कल चक्कियाँ प्रदान की है। पानी दूर से ढोकर लाने की दिक्कत नही करनी पड़ती है। नल खोलते ही गंगा-यमुना की विमल जल-धारा आपको नहला देती है। आप गर्मी से घवरा रहे है । बस, वटन दवाने की ही देर है, पखा फरफर हवा करके आपको शान्ति प्रदान कर देगा। भोजन बनाने के लिए धुएँ मे अॉखो को कप्ट देने की आवश्यकता नहीं रही-फूंका-फूंकी नही करनी है। 'कुकर' मे खाद्य सामग्नी डालते ही रसोई आसानी से तैयार हो जाती है। विविध विपयक ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्यार्थी को कागजों पर हाथ से लिखने और नकल करने की जरूरत नहीं। सौ, दो सौ या हजार पृष्ठो की Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47 विनान द्वारा सुख-समृद्धि छपी छपाई पुस्तक सारी दिक्क्त मिटा देती है । हजारो लाखा रपयो का जोड, बाकी, गुणा, भाग या अन्य किसी प्रकार या पेचीदा हिमाव करने के लिए श्रापनी माया -पच्ची नही करनी पडती । एक मिनट से भी कम समय मे गणव यत्र थापा हिसान कर देती है । बेतार के तार से जमा हुआ रेडियो मनुष्य की चिता और व्यग्रता क्षण भर मे काफूर कर देता है । सक्ट के समय वह मनुष्य के लिए बहुत लाभप्रद सिद्ध होता है । जब कोई जहाज खतरे में फँस जाता है तो क्षण भर म उसकी सूचना पहुँचाई जा सकती है और तत्र समय पर सहायता पहुँच सकती है। खोये हुए बच्चो या धादमियों का पता चलाने मे रेडियो वडा लाभदायक सिद्ध हुआ है । सिनमा विज्ञान का एक महान वरदान है, जिसने मानव जीवन बे विभिन्न क्षेत्रो माफी उथल-पुथल मचा दी है। सिनेमा के प्रभाव को नैतिक्ता के मापदण्ड से नापने का यह प्रसग नही है। उसका नतिक प्रभाव चित्र निर्माता की अभिरुचि पर निर्भर है। विज्ञान उस दायित्न से मुक्त है। विज्ञान की वृतायता साधन प्रस्तुत कर देने में है, सदुपयोग या दुरपयोग की बात उसके प्रयोक्ताग्रा पर अवलम्बित है । विद्युत शक्ति की गपणा विमान की बहुत बडी सफलता है । इसका प्रयोग आज सवत्र हो रहा है घरो मे प्रकाश करने के लिए तथा वस्त्रों को प्रेम करने, खाना पकाने, पानी गम करने, कमरो को साफ रखने, भवनों को वातानुकूलित करने, पखे चनाने, रेडियो, सिनेमा तथा बडे-बडे यत्रो को चनाने में किया जाता है। इसकी बदौलत मनुष्य को अनगिनत वठिनाइयाँ दूर हो गई हैं, जो वष्टप्रद और ममयनापन थी । इसी की सहायता से मनुष्य न बडी-बडी और गहरी नहर खोदी हैं, नाँध र पुल बनाये हैं। जहाज, मोटरें, रेल, विमान और अन्य सैकडो वस्तुना का निर्माण इसी के कारण हो मका है। निजली का हथौडा और शेन वसा अद्भुत काम कर दिखलाता है, यह किमी मे छिपा नही है। 1 वाणिज्य और उद्याग के क्षेत्र में विज्ञान ने जमे नूतन सृष्टि ही खड़ी कर दी है। हाथ करघो की अपेक्षा मिना म बारीक श्रौर मनोरम वस्त्रा का अप समय म ढेर का ढेर तैयार हो जाता है । प्रयाय असभ्य वस्तुएँ बडी सफाई Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा और गीघ्रता से बनने लगी है । आधुनिक लांडरी मे एक घण्टे मे दो हजार कपडे धोये जा सकते है । एक कमीज की तह करने मे एक मिनिट से ज्यादा समय नहीं लगता। मुद्रण यत्रो ने भी आश्चर्यजनक कार्य कर दिखलाये है । आज के मुद्रणालय एक घण्टे मे समाचार पत्रों की हजारो-लाखो प्रतियाँ मुद्रित कर देते है । ऐमी मगीने है जो उन पत्रों की तह करती जाती है, पते अकित करती जाती हैं, पैकेट बनाती जाती है, और टिकिट भी लगाती जाती है। आज ऐसी मशीनो का भी प्रयोग किया जाता है जो बड़ी-बडी रकमो का जोड़ लगा सकती है, अनेक प्रश्नो को हल कर सकती है, व्याज फैला सकती है। ऐसी भी मशीने है जो विनिमय की निश्चित दर पर एक देश की मुद्रा को दूसरे देश की मुद्रा में परिवर्तित करने का हिसाब लगा सकती है। 'डिक्टाफोन' ने लेखको को कितनी सुविधा उत्पन्न कर दी है। अनुवादको की कठिनाइयों को दूर करनेवाला टाइपराइटर भी आज मौजूद है जो एक भापा का करीव आठ भापात्रो मे अनुवाद कर देता है। यूरोप और अमेरिका के देश अव कृपि के लिए प्रकृति के मुहताज नही रहे। वहाँ कृत्रिम वर्षा का भी प्रयोग किया जाने लगा है। पशुओं द्वारा चलने वाले हलो के स्थान पर ट्रैक्टरो का प्रयोग तो अब पुरानी-सी बात हो गई है। प्राकृतिक खाद के वदले रासायनिक खाद, जो अत्यधिक उपजाऊ होती है, तैयार होने लगी है । वहाँ खेती-बाड़ी के प्रायः सभी कार्यों मे यंत्रो का उपयोग होता है। फसल काटने की एक मशीन, जो 50 हॉर्स पावर से चलती है और जिसमे 30 फुट तक लम्बी दराती होती है, बड़ी शीव्रता से फसल काटती है और प्रतिदिन करीव हजार, डेढ हजार वोरी अनाज भी निकाल देती है। ऐसी मशीनो का भी आविष्कार हो चुका है जो एक घंटे मे 2400 रोटियाँ बना सकती है, 2400 वोतलो मे दवा भर सकती है और 3000 वोतलो को डाट लगा कर बद कर देती है। पहले एक मनुष्य दिन भर चोटी मे एड़ी तक पसीना बहाकर कुछ मन मिट्टी खोद पाता था, आज मशीन की सहायता से, उतने ही समय मे, 1600 से 2000 टन तक मिट्टी खोदी जा सकती है। मनुप्यो की मुविधा के लिए नदियो के प्रवाह तक बदल दिये गये है । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान द्वारा सुन समृद्धि भवन निर्माण पता न भी एक नूतन ही रूप धारण कर लिया है। सक्डा मजिल के गगनचुम्बी भवन कुछ ही महीनो में तयार हो जाते हैं। विश्व की जनसख्या म अत्यधिक वृद्धि होने के कारण जटिल बनी खाद्य समस्या को भी विनान ने बहुत हद तक सुलझाने का प्रयल किया है। सिंचाई के लिए नहरें और नलकूप खोदवर ऐसे भूभागा तक पानी पहुँ चाया गया है जो युगो में बजर पडे थे । जलविद्युत् भी कृपक के लिए एक महान वरदान सिद्ध हुई है। आज कृषि क्षेत्र में बीज वान से लेकर फगल काटने तक के मभी वाय यज्ञानिक उपकरणो मे होते हैं । परिणामन मनुष्य की अनकानेक मुमीरतें कम हो गई हैं। आधुनिक युग में नगर दत्य की तरह विशाल से विशालतर बनते जा रहे हैं और ज्या-ज्या उनम जनमस्या की वृद्धि होती है, त्या-त्यो स्व. च्छता की समस्या भी महत्वपूर्ण वनती जाती है। मगर विज्ञान ने इस समस्या के ममाधान में भी पूण याग प्रदान दिया है । जल के छिडकाव के साधन, जमीन के नीचे की नालियो तथा पलग-यह सब विगान के ही उपहार है। प्राचीन काल में मनुप्य पदल या घाडा, ऊँटा, हाथियो अथवा बल गाडिया प्रादि स यात्रा करता था । यात्रा के यह सब साधन मथरगति, याप्टप्रद एव मरटमय थे। उनीसवी शताब्दी में भाप इजन के प्राविणार ने मावीय गम्यता के क्षेत्र में एक नवीन और अद्भुत युग की सृष्टि की। पशुभा द्वारा गौची जाने वाली गाडियामा म्यान रेलगाडिया ने ले लिया पर तो मनुष्य भूत सी तरह पृषी तल पर सरपट दौड लगा सकता है। ध्यामयाना ने ताविद्यन्चालित गाडिया वो भी मात पर दिया है। ____ यदिामनुप्य प्रामा में उड़न के मापन देना करता था। यूनानी पौराणिर यथामा म डाडग की वथा कुछ इसी प्रकार की है। वह अपने पुत्र प्रसारमो माय ग उडार इटली पहुंचा था पियाना व अनुगार चार-पट ने अपने बाहुमा पर पक्षिया ये पग बौर रमे थे। भारतीय साहित्य म भी पामयाना ये पना यणन मिलत मात्रा जन प्रयो में विद्याधर मर एवं मानर जाति का उन्नय है, जिस पाग Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राधुनिक विज्ञान और ग्रहिसा ग्रामतौर पर व्योमयान होते थे । रामायण में भी ऐसा ही एक उल्लेख उपलब्ध होता है । सुना जाता है कि अभी कुछ दिन पूर्व संस्कृत भाषा का एक ग्रन्थ मिला है, जिनमें व्योमयान बनाने की विधि का वर्णन किया गया हे । इन सब बातों से, इस विचार को बल मिलता है कि किसी जमाने में भारतीय विद्याधर' (वैज्ञानिक) व्योमयानो का प्रयोग करते थे । वस्तुतः यह विपय ग्रन्वेषण की अपेक्षा रखता है। कुछ भी हो, प्राज के मानव ने वायुयानो के चमत्कार को प्रत्यक्ष देख लिया है। श्रव वह स्वयं पक्षी की भाँति ग्राकाश में उड़ लेता है। एक बड़े विमान में 80 तक यात्री बैठ सकते है, चालक अलग। विमानों में गीचालय, भोजनगृह यादि की सुन्दर व्यवस्था रहती है | 1800 मील प्रति घण्टा गति करने वाले वायुयान भी बनने लगे है । अतएव प्रत्यधिक लम्बी उडाने भी श्रव कठिन नहीं रह गई हैं। कुछ ही घण्टो में समग्र विश्व का भ्रमण करने की योजना भी बन रही है। यही नहीं, यूरोपीय देशो में प्रोनिथेप्टर नामक एक ऐसा यत्र भी वन रहा है, जिसकी सहायता से प्लास्टिक के पंख लगाकर मनुष्य स्वतः चिड़िया की तरह उड़ सकेगा, उसके लिए न किसी हवाई अड्डे की आवश्यकता होगी और न किसी टीमटाम की । 50 ग्राज के दैत्याकार विराट् श्रीर ग्रद्द्भुत् क्षमताशाली यंत्रो ने मानवीय जीवन मे एक भूचाल सा उत्पन्न कर दिया है। किसी बड़े कारखाने में जाकर ग्राप देखेंगे तो रोमाच हो उठेगा, ऐसा अनुभव होने लगेगा, मानो मनुष्य ने भूतो को ही वश में कर लिया है। 1 आज का मनुष्य धरती और ग्राकाश में ही नहीं वरन् समुद्र के वक्षस्थल पर भी प्रतिहत गति से मछलियों की भाँति विचरण कर रहा है । आधुनिक जल जहाज पुरानी समुद्री नौकाओ की तरह हवा और लहरो पर निर्भर नही है और न तूफानो से ही उन्हें खतरा है । ये जहाज इतने विशाल होते है कि उनके भीतर छोटा-मोटा नगर समा सकता है । इनमे एक साथ हजारो लोग यात्रा करते हैं। सहवाधिक टन की सामग्री भी ढोई जा मकती है । ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय में भारत से इगलैण्ड पहुँचने मे एक वर्ष लगता था जब कि ग्राज तीन सप्ताह पर्याप्त है । अन्तर्प्रान्तीय व्यापार, वाणिज्य सम्बन्वी वस्तुएँ प्रचुर परिमाण मे जलयानो द्वारा सरलता से एक Page #56 --------------------------------------------------------------------------  Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 आधुनिक विज्ञान और हिमा निःसन्देह भूतपूर्व है | रचनात्मक क्षेत्र में यद्यपि प्राचर्यजनक ग्राविष्कार विज्ञान द्वारा सम्पन्न हुए हैं, पर दुर्भाग्य की बात है कि विनाशकारी क्षेत्र मे भी इसकी सफलता कल्पनातीत है । प्रथम महायुद्ध के समय यौद्धिक विमानी का ग्राविष्कार हुआ, द्वितीय महायुद्ध मे ग्रांमिक परिमार्जन किया गया और ग्रद्यतन युग मे तो प्रत्यन्त शीघ्रगामी वायुयानो की सृष्टि हो गई जिसकी कल्पना से ही हृदय प्रकम्पित हो जाता है। सैनिक उड्डयन मे भी बी० प्रो० सी० टी० जैट पद्धति के वायुयान 500 मील की यात्रा प्रति घण्टे मे कर लेते है। जर्मनो ने द्वितीय महायुद्ध के समय मे बिना चालक के तीव्रगामी यानो की सृष्टि की थी जो 20 मील की ऊँचाई तक उड़ सकते थे। अमेरिका के सुपरफोर्टरेस व्योमयानो की न केवल उतनी गति है अपितु उन मे तो व्योम मे तेल तक पहुँचाया जाता है । दूरमारक तोपे, विमानभेदी तोपे, पनडुब्बियाँ और तारपीडो नौकाएँ आदि उल्लेखनीय हैं। रेडार के प्राविष्कार से प्राज का नागरिक अपरिचित नहीं । विपाक्त वायु व कीटाणुयुक्त वायु का श्राविकार नहारकारी विज्ञान की देन है। हीरोगिमा में गिराये गये अणुबम की सहारलीला को अभी हम भूले नही है । वर्तमान मे अमेरिका, रूस और इग्लैण्ड ने भी परमाणु बम तथा हाइड्रोजन वम वना लिये है । ये ग्रस्त्र बहुत ही खतरनाक और मानव व मानवता के नाश के लिए पर्याप्त है। रून द्वारा परीक्षित टी-एन-टी वम तो विनाशकारी अस्त्रो मे उपलब्ध अस्त्रो में सर्वोच्च है । ग्रव तो श्रणु द्वारा मानव जीवन की आवश्यकता की पूर्ति में प्रयुक्त यत्रोद्योग के लिए प्रयास प्रारम्भ हो चुके है। के इस प्रकार विज्ञान के सर्वागीण व सर्व क्षेत्रीय विकास ने मनुष्य श्रम की वचत की है और सुख सुविधाएँ बढाई है । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह विज्ञान के सहारे प्राकृतिक शक्ति का उपयोग प्राचीन काल का अविव सित मानव पृथ्वी, जल, वायु विद्युत, आवारा, सामुद्रिक ज्वार, बादल आदि प्राकृतिक वस्तुओं को देख कर आश्चर्यावत हो जाता था । यह सब उसकी विचार शक्ति से परे वो चीजे थी । वह इह पोनोत्तर दाक्ति के प्रतीक मानता था। तभी तो ये तत्व देवता वे समान पूजाअध्य वे' पात्र समझ जाने लग थे। उन दिना इनका समुचित उपयोग न होता था । अद्यतन मानव विज्ञान की ज्योति मे इमे पहचान गया और ये देवसम समझे जाने वाले इन प्राकृतिक रहस्या का उपयोग सम्पादन कर चुका है । आज श्राशिक प्राकृतिक शक्ति वे उन रहस्यो का प्रभाव मानव पर नही रहा अपितु वे सन मानव के नियंत्रण में हैं। विज्ञान का प्राकृतिक शक्तिया पर नियत्रण भी एक उद्देश्य है जिसके महाय्य से मानव प्रकृति पर विजय प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है। वस्तुत दोनो ओर से विज्ञान की सहायता मानव को प्राप्त है। एक ओर से तो विमान विविध प्राविप्वार अवेषण में मदद देता है और दूसरी ओर वह सहायता प्राप्त है, जिसका अभिप्राय विविध शक्तिया पर नियत्रण करना है। रेलवे इजन, पनडुब्बी, वा, विमान, टेलीफोन, टेलीविजन और रेडियो श्रादि वे श्राविष्कार प्रकृति पर विजय प्राप्ति के प्रतीक है। जल, वायु, ज्वार, आदि प्राकृति पक्तिया पर मानवीय आवश्यवताम्रा की पूर्ति के लिए किया जाने वाला नियत्रण दूसरी कोटि में आता है । हम देखना यह है वि श्राधुनिक विज्ञान की सहायता मे मनुष्य प्रावृ तिवक्ति के रहस्य को जानकर विस प्रकार उसे प्रयुक्त कर सका है। जहाँ तक प्राकृतिक साधनो वा प्रश्न है, अधिकाश साधन कितना भी बाल व्यतीत हो जाय, ममार से समाप्त होने वाले नहीं हैं। उनना रूपातर, देशा तर या स्थानातर भले ही हो जाय । Page #59 --------------------------------------------------------------------------  Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 आधुनिक विज्ञान पीर अहिमा भारतीय वेद वेदाङ्गादि साहित्य मे ही सूर्य का यशोगान किया है, अपितु ठेठ लोक साहित्य तक में सूर्य-कीर्ति की परपरा याज भी अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है । आन्तरिक जगत के क्रमिक विकास में काम पाने वाली मूर्य गक्ति की उपयोगिता से भारत का बच्चा-बच्चा परिचित रहा है। पर मूर्य की प्राकृतिक उपयोगिता किसी भी दृष्टि से किसी भी अग में कम नहीं है। जब वैज्ञानिक सम्पूर्ण शक्तियों पर नियन्त्रण करने के लिए कटिबद्ध थे तो इस प्रत्यक्ष और अत्यधिक कार्यशील शक्ति के प्रति कैसे उदामीन बने रहते । फलस्वल्प कैलिफोर्निया के दक्षिण पोसडीना मे दग अश्व शक्ति का एक वॉइलर सूर्य ताप निर्मित वाप्प से चलता है, जिससे एक मिनट में 1400 गैलन जल निकाला जा सकता है । व्यय भी बहुत अत्प पाता है । इतने सूर्य-किरणोत्पन्न विद्युत् शक्ति के प्रयोगो में आशातीत मफलता प्राप्त की है। वस्तुत पृथ्वी के प्रत्येक ऊष्ण कटिबन्ध प्रदेश में सूर्य ताप की शक्ति का अधिकाधिक उपयोग किया जा सकता है। ईंधन के रूप में भी मूर्य शक्ति का प्रयोग होता है। आज जिस शक्ति की अोर वैज्ञानिको का बहुत कम व्यान गया है वह है ज्वार शक्ति । समुद्र और बडी नदियो मे उठने वाले ज्वारो का उपयोग अपेक्षाकृत कम हुआ है। यदि इसका समुचित उपयोग बड़े विस्तृत रूप से किया जाय तो बहुत बड़ा कार्य हो सकता हे । अमेरिका और इग्लैण्ड तथा कुछ अन्य पश्चिमी देशो ने ज्वार की शक्ति को एकत्रित कर उसका समुचित उपयोग अच्छे ढग से किया है और अब इसकी शक्ति की तुलना भविप्य में जल विद्युत् के मुकाविले मे टिक सकेगी ऐसी पूर्ण सम्भावना है। प्राकृतिक शक्तियाँ अनेक है। दिनानुदिन विज्ञान द्वारा इन पर प्रभुत्व प्राप्ति के पुरुषार्थ वृद्धिगत होते जा रहे है । सम्भव है ज्ञात शक्तियो द्वारा ही अज्ञात शक्तियो की उपलब्धि का सूत्रपात भविष्य में हो जाय, जिनसे सामाजिक जीवन मे और भी अधिक सुतुलन स्थापित किया जा सके। आणविक शक्ति का अद्यावधि मानवोपयोगी तथ्य की दृष्टि से उतना अधिक विकास नहीं हो पाया है। पर जहाँ तक ध्वसात्मक साधनो का प्रश्न हे अणुशक्ति सर्वाधिक सफलता प्राप्त करती जा रही है। शक्ति वही है जो निर्माण को गति दे । ध्वस की अोर गतिमान शक्ति अपनी "शक्ति सज्ञा" को कहाँ तक Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनान के सहारे प्राकृतिक शक्ति का उपयोग सुरक्षित रय मकेगी यह विचारनीय है। रूस, इग्लण्ड और अमेरिका म अणुशक्ति का प्रयोग कल-कारमाना में हान लगा है और भारत भी एतदय प्रयत्नशील है। यदि मानव जीवन के उपयोग में आने वाली वस्तुमा का समुचित निर्माण अणुशक्ति द्वारा हाने लगे तो इधन को बहुत बड़ी वचत होगी, जो गष्ट्र की भौतिक निधि है। अब तो मानव ने अपने भौतिक जीवन के विकामाथ प्राकृतिक गक्तिया का जो उपयोग व विकाम किया है वह चरम कोटि तक पहुंच चुका है । अत अव तो आवश्य यह है कि पिध्वस कारीगक्तियो का उपयोग मुख गान्ति के मृजन में हा, जिममे मानवता शताब्दियानक अनुप्राणित होती रहे । अणुशक्ति की सहायता से अब तो रोग मुक्ति के अतिरिक्त मृत्यु पर विजय पाने की प्रागा की जा रही है। कहा ही जा सकता कि वानिको का यह स्वप्न बज्ञानिर दृष्टि में क्व साकार होगा। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रह - आधुनिक विज्ञान द्वारा मानव-सेवा याज के उन्नन विज्ञान ने मानव-जीवन और समाज के प्रत्येक क्षेत्र को न केवल स्पर्ग ही किया हे अपितु सर्वांगीण विकास की सुदृढ़ परम्परा भी कायम की है। धर्म और दर्शन के क्षेत्र में भी नया दृष्टिकोण प्रदान करते हुए प्राचीनतम अनिवार्य रहस्यों के प्रति भी समीचीन दृष्टि दी है। राष्ट्रीय वैषम्य, दूरत्व, निर्यात प्रादि कई तथ्यों में सामजस्य स्थापित किया है। आध्यात्मिक दृष्टि से एक मनुप्य वर्षो तक साधना कर जो फल प्राप्त करता था, उसके प्रसार और विकास मे दीर्घकाल की अवधि अपेक्षित थी। पर आज के वैज्ञानिक युग में एक व्यक्ति की अल्पकालिक साधना लाखो का मार्ग प्रदर्शन करती है, जीवन मे साम्य स्थापित करती है और इसका प्रसार भी अत्यन्त गीत्र विश्वव्यापी बन जाता है। हम यह नहीं चाहते कि विज्ञान द्वारा प्राप्त फलो को एक-एक करके गिनाएँ । यदि एक शब्द मे कहा जाय तो विज्ञान मानव जाति के लिए एक वरदान है। वह अभिशाप तव प्रमाणित होता है जब वह सूजन का पथ छोड़कर विध्वस की ओर गतिमान होता है । वह गान्ति का सन्देश दे और वैषम्य मे साम्य स्थापित कर सके तभी हमारे लिए वह वरदान है। आइन्स्टाइन ने ठीक ही कहा है कि "विज्ञान विव्वस के लिए नहीं है, जो राज्य विज्ञान का दुरुपयोग करता है और उसका उपयोग दूसरो को डराने या अन्य पर प्रभाव जमाने के लिए करता है, वह न केवल विज्ञान का, अपितु वैज्ञानिको की ग्रात्मा का शोपण करता है।" Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह विज्ञान के नये उच्छ्वास माना हा क्या, प्राणीमान म जिजीविषा और विजिगीषा मुख्यत दो वृत्तियां फायशील है। पथात् जीन की और जीतन की इच्छा। दोषकाल तक जीन को और ऐश्वयपूर्वक दूसरो पर आधिपत्य जमाने की स्वाभाविप इच्छा मनुष्य में पाई जाती है । जोन की इच्छा ही जीतन की इच्छा को प्रात्साहन देती है। स्वल्प जीवन के लिए मनुष्य प्राकाश, पाताल एक करता है। समस्त यज्ञानिक प्राविकार दीर्घकाल तक सुखपूर्वक जीवन यापन के परिणाम हैं । मनुष्य दोष और व्यापक दृष्टि का त्याग कर जब पेवल अपनी निकटवर्ती दुनिया को समीण प म सोचता है तब उसने सम्मुस ससार को मन्य गिदगियों नगण्य मातुम हाती हैं। जीवन की पापागा सभी का होती है, पर वह मात्रामर न होनी चाहिए । स्वजीवन कालिए प्रन्या ट पहुँचाना हिमा है । भले ही कभी-कभी परिस्थिति का इसमें सफलता प्राप्त हो नी जाय, पर यह परम्परा प्रशम्य नहीं। अनादिकम इन दा मुस्य वृत्तिया को लेकर नष्टि के रहस्या की सोज के लिए मानर प्रयत्नशील है। शताब्दिया के श्रम म जल मोर याम का अपना अनुचर बनाएर उनरा उपयोग पाराम के लिए पिया। प्रटारहवी शताब्दी तक भाप दौर-सौरा रहा रिन्तु उन्नीरावी नदी म इसरा स्थान विद्युत्न प्रहण पर लिया पोर मानवीय जीवन का वह एक प्रग बनाई। पाय तोगनि मायाति मिली । मनुष्य प्रातो गुला के लिए पधिा गावधान रहन लगा । वो का पाप घटा म पूण होन पर ना मानव मशान्त था। नित नवान पनि उमरे हृदय-मन्दिर में भारपण मौर निजागा की स्पानि जनता हो रही । पुरुपाय जारी रहा, परिणामस्वरूप पशु तर उमलो पाप बुद्धि पहुँच गः । अणु मी नाप न मावा गरों मत बना दिया। उन अनुभव रिमा पिपिय की प्रतुल सम्पत्ति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा और शक्ति उसने प्राप्त कर ली है। प्रणु द्वारा उद्जन बम और राकेट चालित प्रक्षेपणास्त्र भी बना लिए है। उनके अतिरिक्त कई छोटे-बड़े विध्वसक उपकरण भी तैयार किये, जिनका ग्रन्तर्भाव प्रणुशक्ति शोध में हो जाता है | यह मत्र विजिगीपा का ही परिणाम है । 1 परमाणु शक्ति और परमाणु बम के सम्बन्ध में उच्च कोटि के वैज्ञानिको में ही नहीं, अपितु सामान्य जन समाज में भी वडी चर्चा है । मभी यह मानते है कि यह एक भयकर हथियार है। यह बम जब नहीं बना था उसके पहले ग्रर्थात् तेरहवी शताब्दी में लकड़ी, तेल, कोयला आदि पदार्थों द्वारा शस्त्रोपयोग पद्धति का प्रचलन था, पर परमाणु शक्ति ने सबको परास्त कर सर्वोच्च शिखर पर अपना स्थान प्रतिष्ठापित किया है। ऋणु इतनी छोटी इकाई है कि जिसे दो भागो मे विभक्त नही किया जा सकता । श्रणुवम अत्यन्त सूक्ष्म श्रणुत्रो का संग्रह मात्र है जिसका सूर्य बनता है । इलेक्ट्रॉन और न्यूट्रॉन के विभक्त करने पर शक्ति और प्रकाश खीचा जा सकता है । परमाणु के बाहरी भाग मे इलेक्ट्रॉन तीव्र गति से चक्कर काटते हुए किसी भी समीप आने वाले पर पदार्थ को धक्का देकर बाहर कर देते है । उनसे बहुत दूर परमाणु के गर्भ मे नाभिकण हे जो प्रोटोन और न्यूट्रॉन से वना है। इलेक्ट्रॉन यदि ॠण विद्युत् है तो प्रोटोन धन विद्युत्, और न्यूट्रॉन न धन विजली हे न ऋण बिजली । न्यूट्रॉन और प्रोटोन की भूत मात्रा प्रायः समान है । प्रथम परमाणु हाइड्रोजन सबसे छोटा और बनावट में सरल अर्थात् उसे बाहर पहरा देने के लिए सिर्फ एक इलेक्ट्रॉन और गर्भ मे प्रोटोन होता है । विशेप हाइड्रोजन दो और तीन प्रोटोन वाले भी होते हैं हाइड्रोजन के बाद प्रगला परमाणु हीलियम है, जिसके बाहर दो इलेक्ट्रॉन और गर्भ मे दो प्रोटोन होते है । इसकी भूत मात्रा चार है । इस भारीपन का कारण इसके गर्भ मे अवस्थित दो न्यूट्रोन हैं । सवसे हल्की धातु लीथियम के भीतर तीन वन विजली (Proton) हे, लेकिन उसकी भूत मात्रा सात है— वाकी चार भूत मात्रा चार न्यूट्रॉनों के कारण है । यह तो ज्ञात ही है कि एक प्रोटोन की भूत मात्रा इलेक्ट्रॉन से ग्रठारह सौ गुनी होती है । नाभिकण की शक्ति पार है । यद्यपि वैज्ञानिक इससे परिचित तो थे पर इसकी प्राप्ति के साधन अज्ञात थे । सन् 1930 मे चडविक ने न्यूट्रोन Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के नय उच्छ्वास 61 का पता लगाने का प्रयास किया। अणु की खोज के विषय म पर्याप्त मतभेद प्रचलित हैं। कुछ लोगा का कहना है कि सन् 1939 म जमनी में व्हाव्ह नामक एक विज्ञानवेत्ताने सव प्रथम इसका सद्धान्तिक रूपण आविष्कार किया। अणुव म का रहस्य भी जमनी को अपनी निजी सम्पत्ति थी, किन्तु यहूदिया के साथ हिटलर के दुव्यरहार ने उहे अमेरिका को यह रहस्य विवश होकर बतान का वाध्य किया। फलत यह कहा जाता है कि सवप्रथय अणुनम के आविष्कार का श्रेय अमेरिका का है। कतिपय विज्ञा का यह भी मन्तव्य है कि यद्यपि हिटलर के परामरा से जमन वैनानिका ने इसको गवेषणा कर अणुवम का सृजन तो कर लिया था पर जमना की प्राकस्मिक पराजय के कारण इस वे प्रयुक्त करने में समय न हो सके, और मिन राष्ट्र इसे उठाकर ले गय । एक स्वर यह भी सुनाई पड़ता है वि अमरिका, ब्रिटेन और फ्नाडा के बज्ञानिका की शोध का ही परिणाम अणुपम है। जमन युद्ध के समय अमेरिका भी अणुबम के अवेपण म व्यस्त था, पर वह अपने सारे रहस्या को छुपाय रखता था । 1942 म तो अमरिका में इसके निर्माण की दौड लग रही थी उस यह नात हो चुका था कि युरेनियम के विदरण का आविष्कार एक जमन महिला डा० लोज माईट्नर ने किया है और अव परमाणु बम के लिए वह प्रयत्नशील है। 2 दिसम्बर, 1942 से बहुत तत्परता के साथ वाय प्रारम्भ होने पर पहले दिन के प्रयोग में केवल साधी वाट शक्ति उत्पन हुई जिससे बिजली का छोटा लटू भी नही चलाया जा सका था । पर पुरुषाय के बल पर 12 दिसम्बर तक 200 बाद शक्ति उत्पन्न करने म सफलता मिली। इसी समय वानिका ने काम रोक दिया क्योंकि विदरण द्वारा रेडियम जसी घातक किरणे पदा होने लगी थी। इही अनुभवो स नात हुआ कि प्लूटोनियम बनाया जा सकता है और इस मिया म जो भयकर किरणें उत्पन्न होती है, जब तक उनसे अपनी निजी रक्षा का समुचित प्रवधन कर लिया जाय तब तक इस प्रयोग को मागे बढाना सक्टापन्न स्थिति उत्पन्न करना है। र समूपानव अभिनन्दन प्रय पत्र-४ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा मसार मे यह नियम रहा है कि किसी कठिन कार्य को देखकर पुरुषार्थी डरता नहीं है वह सतत प्रयत्नो द्वारा अधिक उत्साह से कार्यरत्त रहकर समस्या को समाधान के रूप में परिणत कर ही देता है । जहाँ सर्व साधन सुलभ हो और परिस्थितियाँ अनुकूल हो वहाँ कोई कार्य प्रसाध्य नहीं रहता । अमेरिका ने प्रचुर अर्थ व्यय कर इस क्षेत्र में सर्वांगीण अनुभव रखने वाले विद्वान् व यन्त्रशास्त्रियो को प्रचुर वेतन दे न्यूमेक्सिको की भूमि के एक कोने पर योस अल्मोस स्थान पर परमाणु बम की प्रयोगशाला बनाई। 14 अप्रैल, 1943 को हारवर्ड विश्वविद्यालय का साइक्लोट्रोन वहाँ पहुँचाया गया। चाहे किसी भी राष्ट्र द्वारा इस बम का प्राविष्कार हुआ हो, हमे उसका निर्णय नहीं करना है। पर इतना सच है कि संसार को अणुवम का सर्वप्रथम ज्ञान 1945 मे हुअा। दूसरा महासमर समाप्ति पर था। रूस तया मित्र राष्ट्रो के सामूहिक प्रयत्न से जर्मनी की पराजय हुई। पूर्व में जापान अपनी अतुल शक्ति से इनसे मोर्चा ले रहा था। जापान की इस दुर्दम्य शक्ति को रोकने के लिए 6 अगस्त, 1945 को हीरोशिमा पर अणुवम फेका। ढाई लाख की जन संख्या वाला वह नगर भस्मिभूत हो गया। मकानों में लगा हुया लोहा पानी की तरह वहने लगा, इसके तीन दिन बाद ही 9 अगस्त, 1945 को दूसरा वम नागासाकी पर गिराया गया। यहाँ भी वही मृत्यु-ताण्डव हुआ जिसकी कल्पना नहीं कर सकते। चार मील के क्षेत्र मे कोई प्रागी नही वच सका। भाग्यवश जो बचे वे भी अपाहिज या विकलांग हो गए। फलस्वरूप जापान ने शस्त्रास्त्र रख दिए । इस क्रूरतम घटना से मानव के माथे पर जो कलंक का टीका लगा वह अभी तक नही बुला है। इन वमो के विस्फोट के कारण वर्षों तक वहाँ वनस्पति उत्पन्न नहीं हो सकेगी। 80 फीट नीचे तक की पृथ्वी जल गई चल-अचल वस्तुएँ पिघलकर लावा वन गई। 100 मील तक इसका प्रभाव पहुँचा। विज्ञान का दूसरा प्रलयकारी उच्छ्वास है-उद्जन वम (हाईड्रोजन वम), जिसकी व्वसात्मक गक्ति सापेक्षत दो सौ गुनी अधिक है। इसके निर्माण मे चार-पाँच करोड स्पयो का व्यय होता है । इसकी शक्ति दस Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनान के नये उच्छवास 33 लार टन बारूद के समान है और दस लाख टन वारूद की शक्ति एक मगाटन के समान है । कहा जाता है विगत दा महायुद्धो में भी इतने वारूद का व्यय नहीं हुअा होगा जिसका मूल्य लगभग बीस अरव रूपए होते है। एक बात और है, वारूद से तो हवा का वेग और अग्नि विस्फोट ही होता है जबकि उदजन बम में इन दोना के अतिरिक्त रेडियो एक्टीविटी-एक तीसरी शक्ति होती है जो विनाशकारी तत्त्वो को फेंकती है। दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात् प्रावित होने में अभी तक इसका युद्ध भूमि में प्रयोग नहीं इया । सम्पूण सृष्टि विनाश के लिए एमे दो चार नम ही पर्याप्त हैं। इस वम का सन् 1953 म सवप्रथम पता चला जब रूम में एक भयकर पिस्फाट हुअा था। अमेरिका की मान्यता है यह उन्जन वम ही था। अब तो दग्नण्ड और अमेरिका ने भी इसका आविष्कार कर लिया है। 1951 म प्रशान्त महासागर के निपटस्थ द्वीप पर अमेरिका ने इसका प्रथम परीक्षण दिया था जिससे सारा भूभाग नष्ट हो गया। परीक्षण अत्यत गोपनीय था । वहा जाता है इस विस्फोट के कुछ ही क्षणा चाद धुएं की लपट नाले एव सफेद बादल के रूप म चालीस हजार फुट की ऊंचाई तक पहुँच गइ । ये वादल दस मील ऊँचे तया सौ मील में व्याप्त हो गए। इस रम की अत्यन्त भयवरता कापता तव लगाजन इसातीसरापरीक्षण विपिनी बीप में 1 जुलाई, 1956 को दिया गया। एक प्रत्यक्षदर्शी सवाददाना ने इन शब्द म अपना अनुभव व्यक्त किया है--- __ "रानिके अधिकार में अठारह मोल पर एक आल्पिन के भाकार का जालिमा लिये हुए पीला प्रकाश दिसाई पडा। यह परमाणु बम के विम्फोट की पहनी ज्वाला थी, जो धीरे धीरे बढती और फलती एक महान् यप गोल के रूप में परिणत हो गई। प्लूटोनियम के परमाणु टूट टूट कर के यह दृश्य उपस्तित पर रहे । यह सब कुछ एक मक्ण्डि के दस लारात्रं हिस्स म हा गया। महान् अध गोला को ज्वाला फूटती ऊपर की ओर बढती गई । जसो मुण्ड में परमाणु बम का विशेष चिन्ह मवसन जना सफेद एक महान् छनप निकला। चक्कर काटते बादला वेदोरो पर चित्र विचित्र रग दिखलाई पड रह य-यह लाल, पीले और नारीरा सभी जगह एक दूसरे से मिति हाते सदा बदलते Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 आधुनिक विज्ञान प्रार अहिंसा परीक्षक बोट सतरनाक क्षेत्र मे जा पहुंचे। दोपहर को पत्रकारों के लिए भी पाना मिल गई। वहाँ कुछ डुवे, कुछ उलटेमंकड़ो पोत दिखाई पड़ रहे थे। विमानवाहक इण्डिपेण्डेस नये और मावुनिक युद्ध-पोतों मे से था, वह भी परमाणु बम की सनक का शिकार हुग्रा । पोछे पता लगा कि इण्डियेण्डेंस यद्यपि ध्वस्त हो गया था तो भी डूवा नहीं। पत्रकारो की प्रॉसे सभी जहाजो मे जीवन के चिह्न ढूंढ रही थी और देखना चाहती थी कि परमाणु बम के वाताघात से मुअरो, बकरियों और चही मे से कौन बचा। पहले जीवधारी आक्रमणकारी वाहक फालोन के ऊपर दिखाई पड़े। यह पोत नेवादा से एक मील दूरी पर था। सम्वाददाताओं ने वहां दो वकरियो को देखा जिनमे एक कटघरे पर खडी थी,उसकी दाढी हवा मे हिल रही थी, दूसरी लेटीहुई थी। उनकी ऑखें चोधियायी-सी थी। दोनो जानवरों पर आघात का प्रभाव दिखलाई पड रहा था। विशाल विमानवाहक 'सरातोगा' परमाणु बम के वाताघात की पहुँच से दूर था। उसके ऊपर के प्राणी अच्छी अवस्था मे थे। प्रथम विकिनी परीक्षा ने यह सिद्ध कर दिया कि परमाणु बम के पतन स्थान से दो मील दूर पर 'सरातोगा' जैसे पोत सुरक्षित रह सकते है। युद्ध मे 100 फुट पर गिरे गोले से बच निकलने की आशा रहती है किन्तु परमाणु बम के गिरने के दो मील तक सुरक्षा की अाशा नहीं। 'सरातोगा' जैसे पोत के डेक पर यदि नाविक रहते तो वहाँ पर रख छोड़े सूअरों की भाँति शायद वम विस्फोट के दूसरे दिन वे जीवित रहते । लेकिन कौन कह सकता है कि हीरोशिमा के अभागों की भांति वे दस या अधिक दिन में मर नहीं जाते। नेवादा दूसरे दिन सारे समय तप्त रहा । यह रेडियो क्रिया सम्बन्धी रेडियोकरण का प्रभाव था । वम विस्फोट के 72 घंटे बाद ही संवाददाता नेवादा के ऊपर जाने की इजाजत पा सके।"1 सन् 1955 के प्रारम्भ में यही वम अमेरिका ने नेवादा स्थित एक उच्च मीनार पर गिरा कर देखा। 500 मील की दूरी पर इसकी चमक दृष्टि1. सम्पूर्णानन्द अभिनन्दन-ग्रन्थ, पृष्ठ ११-१३ । परमाणुशक्ति और परमाणु वन-राहुल साकृत्यायन । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के नये उच्छ्वास 67 गत हुई। रूम ने इसे साइवेरिया म ले जाकर परीक्षण किया। फास ने भी सहारा के रेगिस्तान के रेगोन नामक अज्ञात स्थान मे विस्फोट किया। ___ अद्यतन वज्ञानिक परिशोलन के नेय म रूस सर्वाच्च स्थान पर प्रतिप्ठित है। उसन अन्तर्वीपीय निक्षेपणास्त्र भी तैयार कर लिए हैं जो विज्ञान का तृतीय उच्छ्वास है। उद्जन वमा स भी भयकर नाईट्रोजन वम या कोवाल्ट वमो के निर्माण के स्वप्न मेंजाये जा रह हैं, एसाएक ही वम ससार कानप्ट करने के लिए पर्याप्त है । स्वेज नहर सकट के समय प्राकस्मिक रूपसे एक दिन रूस के भूतपूर्व प्रधानमत्री श्री चुलगानिन ने ब्रिटेन र फ्रास को सावधान करते हुए चुनौती दी थी कि "और अब ऐसे भी राष्ट्र हैं जिह ब्रिटेन के तटा पर जलसेना या वायुसेना भेजने की अावश्यकता नहीं। राकेट जसे शक्ति सम्पन्न प्रक्षेपण साधना स ही सहस्रो मील दूर से सेना का काम लिया जा सकता है" इही शब्दो से प्रिटेन और प्रास की सेनामा को विवश होकर स्वदेश की तरफ चरण बढ़ाने पडे ।। काल का महाचक अप्रतिहत गति स चलता रहा है । वुलगानिन की उपयुक्त चुनौति स जनता का ध्यान हटा ही था कि अचानक 26 सितम्बर, 1957 को मुदूर प्रक्षेपणास्त्र की घोपणा करते हुए यह मूचित किया गया कि इम प्रस्न क द्वारा किसी भी महाद्वीप को नष्ट किया जा सकता है। वनानिक उपलब्ध सभी विध्वंसक उपकरणो म सर्वाधिक शक्ति कथित शस्त्र की है, जो विना सचालक के ही 5500 मील तक की दूरीपर से लक्ष्य स्थान का भेद सकता है । इसे पृथ्वी से 600 मील तक की ऊँचाई तक ले जाकर प्रभीप्ट लक्ष्य की ओर छोडा जा सकता है। इससे जो विस्फोट होता है वह 20 30 मिनट म ही 1800 मील प्रति घट की गति से चलकर लक्षित स्थान को नप्ट-नष्ट कर दता है । न तो इससे रक्षा की जा सकती है प्रोरनकोई ऐसी शक्ति का अभी तक प्राविष्कार किया गया है, जो पाग म ही इसकी प्रक्नि को विफल कर दे। आज सम्पूण राष्ट्र इसो अस्त्र से भयानात है। रामायण या महाभारत में वर्णित आग्नेयास्त्र या ब्रह्मास्त्र की म्मृति सहज हो पाती है। ___ अक्तूबर सन् 1957 को बम ने 23 इच व्यास का एव 184 पौंड का गोलाकार उपग्रह इमी राकेट पर रखकर अतरिक्ष म छोडा था। इससे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 आधुनिक विज्ञान और ग्रहिसा संपूर्ण विश्व में हलचल मच गई थी। स्पूतनिक नम्बर 1 और रूसी वाल चन्द्रमा या कृत्रिम चन्द्र के नाम से इसे अभिहित किया गया। इस के वैज्ञानिकी के बुद्धि कौशल का मीर श्रदम्य शोधवृत्ति का वास्तविक परिचय उपर्युक्त पक्ति से मिलता है । कथित उपग्रह पृथ्वी से लगभग 400 मील की ऊँचाई पर गया और पृथ्वी को श्राकर्षण शक्ति ( Force of Gravitation) से लड़ता हुआ अपनी कक्षा वना कर 18000 मील प्रति घटा की गति से पृथ्वी के चारों श्रोर भ्रमण करने लगा। इसकी शक्ति के सम्वन्ध में डॉ० पोलियाकोवस्की ने कहा था " ले जानेवाले राकेट के इंजन की क्षमता की तुलना विश्व के सर्वोच्च विद्युत ग्रह से की जा सकती है ।" राकेट के भीतर पृथ्वी पर चलनेवाले यन्न के समान कोई ऐसा यन्त्र नहीं है जो इसे गति प्रदान करता हो, केवल लोह वेष्ठित एक सोल है, जिसमे एक दहन कक्ष है। इसमे एक प्रकार का ईंधन जलता है जिसकी गैस बनती है। यह गॅस खोल के पिछले भाग मे किए गए छिद्र के जरिये बाहर निकलती हैं। इसी की तीव्रगति की प्रतिक्रिया से राकेट ऊपर उठता है । जैसे वायु पूरित गुव्वारे में सुई से छिद्र करने पर ज्योज्यों हवा निष्कासित होती हे त्यो त्यों गुव्वारा तीव्र वेग से गगन की ओर ऊँचा उठता चला जाता है | कहा जाता है कि ग्राज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व चीन वालो ने बहुत साधारण शक्ति वाले राकेट प्रयुक्त किये थे । अठारहवी शताब्दी मे अग्रेज सेना ने नवाव हैदरअली पर चढाई की। उस समय नवाव की सेना ने अग्रेजी सेना पर विस्फोटक प्रक्षेपणास्त्र छोड़े थे जो 8 इंच लम्बे और 2 इंच व्यास के फौलादी लोहे के सिलेण्डरो से निर्मित थे । अंग्रेजी सेना इसका प्रतिकार करने मे अक्षम थी । इसी भारतीय राकेट पद्धति से प्रेरणा पाकर अंग्रेज वैज्ञानिक कर्नल काग्रीव ने इग्लैण्ड की एक अनुसंधानशाला मे प्रयोग करके इन मसालो मे कुछ सशोधन किया और वह राकेट डेढ मील तक मार करने की क्षमता रखते थे । तदन्तर प्रथम महायुद्ध के समय अमेरिकन वैज्ञानिक डा० रावर्ट ने इसे और भी संशोधित रूप दिया । द्वितीय महायुद्ध के समय जर्मनी के 2200 वैज्ञानिकों ने इसकी शक्ति को अतिमानुपी बनाकर एक और अभिवृद्धि की । सर्व प्रथम 8 सितम्बर, 1944 में जर्मनी का प्रथम राकेट Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान के नये उच्छ्वास 69 वी-लदन मे गिरा तो विश्व में खलबली मच गई। इसमें सदेह नहीं कि इस राकेट पद्धति के विकास में जमन वनानिको का महत्त्वपूर्ण भाग रहा है। लेकिन इमे सर्वाच्च और शक्तिसम्पात बनाने का पूरा श्रेय तो रूस को ही प्राप्त है। ___अय राष्ट्र भी गगनचारी हो चले है। मानव कीप्रात्यति सहारशक्ति से जनता भयभीत है। परन्तु यह तो मानना ही पडेगा कि इस प्रकार के उड्डयन और वनानिक प्रयोगो द्वारा अन्तरिक्ष याना अवश्य मर न हो जाएगी। मगल ग्रह की यात्रा भी मभावित हो जाएगी। बल्कि स्पष्ट कहा जाए तो यदि इसी प्रकार उड्डयन क्षेत्र दिनानुदिन प्रगतिगामी बना रहा तो रूस के मगल ग्रह तक पहुंचने की सभावना सत्य का स्थान ग्रहण कर सकेगी। जव गुरुत्वाकपण शक्ति पर विजय प्राप्त हो जाएगी तो पृथ्वी और प्राकार का मतर स्वत समाप्त हो जाएगा। प्रथम उपग्रह पृथ्वी का भ्रमण करही रहा था कि रूस के उवर मस्तिष्क सपन्न अनुमधित्सको ने एक माह के भीतर ही अर्थान नवम्बर सन् 1957 में द्वितीय उपग्रह स्पूतनिक नबर गतिमान कर दिया। वहपूर्वपिक्षया छह गुना विशाल था। इसका वजन 1120 7 पोड था। एक हजार मील अनुमानत पर गया । इसके घूमते ही विश्व के साम्राज्यवादी राष्ट्रा के हृदय प्रकम्पित हो उठे। 'लाइका नामक स्थान को इसके भीतर भेजा गया, जिस के भोजन, शास प्रिया, निवास, जल एव अय जीवन सम्बधी यावश्यकताप्रा का न केवल प्रवध ही किया, अपितु अपनी प्रयोगालामा में वठ पर वानिक उमके हृदय की धडकन, श्वास प्रश्वास और यदा-कदा उसके मोरने का अनुभव भी करते रहे। ___ 1 फरसरी, 1058 को अमेरिका ने अपनी अनेका असफलतायो के बाद अपना भूउपग्रह (एक्सप्लोरर) छोडा । यह 19500 मील प्रति घण्टे की गति से पृथ्वी का चक्कर लगाता था। इसका वजन 30 पौण्ड था। 130 मिनट म पम्नी की परिक्रमा लगा लेता था तथा रही-कहीं तो 200 मील में अधिक ऊचाई तन रहता था। इसके निर्माता जमन वनानिक डा. बौनाउन पा कहना है कि कई वर्षों ता यह गगन म विचरण करता रहगा।' उनका यह भी क्यन है कि इन चानचदा द्वारा विश्व के समम्न तार(Wires)एप कर निश्चय स्थानापर वितरित भी पिए जा सकेंगे। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा जहाँ से वह गुजरेगा उस देश के सभी तार कुछ ही क्षणों मे एकत्र कर स्वयं वितरित कर देगा। विश्व की तार व्यवस्था को बनाये रखने के लिए इस प्रकार के छह बालचन्द्र काफी होगे। यदि इन तारो के लिए प्रति शब्द एक पैसा भी लिया जाय तो सारे संसार के तारों की कुल आय से अतरिक्ष यात्रा, यहाँ तक कि मंगल ग्रह एवं चन्द्रलोक की यात्रा का पूर्ण व्यय प्राप्त हो जाएगा। वर्तमान राकेट चन्द्रलोक का चक्कर लगाकर यदि पुन. लौटे तो इसकी गति प्रति घण्टा 23900 मील होनी चाहिए। गति के अतिरिक्त मानव शरीर की सहन शक्ति, क्षमता, ऊष्मा-गति-सहन-योग्यता, गागनीय उल्कानो से बिंध जाने का और अन्तरिक्ष किरणो से शक्ति क्षीणता का भय आदि अनेक वाधाएँ मानव के समक्ष मुंह वाये खड़ी हैं । साथ ही चन्द्रलोक मे खाद्याभाव है, वापस लौटना भी समस्या ही है। इन सब बातो ते एक विचार तो मानव पटल पर अंकित हो ही जाता है कि विज्ञान का यह विकास निर्माण या विनाश दोनो मे से कुछ न कुछ करके ही रहेगा, क्योकि विज्ञान के उच्छ्वासो ने स्वय उसे संकट में डाल रखा है । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनह वैज्ञानिक विजय प्रतरिक्ष म मानव की सफल यात्राएं पिन की अभूतपूर्व प्रगति के गौरवशाली इतिहास में 12 अप्रल, 1001 का दिन स्वर्णाभरा म मक्ति दिया जाए। जवकि पूरी गागागि, एक रूसी युवक ने 108 मिनट तर प्रतरिक्ष मे सुराद यात्रा कर पृथ्वी पर सकुधन वापस मा जान का महान् गौरव प्राप्त किया। कुछ ही समय पूर ऐलन रोपड व ग्रिसम नामक दो अमेरिखन युवका न परिक्ष यात्रा पर चन्दलोर की याया म दो नप अध्याय जाड़े हैं। इस प्रकार बच्चा पल्पसा लार के मामा तथा अपनी ममत-तुल्य पोतस पोर शुभ्र किरणा के पारण मुदरिया के सौन्दय से प्रतिमानमूत चरस रहस्य का पदा हट गया। रहस्य के उद्घाटन का कायम तारी अक्टूबर, 1960 को ही उठ गया था, जव म्स द्वारा मेन गए 'स्युनिकर तृती" चिद्र के पदृश्य भाग वे चित्र रूसिया को भेंट पिए । लेग्नि इन वीर प्रतरिमायाप्रिया गीनिर तर सफा पानापान मानय को प्रतरिक्षम सम्बन्धित रल्पनामा यो तिलाजलि दार वास्तविक तप्पा साचन के पिए चाय पिया है पौर रूस की यह पाति प्राति पर मानर विजय की पार है। जयामि थी नहरम गारिनी सफार यात्रा के परमहा था मितरिम पारद्वारा मानव का मेजना मोर मारा उम जमीन परममा मानिता द्वारा उतार सेना पति पर मानर की महान विनय सिक पातु मगस्त, 1981 कामासो समय अनुसार नो बर बर माता पाएर पा प्रतरिक्ष यान बास्तोर पृथ्वी की परिरमारना छोड़ा। उस पलसिया मा पानर मावियत नाशिमर पमान भिवोर पा रहमपनी उड़ान समुरत्या का पूरा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा कर जब पृथ्वी पर पुन सकुशल लौट आता है तो सोवियत संघ उसका हार्दिक अभिनन्दन करता है और हर्ष की वाढ उमड़ आती है। यह बतलाया जाता है कि 23 घण्टे 45 मिनट तक अन्तरिक्ष यान वोस्तोक-2 ने भूमण्डल के दस चक्कर लगाए और 410000 किलोमीटर की दूरी अर्थात पृथ्वी और चॉद के बीच की दूरी से अधिक दूरी तय की। तितोव की इस सफल यात्रा ने सारे विश्व को स्तब्ध बना डाला है। राष्ट्र के बडे-बड़े सुधीर वैज्ञानिको का विश्वास इतना निश्चित हो चला है कि हम गीघ्र ही चन्द्र व मंगल ग्रह की यात्रा करने में सफल हो सकेंगे। मेजर घेर्मान तितोव ने सोवियत संघ की महासभा मे अपना वक्तव्य देते हुए यह वतलाया कि "उड़ते समय मुझे भूख नहीं लगी पर मास्को समय से लगभग साढे बारह बजे मैंने दिन का खाना और छठी परिक्रमा मे रात का खाना खाया । सातवी से वारहवी परिक्रमा के वीच हमारे अन्तरिक्ष नाविक ने कार्यक्रम के अनुसार सोकर विश्राम किया। तेरहवी परिक्रमा जव प्रारम्भ हो रही थी तब उसकी नीद खुली और उडान के दौरान मे उसने कसरत की।" समूचे विश्व का ध्यान आज सोवियत अनुसंधान की प्रगति पर केन्द्रित है । वास्तव मे वैज्ञानिक युग की ये सबसे बड़ी उपलब्धि है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रठारह विज्ञान पर एक तटस्थ चिन्तन वर्तमान युग को विज्ञान का युग कहकर ग्रभिहित किया जाता है । विमान ने मानव के समक्ष ज्ञान का असीम क्षेत्र उन्मुक्त कर दिया है । मावन इम विराट भ्रमण्डल से ही परिचित नही है अपितु विज्ञान के जातिवारी चरणों से गाानीय भूगभ और सामुद्रिक आदि क्षेत्रा का भी सूक्ष्मता से परिशीलन कर चुका है । विज्ञान की यह कूच वहाँ जाकर ठहरेगी, यह महान् स महान भविष्य उदघाटक भी नही कह सकता । इस बजानिक जगत में कोई भी देग या राष्ट्र अपना जीवन सम्मान व सुख समद्धि मूलक निताना चाहे तो यह विज्ञान की उपेक्षा नही कर सकता । विमान उसके लिए अनिवार्य है । प्रधान मंत्री नेहरू विज्ञान की प्रावश्यकता पर घपना महत्त्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं--Life today is governed and conditioned by the off shoots of science and it is very difficult to imagine existence with out them प्रर्थात् " प्राज का जीवन विमान के साधना द्वारा संचालित एव प्रभावित होता है । उनके बिना जीवित रहने के लिए सोचना ही कठिन है ।" बात यह है कि विज्ञान ने मानवजाति के लिए क्या नही किया ? उसन भूमे वो भोजन, नगे का वस्त्र, दुखी वो प्रसन्नता और धनो को विनासिता प्रदान की है। इस दृष्टि से विज्ञान हमारे लिए सुख-सुविधात्रा के पोप की कुजी है। एक विचारा का तो कथन है कि "विज्ञान न जीवन मरण को कुजी ही प्राप्त करली है ।" Science has discovered the keys of life and death "विमान बीमवी सदी का ईश्वर है ।" Science is the God of 20th Century वस्तुत विधान की इस उन्नतिगील त्रियाया विश्व स्वय श्राश्चर्यावत है । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T याधुनिक विज्ञान और अहिंसा विज्ञान के दो पहल विज्ञान का एक पहलू मानव मात्र के कल्याण की भावना से पूरित है। वह मानव जाति के हाथों मे दुःस, पीडायो और प्रभावों को दूर करने की असीम सामर्थ्य प्रदान करता है। साथ ही इनमे यह भी ग्राशा की जा सकती है कि वह विश्व को अपनी बहुमूल्य सेवा अर्पित कर गरीबी, अज्ञान और रोगो का नाश कर पृथ्वी पर स्वर्ग का अभिनव द्वार खोलेगा। उक्त याकांक्षा की पूर्ति तभी सभव हो सकती है जबकि विज्ञान द्वारा प्रदत्त अमूल्य प्रविप्कारो का उपयोग केवल मानव कल्याण के लिए किया जाए। यदि ऐसान हो सका तो सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टाइन के शब्दों में "विज्ञान की विपरीत दिशा से विश्व का सार्वभौम नाश निश्चित है।" ___ विज्ञान का दूसरा पहलू वह है, जिसमे भय, हिंसा ग्रादि की विपाक्त एव दुर्दान्त भावना का सनिवेश है। वह विज्ञान दानव अपने प्रत्येक श्वास-प्रश्वास मे समूचे विश्व को निगलने के लिए लालायित है। वह एक से एक भयंकर एवं प्रलयकारी संहारक अस्त्रो की झंकारो के स्वर छोड़ रहा है। विश्व के रंगमच पर अपना नग्न ताडव करने को समुद्यत है। अतः प्रत्येक विचारक के सम्मुख यह प्रश्न समुपस्थित होता है कि विज्ञान मानव जाति की असीम उन्नति एवं कल्याण का अवाव लोत है-या विनाश का कारण? अाज देश के मूर्धन्य मनीपियो को उक्त प्रश्न पर तटस्थ नीति से सोचना है। पाश्चात्य विचारक गेटे ने जीव को मारकर जीवन की गतिविधि परखने का दोपी विज्ञान को ही बतलाया है-He, who studies some living thing, first drives the spirit out of the body. उस प्राणी के हृदय की घृणा विज्ञान को ही प्राप्त होती है । इसी प्रकार अन्य विचारको ने भी विज्ञान की भर्त्सना कर अपनी भावना अभिव्यक्त का है। महात्मा गांधी जी के शब्दो मे---Who can deny that much that passes for science and art today destroys the soul instead of lifting it, and instead of evoking the best in us panders to our best passion. अर्थात् "इस बात के लिए आज कौन मना कर सकता है कि विज्ञान और कला ने मनुष्य की आत्मा को उन्नतिशील और विकासशील बनाने की अपेक्षा उसको और भी नष्ट-भ्रप्ट Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितान पर एक तटस्थ चिन्ता किया है तथा हमारे श्रेष्ठ विचारो और भावनात्रा को प्रधागति में पहुँचाया है ।" इसी प्रकार उद्भुद विचारक वर्नाड शॉ (Bernard Shaw ) के मतव्य के अनुसार - Science is always wrong It never solves pro blem without creating ten more अर्थात् "वितान हमेशा गलत तरीके पर जाता है । यह विमान समस्या का समाधान तो नही करता है, किन्तु उस समस्या को दस गुणी और अधिक वढा देता है ।" प्रसिद्ध चितक रोमारोलां (Roma Rolland) के अनुसार —- The world is progressing indeed, but which way ? Not, of course, towards constructive advancement but towards a horrible destruction And modern science with all its empty boasts of constructive and progressive forces, is leading the world towards a physical, moral and intel lectual decay श्रथात् "विश्व नि मदेह उनति तो कर रहा है, लेकिन किस ओर ? निमदेह रचनात्मक उन्नति के वजाय वह एक भयकर विनाश को घोर बढ़ रहा है और यह धाधुनिक विज्ञान उसकी समस्त विन्तु श्रात्म श्लाघी रचनात्मक एवं प्रगतिशील शक्तिया से विश्व का शारीरिक, नतिक एव वौद्धिक क्षय की भोर से जा रहा है ।" प्रस्तु घार भी प्राय विचारका ने उपयुक्त प्रारोपो के कारण ही विज्ञान को हीन व घृणा की दृष्टि से देखने प्रयास किया है। होरोनिमा एप नागामारी विभीषिका युद्धोम प्रयुक्त होने वाल माधु निकतम परमाणु प्रस्न, टप, आणविक प्रक्षेपणास्त्र व पनडुब्बियों मादि विज्ञान की हो दन है। इसके पीछे युद्ध-पीडित मानव की दुखभरी ग्राहा का उद्वेग नो प्रसत्य नहीं । वह भविष्य के विनाश का अत्रदूत या मधवार नी सुष्टि करनेवाला कहा जा सकता है । उक्त तथ्य व सिद्ध होता है कि मानवजाति नानविष्य अव वनानियों के हाथ में है । व चाह तो गुरभावे उन्नत सिर पर पहुँच रात हैं और ना तो विनाश के तम भी बक्चे हैं । 75 वस्तुत' दगा जाए तो विवाद के इस मगन रूप सष्टा कुछ और ही व्यक्ति है जिनका व मनुचित उपयोग कर विमान का ममलवारी पाषित Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 याधुनिक विनान और अहिंसा कियाज का वास्तविक दोग विज्ञान की अद्भुत शक्तियों के प्रयोग करने वाले व्यक्तियो का है, अनुसंधान कर्ता या वैज्ञानिकों का नहीं । अतः हीरोशिमा एव नागासाकी को प्रलय की विभीपिका मे निमज्जित करने का श्रेय अमेरिकी राजनीतिजो को ही दिया जाएगा। प्रत 1950 के नोबल पुरस्कार विजेता एव महान् दार्शनिक 'वर्टेण्ड रसल' का यह अभिमत ठीक ही है कि"मनुष्य अपनी कलुपिता मे पवित्र को भी अपवित्र कर रहा है। मनुप्य ही जीवनदायिनी नक्ति को जीवननागिनी बना न्हा है। मनुष्य ही विज्ञानससार को सर्वनाग की ओर ले जा रहा है। अन्यथा यह पागा व्यर्थ नहीं है कि विज्ञान इस कप्टपूर्ण ससार की काया पलट दे और सबके लिए एक नये सुखात्मक और शक्तिगाली स्वर्ग को जन्म दे।" सक्षेप मे साराग यह हे-विज्ञान हमें इसलिए प्रेरित नहीं करता कि हम अगांति और वेदना का कारण बने, अपितु वह तो हमे उस स्थान पर पहुँचाता है, जहाँ हमारे मस्तिष्क को विकासावस्था प्राप्त होती है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीस वर्तमान विज्ञान वरदान या अभिशाप ? पिपरपी पाई भी वस्तु मनुप्य कनिए तभी वरदान रूप हो साती है, जरवह उमम मानता पानवार कर, जीवन का उन्नतशील तत्त्वोस प्रोतपात पर मकै पोर जीरन म नतिातानी अभिवृद्धि र भौतिय यन्तुमा पे प्रति एक विशिष्ट दृष्टिगाण समुत्रान कर सके। यदि उसम पवल वयतिर म्याथ पूति, गापण, मत्याचार, यामप्यता, प्रमाद ग्रादि अवगुणाका निराहोता मल ही बारा दृष्टि मसीमित समय के लिए जीरनोलत करती प्रनीत हान पर मो वह अभिशाप ही कहा जाएगी। इस प्रकारको भौतिर दानिया विमो नीष्टिये उपाय नहीं मानी नागपती। यदिनावी नापा में कहा जाए तो "मानव मदिनानुदिन महिष्णु वृत्ति का विकास व अनतिर तत्वामें प्रति पूर्ण उगाही सहा वरदान है मोर पारस्परिक विद्वेष पौर पदमा रोनारामासाहित करन वारे तथ्य प्रमिाप है। पचना विमान के विषय में रह वान पूग पण चरिताप हाती है। जहाँ पिन नमानसीमुग-समृद्धिम मभिवृद्धि की है,रम वाम प्रोर मधिर । पारामदनीयाजना क्रियान्वितनी है वहाँ उनिए कौडिपराधीनता गोष्टि मीमी है। मार ममान मिान जिनना रक्षा है उतना ही fTTी। हनिहास न यह प्रमापिन लिया है कि विगा मानव के लिए परगन उपाय मला पौर पनि हय अधिा है। मागाको मुरिया ने निति मिमटा दिया है, भोगासिर दूरगा गारपिया है। माम हो पारम्परित मारमण भी उसना सगरम हा गया है।नि Trयार दुधिदिनमास सष्ट शिनि हाना है frमुरमुप माना मगर नि रह पाया उमा नरम पर रहम लोगाना पनुनर हाई नर- मादर पर माifrait है। अधिकार है Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान और हिंसा "चल उन्नत जग मे जबकि श्राज विज्ञान ज्ञान । वह भौतिक साधन यन्त्र यान, वैभव महान् । सेवक है विद्युत, वाप्प शक्ति, धन-बल नितांत 1 फिर क्यों जग में उत्पीड़न ! जीवन क्यों श्रशांत !" आश्चर्य होता है कि उन्नत विज्ञान द्वारा मनुष्य को नित्य नये मुखसाधन प्राप्त होते हुए भी जीवन मे शाति क्यों नहीं मिलती ! वह नीति, धर्म और सदाचार से विमुख हो विलासिता पूर्ण जीवन के प्रति क्यो प्राकृष्ट हो रहा है । अल्प श्रम द्वारा प्राप्त साधन मनुष्य को किस सीमा तक अकर्मण्य बना देता है । जहाँ विज्ञान द्वारा प्रपेक्षित सुखोपलब्धियाँ प्राप्त हुई, वहाँ नये रोग, ग्रामोद-प्रमोद का भावनाएँ मानव समाज मे अधिक विकसित हुई । प्रश्न होता है इस वैज्ञानिक विकास के प्रकाश मे देखें कि क्या ग्राज पूर्वजो की पेक्षा नैतिक र सास्कृतिक धरातल हमारा उन्नत है ? क्या हम अधिक ग्रात्म-विश्वासी व श्रद्धाशील है ? यदि नही तो मानना पड़ेगा कि विज्ञान हमारा अधिक समय तक पारम्परिक रूप से मार्ग प्रदर्शन करने मे सक्षम नही है । अनावश्यक आवश्यकताओ की वृद्धि और इनकी उपभोगमूलक प्रवृत्तियाँ वौद्धिक तथ्य से परे है । रस-हीन जीवन अपनी वास्तविकता खो बैठता है । 80 वैज्ञानिक यन्त्रोका ग्राविष्कार मानव-मुख-समृद्धि का एक अग रहा है, पर आज तो यत्रवाद ने मानव समाज पर श्राधिपत्य स्थापित कर रखा है। उत्पादन बाहुल्य से ग्रामोद्योग की प्रवृत्तियो के मंद होने के कारण तत्रस्थ श्रमिकों की न केवल बेकारी ही बढ़ी है, अपितु वे सब विशाल नगरो की ओर आकृष्ट होने लगे है । यहाँ उनकी स्थिति ऐसी हो जाती है कि अपने परिवार का पालन तक सुचारु रूपेण नही कर पाते, क्योकि लक्ष्मीनन्दनो द्वारा उनका शोषण हो जाता है । स्पष्ट कहा जाए तो इस यत्रवाद के प्रसार से ही दिनानुदिन वेकारी वढती जा रही है । ऐसी स्थिति मे न तो समानता के आधार पर सपति का वितरण ही होता है, न वर्ग सघर्ष की भावनाएं ही शिथिल पड़ती है और न मनुष्यो मे इकाई ही सभव है । जहाँ विज्ञान ने साम्य के स्थान पर वैपम्य को प्रतिष्ठित किया, वहाँ धर्म, साहित्य और हस्तकला उद्योग को प्रोत्साहित करने का अवकाश ही कहाँ ? Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वतमान विज्ञान वरदान या अभिशाप ? 81 जव मनुष्य में स्वार्य-मूलक जीवन-यापन की प्रवत्ति विकास पाती है, तव वह वास्तविक जीवन का आनन्दानुभव नहीं कर सकता वह स्वय यत्र का एक अंग बन जाता है, वह उदर ज्वाला के शमनाथ कमशील रहता है, समाज कल्याण की व्यापक भावना का उदय उसक हृदय मे नही हो पाता--जीवन की सोद्देश्यता समाप्त हो जाती है। उद्देश्य हीन जीवन निरथक है। अमेरिका को ही देखें कि वहाँ इतनी अधिक मात्राम गेहूँ उत्पन्न होता है कि कभी-कभी तो ऐसी महत्त्वपूण खाद्य-सामग्री-अ या इसकी पावश्यकता रहने के बावजूद भी जलाकर नष्ट कर दी जाती है । चीजो का मानवकृत अभाव, अधिक मुनाफा खोरी, अकिचना का रक्तशोषण ये कुछ यत्रवाद के परिणाम है । तात्पय है कि विज्ञान का माग उतना सीधा और पादरा प्रेरक नही, जितना कि इसके अनुयायियान ममझा था। सुख-समृद्धि के विकाम म विनान का योग रहा पर इससे मानव की अतरात्मा के विकास का माग अवरुद्ध हो गया। यात्म विश्वास व पर मगल की कामना की दिशाएं सीमित हो गई। इत पूर्व जो स्वच्छता, शालीनता, सदाचार, सयम, त्याग आदि भावनाएं विकसित रूप में जीवन के अन्तस्तल को स्पा करती भी वह स्थिति नाज कहां है कृषिमता,अयाय,अमगल, अपवित्रता और अनतिक्ता का सवत्र साम्राज्य है । अाज का मानव कृत्रिम दास बना हुया है।बहन को तो वह बहुत कुछ सोचता है, पर उसका हृदय बहुत सकुचित है। लाभापेक्षया हानि को सम्भावना जही अधिक हो उस वस्तु को अप 'गाने में कोई वुद्धिमत्ता नहीं है । विनान से लाभ है, तो उससे हानियां भी कम नही । उदाहरणाथ-विद्युत-शक्ति को ही लें,जहां वह भौतिक विकास का माग प्रशस्त करती है वहां प्राण धातिनी भी है। तनिक प्रमाद भी जीवन को समाप्त कर सकता है । मानव सहारख तय्या का प्रयोग निर्माण के लिए बहुत कम हापा रहा है। एक विक्टारियन कवि के विचार से यह ठीक है मि "विज्ञान से नान की वद्धि होती है किन्तु भावुर-स्फूर्ति नष्ट हो जाती है।" वस्तुत विज्ञान से भावुकतारा क्या सम्बप भावुक्ता हृदय-परक है तो विनान मस्तिष्क परख । नान के भण्डारा को पान की अपेक्षा उनक समुचित उपयोग की पार गतिमान होना अधिर बुद्धिमत्तापूण काय है। वौद्धिव-समृद्धिको प्रपक्षा नतिक समृद्धि प्रधिर सुसदायक है, जिससे Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 याधुनिक विज्ञान और अहिमा मानवता गताब्दियो तक अनुमाणित हो सकती है। इस प्रकार विचार करने पर तो आधुनिक विज्ञान मानव जाति के लिए भयकर अभिशाप ही प्रमाणित हुआ । उनका यत्किचित् वरदान भी मानव को मृत्यु के विनान की ओर ले जाने में ही सहायक हुा । दृष्टव्य यह है कि मनुप्य मावुनिक विनान के वरदान को विनागोन्मुखी न बनाकर विकासोन्मुखी कैसे बना सकता है ? इसकी दुनरी अवस्था ही इसे वरदान की कोटि मे प्रविष्ट करा सकती है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वोस प्राणविक अस्त्र प्रयोगो की भयंकर प्रतिक्रिया एक पौराणिक किंवदन्ती है--एक वार देवगण अमृत की खोज मे निकल पडे । उह पता चला कि श्रमृत तो सागर के गभ म है, तो उन्होंने समुद्र को मथकर अमृत निकालने की ठान ली। मेरु की मचानी और शेपनाग की रस्सी बनाकर सागर माथन प्रारम्भ किया। समुद्र से प्राप्य रत्ना म सवप्रथम हलाहल निक्ला । इसे देखकर देवी-देवता विचार में पड गए कि इस विष का पान कौन कर ? जा इसका सेवन करेगा उस ससार से विदा लेनी होगी। फिर ग्रमत की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी । इद्र में कहा गया "तुम बहुत ही शक्तिशाली हो और देवताओं के राजा हो, अत इस पो जायो ।" इद्र ने कहा- "क्या आप लोग मुझे मार डालना चाहते है ?" विष्णु के कहन पर उन्होने कहा 'हमारी तो हिम्मत नही होती, हम ता अमृत के लिए श्राय हैं।" महादेवजी स प्राथना करने पर उन्होंने कहा--- "अमृत तो मिलनेवाला ही है, किन्तु भगवानी तो जहर से है। जिसमें विपपान की शक्ति होती है, वही तो अमत पचा सकेगा ।" तब किसी ने कहा "तो करजी श्राप ही क्या नही इसे स्वीकार कर लेते " यह सुनन ही शिवजी ने प्रत्यन्त शानभाव से सम्मानपूर्वक विषपान करगले म सुरक्षित रख लिया । चिप के प्रभाव से क्ण्ठ म नीलापन आने के कारण ही उह भोल, गम्भु, नीलकण्ठ प्रादिनामा से अभिहित किया गया। * ग्राज वज्ञानिका वे भौतिक विधान रूपी समुद्र मथन से प्रणुवम, उदजन बम और प्रक्षेपणास्त्र यदि प्राणविक विप निकले हैं, परन्तु शिव के समान एसा कौन व्यक्ति या राष्ट्र आज तयार है जो इसे समुचित रूप स Ap 1 मान महित जो विष पियो शम्भु मय भगदारी, मान रहिन अमृत पियो, राहु कटायो शीरा । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा पचा ले ? हाँ, भारत मे इस विषपान की शक्ति अवश्य विद्यमान है, जिसने समत्व की साधना और परदु ख कातरता व अखण्ड लोककल्याणकारी भावनाओ का जीवन मे सदैव साक्षात्कार किया है। समत्व का आधार ही यहाँ की सस्कृति की मूल प्रेरणा रही है। भारत ने ही पर-दुख को स्वदुःख रूप से अगीकार किया है। भारत ने विश्व के विभिन्न विचारवाले राष्ट्रों के सम्मुख शान्ति स्थापनार्थ पचशील जैसे जनकामी सिद्धान्त का सक्रिय सूत्रपात किया है। अहिंसा को न केवल भारत ने अपना अमृत ही माना है, अपितु इसीके आधार पर स्वराज्य प्राप्त कर विश्व को दिखला दिया कि भयकर वैषम्य मे भी अहिंसाल्पी अमृत साम्य स्थापित कर, कसी भी पेचीदगी को सरलता से सुलझा सकता है। अणुवम के विनाशकारी प्रभाव ने विश्व राजनीति मे उथल-पुथल मचा दी। भय के कारण प्रत्येक राष्ट्र अपने पास विनाश अस्त्र बड़ी सत्या में संग्रह करने लगा है। और साथ ही यह भी अनुभव करने लगा है कि जिसके पास अणुशस्त्र नही है वे विश्व-राजनीति मे पश्चात्पाद गिने जाएंगे। भविष्य मे उनकी सत्ता नष्ट हो जाएगी। राजनीतिक क्षेत्रो में यह सोचा जा रहा है कि आणविक अस्त्र सग्राहक राष्ट्र ही अजेय है। इसी कारण आज रूस और अमेरिका मे मनोमालिन्य बना हुआ है। दोनो राष्ट्र शक्तिशाली आणविक अस्त्रो के स्वामी है। अपेक्षाकृत रूस कुछ आगे है। ये दोनो राष्ट्र आए दिन पारस्परिक घुड़कियां बताया करते है जिनका प्रभाव अन्य राष्ट्रो पर भी पड़ता है। यदि तृतीय महायुद्ध मे ये विनाशकारी अस्त्र प्रयुक्त हुए तो ससार की क्या दशा होगी? __ अणु अस्त्र प्रयोगो के समय आइन्स्टाइन ने उचित ही कहा था, "अव हमारे सामने दो ही विकल्प है, या तो हम एक साथ जिएंगे या एक साथ मरेगे ।" यदि अणु अस्त्रो का प्रयाग हुया तो विश्व मे मानव जाति का अस्तित्व संदिग्ध हो जाएगा। इसीलिए मानव सभ्यता के उन्नतिशील द्रप्टा इस प्रकार के अस्त्रो के विरोध मे अांदोलन और प्रदर्शन द्वारा इनके विरोध मे वातावरण तैयार कर रहे हैं। परन्तु राष्ट्रो के साम्राज्यवादी मानस तक इसकी ध्वनि नही पहुँच पाती। यदा-कदा विरोध स्वरूप बड़े-बड़े दार्शनिक तक को कारावास भुगतने को विवश होना पड़ता है। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणविक अस्त्र प्रयोगा की नयवर प्रतिनिया 85 जहाँ प्राणविक अस्त्रा का प्रचण्ड विरोध हो रहा है वहाँ चचिल जमे राजनीतिज्ञ ने कहा कि "उद्जन बम जसे ग्रस्या का होना बहुत आवश्यक है क्योकि यही एकमान ऐसा माधन है जो शक्ति को सतुलित बनाये रख सकता है और स्थिर शान्ति भी ।' जो राष्ट्र शस्ना के वल पर अपने को सुरक्षित समभता है । उसका सोचना भ्रामक है। उदाहरणाथ किसी नाग रिक के गृह म विस्फोटक पदाथ रखे हो और कितनी ही सावधानी रसने के बावजूद भी यदि प्रमादवश कभी ग्राग पकड ले तो सुरक्षा के लिए रखे गय वे पदाथ न केवल घर को ही भस्मीभूत कर देंगे, अपितु निक्टर्ती निवासियो का जीवन भी सकट में डाल देगे । इसी प्रकार अणुअस्त्रों की हिफाजत में तनिक भी स्खलना होने पर स्वत राष्ट्र मत्यु के मुख म चला जा सकता है । परराष्ट्र विनाश की वस्तु स्वराष्ट्र की रथा तब वहाँ कर पायेगी? एक बार आइन्स्टाइन ने मार्मिक वाणी में कहा था “श्राणविक युद्ध में विश्व का सावभौम नाश निश्चित है।" ऐस प्राणविक भस्मासुर से तब ही बचा जा सकता है जबकि विनाशकारी प्रयोगा मे सवथा वनानिव मुख मोडल | इस विषय पर चिंतन करते हुए एक पौराणिक आख्यान "पुनमू पिको भव" स्मृतिपटल पर अकित हो भाता है। किसी तपोवन में एक ऋषि का निवास था । एक दिन एक मूषक ( चूहा ) दौडता हुआ ऋषि की शरण में आया । शरणागत की रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझकर ऋषि ने उसे पकडने के लिए पीछे भागती हुई बिल्ली को भय का कारण मानकर" त्वमपि मार्जारो भव" तू भी बिल्ला हो जा का वरदान दे डाला। ऐसा ही हुया । विल्ली चली गई । एक दिन भयवर कुत्ता के बिल्ला के पीछे लगने पर शरणागत जिल्ला से ऋषि ने कहा " त्वमपिश्वानो भव" तू भी कुत्ता हो जा। जब एक दिन एक बाघ उस पर नपटने लगा तो ऋषि ने कहा- "त्वमपि व्याघ्रो भव" तू भी बाघ होजा । फिर एक दिन सिंह आया तो ऋषि ने बाघ को - " त्वमपिसिंहो भव" तू भी सिंह हो जा, का वरदान दे दिया । अव वह चूह से सिंह हो गया था | शरणागत सिंह ने एक दिन क्षुधानुर होने से इतस्तत घूमते हुए ऋषि को ही सपना भक्ष्य बनाने का सोचा। इस पर ऋषि ने कहा- अरे दुष्ट, मैंने तेरी Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा रक्षा के लिए तुझे चूहे से सिंह बनाया, अव मुझे ही खाना चाहता है । जा, "पुनर्मूपिको भव" वापस चूहा हो जा । ऋपिने पुन. उमे उसकी मूल स्थिति मे परिवर्तित कर दिया । जिस प्रकार ऋपि ने सिंह को मूपक बनाकर अपनी माया समेट ली, इसी तरह मानव जाति के कल्याणार्थ यदि वैज्ञानिक अपनी माया समेट ले तो विश्व कल्याण और विश्व शान्ति हो सकती है। यद्यपि विनाशक अस्त्रो को भी कुछ लोग शान्ति का सोपान मानते हैं। ऐसे ही लोगो को लक्षित करते हुए डॉ अोपन हीमर ने कहा--"दो भयंकर विच्छू एक वोतल मे बन्द कर दिये जाएँ तो सहज ही यह सोच-सोचकर एक दूसरे से डरते रहेगे कि यदि एक दूसरे को काटेगा तो दूसरा भी अपना चमत्कार बिना बताए नहीं रहेगा और यो एक दूसरे की मृत्यु का समान और निश्चित अवसर है।" विच्छू एक-दूसरे को डसेगा नही यह कैसे माना जाय ? मनुष्य विच्छू से कही अधिक विपैला है जो स्वय मकड़ी के समान जाल बनाकर अपने आपको फसाता है पर इस प्रकार आणविक जालो की शक्ति का स्वामी होने के बावजूद भी वह मानसिक शाति का अनुभव कहाँ कर पाता है। पण्डित जवाहरलाल नेहरू आदि जैसे कई मानव कल्याणकामी विश्व प्रसिद्ध नेताओ ने कई वार वहुत स्पष्ट शब्दो मे सूचित किया है कि प्राणघातक शस्त्रो का प्रयोग कतई बन्द हो जाना चाहिए। रोम के इतिहास मे एक कहावत वन गई है कि “जब रोम जल रहा था तो नीरो वाँसुरी वजा रहा था।" उसने अपनी उपेक्षात्मक मस्ती मे रोम के कष्ट की तनिक भी परवाह नहीं की । शताब्दियाँ वीत गईं, पर रोम के इतिहासकारों ने नीरो को क्षमा नही किया, बल्कि उसके दण्ड के लिए यह घृणास्पद कहावत उसकी उपेक्षा का प्रतीक बन गई । असामाजिक व्यक्ति को देखते ही नीरो का स्मरण हो पाता है। ठीक यही स्थिति विश्व के प्रमुख राष्ट्रो की है। सभी शक्तिशाली गुट ज्वालामुखी के मुंह पर वैठकर आणविक अस्त्रो की वाँसुरी वजा रहे है। ज्वालामुखी के फटते ही वे नष्ट हो जाएँगे। कही ये सव नीरो की कहावत मे ही अपना अन्तर्भाव न करवा ले। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीस वर्तमान युद्ध, विज्ञान और अणु शस्त्र आज समस्त विश्व के सम्मुख सव से भयानक और दुसपूर्ण समस्या युद्ध की है। वे प्रतिक्षण भाषा में रहते हैं कि सामान्य तनाव भी कहा विश्व युद्ध का जन्म न देवढे । यदि निकट भविष्य में वौद्धिक ज्वालाएं प्रज्ज्व वित हुई तो राम रोम सिहर उठेगा। विश्व का समस्त मानव समाज भली भांति इस तथ्य से परिचित है कि युद्ध से कभी नमी को किसी प्रकार का लाभ नहीं होता । धन, जन और सभ्यता की हानि के साथ मानव संस्कृति के नालस्थल पर क्लक का टीका ही लगता है। विगत युद्धा के प्रांकडे हमारे सम्मुग है । यद्यपि युद्ध वे समय सामान्य नागरिक या उससे सीधा सम्बाप नही रहता फिर भी वह युद्ध के प्रभाव से अपने आपको नही बचा पाता । राष्ट्री की महत्त्वाक्षाएं जन-जीवन का धूमिल बना देती है । सदय विभाग की तलवार गूत में बच्चे धाग स बधी सर पर लटकती रहती है, जा तनिक भी हवा वासावर गिर सकती है । सामाजिक जीवन युद्ध से विछिन्न हा जाना है। सामूहिक साथ सामग्री के मलावा कई जीवनापयोगी वस्तुमा पर इउा जा भयकर कालिक प्रभाव पड जाता है, यह तीन नष्ट नही होना । निगत महायुद्ध राजा प्रभाव रिश्वतयारी, चार जारी मनतिस्ता पोर व्याभिचार के रूप में भारत पर पडा है, वह माज नी मूलत नष्ट नहीं हुमा । विज्ञान मानवानुसार विभिन प्रकार प्रयतन जना पान गाटर, जीप पौर तोपा थादिनिमाण कर बुद्ध वृत्ति या प्रवाहित किया है।निया अपना समय उपयुक्त पूरक अपना के निमाण में लगाया है। हम दवना यह है ि माधुनिक सुद्धा विज्ञान नियमित प्रकार प्रत्य Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा या परोक्ष इसे बल देते है। ___अद्यतन युद्ध मुख्यतः स्थल सेना, जल सेना और वायुसेना पर निर्भर है। ये तीनो सेनाएँ पूर्णत यत्राधीन है। एक समय युद्ध के परिवहन के साधनो मे घोडे और खच्चरो का समावेश होता था। पर आज उनका स्थान मोटर, जीप, मोटरसाईकल और टैकों ने ले लिया है। तलवार, भाले आदि भारतीय शस्त्र अव बहुत पुराने पड़ गये है। अव तो स्टेनगन, बेनगन और शक्ति शाली आग्नेयास्त्रो का युग है। दूर मारक तोपे आदि विज्ञान की परिणति है। नौ सेना और वायुसेना तो केवल विज्ञान पर ही अधिक निर्भर है। तारपीडो, यू-वोट एव राडर इनके मुख्य उपकरण है । जो राष्ट्र इस प्रकार के वैज्ञानिक साधनो से सज्जित है, वे ही दूसरो पर अपना प्रभाव स्थापित कर सकते है। यद्यपि अमेरिका के पास वायुयान प्रचुर परिमाण मे विद्यमान है, तो भी रूस की राकेट विपयक प्रगति अधिक सतोपजनक है। युद्ध मे वैमानिक अनिवार्यता स्पष्ट है । पर प्रक्षेपणास्त्रो ने इसका महत्त्व कम कर दिया है। ___ अद्यतन सेना की प्रत्येक शाखा मे वायरलैस, टेलीफोन, टेलीविजन, फोटोग्राफी और रेडियो आदि महत्त्वपूर्ण यत्रो का उपयोग होता है । यौद्धिक चिकित्सा के क्षेत्र मे भी विज्ञान की महिमा अपरम्पार है। रासायनिक पदार्थो से निर्मित तत्काल गणदायक और प्रभावोत्पादक औपधियाँ विज्ञान ने दी। पौष्टिक तत्त्वो से सयुक्त ऐसी टिकियाऍ बनी जिनसे मनुप्य अपनी शक्ति भली प्रकार अधिक समय तक सुरक्षित रख सकता है। कहने का तात्पर्य है कि विज्ञान ने युद्ध के सामान्य से सामान्य समझे जाने वाले तत्त्व को भी गम्भीरतापूर्वक स्पर्श किया है। अतः मनुप्य की शरीर सम्बन्धी वीरता का अव कोई महत्त्व नही रह गया । युद्ध मे जय-पराजय का कारण जन सख्या, साहस पूर्ण वीरता या चातुर्य नही अपितु योजना, सगठन और कल-कारखाने है। जो युद्धलिप्सु राष्ट्र अधिकाधिक शस्त्रास्त्र वना सकते है, वे ही विजेता की कोटि मे आते है। आजकल प्रत्येक वस्तु मे महान् परिवर्तन दृष्टिगत होता है । अणु शक्ति के प्रावल्य ने अव युद्ध को अमानुषिक और Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान युद्ध, विमान और प्रणु अस्त्र रामसी बना दिया है । मृत्यु की सदेशवाहिका विपाक्त वायु के भय से सनिक दवा में रौरव का अनुभव करते हैं। किसी भी समय वे मृत्यु के मुस में जा सकते है | 89 यदि तृतीय विश्व युद्ध प्रारम्भ हुआ तो सम्पूर्ण विश्व प्रभावित हुए बिना न रहेगा । अत भारत का यह सदव हार्दिक प्रयत्न रहा है कि विश्व म जहाँ कहीं भी युद्धाग्नि की चिनगारी दीने, तत्काल त्रुमा दी जाए। ऐसे प्रयत्नाम सोभाग्य से भारत का कई स्थाना म सफलता भी मिली है। वास्तविक वान यह है कि आक्रमण या सुरक्षात्मक कितनी ही यत्राधीन सामग्री का निर्माण क्या न किया जाए, पर विज्ञानजनित सवनाश से मानन समाज को बचाए रखने का एक मात्र प्रयास विश्वशान्ति ही है, जिसकी भित्ति हिसा की सुदृड शिला पर प्राधूत है । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईस अणुपरीक्षण प्रतिवन्ध एवं निःशस्त्रीकरण आज की अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियो को दृष्टिगत रखते हुए किसी को भी प्रसन्नता का अनुभव नहीं होता। निप्पक्ष और शान्ति वाछुक पर्यवेक्षक अमेरिका तथा पाश्चात्य देशो के वीच शस्त्रीकरण या अणुपरीक्षण के प्रतिस्पर्धामूलक दृप्किोण से दुखी होते है। आज दो दलो मे ससार विभक्त है। एक दल में अमेरिका व तदनुयायी राष्ट्र है तो दूसरे मे रूस व उसके अनुगामी राष्ट्र। दोनो मे विचार वैपम्य है। दोनों के प्रचार और विचारविस्तार के अपने-अपने तरीके है। ___14 अगस्त, 1940 को अमेरिका के राष्ट्रपति रूज़वैल्ट तथा इग्लैण्ड के प्रधानमंत्री सर विंस्टन चचिल की भेंट स्वरूप एटलांटिक सधि सम्पन्न हुई जिसमे कहा गया था कि "हमारा विश्वास है कि ससार के समस्त देशों को वास्तविक अर्थात् भौतिक एवं आध्यात्मिक कारणो से शक्ति के प्रयोग को अवश्य ही वन्द कर देना चाहिए।" इसका तात्पर्य यही था कि प्रत्येक राष्ट्र की पारस्परिक विरोधी समस्यायो का समाधान वार्तालाप के द्वारा ही हो, जिससे युद्ध के नाम पर धन-जन का विनाश न हो। युद्ध में किया जाने वाला व्यय यदि जनमगलकारी कार्यो पर लगाया जाए तो युद्ध के कारण ही सदा के लिए ससार से विदा हो जाएंगे। ___ सन् 1942 मे पुन. इग्लैण्ड, अमेरिका, रूस और चीन ने सामूहिक घोषणा की थी कि युद्ध की समाप्ति के पश्चात् वे सब मिलकर शस्त्रास्त्र विनिमय की व्यवस्था करेगे । वस्तुतः दो विश्व युद्धो की विनाश लीला से वे सब स्वाभाविक रूप से ही सूचित विचार पर आ गए थे। दूसरे महायुद्ध के समय अमेरिका के पास अणु वम थे, जिनका प्रयोग उसने किया । इस युद्ध की समाप्ति के बाद नि शस्त्रीकरण की चर्चा ने पुनः Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुपरीक्षण प्रतिव च एव नि शस्त्रीकरण जोर पकडा । सन् 1945 म सानफ्रान्सिसको म सयुक्त राष्ट्र का चाटर बनाया गया, जिसके 26 वें अनुच्छेद म उल्लेख है कि संघ की सुरक्षा परिषद शस्त्रास्नो के विनिमय के लिए कोई न काई हल ठेगी।' इन शदा से सयुक्त राष्ट्रसघ का कत्तव्य हो गया था कि वह एतदय ठोस विचार करे । तब से आज तक वहतर राष्ट्र अणुशस्त्रा पर नियत्रण के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। किन्तु अभी तक पाशा की प्राभातिक किरण का उदय दृष्टिगत नहीं हुआ । बल्कि इसके विपरीत परीक्षणावी प्रतिस्पर्धा को ही प्रोत्साहन मिला और प्रक्षेपणास्त्र जसे तीन सहारक शस्मा के निमाण म प्रचुर अथ व्यय हुमा। जसा कि ऊपर सूचित किया जा चुका है कि भारत अपने शान्तिपूर्ण प्रयत्ला के लिए प्रसिद्ध रहा है। वह चाहता है कि शस्त्रो के निमाण व सरक्षण से जो महाहिंसा को प्रोत्साहन मिलता है, वह सदा के लिए बद हो । शस्त्रास्त्र परीक्षण शान्ति का माग नहीं, शाति अहिंसा में निहित है । इसी भारतीय कल्याणकारी नीति को लेकर भारत के प्रधानमनी प० जवाहरलाल नेहरू नि शस्त्रीकरण पर बहुत अधिक जोर दे रहे हैं। उहान कई राष्ट्रो के प्रधाना को पुन -पुन लिखकर सचेप्ट किया कि वे आणविक शस्त्रा का परीक्षण बन्द कर विश्व शान्ति स्थापन म योग द।' पर इसका परिणाम यही रहा कि सभी राष्ट्र कहने लगे कि अमुक राष्ट्र यदि परीक्षण बन्द करेगा तव ही हम अपने प्रयोग स्थगित कर सकते हैं। दिनानुदिन अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण म तनाव और खोचातानी बढती ही जा रही है । शीत युद्ध को सृष्टि भी होने लगी है। नि स्त्रीकरण वाछनीय होते हुए भी इसका माग क्टकाकीण है। प्रथम प्राणविक अस्त्रो पर नियत्रण क्स और कब से लगाया जाए ? द्वितीय, सामान्य शस्त्रास्त्राम विस सीमा तक कमा की जाय ? 1948 से लेकर आज तक इन कटिनाइया को हल करने का अथक प्रयत्न किया गया है, लेकिन कभी पश्चिमी दश या अमरिका नहीं मानता है तो कभी रूस स्ट जाता है । अमेरिका तथा इग्लण्ड आदि पाश्चात्य दा चाहत हैं कि सबमे पहल एक अतर्राष्ट्रीय नियत्रण सस्था बना ली जाए और फिर प्राणविष अस्या का निमाण ही सदा के लिए समाप्त कर दिया जाए और रूस तथा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याधुनिक विज्ञान र श्रहिंसा अमेरिका की सेना में 10-10 लाख सैनिको की कमी की जाय । किन्तु रूस ने इस बात को स्वीकार न करते हुए कहा कि सभी राष्ट्र अपनी सेना में कटौती कर ग्राणविक शस्त्रास्त्रों को नष्ट कर दे । इस कार्य को सम्पादित करने के हेतु एक संस्था का निर्माण सुरक्षा परिषद के प्रवीन हो। दोनो गुटों ने ग्रुपनी अपनी ऐसी योजनाएं रखी जो पारस्परिक समझौतो से दूर थी । रूस इस बात पर तुल गया कि अणुशस्त्रो का प्रयोग सर्वथा वैध घोषित किया जाय। 10 मई, 1955 को पुनः सोवियत रूस ने सयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष निशस्त्रीकरण का प्रस्ताव रखते हुए कहा, 'प्राणविक शस्त्रों का निर्माण र प्रयोग प्रवैध घोषित किया जाना चाहिए और सामान्य सेनाओ मे पर्याप्त कमी की जानी चाहिए। बड़े राष्ट्रो की सेनाओ की जाच के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय नियंत्रण सस्था निर्मित हो तथा सन् 1956 मे निशस्त्रीकरण के सम्बन्ध मे विचार करने के लिए एक विश्व सम्मेलन बुलाया जाय और साथ ही कुछ राष्ट्रो ने, विदेशो में जो सैनिक सगठन वना रखे है, उन्हें भी समाप्त कर दिया जाए।' इस प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्रसघ की निशस्त्रीकरण समिति ने विचार किया । इंग्लैण्ड यदि देशों ने प्रस्ताव की सराहना करते हुए स्वीकार किया कि रूस कुछ वाते तो मान गया है लेकिन इग्लैण्ड के प्रतिनिधि को निःशस्त्रीकरण के सम्बन्ध मे रूस का प्रस्ताव कुछ ग्रस्पष्ट-सा लगा। पश्चिमी देशो के अनुसार उस नियन्त्रणकारी सस्था के अधिकारियों को निशस्त्रीकरण को स्वीकार करनेवाले देशो पर किसी भी स्थान पर जाने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए और वह प्रत्येक ऐसे देश मे रहे जो निशस्त्रीकरण स्वीकार कर चुका हो । उनका तात्पर्य यह था कि रूस में प्रस्तावित नियन्त्रणकारी वह सस्था प्रभावपूर्ण कार्यवाही नही कर सकेगी। इस उपक्रम से विश्व प्राशान्वित था कि उभय गुटो मे कभी न कभी समझौता हो जाएगा । भविष्य के सम्वन्ध मे तो क्या कहा जा सकता है किन्तु वर्तमान अनुभवो के आधार पर तो यह कहा ही जा सकता है कि यह केवल वाणी का विश्वासमात्र था । इसका कोई सुन्दर व आशाजनक परिणाम नही निकला । प्रेसिडेंट ग्राईजनहावर के 'ग्रोपन स्काइज प्लान' को भी रूस ने मान्य नही रखा। सन् 1958 मे लन्दन मे निशस्त्री 92 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणुपरीक्षण प्रतिव एव निशस्त्रीकरण 93 करण उपसमिति का एक एसा सम्मेलन हुआ जिसम सुरक्षापरिषद के सभी सदस्या ने भाग लिया। यहाँ भी काफी समय तक विचार विनिमय करने के बाद भी पागाप्रद निष्पप न निकला । उसी समय अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण भी एसा वन गया जिससे यह सारी योजना वचारिक जगत तक ही सीमित रही और आखिर मे रूस को इस सभा का बहिष्कार करना पड़ा। अब इस समस्या को सयुक्त राष्ट्रसघ की महासभा म भारत के प्रतिनिधि ने उठाया था, जिसका उद्देश्य था कि नि शस्त्रीकरण के काय को और भी अधिक व्यापक बनाने के लिए शान्तिकामी सभी देशों को सम्मिलित किया जाए। हाल ही म रूस ने सुझाव दिया कि वडे-बडे राष्ट्रा के प्रधान मिल कर लें और इस प्रश्न पर पुन विचार कर । पर अमेरिका असहमत रहा। उसके विचार म पहले तीन बड़े देशा के विदेश मन्त्री ही विचार करें और वाद म प्रधाना का सम्मलन हो । वात तो सामा य थी, मुख्य प्रश्न तो निशस्त्रीकरण का था जिस पर कोई न कोई निणय शीघ्र होना अनिवाय था । यदि बडे राष्ट्र दपवृत्ति का परित्याग कर शस्त्रीकरण को समाप्त कर दें तो निश्चय ही जनजीवन म गान्ति साकार हो सकती है। प्रसन्नता की बात यह हुई कि वुलगानिन एव स्थश्चेव के सत्तारूव होने के पश्चात्म्स की स्टालिन की सरूत और अन्य दशा के प्रति घृणा की नीति में भारी परिपतन हो गया। पर वहाँ के प्रधान मत्री किसी भी देश के साथ वार्तालाप द्वारा समाधान निकालने को तत्पर दिखलाई देते हैं । जेनवा या सम्मेलन हुमा, जिससे भागा बैंधी थी कि अब अन्तराष्ट्रिीय युद्ध समाप्त हो जाएग। पर वहां भी दानाजमन प्रदशा को मिलाने की नीति के प्रश्न पर एक मोर विभेद सडा हो गया। इससे इतना काय अवश्य हुमा कि प्रतिद्वन्द्वी गुटा म सदेह पोर गलत धारणापा के वादल फट गए। इन घटनामा के बाद प० नेहरू कम और अप देशा म सान्ति का सदश लेपर गए। स्म का कथित लाह प्रावरण उठ गया । इस के प्रधाना के प्रोदाय के कारण मतराष्ट्रीय राजनीतिक क्षेत्रों में नवीन धारणाए मुदृढ हो गइ । ५० नेहरू का शान्ति के लिए अमरिता फा प्रवास भी मुखद रहा। विश्व युद्ध की स्थिति में सुपार म बल मिला । स्म पोर अमरिका के बीच मत्रीमा मूत्रपाल हुमा। पीतयुद्ध म रमी हुई। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 याधुनिक विज्ञान और हिमा जेनेवा सम्मेलन मे, जो 'लीग ग्राफ नेगन्न' के प्रयत्नों से हुआ था, सोवियत संघ ने पूर्ण नि.गस्त्रीकरण को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करने हेतु अन्य देशो का आदान किया था। पर वह प्रस्ताव हमी में उड़ा दिया गया। युद्धोत्तर काल मे भी सोवियत संघ ने आणविक गन्त्री का पूर्ण निरोच, गस्त्रास्त्र व सेनायो मे नीव कटीती, विदेशी राज्य क्षेत्रो में स्थापित सेनासगम की समाप्ति तथा नि गस्त्रीकरण सम्बन्धी अनेक समस्याओं पर प्रस्ताव रखे । उसने स्वय ने भी बीस लाख से अधिक सैनिक कम कर दिए । अन्य देशों के रूसी मेनास गम समाप्त कर दिए। हमानिया से सेना पुनः बुला ली। जर्मन लोकतन्त्रात्मक गणराज्य में भी सोवियत सेना कम कर दी और यह निश्चय किया कि यदि पश्चिमी राष्ट्र पहल नहीं करते वह अाणविक हथियारो का पुन. परीक्षण न करेगा । खेद है कि सयुक्त राष्ट्रसंघ के चौदह वर्षों के अनवरत परिश्रम के बावजूद भी न केवल इस विषय मे समझौता ही हो सका है वरन् शस्त्रीकरण की प्रतिस्पर्धा मे विस्फोटक पदार्थ भी एकत्र हो गए है। जिनकी एक चिनगारी ही विश्वविनाग के लिए पर्याप्त है। विश्व मे ऐमी स्थिति त्रजित हो गई है कि यदि उद्जन बम ले जानेवाले वायुयान के किसी यन्त्र मे खरावी हुई या नियन्त्रक से किसी भी प्रकार क्षणिक प्रमाद भी हो गया तो विश्वयुद्ध छिड सकता है। ऐसे नाजुक समय पर भी निकिता खुश्चेव (सोवियत संघ के मत्रीपरिपद् के अध्यक्ष) ने गत १८ सितम्बर, १९५६ को पुन. संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मुख प्रस्ताव रखा "सभी देश चार वर्गों के भीतर पूर्णत नि शस्त्र हो जाएं, ताकि युद्ध छेडने के लिए उनके पास कोई साधन ही न रहे।" साथ ही उन्होने जल, स्थल और नभ सेनायो को सर्वथा हटाने एवं शस्त्रास्त्रो का निर्माण सर्वथा वन्द करने का प्रस्ताव श्री आईक के समक्ष रखा था। आईजनहावर द्वारा रूस का यह प्रस्ताव सत्कृत हुआ। यह प्रस्ताव सोवियत संघ के दुर्बल प्रतिनिधि की ओर से नहीं, वरन् विश्व के सर्वोच्च शक्ति सम्पन्न सोवियत संघ के मन्त्री परिपद् के अध्यक्ष की ओर से आया है। जिसने चन्द्रमा को वेषकर समस्त विश्व से अपना लोहा मनवा लिया है । स्वभावत. इसको हवा मे नहीं उड़ाया जा सकता ! इस Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अणुपरीक्षण प्रतिवध एवं निशम्यीकरण 95 प्रस्ताव ने तत्काल ही सयुक्त राष्ट्रसघ का और विशेपत विश्व के समस्त राप्दा का ध्यान प्रापित किया। इसी प्रस्ताव के परिणामस्वरूप सूचितदेगा की मरकार के अध्यक्षा ने अपन मयुक्त वक्तव्याम कहा कि निशस्त्री परण की समस्या ही माज विस की पर्वाधिक महत्वपूण समस्या है और चे इस समस्या का रचनात्मर हल निकालने म कोई भी प्रयास उवा न रसन के लिए कटिबद्ध है। शप्रसार एरोर जहाँ नि स्नीकरण एव मास्त्र परीक्षण वद करन का प्रयत्न हो रहा है वहां टूमरी पोर भयानक अणुवम व उदजन बमा के परीक्षण भी चालू हैं । इनम शियाई देशों को पर्याप्त हानि उठानी पड़ी है । सन् 1965 की उत्तर भारतीय गाडे, वनानिका के मतानुसार रेडियम घामिता राही परिणाम या । दगी कारण जुलाई मन् 1956 में लादन म राप्दमहला के मप्रिया के मम्मान मप० जवाहरलाल नेहरू न ऐस विस्फाटा पर राक लगान का प्रश्न उटापा था और अनव वार प्रय सम्मलना म भी उमादपूण प्रतिसाद्धारा तीर विरोध किया था। अभी अभी फाशन भी विश्व लार मन को उपेक्षागरते हुए महारा के रगिस्तार म पशुवमा विस्फोट रिया, जिस पर चारा ओर भारी विरोध प्रकट किया गया। प्रगियाइ नगठन मी भारतीय स्यावी मध्यभा सुश्रीरामसरी नहा नफागससारद्वारा महारा मरिच गए प्रणु पिस्फोट के प्रति विरोरारत हा रहा कि मानोमी ससार न विश्व जनमत तथा मयुक्त राष्ट्रगपीय प्रस्ताया री जानरम पर उपभा की है। जापान, पाना, मारसाग, गुडान घोर टरपरी को पार नौ विराप व्यक्त दिया गया। प्रमरिता घोर भी पायेगार प्रसन्न नहीं है। इसी प्रश्न पर मागासन पास ग अपना राजनपिप सम्बध ही विच्छद पर दिया और पाना द्वारा पापिर प्रािय का विवर लिया गया है। प्राया विम्फोट ग उता रेडियम मक्रिय पुरका पादत सुरी, मित्र, गऊदी परव तया नारन कापूर रियामा रहा है। इस गादल फी निती नह जा महार पोट नारीलाई पर समापूरी पार गनिमान है। उत्तर भी पार भी घुमारभारा है। इस प्रसार कपिरणारा पर शिपमानर लिए नग उम्मसनम Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा नये प्रस्ताव पेश किए गये है। जो लोग सच्चे हृदय से शान्ति की मनोकामना द्वारा मानवता को जीवित रखना चाहते है, उन्हें पूर्ण नि शस्त्रीकरण एवं आणविक प्रयोग प्रतिबंधार्थ न केवल तत्पर ही रहना चाहिए, अपितु, कृत संकल्प होकर संघर्प भी करना चाहिए। प्रसन्नता की बात है कि विनाशक शक्ति सम्पन्न रूस भी गान्ति की कामना करता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईस अहिंसा और विज्ञान यदि हम सहज रूप म यह तो विगान मानव शरीर का साथ है और महिंजा मारमा पा। विज्ञान वाह्य तत्त्वा का पोषण करता है तो अहिमा भाम्यन्तरिय तत्वा की पुष्टि करती है। एक पाश्चात्य विचारा का धन हपि विमान न हमारे शरीर की मुविधाएँ बदाइ, नित, नवीन साधन प्रसा धन प्रदान पिये। पर उनस मात्मा को क्या मिला? कुछ नहीं। वास्तव म विधारका उपाक्पन हमार लिए चिमनीय है । माज राष्ट्र के मूधम मनोपिया को इस पर गहगई त विचारना है । ययापि यतमान युग ए. सत्रान्ति काल मम गुजर रहा है कि उसके सम्मुस विविध समस्याएं सही हैं। एप मार विश्वान्ति की समस्या सो दूसरी पार मणु प्रस्त्रा के निर्माण की प्रतिदिना। जिसने राष्ट्र के विचारशील नताप्रा यो चिन्तित बना डाला है। प्राजकोई नो देश मा राष्ट्र निमय प्रतीत नहीं होता। माणगि युद्धा की रिभीपिरामा म सारा विशाल मोर ध्यान है। वह सोता है तो गत दिन पाविर परतारा उपधान नगारर । न जाने पर किपर स पारमण हा जाए मोर पर हम प्रनय से गन में प्रतिप्यान हो जाएं। इस प्रारीपारामागे मानव समान निरन्तरपिराइमा है। इसी मव. दामपमानित मूधयमा० मन्त्रट प्राइस्टाइनोमानम पाह मानव. समार के लिए यह निरताया-- 'हम मार होन फनात मपन मानव अतुपा म अनुरापरत है कि पानी मावानापार र पार धप मर एपर पायरिमान एमा किया त मा मा सानामिनर द्वार गुम जाएगा। यदि प्रारममा रामसार को मारमोन मृसु का सारा पार Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 याधुनिक विज्ञान और ग्राहसा सामने होगा ।" " भारत के सुप्रसिद्ध महान् दार्शनिक डा० राधाकृष्णन के शब्दो मे"वैज्ञानिकों ने यव तक ऐसे हथियार हासिल कर लिये है, जिनसे पन्नभर मे ममुची पृथ्वी की मनुष्य जाति को मिटाया जा सकता है । समस्त ससार के नेताओं के सामने अब सबसे बडी महत्त्वपूर्ण समस्या यही है कि मानव समाज को इन प्रलय से कैसे बचाया जाए। हम लोग परमाणु युग के अन्धकारमय वातावरण मे जीवन-रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं और विज्ञान की महान सफलताओं ने हमारे मन में उतना भय-यातक फैला दिया है कि हमे लगता है कि हम किसी ग्रन्थी मशीन के विकराल शिकंजों में फैल गये हैं । गृह विहीन हो गये हैं । हम लोग किमी भयानक गढ़े के कगार पर खड़े हैं या शायद उसमे धँसते भी जा रहे हैं ।" सचमुच ग्राज विज्ञान मानव का त्राण नहीं कर सका । उसको जड़ प्रधान बनाकर उसकी मानवता का ग्रपहरण किया है। विज्ञान का परिणाम मानव ने जितना सुन्दर और अभिलषित समझा था, उतना वह नहीं निकला । विश्वशाति और हिंसा इस भयाक्रान्त युग मे मानव जाति का वास्तविक त्राण खोजा जाए तो वह हिंसा में ही मिल सकता है। विज्ञान अब तक इन व्वसात्मक ग्रस्त्रों का प्रतिकार करने में असमर्थ रहा, और निकट भविष्य में भी उससे सुरक्षा की प्राशा नही की जा सकती। ऐसी स्थिति मे विज्ञान के साथ अहिंसा का क्रान्तिकारी सिद्धान्त सलग्न हो जाए तो विश्वशान्ति सभावित है। हिंसा का अस्तित्व जन-जन के मन मे कायम किया जाए तो विश्वशान्ति सक्रिय रूप धारण कर सकती है और जो विश्व - आयुधों के ज्वालामुखी पर खड़ा है, वह हिमालय की शीतल एव शान्त गोद मे विश्राम पा सकता है । वर्तमान मे जो परीक्षण विरोध तथा निशस्त्रीकरण की दिशा मे 1. We appeal as human beings to human beings. Remember your humanity and forget the rest. If you can do so the way lies open to a new paradise. If you can not do so there lies before you the risk of universe death. -Elbert Enstiens. July 1955. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिसा और विज्ञान 99 बहुत सारे अन्तर्राष्ट्रीय प्रयल चालू है, उनम अहिंसा का ही मान्तिकारी मिद्धात कामयाब हो सकता है, ऐसा विश्वास है । बहुत से वज्ञानिका का भी यह अभिमत है कि वनानिकीकरण में मनुष्य शाति नही पा सकता । शान्ति का साम्राज्य कायम करने के लिए अपन अतर म अहिंसा को उद्युद्ध करना होगा। निशस्त्रीकरण म राष्ट्रा कोजो शान्ति के परमाणु नजर पा रहे हैं वे वनानिक शस्त्रीकरण म नही । आज राष्ट्र के बडे-बडे नता यही कहते हुए दिखाई पड़ रहे है कि विश्वशाति युद्धा मे नही, अहिंसा और प्रेम म ही सम्भवित है। यदिनानिक लोग अहिंसा के महान् सिद्धान्त को स्वीकार कर यह कृतसकल्प हो जाएँ कि हम पत्र में इस प्रकार के अस्त्रा का निर्माण नहीं करेंगे, जिनस मनुप्य जाति का विनाश होता है। तो मैं समझता हूँ कि वहत गीघ्र ही अस्न जय विभीपिकामा का ससार से अन्त हो जाएगा, और विस फिर मे शाति की सास लेने लग जाएगा। हिंसा का प्रतिकार अहिंसा से यतमान युग मे विज्ञान दानव न भयानक हिमा के माधन प्रस्तुत किय है। उन सरका प्रतिकार अहिंसा के द्वारा ही किया जा सकता है। हिमा के द्वारा हिमा का उमूलन कर अहिमा की प्रतिष्ठा करने का विचार एका प्रकार मे मानव के मस्तिष्क का दिवालियापन है। स्याही से सने वस्म को स्याही से धोना बुद्धिमत्ता नही रहला मस्ती, ठोय उसी प्रकार हिंसा का प्रतिकार महिमा मे ही किया जा सकेगा। यदि कोई यह कह कि हम हिंसा कातिर हिमा स ही करगे तो यह केवल उनको दुराशामात्र है। प्राचीन काल महिंसा ये साधन प्राज की भाति शक्तिशानी और दूरदूर तक प्रभाव डालन वाले नहीं थे । अाज जब ऐम अगणित मापन निर्मित हो चुके हैं और हिंसा अत्यन्त शक्तिशाली बन गई है, नय उसका प्रतिकार करन के लिए महिमा का अधिक सक्षम बनान की आवश्याता है। इसलिए माज महिला के पक्ष म प्रत्यक व्यक्ति का कुलदमावाज उठानी है। कारण यह है कि हमारे यहाँ विभिन्न गुगोम पटिन म कठिन समस्यामा को सुलमान महिमा पूर्ण सहयोगी रही है । मोमे जन-समाज के सम्मुम उसके Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा नवीनतम रूप पाते रहे है । वास्तव में देखा जाए तो अहिंसा की उपयोगिता अमर्याद और अचिन्त्य है। अहिंसा का चमत्कार . सरतगच्छीय ज्ञान मन्दिर, पाय अहिंसा विश्व की प्रात्मा है । भयभीतों की शरण है । भूखा का भोजन और प्यासो का पानी है । इसलिए अहिंसा का स्थान सभी दर्शन और धर्मों मे विगिप्ट है । अहिंसा ने वर्तमान युग में वे कार्य करके दिखलाए है, जो अव तक मानव की कल्पना मे परे थे। जिसका खलत उदाहरण 44 करोड़ भारतवासियो की स्वतन्त्रता, कोरिया का गृह-युद्ध और हिन्द-चीन की अन्तरग समस्या है । प्रस्तुत घटनाएँ हमे अहिसा की ओर मुड़ने के लिए प्रोत्साहित करती है। आज अहिंसा का मार्ग सबसे अधिक प्रशस्त बनाने की आवश्यकता है। अहिंसा को केवल तामयिक नीति के रूप मे न अपनाकर सिद्धान्त के रूप में अपनाने की आवश्यकता है। जब अहिंसा केवल सिद्धान्त के रूप में न रहकर आचरण के रूप मे पायेगी तभी देश और राष्ट्र की विकट समस्याएं समाप्त हो सकती है। सारांश यह है कि यदि विज्ञान पर अहिंसा का वरदहस्त रहातो विज्ञान मानव जाति के व्वंस के बदले स्वर्ग का एक अभिनव द्वार खोल देगा। इसलिए आज के इस वैज्ञानिक युग में अहिंसक वातावरण निर्माण की दिशा मे राष्ट्र के महान् अहिंसा प्रेमियो को बहुत कुछ आगे बढना है। पो तरतरगच्चीय ज्ञान मन्दिर, जापुर Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीस विश्व शांति अहिसा से या अणुअस्त्रो से ? मानव आज अहिंसा और अणु अस्त्रो के मार्ग पर खड़ा है। एक माग निमाण का है तो दूसरा ध्वस का 1 एक प्रेम, मनी, शाति, मानवता, सुरक्षा और श्रभ्युदय का है तो दूसरा हिंसा, घृणा, प्रशाति, नय और प्रतिशोधात्मक भावना का है । भारतीय समय तत्त्वचितको की दृष्टि सदव ही आध्यात्मिक रही है । तभी तो मनीषिया ने अंतरंग दृष्टि सम्पन ग्रहिसा का माग ही अपनाया है । विश्व को, अपनी साधना का सच्चा अनुभव बताते हुए, इसी प्रशस्त पथ पर चलने को प्रात्साहित किया है। पूर्व और पश्चिम की संस्कृति में सबसे वडा और मौलिक अन्तर यही है वि प्रथम संस्कृति अतरग को हो श्रेयस्कर और विश्व शांति का जनक मानती है तो दूसरी बहिरग पर श्राश्रित है । प्रथम पद्धति रोग के कारणों को समाप्त करने की चेष्टा करती है तो दूसरी "उसे दनावर ही सतुष्ट हो जाती है। पूणत नष्ट करने की क्षमता उसम नही । वाह्य दृष्टि सम्पन पश्चिमीय लोग मानवीय विकारा को दूर करने के लिए, मानव म प्राये हुए युद्धजनित दोष, विचार जनित विहार, घृणा, द्वेष, घप, कलह, स्वाथ लिप्या श्रीर सत्तालिप्सा यदि दोषो को समूल नष्ट करन के लिए श्रणुग्रस्य प्रयुक्त करते है । अमेरिकाको स्वरमा के लिए एटलाटिक महासागर के इस पार यूरोपीय देगा में भी अपनी सत्ता प्रस्थापित करना आवश्यक प्रतीत होता है । दूसरी और प्रशात व हिन्द महासागर में भी अपने सना-सगम बनाए रखने की प्रवृत्ति प्रतीत होती है । पर उम यह चिन्ता नहीं कि अपनी राष्ट्र निस्तारवादी नीति के महाचक्र म छोट माट दश घुन की तरह पिम जाएँगे। लेकिन आज विश्वस्थिति पर्याप्त परिवर्तित हो चुकी है। एशियाई राष्ट्र नवजागरण की Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 आधुनिक विज्ञान और अहिसा अगड़ाईयां लेकर उपनिवेशवाद की वेड़ियो से मुक्त हुया चाहते हैं हो रहे है। ऐसी स्थिति में यदि पश्चिमीय सत्ताधीगो की वही पुरानी नीति रही तो निसदेह पारस्परिक मानवीय सम्बन्धो की स्थिति सदिग्ध हो जाएगी। मानव इतिहास से यही शिक्षा ग्रहण करता है कि युद्ध या ऐसे ही घृणित विगत कार्यों से जो स्खलनाएँ हुई है उनकी पुनरुक्ति न हो। चचिल, रूजवेल्ट, स्टालिन, हिटलर, मुसोलिनी, टोजो और उनके अनुयायी महायुद्ध के लिए धर्म, ईश्वर और शांति की दुहाई दे रहे थे। अव अणुअस्त्र के गर्भ मे विश्वशाति के वीज खोजे जा रहे हैं। यह दृष्टिकोण ही गलत है । ध्वस मे निर्माण की कल्पना असभव है। विगत दो महायुद्धो मे संसारने भली-भाँति अनुभव कर लिया है कि महासमरो द्वारा संसार मे सुख और शांति का साम्राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता । जो ईया, द्वेष, वैमनस्य व कालुप्य व्यप्टि तक सीमित था वह उन दिनो राष्ट्रव्यापी हो चला था। प्रतिशोध की भावना स्वभावतः विजित जनता में होती है। विश्वशाति का उपाय क्या है और वह कैसे हो, इसकी चिन्ता विशुद्ध भौतिकवादी दृष्टि सम्पन्न राजनीतिज्ञ कहां कर पा रहे है। यह मानना पड़ेगा कि आज समस्त राष्ट्र किसी न किसी सीमा तक अशात है। आणविक शक्ति ने और भी इस अशाति की ज्वाला को भड़काया है। पारस्परिक असहयोग व अविश्वास की भावनाएँ बढ़ती जा रही है । आज का सेनापति अपने कमरे मे बैठकर युद्ध-नीति का संचालन करता है। पुरातन काल मे रामायण, महाभारत के महायुद्ध हुए है। पर इनसे विश्वशान्ति पर कभी सकट के वादल नही मडराये। पर आज स्थिति भिन्न है। यदि अाज कोरिया पर आक्रमण होता है तो विश्वशान्ति खतरे मे पड़ जाती है। काश्मीर, स्वेज या भारत द्वारा चीन पर आक्रमण होता है तो भी विश्वशाति सदेह की कोटि मे आ जाती है । तात्पर्य यह है कि एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र के प्रति तनिक भी असावधानी हुई कि तत्काल वह विश्वशान्ति का प्रश्न वन जाता है। परिताप की वात तो यह है कि भौतिक शक्ति के उन्माद मे उन्मत्त राष्ट्र अपनी शस्त्र शक्ति द्वारा शान्ति के स्वप्न संजोते है। नाना प्रकार के तर्क-वितर्को द्वारा स्वसिद्धान्त पोषणार्थ प्रयत्नशील है। वे यह सोचते है कि जो अधिक शक्ति सम्पन्न होगा उस पर आक्रमण Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-शाति अहिंसा से या अणु अस्त्रा से? 103 करन की कोई चेप्टा नही कररा। अत स्वत ही विश्वशान्ति स्थापित हो जाएगी। पर यह ता मृत्यु मै बचन के लिए सप का सहारा लेने के समान होगा। हाँ, शक्ति के बल पर सीमित समय तक किसी को पदाकान्त दिया जा सकता है, पराजित किया जा सकता है और बाह्य दृष्टि स कुछ क्षणो के लिए शान्ति की झलक भी दिखलाई पड सकती है, किन्तु कोई भी पराजित राप्ट विजेता के प्रति सद्भावना नहीं रखता। वल्कि उसम प्रतिशोध की तीव्र भावना रहती है । शाक्तिहान तभी तक मौन या निष्क्यि रह सकता है जब तक वह समुचित प्रतिरोधात्मक शक्ति का सचय नहीं कर लेता। वह विवश होकर ही विजेता का शासन मानता है, वह भी अपने तन पर, न वि मन पर। जमन और जापान के उदाहरण हमारे सामने हैं। प्रथम महायुद्ध की विभीपिकाकोसदा के लिए समाप्त करने की भावना स उत्प्रेरित होकर ही इग्लण्ड ने जमनी पर बम गिराये, जिनकी विशाल शक्ति से उसे पमु वनाररपराधीनता की वेडियो म जकड लिया। उस समय तो ऐसा लगा कि युद्ध समाप्त हो गया और शान्ति स्थापित हो गई। पर जमन के हृदय म प्रतिशोध की भावना ऐसी पनपने लगी कि भीतर ही भीतर विपक्त मायुद्ध और सशक्त भस्त्रा के निर्माण में वह जुट गया। अवसर पाकर उसने द्वितीय महायुद्ध में विनाश का जो ताण्डव दिखाया और उसस सम्पूर्ण विश्व को कितनी हानि उठानी पडी, जिसके फलस्वरूप यूरोप के लग नग सभी राष्ट्र न केवल युद्ध के लिए सज्जित ही हुए बल्कि इसी के परिणाम स्वरूप हीराशिमा और नागासाकी-जस भीषण नरमहार भी हुए। तात्पय यह किपराजित राप्ट के प्रतस्तल में यदितनिक भी प्रतिशाध की भावना रही तो अवसर पाकर कभी भी वह विशाल ज्वाला का रूप ले सकती है। क्याकि सहार-शक्ति शारीरिक नियत्रण तक ही सीमित रहती है,पात्मिक नियंत्रण के लिए वह अक्षम है। रूस, फ्रास और चीन की राज्य कान्तियाँ दसरा प्रत्यक्ष प्रमाण है। अर अहिंसा का प्रयोग दपिए । जहाँ अहिंसा और प्रम क द्वारा मानव मन पर अधिकार किया जाता है वहाँ का प्रभाव स्वभावत हो चिरस्थायी होता है। विजित जनता यहाँ पगजवादभूत ग्लानि का मनुभव नहीं Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा वाहिनी रही है। विश्व-शान्ति के लिए भारतीय सेना का अधिकाधिक उपयोग वांदनीय है। चिन्तन की बात है कि जब जड़ पदार्थों में भयंकर विनाशलीला की शक्ति है, तो भला जीवित मानव की साधना मे कितनी तेजस्विता छिपी होगी? जीवन को गुद्ध करने वाली अहिंसा ही सर्वागीण विकास को अवकाश देती है। वह मानव को ऐसा दृष्टिकोण प्रदान करती है, जिससे संघर्ष और प्रतिहिंसा ही समाप्त हो जाए। प्रसन्नता की वात है कि अमेरिका और रूस ने अहिमा की दिशा में चरण बढ़ाने प्रारम्भ कर दिए हे। वे अव अनुभव करने लगे हैं कि अणु अस्त्ररूपी दानव की समस्या अहिंसा द्वारा ही हल हो सकती है। अतः अहिंसा शक्ति के अग्रदूत पं० जवाहरलाल नेहरू को बार-बार यामन्त्रित किया जाता है। जहाँ किसी समय विदेशी आकाशवाणी द्वारा पं० नेहरू के विरोध में धुंवाधार प्रचार किया जाता था, वहाँ आज इन्हे अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति का सन्देशवाहक माना जाने लगा है। किसी समय कहा जाता था कि भारत की भी क्या कोई नीति हे ? पर आज भारत की नीति प्रशंसा के साथ अनुकरणीय मानी जाती है। ___अभी-अभी सन् 1960 में प्राइजनहावर और शुश्चेव भारत-यात्रा कर चुके है और भारतीय नीति की सराहना भी कर गये है। अणुशस्त्रो के स्वामियो को अपने प्रायुधो पर शान्ति स्थापन विषयक विश्वास होता तो वे कदापि भारतीय रीति-नीति का समर्थन नहीं करते। अव भी यदि ग्रायुद्धवादियो की श्रद्धा अणुशस्त्र द्वारा विश्वशान्ति स्थापित करने मे है, तो उनके सम्मुख सहज रूप से ये प्रश्न पाते है1. अणुशस्त्र मार्ग से मानव जाति अहिंसा की ओर गतिमान न हुई तो खतरा मानने मे भी कोई सदेह रह जाता है ? 2. आणविक शस्त्रो के निर्माण, संरक्षण और प्रयोग करते समय दुर्घटनात्मक यदि विस्फोट हो गया तो क्या विश्वशान्ति पर सकट नहीं आयेगा? 3. पायुद्ध निर्माण की पृष्ठभूमि मे रचनात्मक बुद्धि है या आक्रामक ? यदि रचनात्मक है तो क्या आप ईमानदारी के साथ कहने की स्थिति मे है कि हम कभी किसी भी राष्ट्र पर अणु-यायुद्ध प्रयुक्त नहीं करेंगे। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व शाति हिसा से या अणु अस्ता से? 107 4 क्या प्राणविक अस्त्रजनित विकीण रदियो सक्रिय धुलि से सभावित हानि से पाप मानव जाति को नारा या अशान्ति की ओर नही ले जा रहे है ? 5 क्या अणुशास्त्र प्रयोग वा भयकर विनाग-ताण्डव प्रत्यक्ष देखत हुए भी इस ध्वस के प्रतीक को विश्वशान्ति के लिए उपयोगी मानेंगे? Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा हासिक वटनाएँ भी मिल सकती है। यह तो एक माना हुआ तय्य हे कि बड़े-बडे साम्राज्यों की स्थापना सदैव दुर्वल रप्ट्रो के गोपण से ही सम्पन्न हुई है। इसलिए अहिंसा की गक्ति को मर्यादित किया गया। केवल निरपराध राष्ट्री पर जान-बूझकर पाक्रमण न करके राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए, अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए और प्रत्येक राष्ट्र को स्वय समर्थ वनाना अनिवार्य माना गया । फलत' मानव ने क्षम्यरूप से हिंसा को अपनाया। यद्यपि मानव सभ्यता इतनी विकमित हो गई है कि विश्व के इतिहास ने महात्मा गाधी के अहिंसात्मक प्रयोगो द्वारा नया मोड़ लेने पर भी विवादों को मुलझाने के लिए अन्ततोगत्वा हिसात्मक साधन ही प्रयुक्त होते हैं। इस सम्बन्ध मे उनकी कई बाने विचारणीय है। ___1 अगर विगत विश्वयुद्धके वीच इग्लैण्ड, फास तथा अन्य मित्रराष्ट्र शीत्र ही युद्ध सामग्री एकत्र न करते तो निश्चय ही लोकतन्त्र तथा सभ्यता नाजियो के पैरो तले रौदी जाती। 2. काश्मीर तथा भारतीय सेनाएँ काश्मीर मे कबालियों के आक्रमण का अवरोध न करतीं तो.काश्मीर आज खण्डहर के रूप मे दृष्टिगत होता। 3. यदि भारत सरकार रजाकारो एव हैदराबाद राज्य के विरुद्ध पुलिस कार्यवाही न करती तो कथित उपद्रव सम्पूर्ण दक्षिण भारत मे फैल जाते। 4. इसी प्रकार उपद्रवी नागा लोगो ने जव शान्तिपूर्वक समझना न चाहा तव स्वर्गीय गृहमत्री पडित गोविन्दवल्लभ पन्त को उनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही करनी पड़ी। 5. इण्डोनेशिया के युद्धो मे से भी यह वात प्रकट होती है। वहाँ के राष्ट्रदल तनिक भी दुर्वलता बताते तो विदेशियो का प्रभुत्व स्थापित हो जाता । अर्थात् कोरिया में अमेरिकन आधिपत्य स्थापित कर लेते और इण्डोनेशिया में फ्रासीसी। 6. इसी प्रकार भारतीय शासन कठोरता के साथ साम्यवादियों के Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिमात्मक उपाया से विश्व सुरक्षा के स्वप्न 111 विरद्ध कदम न उठाता तो निश्चय ही नागरिक जीवन दुखद हो जाता। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र म आज भी हिमा गक्ति पर विश्वाम दिया जाता है। एसा लगता है अब तक कोई राष्ट्र या व्यक्ति व्यवस्थित व न्यायपूण माग पर चलना सीखे ही नहीं । अनियनित मानव की स्वभावजन्य प्रवृतियाँ अभी नष्ट नहीं हुई । अहिंसात्मक प्रयोग के लिए विश्व के सभी बड़े राप्दो ने मिलकर राप्ट सघ जसी व्यापक और महत्त्वपूर्ण सस्था का इसलिए निर्माण किया कि समस्त विवादा वो वार्तालाप द्वारा निपटाया जाए। किन्तु गस्त्री की प्रतिस्पधा कम नहीं हुई। यह सच है कि विश्वयुद्ध की ममाप्ति पर कतिपय मित्र राष्ट्रा ने सेना म रटौती थी। लेकिन इससे भी भयकर परमाणु शक्ति द्वारा निर्मित उमा का काय है । अन्तर्वीपीय प्रक्षेपणास्त्र भी उपक्षणीय नही । सिद्धान्तत नि शस्नीकरण उपयुक्त है। पर इसके प्रति यथाथवादी दष्टिकोण कहाँ अपनाया जाता है ? जब भी यह प्रश्न उठता है तव यह समस्या खड़ी हो जाती है कि प्रथम पहल कोन करे? क्या सामूहिक नि शस्त्रीकरण सम्भव नहीं है? सच बात तो यह है कि जब तक किसी भी राष्ट्र या उसके नेताओं के हृदय म करुणा की भावना का उदय नहीं होता तब तक मस्तिष्क पटल की योजनाएँ न साकार हो सकती है और न राष्ट्रा म पारस्परिक दृढ विश्वास ही उत्पन्न कर सकती है। सभ्यता का विकास अस्लो द्वारा हुनाहो-ऐसा कोई उदाहरण विश्व इतिहास म उपलब्ध नहीं है । विकराल महार शक्ति बलात मानव को क्सिी भी क्षेत्र म गतिमान नहीं कर सकती । भारत का ही मध्यकालिक इतिहास इस बात का साक्षी है कि ासका द्वारा घोर अाक्रमण और अमानुपिक अत्याचारा के वावजूद भी यहां की जनता को किसी विशेष सम्प्रदाय म वे परिवर्तित न कर सके । सभ्यता का प्रावरण क्सिी सीमा तक प्रभावोत्पादक बन सकता है, पर उसका नाश्वत और स्थायी प्रभाव तो तभी पड़ता है जब उसकी आत्मा पूणतया मस्कृतिनिष्ठ हो । सस्कृति यात्मा है तो मभ्यता उसका शरीर । सभ्यता परिवत्तनशील है जब कि सस्कृति परिवतनशील दीखते हुए भी मौलिक दप्टि में अपरिवर्तित ही है। वाह्य परिवतन मम्भर है, पर उसकी प्रात्मा तथ्य के सनातन सत्या से ओतप्रोत है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा बग कवि की वाणी मे--"याज की सभ्यता के शरीर पर तो मखमल की बनी हुई चिकनी पोगाक है मगर उसके नीचे अस्त्र-शस्त्रो के क्षत चिह्न के हुए है।" आज का मानव भले ही अपने को सन्य या अति सभ्य मान रहा हो, पर अपने जीवन में वह संस्कृतिमूलक सभ्यता को कहाँ तक स्थान देता है यह सचमुच विचारणीय है। 'सभायां सावुः सभ्यः', जो सभा में बैठने योग्य हो, सज्जन हो, वही सभ्य है। इस कसौटी पर शायद ही कोई राष्ट्र खरा उतरे, जो हिंसा-लिप्त है। सभ्यता का तात्पर्य केवल वाह्य दृष्टि से धवल वसन, साधारण मिप्ट सभापण और वाक्पटुता ही नहीं है, अपितु प्रत्येक प्राणी के साथ सुकुमार व्यवहार और उसका यथेप्ट विकास ही है और वह अहिंसा द्वारा ही सम्भव है । एक तक यह भी दिया जाता है कि महात्मा वुद्ध और भगवान् महावीर जैसे महात्माग्री ने अपनी कठोर जीवन की साधना के बाद जो उपदेश दिया उसते कौन-सी हिंसक वृत्ति जगत से समाप्त हो गई? उनके समय में भी तो धर्म और संस्कृति के नाम पर भयकर हिंसाएँ प्रचलित थी। पर यह कोई तर्क नहीं है, क्योकि संमार मे कॉटे सर्वत्र विखरे हुए है, जो इनसे बचना चाहे, पदवाण की व्यवस्था कर ले। ससार सही विचारधारापो का केन्द्र रहा है । संसार के कई मसले अहिंसा के द्वारा हल हुए हैं । नादिरशाह, चगेजखां, हिटलर और कस, दुर्योधन तथा रावण द्वारा अपनाये गये घोर हिंसात्मक मार्ग से कोई समस्या सुलझी हो ऐसा अनुभव नही है । हिटलर के अप्रत्याशित याक्रमण से भी कोई राष्ट्र स्वेच्छया अपनी भूमि देने को तैयार नहीं था, पर ४० करोड़ जनता के अहिंसात्मक आन्दोलन के समक्ष ब्रिटिश राजसत्ता को नतमस्तक होना पड़ा । अतः स्वाधीनता प्राप्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अहिंसा कतई अव्यावहारिक नहीं है । सेना पर किया जानेवाला विपुल व्यय अहिंसा के प्रयोगो पर किया जाए तो निस्सन्देह व्यक्ति समाज और राष्ट्र के लिए श्रेयस्कर हो सकता है। विश्व वन्धुत्व की सृष्टि हो सकती है, मारने की अपेक्षा, वीरत्व के साथ मरना कही ज्यादा अच्छा है। हिंसा साम्राज्यवाद 1. सभ्यतार अंगे राखा मखमलेर चिकण पोशाक । वीचे तार वर्म्य दाका, अस्त्र आर शस्त्र क्षत पाग || Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसात्मक उपायो से विश्व सुरक्षा के स्वप्न 113 को प्रात्साहित करती है जब कि अहिंसा सत्तामूलक भावना के साथ समत्व स्थापित कर व्यक्ति और राप्ट में सामजस्य सजोती है। पर हाँ, अहिंसा के सिद्धात केवल पाणी तक ही सीमित न हा, बल्कि जीवन इनसे प्रात प्रोत हो । हिंसात्मक साधना स भले ही क्षणिक शाति का अनुभव हा, पर यतत वह परिताप ही छोड जाते हैं, जसावि महाभारत के युद्ध से स्पष्ट है, पाण्डब अपना कौशल युद्ध क्षेत्र म दिसाकर विजेता वने, पर उनके मन म भयकर परिताप था, शान्ति नही थी। हिमा से प्रात्मग्लानि कोही जम मिलता है। कहा जाता है कि अणुवम से हीरोशिमा नष्ट हो गया था, उसका शोधक डॉ० चाल्म निकोलस था और उसकी पत्नी का नाम मरी था । अमेरिका का प्रमुख शान्तिवादी रॉबट सिडनी निकोलस का परम मिन था । मरी का वात्सल्यमय हृदय सिडनी के ससग से बदल गया और वह शातिवादिनी बन गई। अणुबम का शोघ-काय पूर्ण हात ही मरी और सिडनी ने निश्चय दिया था और अपने पति को भी समझाया था कि इसके उपयोग और निमाण का रहस्य पिसी भी राष्ट्र का व न वताएँ । निकोलसन इम स्वीकार नहीं किया, फलत मरी न निकालस का त्याग कर दिया। वह एकावी अपने टीम नामक एक वृद्ध नौकर के साथ रहने लगा। । अत म हीराशिमा पर बम गिरा, लाखा व्यक्ति मृत्यु के मुख म प्रविष्ट हो गय। अविशिष्ट अपग, अपाहिज और सदा के लिए बार हा गय । इसी समय एक व्यक्ति गरम राख पर पर जलने के कारण दौडता चला या रहा था, शरीर के कपड़े अध जले ये । परीर श्याम हा चुका था और एसा लग रहा था मानो वह इस राय के ढेर म कुछ खोज रहा हा । वह जेंच टील पर चडार बोला, "He shall go to hell, who has destroyed this beloved town of Japan' (वह अवश्य नरक म जायगा, जिमने जापान के इम मुन्दर शहर वा विनाश किया है। पांच वार इस प्रकार वाल कर एक स्तम्भ पर चढ़ गया, वह नी उसन उपयुक्त वाक्य लिख दिय । स्वय मवमा द्वारा उसी समय एक पान वहाँ लाया गया और व उसे माटर म विठा ले गय। उधर अमरिका मशिलालन को साज के लिए मरी और Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा मिडनी प्रयत्नशील ये। प्रयोगशाला में जाने पर नौकर से वृत्तान्त ज्ञात कर वे सीधे जापान पहुँचे, जहाँ गान्ति संघ के सदस्यो ने इनका स्वागत किया। वहाँ वे सहायता केन्द्र देखने के लिए ले जाये गये। वहाँ डाक्टर विलियम ने पूछा, "क्या आपमे से कोई यह बता सकता है कि इस विनाशकारी अणु बम की शोध किसने की है।" सिडनी के मुख ने निकोलस का नाम निकला। विलियम ने उसके गायब होने की बात कही। इतने मे स्वयं सेवको ने मरी और सिडनी को तथाकथित भारतीय के बुलाने की बात कही। वे उसके पास चले गये और उसे देखते ही सिडनी ने चाक कर कहा "यो मेरे निकोलस क्या तुम यहाँ हो! तुम्हारी यह हालत !" मेरी तथा डॉक्टर को वस्तुस्थिति समझने मे देर न लगी। सिडनी निकोलस को अपने कैम्प मे ले गया। वहाँ सभी शान्तिवादी अमेरिकन उसके समक्ष बैठ गये, मैरी ने जब कहा चार्ल्स मुझे नहीं पहचाना ! उसने लड़खड़ाती जिह्वा से कहा 'मैरी, तू सत्य प्रमाणित हुई । मैं अवश्य नरक मे जाऊंगा' यह कहते हुए प्राण त्याग दिये। तात्पर्य जिसने विनाश के लिए अपने 40 वर्षका श्रम किया वह स्वयं उसी का लक्ष्य बन गया। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीस विश्व शांति के अहिंसात्मक उपाय सयुक्त राष्ट्र संघ मानव मदव शांति का पिपानु रहा है। जो भी ममस्याएं खड़ी होती हैं, उह दूर कर सामाजिक नगटन को बनाए रखन के लिए एव राष्ट्र की सास्कृतिक ज्याति प्रज्जलित रखन के लिए शाति एक मत्यन्त आवश्यक तत्त्व है । जन मानव लघुतम समूह बांधकर जीवन यापन करते हुए एक-दूसरे पर आक्रमण करता था तब भी वह शाति को ही वाद्यनीय समभता था । बडेबड़े युद्ध का भी शांति के लिए ही होना वहा जाता है। वस्तुत गाति प्रात्मिव तत्त्व है जिसका परिपाक समाज और राष्ट्र को प्रभावित करता है। हिसा पति की जननी है। वह सघप से दूर रहने की प्रेरणा देती है। लेकिन परि - स्थिति और वृत्तिया का दास बनकर महिसा के स्थान पर मानव न हिंसा जो साधन बनाया घोर प्रशाति व वीज शेष । रसम कोई उदह नहीं मानव पामविक वृत्तिया न प्रभावित हार हो नर महारा युद्ध लीलामा वा ताण्डव रचता है । उसीने स्वरूप मपूण बुद्ध के उपरणा का सूत्रपान हुआ। पर यह तथ्य है कि युद्ध मूरत मानव वृत्ति नहीं है। महावराण म भने हो युद्ध के बादल तिरोहित न हुए हा विन्तु सास्कृतिक प्रगति का दसन हुए मानना पड़ा कि विश्व शानि श्री मानवच्या माज भी सुरक्षित है। एतिहासिक मनुभवान सिखाया हेरि यह अन्तराष्ट्रीय समूह टन का भवन करना रहा है। वियाना की नाम श्रीर बूराव ना कासट एम ही सगठना में प्रारम्भित्र स्वरूप प्रथम महायुद्ध न मानय ने मपना स्वाथ परारण वृति द्वारा विश्व रामन परजा पाणविकनृत्य रिया उग्रम मानता सजि हुई। इसीलिए विपन शाति म बनारसन के लिए पूरापीय राष्ट्रानगर सामूहिक प्रयास कर 1910 न Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राधुनिक विज्ञान और हिंसा जेनेवा मे लीग ग्रॉफ नेशन्स 'राष्ट्र मघ' की स्थापना की। ताकि भविष्य मे पारस्परिक युद्ध न हो और मिल-जुलकर आपसी वैमनस्य का निर्णय वार्तालाप द्वारा हो । पर यह संस्था अधिक समय तक जीवित न रह सकी । प्रथम महायुद्ध के पश्चात् जर्मनी जैसे कतिपय राष्ट्रों से अन्यायपूर्ण व्यवहार होने के कारण उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ ऐसे व्यक्तियो का प्रादुर्भाव हुआ जिन्होने 'लीग ग्राफ नेशन्स' की स्पष्ट अवहेलना प्रारम्भ कर दी। लीग यो भी कोई शक्तिशाली सस्था तो थी नहीं जो उपद्रवियों पर साधिकार नियंत्रण करती । इटली ने एवीसीनिया पर आक्रमण किया और लीग देखती रह गई । जर्मनी द्वारा छोटे-छोटे राष्ट्रो को हड़पते देखकर लीग की स्थापना के ठीक 20 वर्ष बाद 1939 मे द्वितीय महासमर प्रारम्भ हो गया। इसमे जर्मनी, जापान और इटली एक तरफ ये और रूस, अमेरिका इग्लैण्ड तथा फास दूसरी योर थे । युद्ध-ज्वाला ससार मे फैल गई। भीषण नर सहार हुया । युद्ध की समाप्ति के कुछ समय पूर्व 57 विजेता राष्ट्रो ने भविष्य में इस प्रकार की संहारात्मक कार्रवाही रोकने के लिए 26 जून, 1945 में अमेरिका के सानकासिसको सम्मेलन मे संयुक्त राष्ट्र संघ की नीव पड़ी । मानव दुखानुभूति से अभिभूत था । अत सावधान था कि 'लीग ऑफ नेशन्स' की त्रुटियाँ इसमे कही न रह जाएँ । संयुक्त राष्ट्र सघ दो विभागो मे विभक्त है— 1. सुरक्षा परिषद् 1 2 महासभा चीन, रूस, इंग्लैण्ड, अमेरिका और फ्रांस सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्य बने । जिसका स्वरूप लोकतन्त्रात्मिक सरकार के समान बनाया गया । इसमे अन्य सभी देशो से 6 ग्रस्यायी सदस्य प्रति दो वर्ष के वाद महासभा द्वारा चुने जाते है । इस प्रकार 11 सदस्यों की यह समिति है | वर्तमान मे सदस्यों की राज्यो सख्या 100 है । केवल लोक-गणराज्य चान और उत्तरी कोरिया को अभी तक मान्यता प्राप्त नही है । इन पक्तियों को लिखते समय हेमरशोल्ड की मृत्यु के वाद संयुक्त राष्ट्रसघ की समिति एक प्रस्ताव आया है कि चीन को भी इसका सदस्य वनाया जाय । सुरक्षापरिषद् के स्थायी सदस्यों को विशेषाधिकार प्राप्त है। जिसका अभिप्राय है कि प्रत्येक निर्णय पर पांचों की सहमति आवश्यक है। किसी 116 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वाति ने प्रहिसात्मक उपाय एक द्वारा 'वोटो ( विशेषाधिकार ) प्रयोग करने पर महासभा का निर्णय भी वायान्वित नही किया जा सकता। 117 मयुक्त राष्ट्रसघ का मूल उद्देश्य विश्व शांति और विश्व गुरता है। उसके समस्त प्रयत्न इखा की पूर्ति स्वरूप हैं । सघ चाहता है कि समस्त राष्ट्रा ममयी रह और काई नी राष्ट्र वल का दुरुपयोग पर निवल राष्ट्रा की स्वाधीनता मे बाधा न वन । परिस्थितिनग यदि वमनस्य हो भी जाय तो उन युद्ध द्वारा न निपटाकर आपली वार्ताना या पचायती समाधान द्वारा उसका हरिया जाय। इसका दूसरा उद्देश्य यह भी है कि विभिन्न राष्ट्रा म आर्थिक, सामाजिक या सास्कृतिक समस्याएं ग्रन्तराष्ट्रीय सहयोग द्वारा हल हो। उन राष्ट्रा मग शाति स्थापित करन के लिए वहाँ की सामाजिक एव धाचिय प्रगति में योगदना, पिछडे हुए दो को विश्व वर द्वारा ऋण देना व कल्याणकारी योजनाग्रा की पूर्ति में सहयोग करना भी सघन अपने बसल्या मम्मिलित कर लिया है। एशिया के नवादित राष्ट्रा को इन प्रयत्ना से पयाप्त सहायता प्राप्त हुई है। यूनिकफ नटर साल गय है जहां चिकित्सा ने पतिरिक्त प्रोषध, साउन मोर दूध वितरण किया जाता है। नवीन प्रौद्यागिक र व्यापारिष विकास के प्रशिक्षण की भी व्यवस्था है । शमगिर व सांस्पतिक उत्थान विषय में भी इनका योग रहा है । दिल्ली का साजन गुलालय राष्ट्र प की सहायता का ही परिणाम है । दसरा तीसरा उद्देश्य है जाति, धर्म, भाषा एवं लिाधार पर रिमी नो जाति के प्रति नेवभान न रखा जाय । विश्व के समस्त मनुष्य मानव के मूत्र नूत प्रधिवाना उपयोग करें। विचार स्वातन्य, वाणा यमपरिपालन एन लेगन स्वातंत्र्य पर सवना समान परि हो । उसे यह है कि सुरक्षा परिषद्मा मुख्य पाय अन्तर्राष्ट्रीय सुरक्षा मारत है। यद्यपि पादन क 'ए' पास से मनान बाई म्यान घर्षित नहीं है। भाषि राष्ट्रक के समय स्नान दिया श्री । कारिया, कानरिया ण्डनसर जमा मीर बागी . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 याधुनिक विज्ञान पार पहिमा आदि की समन्यायो को मुलझाने मे संयुक्त राष्ट्र मघ ने बहुत प्रयत्न किया है। नि शस्त्रीकरण योजनाओं को नियान्वित करना तो इसका प्रमुख अग ही रहा है। सयुक्त राष्ट्र संघ के दो प्रमुख अंगो की पूर्ति के लिए याथिक तथा सामाजिक परिपद् , अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय; मयुक्त राष्ट्रसंघ सचिवालय, सैनिक कर्मचारी समिति, सयुक्त राष्ट्र सहायता एवं पुनर्वास प्रशासन; सयुक्त खाद्य एव कृपिसगठन ; संयुक्त राष्ट्र प्रौद्योगिक, वैज्ञानिक तथा सास्कृतिक संगठन ; अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ; स्वास्थ्य संगठन एवं नि.शमी करण आयोग आदि मगलमय प्रयत्न है। जहाँ अहिसा के द्वारा विश्व-गाति सम्पादिन करने का प्रश्न हे । सयुक्त राष्ट्र सघ उसके एक अग की पूर्ति करता है। क्योकि सघ ऐती शक्ति रखता हे जहाँ से वैर-विरोध की भावनाओं को प्रोत्साहन न मिलकर शमन के मार्ग सुझाए जाते है। विभिन्न दृष्टिकोणो में सामजस्य स्थापित करने के प्रयत्नों को यहाँ बल मिलता है । विश्व के राष्ट्रो का मतसंग्रह हो जाता है और यदि कोई वड़ा राष्ट्र किसी बात का विरोध करे तो उसे कार्यान्वित करने का अवसर नहीं मिलता। अग्रेजो ने स्वेज नहर पर जव आक्रमण किया तो विश्वलोकमत विरुद्ध होने के कारण उस युद्ध की स्वतः समाप्ति हुई थी। हम यह नहीं कहने जा रहे हैं कि संयुक्त राष्ट्र संघ सभी स्थानों पर सफल ही रहा। क्योकि सन् 1946 के बाद वहुत-सी ऐसी घटनाएँ विश्व के पटल पर अकित हुईं जिनसे आशावादियो को विश्वास था कि संयुक्त राष्ट्र सघ इनमे कृतकार्य होगा पर 'लीग ऑफ नेशन्स' की भाँति वह विश्व-शाति स्थापित करने मे असफल भी रहा । फिर भी यह स्पष्टतया स्वीकार करना ही पडेगा कि छोटी-मोटी बातो को लेकर उठने वाली ज्वालायो को संयुक्त राष्ट्र संघ ने आगे बढ़ने से रोका या किसी सीमा तक सुलझाने का प्रयत्न किया। फिलिस्तीन, काश्मीर, कांगो और इण्डोनेशिया इसके प्रमाण है। लीग की तुलना में संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य अधिक है। कार्यविधि पुप्ट और प्रभावोत्पादक है। विश्वशान्ति के बहुसख्यक तथ्यों में एक यह भी सर्वावश्यक है कि विभिन्न राष्ट्रो में पारस्परिक सद्भावना और विश्वास की अभिवृद्धि हो और यही Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-शाति के अहिंसात्मा उपाय 119 अहिंसा का मौलिक तत्व है। आज की राजनीति पर दुप्टि पेन्द्रित करन से विदित हुप्रापि पारस्परिक अविश्वास के कारण ही विषाक्त वातावरण की सृष्टि हुई है । ल्स मोर अमेरिका की प्रतिद्विता इसी का परिणाम है। प्राणविक जायुधा की प्रतिस्पर्धा अविश्वास की भावना की परिणति है। इन्ही गुदा से विश्वशान्ति सकट काल से गुजर रही है। एक गुट जस अमरिका साम्राज्यवाद का समथक है तो दूसरा गुट रूस आदि साम्यवाद का अनुयायी है । दोना ही अपने विचारा के प्रसार और प्रायुधा के निमाण म लीन हैं। राष्ट्र संघ की वठा म भी पारस्परिक दाव-पेंच इस प्रकार खेलत हैं कि रूम यदि किसी समस्या के समयन म मतदान करेगा तो अमेसिाठीक इसके विपरीत मभिमत व्यक्त करगा। इसस कभी-कभी सयुक्त राष्ट्र संघ की स्थिति भी सदेहास्पद हो जाती है । रूस न कई बार 'वीटो' का प्रयोग कर सघनी वायवाही स्थगित करा दी है। अमेरिखा ने लाल चीन को अभी तक मा यता नहीं दी है। दो गटा के पारस्परिक अविश्वास के कारण स्थिति कभी-कभी विगड जाती है। जमनी का भाग, बाल्टिव के राज्य, लाल चीन, दक्षिण पूर्वी एशिया के दश इण्डो चाइना, वमा, मलाया मादि पाप साम्यवाद के रग म रग हैं। शेप राष्ट्र समरिका के पक्ष में हैं। तभी तो पारिया का भगन्यायपूर्ण आधार पर न सुलझ सका। दक्षिण अमीषा म काले और गारा के पाच की साई बढ़ती ही जा रही है। काश्मीर की समस्या भी ज्या तो त्या सना है। ये सर पापसी गुटो को अविश्वस्त पत्ति के कारण ही राष्ट्र मघ को मफल नहीं हाने देते । इमम स्वार्थी राप्दा की शनि गुट बदी भा रहुत बडा कारण है । विराधी गुटा ती प्रादशिर सधियां भी मयुक्त राष्ट्र गप व Tम्मान का पक्का पहुँचाती है। 'नाटो' पौर 'मोटो' वे मघि मूलक निर सगठन भी विदागान्ति म बाधर हैं। जव तर दल है सर तर उरावराध यम भय है। प्रशाति ही पनिक संगठन न्योता देती है। प्रार नोएमा मधि है, जिन पर हस्ताक्षर बरनवाले देशा न यह रिपा दे पिम्प यदि उनम । किसी एव पर पाक्रमण परेगा तो वह सब पर माश्मण समभा जायगा मोर उस देश की राहायला जापगी। रमाप्रसार परिसाने नारा पड़ासी पारिस्तान फा र सहायता दर र मुखमाटोभारतमार तर पद्मा दिया - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 यावनिक विज्ञान नीर अहिमा है । इमी नैनिक सहायता के परिणामस्वरूप कामीर को सनस्या काफी उलझ गई है नव कि भारत दोनो गटो मे अलग एब नटस्थ व गान्निवादी राष्ट्र हे। विश्व का राजनीतिक क्षितिज तनावपूर्ण है । दोनो गुटो के राष्ट्र गीता ने शस्त्रास्त्र वृद्धि मे मलग्न ह । भारत के प्रधान मत्री प. जवाहर लाल नेहरू और कई नेताओं ने मत प्रकट किया कि ग्रायुध निर्माण सन्यता के लिए घातक है। सयुक्त राष्ट्र संघ ने भी उन्होंने कई बार इसपर प्रतिबन्ध लगाने की अपील की, पर वह निप्प्रभ ही रही । इग्लष्ट तथा अमेरिका ने न केवल दृढना के नाय घातक शस्त्र निर्माण का समर्थन ही किया अपितु विश्वगान्ति का साधन भी माना । सम्भवतः यही शीतयुद्ध की नित्ति है । नयुक्न राष्ट्र सव के आलोचक सुरक्षा परिपद् की स्थायी गक्तियो के 'वीटो पावर का सन्त विरोध कर रहे है। किन्तु यदि यह पावर छिन गया तो वे शक्तियाँ मन चाहा करने लगेगी। जव आज स्थिति यहां तक पहुंची है कि वीटो के न छीने जाने पर भी प्राणविक प्रायुधो का खुल्लम-खुल्ला परीक्षण हो रहा है जो विश्वशान्ति के प्रति अपने कर्तव्यों को विस्मृत किए हुए है । कहना पडना है कि सघ स्वय अगत कूट नीति का साधन बन गया है। विगत वर्षों में विश्वगान्ति की समस्या जितनी विकट हो गई हे उतनी पूर्व काल मे नही थी। सभी राष्ट्र सुरक्षा वजट बढाकर मैनिक गक्ति बढ़ा रहे है, ऐसी स्थिति मे तो मयुक्त राष्ट्र-सघ ही अाशा का केन्द्र शेष रह जाता है । सभी राष्ट्रो का यह प्राथमिक कर्तव्य होना चाहिए कि यदि सस्कृति और मानव सभ्यता की रक्षा करनी है व सामाजिक जीवन मे सुखगान्ति का स्रोत प्रवाहमान रखना है तो राष्ट्रसंघ की शान्ति मूलक योजनायो को क्रियान्वित करने मे पूर्ण वल प्रदान करना चाहिए । 1955 की घटनाओं के बाद तो यह विचार और भी अधिक दृढ हो जाता है। भारत ने किसी भी दल मे न रहकर के भी समस्त राप्ट्रो से मैत्री पूर्ण सम्बन्ध बनाये रखते हुए तटस्य नीति स्वीकार की है। भारत की धूलि के कण-कण से शाति की बनि गुजरित होती है। इस शान्ति-कामी भारत का तटस्य नीति से प्रथम तो बड़े राष्ट्रो मे विवाद व्याप्त हो गया था। पर ज्योंज्यो नीति सक्रिय स्वरूप में सामने पाती गई त्यों-त्यों न केवल इसका महत्त्व Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विर-शाति के अस्मिात्मा उपाय ही राष्ट्रों की समझ म प्राया, प्रत्युत ये अनुभव करन लादि वस्तुन यह भारतीय नीनि यथार्थवादी व न्यायपूर्ण है। स्मरण रहे रि विमी समय राष्ट्र उघ म भारत माती-मा प्रतीत होता था पर आज इसके प्रतिनिधिया या गप्दमघ म अत्यधिक सम्मान है पोर सुरक्षा परिषद का प्रतिनिधि पद भी प्राप्त है। 1919 म परिम में हुई राष्ट्र उप महासभा म १० नहरू पाययोचिन सम्मान, अभिनापण द्वारा पिया गया था। उनसरी प्रमरिती यात्रा द्वारा वहुत-सो गवाएँ निर्मूल हो गई री । तत्पश्चात गुनी विजया समीपटिन सोराप्ट मय की महाममा राप्रपान पद भी प्राप्त हुापा। इन मय की पृष्ठभूमि भारत की शान्तिवादी नीति थी। जब शारिया में गष्ट्र उघ की गनाया न 8 वी समानान्तर रेमापार युद्ध जारी रखने राविचार किया तब भी नहरू जीन न केवल भारत पीआर म इस रास्न पा मफत प्रयान ही पिया अपितु युद्ध पनीने पश्चात युद्ध दिया की पारसी के समय को भी भारत ने ही मम्हाला पा । इडानशिया इनवीन काह-युद्ध विराम, भारत के ही प्रयास या परिणाम या । लान तीन को मा यता न देने का अधिक प्रचार ममरिका की पार से पिय जार पर प० नहरून नीन रे ममथन में अपना दड़ मतव्य व्यक्त करत हुए अमेरिका की नीशिरा भी गण्डन पिया था, गरि वे नहीं चाहते थे कि लाल चीन पो राष्ट्रमपीय मदस्यता गे रचित रसा जाय पोर अव दो रूम और चान अपनी उप्र नीतिको परित्यक्त किये हुए हैं। परिचित दोना दा अधिराधिक नामोप्प म्यापित पर राष्ट्र मम म सम्मिलित हो गये ता तनापूण स्थिनि मरिचित स्थिरता प्रासाती है। मग तो यह गौरव प्राप्त है ही,पर पान नी जापा का दात हुए उसरा राप्दाप म सम्मिलित पिया जाना पारन वानीर है। परराष्ट्रा भी यही पामना को जानी चाहिए कि यमयुत राष्ट्र में पासिनता पाना ममपिशाचिन रात्रिय माग द । पचीस र राष्ट्रप नातिनागी गदार प्रयाना का हापरिणाा है। पर अनुभाग मास राता है िमहान् प्रनारी किए र पा सम्बन हो यान ही हाना गहना राय कपमारहे। जपता मानयती मोरिन मनाति मोर TRभारनापमानामात्र रेशममार Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याधुनिक विज्ञान और ग्रहिंसा मूलक दृष्टिकोण का विकास नहीं हो जाता तब तक नैतिक दृष्टि से भी विश्वशांति की समस्या को समुचित प्रोत्साहन नही मिलता । मनुष्य स्वेच्छया अपनी इच्छाओ को जब तकं वश में नहीं करता तब तक किसी भी प्रकार के संकट कालिक अवसरो का मुकावला नही किया जा सकता । भारतीय संस्कृति का तो यह ग्रमर स्वर रहा है कि राष्ट्रीय चरित्र व नैतिकता का प्रेरणास्पद विकास तभी संभव है जब व्यक्ति का जीवन आदर्शमूलक, नैतिक परम्पराम्रो से श्रोत-प्रोत हो । जब तक व्यक्ति मे श्रात्मिक शांति का उद्भव न होगा तवतक समाज और राष्ट्र में शांति की स्रोतस्विनी वह नही सकती । व्यक्ति समाज का विस्तृत रूप ही तो राष्ट्र है । ससार मे वैयक्तिक स्वार्थमूलक परम्पराओ से प्रभावित व्यक्तियों द्वारा सामान्य जनपर अत्याचार बढ़ने लगे और मानवता पर वर्वरता का आवरण चढने लगा व शान्ति के स्थान पर अशान्ति की ज्वालाएँ प्रज्ज्वलित होने लगी, धर्म के नाम पर पाशविकता का पोषण प्रारम्भ हुआ । उस समय किसी न किसी विशिष्ट शक्ति ने जन्म लेकर उस तिमिर को मिटाकर प्राणवान् प्रकाश किरणों से ससार को प्रभावित कर प्रशस्त पथ का निर्देशन किया है । प्रत्येक युग की अपनी समस्याएँ होती है, उन्ही के सहारे अवतरित शक्ति अहिंसा की पृष्ठभूमि मे सुख के साधन सजोती है । श्रादि तीर्थंकर ऋषभदेव ने तात्कालिक यौगलिक जनता मे अत्यधिक बढ़नेवाले पारस्परिक सघर्ष को अहिंसक नीति द्वारा धार्मिक शिक्षा का प्रसार कर दूर किया था । वे सफल भी रहे । वैदिककाल मे धर्म के नाम पर प्रचुर परिमाण मे पशुवलि का प्रचार था । वे ग्रहिसा के नाम पर प्राणी उत्पीड़न को धर्म का ग माने हुए थे । स्वार्थी पुरोहित स्वएहिकवृत्ति पोषणार्थं मानव को धर्म के नाम पर विलक्षण मार्ग पर मोड़े हुए था । कपिल का तापत्रय निवृत्तिवाद शुकपाठवत् रटा जा रहा था। जीवन मे भयकर विपाद परिव्याप्त था । वर्ण-व्यवस्था के नाम पर वर्ग संघर्ष पनप रहा था । सुख-शान्ति का ठेका एक वर्ग विशेष के अधिकृत था । उस समय श्रमण भगवान् महावीर ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे अहिंसा के प्रयोगो द्वारा शान्ति स्थापित करने का सफल प्रयास किया था । यद्यपि अद्यतनयुगीय मनीपी अहिसा का जहाँ प्रश्न उपस्थित होता है वहाँ महात्मा बुद्ध का नाम सर्वप्रथम उल्लेखित करते है । 1 I 122 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 विश्व शाति के हिसात्मक उपाय किन्तु तात्कालिक सामाजिक परिस्थिति व सास्कृतिक इतिहास को गमारता से देखा जाय ता स्पष्ट हुए विना न रहगा कि महात्मा बुद्ध की अपक्षा अहिंसा क्षेत्र म भगवान महावीर की हिसा मूलर उत्ताति कही अधिक सफल और व्यावहारिक रही। बुद्ध के माध्यमिर मा स भी जनता को आश्वस्त ता किया गया पर विशुद्ध आध्यात्मिक क्षेत्र म बढनेवाल उदबुद्ध साधक को महावीर पी अहिसा न न केवल प्रभावित ही क्यिा अपितु एसा माग प्रस्तुत किया कि वह यदि उच्चकाटि के वत्ता द्वारा कठोर जीवन विताने को सक्षम नहीं है ता सरल व सात्त्विक पथ पर चलकर भी आत्मकल्याण के साथ लोक कल्याण भी सरलता में कर सकता है । इसकी पृष्ठभूमि अणुव्रत है, जिसम नतिकस्तर के साथ प्राध्यात्मिक उच्चत्व के भाव भी विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त महात्मा बुद्ध न करुणासिस्त हृदय से प्राणी रक्षा व वयक्तिक स्वातम्य मूलक निम्न पचशील प्रस्तुत क्यि-~~ 1 प्राणियो को दुख मत दो। 2 जो दूसरे को नही द सकते वह उसस भी न ला। 3 यौन विषयक सम्बधाम दृढ़ता के साय नतिकता का पालन करो। * असत्य मभाषण मत करो। 5 उमाद या पावश उत्पन्न करनवाले मद से सदव दूर रहो। इन पचशीलो म विश्व शाति का अन्तर्भाव हो गया है । पर प्राज महात्मा बुद्ध के इन उपदाको धूमिल कर दिया गया है। युद्ध के अनुयायो ही मागच्युत होकर विश्व-साति की स्थिति को कही-रही मदिग्ध बना देत हैं। प० जवाहरलाल नहरू ने भी राजनीतिक दृष्टि स विश्व-गाति स्थाप नाव पचतील या सिद्धान्त स्थापित किया है । एक प्रकार से प्राचीन परम्परा के अाधार पर ही पडित जी ने कुछ परिवतन के साथ ससार के सम्मुस इनरी घोषणा की, जिसस नतिकता और नयम द्वारा प्रत्यर राप्ट अपना उत्यान करते हुए अय राप्ठा की मुख साति और व्यवस्था बनाये रखे। जून, 1954 में चीन के प्रधान मत्री श्री चाऊ-एन लाई का नारत म पागमन हुआ था, उस समय प० नहरू और इन दोना के मध्य जा मुस-याति मूलर यातालाप हुमा उसी के परिणामस्वरूप इन पचगीला की उद्घापणा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याधुनिक विज्ञान और अहिंसा 1. एकदुगरे की प्रादेगिक प्रमण्डता पोर नार्वभौमिकता का सम्मान। 2 पारस्परिक मनानमण । 3 एक दूसरे राष्ट्र के ग्रान्तरिक मामलो में हस्तक्षेप न करना। • एक दूसरे को नमानता की मान्यता प्रदान करना तथा परस्पर ___ लान पहुंचाना। 5. मानिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति को अपनाना । उन सिद्धान्तो के समर्थन में पीर्वात्य देशो के प्रधान मत्रियो मे पुष्टि की होड-मी नग गई। 25 मितम्बर को इण्डोनेमिया के प्रधान मंत्री ने और 19 अक्तूबर, 1954 को वियतनाम के मुन्धमत्री ने उन्हें स्वीकार किया। 29 दिसम्बर, 1954 को भारत, वर्मा, लका पोर इण्डोनेशिया के प्रधान मत्रियो का विचार-विमर्श हुया और अन्त मे अप्रैल, 1955 को वाण्डुग नामक स्थान मे एशिया के 29 राष्ट्रो का सम्मेलन हया जिसमे पचशील का स्पष्ट समर्थन किया गया और विश्वशान्ति के लिए उन्हें अावश्यक माना। मानव के मूलाधिकारो के प्रति निष्ठा प्रकट करते हुए कहा गया कि सामुहिक परिरक्षा के लिए कोई राष्ट्र दलवन्दी न करे। 19 फरवरी, 1955 को रूस की सर्वोच्च मोवियत ने न केवल पचशील के परिपालन पर जोर ही दिया अपितु तीसरे शील ग्रान्तरिक मामलो मे हस्तक्षेप न करने के सिद्धान्त की व्याख्या और बढाते हुए कहा कि किसी भी देश के पान्तरिक मामलो मे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक के अतिरिक्त वैचारिक प्रसारण में भी किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप न हो । पश्चिमी राष्ट्रों के लिए सोवियत रूस की यह घोपणा एक समस्या बन गई। पश्चिमी राष्ट्र रूस पर प्राय यही आरोप लगाते है कि उसने अन्य देशो के साम्यवादियों के साथ सांठ-गाँठ करके विद्रोहाग्नि भडकाकर विध्वंसात्मक कार्यों को प्रोत्साहित करने वाली साम्यवादी विचारधारा का प्रचार करने के लिए ही सुचित संशोधन किया है । पर इसमे शक नहीं यदि प्रामाणिकता के साथ रूस के सशोधन पर अमल किया जाता तो कम से कम शीतयुद्ध के आतकपूर्ण वातावरण मे अवश्य सुधार होता। __ इसके पश्चात् 2 जून, 1955 को रूस और यूगोस्लाविया की सामूहिक घोपणा, 22 जून, 1955 को नेहरू,बुल्गानिन संयुक्त उद्घोषणा, 3 नवम्बर Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व शाति के अहिंसात्मक उपाय 125 1055ोसयुक्त रामघ के वक्तव्य और दिसम्बर, 1950 को रूस,भारत और अफगानिस्तान के राजनीतिज्ञो द्वारा दिय गय वक्तव्या में पचगील का उल्लेस जत्यन्त महत्त्वपूण ढग से किया गया है । इस प्रकार विश्व के तीस राष्ट्रो ने, जिनकी जनसस्या अनुमानत एक अरब पाँच करोड से अधिक है, पचशील को मान्यता प्रदान की है। तभी से अतराष्ट्रीय भितिज म पचशील काप्रभाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। अहिंसा के राजनीतिक स्वरूप का अन्तभाव पचगील म हो जाता है। प्राइजनहावरन कहा है--"पचशील की नीति से पूर्व विश्व म उतनी सद्भावना नहीं फ्लो थी जितनी ग्राज फली है।" पशील के सम्बध म राजनीतिना म विभिन्न मत प्रसारित है। एक पक्ष इस अव्यावहारिक बताता है, जिसकी पृष्ठभूमि है कि विनान दिनानुदिन जव प्रगति के पथ पर अग्रसर हो रहा है तो काई भी राष्ट्र तटस्थ कसे रह सकता है। यदि वह इसका दावा करता है तो वह अय राष्ट्रा के प्रति विश्वासघातकर अवसरवादी बनने का प्रयास करता है। ए० नेहरू पर भी यह आरोप लगाया जाता है कि वे साम्यवादी गुटा के साथ गठप धन कर अपनी स्थिति सुदृट परन के लिए प्रयलशील है। दूसरी ओर साम्यवादी पालोचक अपना सदह इस प्रकार व्यक्त करते हैं कि प० नेहरू पचगील की पृष्ठभूमि पर साम्राज्यवादिया के पिछलग्गू बन रहे हैं। किन्तु विरोधियों की यह प्रावणयुक्त वाणी यह भूल जाती है कि पचशील प० नहरू की कोई वयक्तिक नीति नही है । यह तो एशिया को पारम्परिक धम नीति का राजनीतिक सस्करण है, जो अद्यतन जलवायु स प्रस्फुटित किया गया है । सहयस्तित्व की सद्भावनापूण नीति के वीज पचशील म है। यह पूणत अव्यावहारित तय्य है। भारत के प्राचीन गणतत्रो के इतिहास स इमकी राजनीतिक व्यवहायता 2500 वप पूव ही साप्ट हो चुकी है। मौय सम्राट अशोक ने इसीसे मल सात सिद्धान्त का समयन शान्ति स्थापनाथ किया था। विश्व शान्ति के दस सून जमा कि कहा जा चुका है अहिमा की पृष्ठभूमि पर ही पचगील का उद्धव हमा है । महारमा गाधी न अहिंसा द्वारा ही राष्ट्र को उत्पीडित होन Page #122 --------------------------------------------------------------------------  Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ताईस विज्ञान पर अहिंसा का सकुश विश्व की कोई भी वस्तु चाहे कितनी भी मुन्दर उपादेय और आवश्यक हो पर उसम सतुलित वृत्ति अपक्षित है। विनान नि सन्देह उपयोगी सिद्ध हुना है, पर आज बढी हुई भौतिक गलिया को देखते हुए प्रतीत होता है वि अव दम पर अकुश की आवश्यक्ता है । अति की गारी नहीं होती। चितान स्वय अपने पाप म अकुश जसा प्रतिभापित होता है पर वह मस्तिष्क जगत् तक ही सीमित है। हृदय की अनुभूतियो को विज्ञान में अवकामा कहाँ ? भानुक्ता और यथाथता म सामजस्य कहाँ ? विकास की चरम स्थिति पर पहुचा हुया विश्व प्राज अनुभव करता है रि जब तक आध्यात्मिक दृष्टि का जीवन म विकास न होगा तब तक पैनल विनान के बल पर ही मानवता की रक्षा नहीं की जा सकती। मनुष्य विज्ञान का दास बना हुआ है। आध्यात्मिक शक्ति के वीजस्वरूप अहिंसा ने वह बहुत दूर चला गया है। तभी ता विज्ञान वरदान के म्यान पर अभिशाप प्रमाणित हा रहा है। वस्तत भौतिय गस्निया पर विजय प्राप्त करना कोई वडी बात नहीं है, मानव की मानवता ता इसी म है कि वह अपनी इच्छा शक्तियो पर अधिकार प्राप्त करे । अावश्यरतामा यो कम करने के लिए प्रयत्नशील रह। जीवन को सुकुमार भावना से परिप्नावित करे। माधुनिक विनान के दप ने मनुष्य को मदो मत्त बना दिया है। वह दूमरा ये प्राण लेने के लिए तनिक भी नहीं हिचक्ता। एक बार बुध मल्लाह अपनी नोरा में यात्रियों को उस पार पहुंचाने के लिए जा रहछ । माग म एर मयासी सडाऊ पहन नदी के ऊपर तह पर जा रहये। यात्रिया क पाश्चर्यान्वित ढग से पूछन पर सयामी जी ने कहा कि यह मिद्धि मैंन 18 वप के परिश्रम म प्राप्त की है। इस पर यात्री. समूह पिलपिलासर हात हुए रहने ला पि जो काय दो पम म होता है Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा उसके लिए आपने 18 वर्ष वर्वाद कर कोई बुद्धिमानी तो नहीं की। अाज के विज्ञान पर यह पाख्यान चरितार्थ होता है । सम्पूर्ण जीवन की साधना के फलस्वरूप यदि विनाशशील सृप्टि के माधन प्राप्त हो तो उसे जीवन कहने की अपेक्षा मरण का पूर्ण रूप कहना अधिक उपयुक्त होगा। विजयदोन्मत्त सिकन्दर अपनी विशाल सेनानी के साथ ईरान की सड़को पर जा रहा था, भयभीत नागरिक झुक झुककर अभिवादन कर रहे थे । सिकन्दर के बदन पर गर्व-मिथित मुस्कान उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती जा रही थी। सामने एक निप्रिय संतो की ऐसी जमात दीख पड़ी जिसका ध्यान सिकन्दर और उसके वैभव पर विलकुल नहीं या । वे अपनी मस्ती मे झूमते हुए चले जा रहे थे । सिकन्दर के मन मे विना अभिवादन किये या अपनी पोर तनिक भी सत मण्डली की योर से आकर्षण के भाव न दिखने के कारण पाश्चर्य मिश्रित क्रोध आ गया। सतों से कहा क्या तुम्हे मालूम नही इस मार्ग से सिकन्दर महान् प्रयाण कर रहा है। मण्डली के एक वृद्ध तपस्वी ने हास्य मिश्रित स्वर मे कहा-"राजन् तू किस भ्रम में भ्रमित है, तू नहीं जानता कि तेरा यह विशाल वैभव तृणवत है । लोभ और तृष्णा के वशीभूत होकर बढ़ाया गया यह वैभव-जिसका कि तू दास बना हुआ है, हमारे चरणो मे लोटता है। अत तू तो दासो का दास है।" सावना जनित वाणी का सिकन्दर पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह तत्काल निप्प्रभ हो गया। आज का मानव भी विज्ञान के वैभव पर साम्राज्य स्थापित करने की अपेक्षा उसका दास बना हुआ है । यात्मशक्ति से उन्मुख है। भौतिकशक्ति चाहे कितनी ही जावन के लिए उपादेय प्रतीत होती हो, वह पौद्गलिक होने से नश्वर है। वह गासन के योग्य है, पर मनुष्य इसके द्वारा शासित हो रहा है । अतएव विज्ञान पर नियन्त्रण नितान्त आवश्यक है। और वह अहिंसा द्वारा ही सम्भव है। नियन्त्रित विज्ञान मानव जाति को वर्वरता, अहं वृत्ति और लोलुप्ता से सुरक्षित रख सकेगा। विस्टन चर्चिल के शब्दो मे-"मानव जाति इस प्रकार की स्थिति मे कभी नही रही। अपगे सद्भावी, मंगलकारी एव श्रेयस्कर गुणों मे अभिवृद्धि किये विना ही उसके हाथो में इस प्रकार के शस्त्रास्त्र या गए है, जिनसे वह निश्चित रूप से ही Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान पर ग्रहिसा का अकुश स्वभाग्य को समाप्त कर सकती है । श्राखिर यह जगत सभी महापुरषो और आविष्कारका आदि के परिजम म इतनी उच्च स्थिति में पहुँचा है ।" यव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या हम निरकुश विज्ञान के हाथ मे समस्त जगत को सांप दें? अगर विज्ञान के साथ ग्रहिंसात्मक नतिक्ता विकसित न हो सकी तो इसके परिणाम भयकर हो सकते हैं । विश्व की कोई भी वस्तु मूलत कभी किसी को हानि, लाभ नही पहुँ चाती । हानि-लाभ तो व्यक्ति के दृष्टिकोण को वस्तु है । विज्ञान भी स्वत मनुष्य को हानि नही पहुँचाता प्रत्युत इसके विपरीत निरन्तर शोधवृत्ति से विश्व के नूतन रहस्यो का उद्घाटन करता है । पर मूल प्रश्न है मानव रा इसके समुचित प्रयोग का उदाहरणाथ एक चाकू स चिकित्सिक शल्य किरे किसका मह रता है तो उसी चाकू के प्राण भी लिए जा सकते है । इसमे अच्छाई या बुराई शस्त्रगत न 1 हो जाती है । कला के क्षेत्र में कहा जाता है कि सोदय वस्तु कित्साद्वारा 1047 कति ७० होत भी वस्तुत व्यक्ति परक है। व्यक्ति के दृष्टिकोण से 1- जागत होता है । उसी प्रकार विज्ञान के क्षेत्र मे भी हम मफ्ते हैं कि निसन्देह विज्ञान की वास्तविक वनानिकता उस सिद्धान्त अपेक्षा उसके प्रयोक्ताओ पर अधिक निभर है । दवी और आसुरी विज्ञान की देन भले ही लगती हो, पर हैं य मानव की हो बत्तियां । 4 समाज रूपी रथ का समुचित संचालन करन के लिए नाम और की पक्षा है और साथ ही मानव-समाज का दृष्टिकोण आत्मनान● ययात् श्राध्यात्मिक भित्ति पर अनलम्वित होना चाहिए तभी विज्ञान का रूप ले सकता है । श्रप्रमाद भोर विवेक वनानिक प्रयोक्ताश्रा लिए अनिवार्य है । इनवे विना प्रगतिशील विज्ञान भी भौतिक जगत का ही श्रालोतिर पर वह प्रेरणाशील सजनात्मक तत्व प्रदान नही कर " | आत्मज्ञान की शक्ति से पूरित मानच ही विज्ञान का सफल प्रयोक्ता ता है। भगवान महावीर ने घपनी दोघकालिक साधना के बाद जो रत्न किया उसके एक आम सूचित किया गया है कि कोई भी कानी हो तो उसका सार यही है कि वह अपने श्रात्मनान के कारण विश्व विज्ञानका उपभोग करता हुआ किसी को हिंसा नहीं करता। किसी M 129 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान पर अहिंसा का अवुरा 129 स्वभाग्य को ममाप्त कर साती है । आखिर यह जगत सभी महापुरुषों और प्राविप्वारखो आदि के परिश्रम से इतनी उच्च स्थिति में पहुंचा है।" अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि क्या हम निरपुल विनान के हाथ में समस्त जगत को सौंप दें अगर विज्ञान के साथ अहिंमारमा नतिक्ता विकसित हो सकी तो इसके परिणाम भयवर हो सकते हैं। विश्व की कोई भी वस्तु मूलत कभी किसी को हानि, लाभ नहीं पहुँ। पाती । हानि-लाभ तो व्यक्ति के दष्टिकोण की वस्तु है । विज्ञान भी स्वत माप्य को हानि नहीं पहुंचाता प्रत्युत इसके विपरीत निरतर शोषवृत्ति से विश्व के नूतन रहस्यो का उद्घाटन करता है। पर मूल प्रश्न है मानव द्वारा इसके समुचित प्रयोग का । उदाहरणाय एप चाकू से चिकित्सिरगल्य चिकित्सा द्वारा रुष्णतीरोग मुक्तिकामहत्त्वपूर्ण काय करता है तो उसी चाय से पिसी के प्राण भी लिए जा सकते हैं। इसमे अच्छाई या बुराई स्त्रगत न होर व्यक्तिगत हो जाती है। पला के क्षेत्र मेवहा जाता है कि सोदय वस्तु परक प्रनिमासिन होते हुए भी वस्तुत व्यक्ति परप है। व्यक्ति के दृष्टियाण म ही प्रात्मस्य सोदय जागत होता है। उसी प्रकार विमान ये क्षेत्र मे भी हम पह सपते हैं कि निसदह विमान की वास्तविक यनानिकता उस सिद्धात पी अपेक्षा उसके प्रयोक्तामा पर अधिक निभर है। देवी और आसुरी पाक्तियां विपान की देश भले ही लगती हा पर हैं य मानव की ही वत्तियाँ। मानव समाज रूपी रय वा समुनित सचालन करन के लिए शाा और विगामी प्रपाता है और साथ ही मानव-ममाज का दृष्टिकोण प्रात्मनान परस प्रयान प्राध्यास्मिर भित्ति पर अवलम्वित हाना चाहिए तभी विमान वरदान माल माना है। अप्रमाद मार विवर दनानिव प्रयोक्तामा पए प्रनिधार है। नरे विशा प्रगतिशील विज्ञान भी भौतिक जगन का भरे ही मानोफिनगर पर वह प्रेरणागीम मजनात्मव तत्त्व प्रदान नहीं कर सपनामात्मनार को गति स पूरित मानव ही विमान वारापन प्रयोजना या सपना है। भगरान महावीर म अपनी दीपातिय मापना के बाद जो मनुभयरत प्राप्त रिया उसर एक प्राम सूचित किया गया है वि को भी पुगगामासातो उगरा सार यही है कि वह अपन पामपान, पारण हिर यिनान या मनोग परताहमा रितीनी हिना नहीं करता। रिमी Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा भी प्राणी को न सताता है,न मारता है और न दुःख ही देता है। यही अहिंसा का सिद्धान्त है । इनी मे विज्ञान का अन्तर्भाव हो जाता है। गक्ति और माधनों के आधार पर पुरातन कालिक वैनानिक गवेपको ने सूचित किया है कि विज्ञान को जितना प्रोत्साहन दिया जाय, दिया जाना चाहिए। पर वह मंहारगक्तिहीन हो। भगवान् महावीर ने जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति पर स्वैच्छिक नियन्त्रण लगाते हुए विवेक, यातना और सोपयोग निवृत्ति मलक प्रवृत्ति का सकेत किया है । पाश्चात्य दार्गनिक वटैण्ड रसेल ने कहा है "मनुप्य को कानून ग्रीन आजादी दोनों चाहिए, कानून उसकी आक्रमणकारिता एवं गोपक भावनाओं को दवने के लिए और स्वाधीनता रचनात्मक भावनात्रों के विकास व कल्याण के लिए।" प्रत्येक राष्ट्र यह चाहता है कि वहां के नागरिक मुशील, चरित्र-संपन्न और नीतिमत्तापूर्ण जीवन-यापन करने वाले हों। प्रानामक प्रवृत्तियों को रोकने या अंकुश लगाने के लिए राष्ट्र कानून बनाता है ताकि अनिष्ट प्रवृतियो को पनपने का अवकाग न मिले । साथ ही नागरिकों की रचनात्मक प्रवृत्तियां अत्यधिक विकसित हों-यह भी गासक का कर्तव्य है। तभी विज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। रचनात्मक जीवन को प्रोत्साहन तभी मिल सकता है जब उसका पारिवारिक जीवन सुखी और समृद्धिशाली हो। यह राष्ट्र की गान्तिवादी नीति द्वारा ही संभव हो सकता है । मसार मे विप और अमृत विद्यमान हैं ।मनुप्य इतना अवश्य जानता है कि मेरे लिए ग्राह्य क्या है ? वस्तुतः विष विष है तो भी दृष्टि सम्पन्न मानव इससे अमृत का काम ले सकता है। संखिया तीव्र विष है पर यदि इसमे से प्राण हानि करने वाले तत्त्वो को निष्कासित कर उपयोग में लाया जाय तो वह अमृत बनकर रोगोपशान्ति के साथ देह को मुन्दर और सुदृढ़ बना देगा । तात्पर्य, हेय मानी जाने वाली वस्तुप्रो मे से नि.सार तत्त्व पृथककर दिए जाएं तव वे भी अमृतोपम सिद्ध होती हैं। यह सव लिखने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि प्रत्येक वस्तु या सिद्धान्त के प्रति मानव का विगिप्ट 1. एव खु नागिणो सारं जन हिंसह किंचण । अहिमा समयं चैव एयावन्न विवाणिया ।। -~मत्र कृतांग 11 114 1 10 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान पर अहिमा का अकुश 131 दृष्टिकोण होना चाहिए । दृष्टि-सम्पन मानव के लिए विश्व की कोई वस्तु स्याज्य नहीं है। गुणमाहाता व उसके उपयोग से परिचित होना आवश्या है। ससार म सत्य एक होकर भी वयक्निक भेद के कारण भनेर है । इस अनवता में मुख्य कारण दृष्टि भेद है । एक ही वस्तु विभिन्न दृष्टि-भेदो के कारण कईम्पो म परिवर्तित हो जाती है। उदाहरणाय एवं अस्थिपजर को देगकर शरीर शास्त्रवत्ता इस घोष की वस्तु समभकर अनुसघान मे जुट जाता है । इसी अस्थिपजर से दागतिर वैराग्यमय भावनामा म तल्लीन हो जाता है । एव सान इसे देखकर भोज्य वस्तु समझ बैटता है। तात्पर्य यह कि एक वस्तु के दृष्टि भेद के कारण कई उपयोग होने देखे गये हैं। इसी प्रबार विभिन दृष्टियोसे विनान ये भी कई उपयाग हैं। एकागी उपयोग से हीशान्ति को जम मिलता है। यदि अहिंसामय जीपा-यापन करने वाला ये हाथ में वानिय प्रयोग शक्ति का मून हा तो निसदह यह निपत्रित विमान दृष्यी यो स्वर्ग के रूप म परिवनिन पर सवना है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईस - आधुनिक विज्ञान का रचनात्मक उपयोग जैसा कि पहले सूचित किया जा चुका है कि विज्ञान का भला-बुरा प्रयोग मानव के दृष्टिकोण पर अवलम्बित है। मुख-समृद्धि की अभिवृद्धि के लिए किए गए प्रयोग गान्ति स्थापित कर सकते है। पर यदि स्वार्थ प्रेरित भावना से इसका उपयोग किया गया तो यह विध्वसात्मक और नर-सहारक भी प्रमाणित होता है। __रेडियम संसार की एक ऐसी वहुमूल्य धातु है जिसके छोटे से अणु अर्थात् एक मागा के हजारवे भाग मे ऐसी शक्ति है जो विशाल भवन को प्रकाश प्रदान कर सकती है। यदि भविष्य मे रेडियम बहुलता से उपलब्ध होगी तो गायद विद्युत् की आवश्यकता नहीं रह जायेगी। क्योकि रेडियम के अणु दीवाल पर प्लास्टर के साथ लगा दिये जायेगे तो उसका प्रकाश आवश्यक कार्यो को सुचारुतया सम्पन्न कर सकेगा। यन्त्रोद्योगो मे हजारों टन कोयलो का कार्य दो माशा रेडियम ही कर देगा । किन्तु विश्व में रेडियम की मात्रा दस-ग्यारह तोलो से अधिक नहीं है । इग्लैण्ड के विशाल चिकित्सालय मे केवल पन्द्रह माशा ही उपलब्ध है। भारत मे पटना के अतिरिक्त कहीं भी रेडियम द्वारा चिकित्सा की व्यवस्था नहीं है। इसका मूल्य वीस लाख यानि स्वर्ण से चौवस हजार गुना अधिक है। इस अल्पता के कारण कृत्रिम रेडियम निर्माण की सफल चेष्टा वैज्ञानिको ने की है। इसकी ऊष्मा से कई असाध्य रोग सुसाध्य की कोटि मे आते देखे गये है। __अणु की तापीय शक्ति का सृजनात्मक उपयोग सफलता के साथ करने के लिए यदि यत्न किया जाय तो ईधन की समस्या सुलझ सकती है। यातायात के साधनो को इस ऊप्मा से अधिक सक्षम बनाया जा सकता है। रोगो पर भी काबू पाया जा सकता है । वैज्ञानिको का तो दावा है कि वे इसके द्वारा मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेगे और यह सब तभी संभव Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यानिन विज्ञान का रचनात्मक उपयोग है जब सजनात्मक रूप मे इसका उपयोग हो । नरमहार के कारण ग्रणु शक्ति वो बहुत बडे अपयश का सामना करना पटा है । यद्यपि यह पर्याप्त व्यय साध्य है, पर मनिक व्यय में इसका विचार ही किया जाता | यदि इसका औद्योगिक क्षेत्रो में सफलता के साथ विवास किया जाय तो न केवल ईंधना को ही वचन होगी, अपितु श्रय वाय भी अल्प व्यय में ही सम्पन्न हो जायेंगे। प्रसन्नता का विषय है कि भारतीय शासन न वज्ञानिको को समुचित प्रोत्साहन देना प्रारम्भ कर दिया है और श्री भाभा के नेतृस म बम्बई के निकट प्राणविक भट्टी कुशलता से वाय कर रही है। भारत में कच्चे माल को कभी नही है । यूरेनियम भी समुपलव्य है । 133 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीस अहिंसक प्रयोग के हेतु धर्म और विज्ञान में सामंजस्थ हो यह सर्व स्वीकृत तथ्य है कि मनुप्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है । इसीलिए विज्ञान द्वारा प्राकृतिक शक्तियो की क्षमता की खोज कर सका। पर, परिताप इस बात का है कि वह भौतिक शक्तियों पर विजय प्राप्ति में इतना लीन हो गया है कि आत्मिक शक्तियों को भी विस्मृत कर बैठा। यहाँ तक कि वह अपने-आपको इतना अधिक शक्ति सम्पन्न समझने लगा कि परमात्मा, महात्मा, ईश्वर आदि अजात शक्तियों को भी नगण्य मानने लगा। श्रद्धा का अश जीवन से विलुप्त हो गया। वह एक प्रकार से हक्सले के इस सिद्धान्त का अनुगामी वना कि ईश्वर आदि अज्ञात तथ्य मानवीय चिन्तन की अपूर्णता के द्योतक है । वह मानता है कि मनुष्य को समुचित या पौष्टिक खाद्य उचित मात्रा मे न मिलने के कारण उन लोगो मे विटामिन की कमी थी। मानसिक गक्ति दुर्बल हो गई थी। तभी वे ज्ञात वस्तुओं को छोड़ अज्ञात के चिन्तन मे लीन हो गये। फलस्वरूप दौर्बल्य के कारण वे परमात्मा या अजात शक्ति के लिए प्रलाप करने लगे। नहीं कहा जासकता कि हक्सले के इस तर्क मे कितना तथ्य है, पर यह तो वुद्धिगम्य है कि इस चिंतन कीपृष्ठभूमि विशुद्ध भौतिक है। अहिंसा या अध्यात्म प्रधान दृष्टिकोण से चिन्तन किया जाय तो उपर्युक्त विचारो मे सशोधन को पर्याप्त अवकाग मिल सकता है। भारत तो सदा से श्रद्धा और ज्ञान मे विश्वास करता आया है। इन दोनो के अभाव में जीवन तिमिराच्छन्न हो जाता है। विज्ञान के द्वारा वढी हुई स्वार्थपरायण वृत्ति की खाई को अहिंसा द्वारा ही पाटा जा सकता है । तात्पर्य है कि धर्म और विज्ञान में सामंजस्य स्थापित हो । यद्यपि विशुद्ध तत्त्वज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाय तो धर्म का, विज्ञान से Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिमव प्रयोग के हेतु धम और विज्ञान में सामजस्य हो सम्बध स्थापित करने मे बाधाएँ आती हैं । कारण कि धम का सम्बन्ध श्रनात तत्त्व श्रात्मा से है और विमान का सम्बध पौदगलिक या दृश्य जगत से । यह वपम्य दो दिशाओ की ओर मनुष्य को उत्प्रेरित करता है। धम एक्स्व का सूचक है तो विमान दूध की ओर मवेत करता है। इतना होते हुए भी आधुनि दष्टि से जय हिंसा के द्वारा विनान पर नियंत्रण रखने के प्रयत्न हो रहे हैं तो धम के द्वारा भी इसे नियत्रित किया जा सकता है । हाँ, विज्ञान से मामजस्य स्थापित करने वाला घम केवल पारम्परिक या कालिक तथ्य न होकर विशाल दष्टि सम्पन तथ्य है। धम वा सोधा तात्पय केवल इतना ही है कि मानव जाति का अभ्युदय हो, सर्वोदय हो । विज्ञान इसका साघन हो । 135 धम और विज्ञान का समुचित सम्बाध हो जाने पर मानव को वास्तविव सुस-याति को प्राप्ति होगी । धम या विशिष्ट दृष्टि रहित विज्ञान मानव समाज मे वपम्य उत्पन्न कर सकता है। विज्ञान वाह्य विषमताश्रा को मिटाने में सक्षम होगा तो धम श्रातरिय विकारा को दूर करने में सहायक होगा | विज्ञान नित नय माधना का उत्पादन है तो धम उसका व्यवस्था पत्र । निपुल उत्पादन भी उचित वितरण के प्रभाव में एक समस्या बन जाता है। ऐसी अवस्था मे जीवन का संतुलन दोना के सामजस्य पर ही अवलम्बित है। श्री ए० एन० व्हाईट हैड कहते हैं "धम के अतिरिक्त मानव जीवन बहुत ही अल्प प्रमानताओं या केंद्रबिंदु है ।" श्रत विमान के साथ घम का सामजस्य मानवता की रक्षा के लिए अनिवार्य है । कतिपय विनावा मतव्य है कि धम और विज्ञान वा सामजस्य तो श्रमृत और विष ये मयोग के समान है। धम हृदय वो वस्तु है । विमान मस्ति । धम श्रद्धा मोर विश्वास पर पनपता है तो विमान प्रत्यक्ष प्रयोग पर पर विचारणीय प्रश्न यह है विप्राकतिक शक्ति सम्पन्न विज्ञान प्रनात तथ्यो को प्रत्यक्ष करा देता है तो घम जमी सजीव वस्तु वा यदि जड के साथ चाह किसी भी रूप में सयागात्मव या नियत्रणमूलक सम्पर्क हा जान पर विज्ञान का महत्व व जायेगा और विकारaur वैमनस्य मूलर भावनाएँ भी समाप्त हो जाएँगी । पर, शत यह है नि वह धर्म भी Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा शब्दाडम्बर रहित मानव की प्रान्तरिक भावभूमि मे स्पर्श रखता हो, जीवन के सौन्दर्य मे अभिवृद्धि कर अन्तर्मन को तृप्त करता हो। आज राजनीतिक और धार्मिक मस्याएँ धर्म के मर्म से बहुत दूर या उदासीन है । धर्म की स्वेच्छिक मर्यादाएँ वोझ-मी प्रतीत होती हैं । इसलिए कि मर्यादापो के प्रति जो मानव का विशुद्ध दृष्टिकोण था वह गुप्क विज्ञान की प्रगति के कारण दिनानुदिन विलुप्त हुया जा रहा है । एक समय था धर्म को श्रद्धा के द्वारा ग्रहण किया जाता था पर आज धर्म को विज्ञान या बुद्धि द्वारा ग्राह्य तत्त्व समझा जा रहा है। जहाँ तक चिन्तन का प्रश्न है वह ठीक है कि ससार की प्रत्येक ग्राह्य वस्तु बौद्धिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रात्मस्थ की जानी चाहिए। पर वह चिन्तन और बौद्धिक चातुर्य व्यर्थ है जिससे चिन्तित तथ्य को जीवन मे साकार नही किया जा सकता । प्राचारमूलक श्रद्धान्वित ज्ञान ही वास्तविक चिन्तन का प्रतीक होता है। उत्कर्ष मूलक तथ्य केवल मानसिक जगत की वस्तु नही है, वह लोक कल्याण की वस्तु होती है । यदि मस्तिष्क द्वारा चिन्तित वैज्ञानिक तत्त्वो को अहिंसामूलक परम्परा द्वारा जीवन मे प्रस्थापित किया जाय तो निस्सन्देह इन दोनो के सामंजस्य से न केवल मानवता ही परितुष्ट होगी, अपितु भविष्य मे और भी सुखद परिणाम पा सकते हैं । शक्ति बुरी चीज नहीं है, पर शक्ति का वास्तविक रहस्य उचित प्रयोगता पर निर्भर होता है। रावण और हनुमान शक्ति सम्पन्न व्यक्ति थे। रावण के पास धर्म रहित वैज्ञानिक शक्ति थी तो हनुमान के पास धर्म संयुक्त शक्ति । रावण की शक्ति स्वार्थ साधना मे प्रयुक्त हुई तो हनुमान की शक्ति सेवा और साधना का ऐसा प्रतीक बनी कि आज भी उन्हें अविस्मरणीय कोटि मे स्थान दिया गया है। धर्ममूलक वही शक्ति स्मरणीय होती है जो सुदृढ, स्वस्थ, प्रेरणाप्रद और ऊर्ध्वस्वल परम्परा का सूत्रपात कर सके। आज की वैज्ञानिक प्रगति की दौड़ मे मानव ने क्या-क्या पाया और क्या-क्या खोया ? इसके विवेचन का यह स्थान न होते हुए भी इतना लिखने का लोभ सवरण नहीं किया जा सकता कि ज्ञान खोकर विज्ञान पाया। श्रद्धा खोकर अभिनता पाई। प्राचार खोकर बौद्धिक क्षेत्र का Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिमर प्रयोग के हेतु धम और विज्ञान म सामजस्य हो 137 चिंतन विस्तत किया । सक्रिय विचार खोर तक पाया, स्वाभाविक स्वा स्थ्य योवर चिक्सिा पद्धति पाई । नैतिकता खाकर चातुय पाया। प्रेम सोकर स्वाथ परायण वत्ति पनपाई । तापर्य यह कि इस एकानी भौतिक प्रगति से मनुष्य घाट म ही रहा। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोस विज्ञान को संधि हिंसा के साथ जीवन के किसी भी क्षेत्र में विकास करने के लिए गम्भीर चिन्तन या मार्ग मे आने वाली बाधाओ का सूक्ष्म परिज्ञान अनिवार्य है। दूरदर्शिता, पूर्ण प्रगति मानव को स्थायी जगत की ओर प्राकृप्ट करती है । आज का मानव विना किसी गम्भीर परिणाम पर गम्भीर विचार किये ही दो टूक निर्णय चाहता है । विश्व - गाति की निप्पत्ति के लिए भी यही मार्ग अपनाया प्रतीत होता है। तभी तो हिंसा के सहारे आज विज्ञान पनप रहा है । इस प्रकार की विश्व शाति को यदि ' श्मशान की गांति' की सजा दी जाय तो अत्युक्ति न होगी और इस हिंसा संयुक्त विज्ञान की संहार लीला देखकर सहसा भस्मासुर का ग्राख्यान मानस पटल पर अंकित हो जाता है । यह ग्रनुभव मूलक सत्य है कि ससार मे पारस्परिक वैमनस्य बढाने वाले शत्रुग्रो में सबसे बड़ा और निकट का शत्रु सजातीय ही होता है । मानव समाज के लिए भयकर विनाग का यदि भय है तो और किन्ही प्राणियों से न होकर अपने सजातीय वन्धुत्रो से ही है। मानव की स्वार्थलिप्त हिंसा वृति ने विगत युद्धो मे जिस सहार लीला का प्रदर्शन किया है उससे कैसे आशा की जाय कि वह विश्वशाति के जनक या मानव परित्राता का स्थान ग्रहण करेगी। इसमे भी कहना चाहिए कि शस्त्रो की अपेक्षा मनुष्य की हिंसा वृत्ति ही प्रधान है | स्वार्थान्ध राष्ट्र प्राणियो की कोमलता का अनुभव नहीं कर सकते । मानवीय सौन्दर्य की व्यापकता पर उनका ध्यान नही जाता । वे तो केवल विश्व को अपनी प्रचण्ड संहार-शक्ति के द्वारा या पाश्विक शक्ति द्वारा प्रभावित करना चाहते हैं कि यदि हमारा सर्वागीण श्राधिपत्य स्वीकार नही किया तो उनका जीवित रहने का अधिकार हम छीन लेंगे । " एक वार कतिपय अंग्रेज चिड़ियाघर देखने गये, वहाँ सिंह और भेड़िए श्रादि गुर्राते, दहाड़ते नजर आये। उनकी इस प्रकृति पर अंग्रेजो Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान की सघि हिमा के साथ 130 ने कहा--"ये वितने मम हैं, मदियां बीत गई, फिर भी इनपी हैवानियत ज्या वी त्या बनी हुई है। अपनी मूल वृत्तियां इस प्रगतिशील वज्ञानिय युग मे भी इहोन नहीं छाडी, इनका विकास मानव विकास की तुलना म नगण्य है।" __या वार्तालाप के बाद जब व बाहर निकन ता जेर कटी हुई पाई, तब उनको भारी पाश्चय हुमाकि हम तो हिंगर पशुमा कोही अविकसित प्राणी समझ रह थे पर मनुष्य ने भी अभी तम अपनी तस्वरमूलक हिसावृति का पूर्णतया परित्याग नहीं किया है । वस्तुत भौतिक विकास में मनुष्य को नैतिक प्रगति बहुत मद पड गई है। इसका कारण ही हिंसा मूलक विनान था विकास है भले ही मानव को पााविक वृत्तिपर मानवता की पतली चादर पड़ी हुई दृष्टिगोचर हाती हो, पर वह क्षणिर पावसम ही पट जाती है। पयुमो के पत्ल परन में वैमानिए यत्रो पर्याप्त विकास दिया है। यह पहाजाना पिसवार ये तीक्ष्ण पत्र होने चाहिए जिनमे प्राणहानि के समय पशुगण अधिव पप्ट यामनुभय न करें। उनकातडपाका व परणाई स्वर पनि निपालने । अवकाश हो न मिले। इराम दार नहीं कि महात्मा गापी की राजनीति में पनपने याना भान या भारत पूपिया अधिर मासाहार की पार भुषाहमा है। महिंसा मोर मानवता पर विस्तृत ममा पण गरावाले भी उग पाहार से बहुत ही पम प्रलिप्त रह पाते हैं। तारपय बौदिर जगन में तो पहिला सांगीण स्पण यिवसित हुई है, पर दुभाग्य जीयन क्षेत्र म पर प्रयानही पर पाई। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीस अहिंसा का स्वरूप अहिंसा का उदय ___ अहिंसा शब्द का प्रयोग कब से और क्यो होने लगा, तथा जन-जीवन मे अहिंसा की प्रवल वेगवती भावना का उदय कव से हुआ, यह बतलाना तो असभव है । हाँ, साहित्य तथा कल्पना लोक से भले ही इसका कुछ अनुमान लगाया जा सकता है, किन्तु इसकी सुनिश्चित रूप-रेखाखोचना टेढ़ी खीर है। इतना तो हम अवश्य कहेगे कि यह अहिंसा अनादि और अनन्त है। किसी भी काल विशेष मे इसके अभाव की कल्पना नही की जा सकती। विश्व के सभी दर्शनों ने अहिंसा को प्रधानता प्रदान की है परन्तु जैन दर्शन के लिए तो अहिंसा प्राणभूत तत्त्व है । अथवा यों कहना चाहिए कि इसकी विशद व्याप्ति मे ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी व्रतों का समावेश हो जाता है। धर्म का मौलिक स्वरूप अहिंसा है और सत्य आदि उसका विस्तार है। इसीलिए जैन दर्शन के एक महान् प्राचार्य ने एक स्थान पर कहा है "अवसेसा तस्स रखठ्ठा" शेष सभी व्रत अहिसा की सुरक्षा के लिए हैं। जैसे अर्थ की रक्षा के लिए तिजोरी की आवश्यकता रहती है। उसके बिना अर्थ सुरक्षित नहीं रह सकता । उसी प्रकार अहिंसारूपी धन की रक्षा के लिए इतर व्रत तिजोरी के सदृश है। साराश यह है कि अहिंसा व्रत के अतिरिक्त जो व्रत हैं वे सारे अहिंसा तत्त्व के ही पोषक है। वे उनसे कभी भी अपना अस्तित्व अलग-थलग नही कायम कर सकते । वल्कि अहिंसा भगवती के ही संरक्षण होकर रहते है । अहिंसा की परिभाषा अहिंसा का विशद स्वरूप समझने के पूर्व अहिसा क्या है, और उसकी परिभाषा क्या हो सकती है ? इसको जानना आवश्यक है । यो तो हमारे यहाँ सभी धर्मो ने अहिंसा की विभिन्न व्याख्याये की है, जिनमें एक ही स्वर Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रहिमा का स्वरूप 143 लहरी गूज रही है । शार्यारत के महामानव भगवान् महावीर ने श्रहिंसा की परिभाषा इस प्रकार की हे 'प्राणी मात्र के प्रति सयम रखना हो श्रहिंसा है।'' इसी प्रकार अहिंसा की घोर भी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा है, 'मन, वचन और काया इनम से किसी एक के द्वारा किसी प्रकार के जीवो वी हिमा न हो, ऐसा व्यवहार करना ही सयमी जीवन है । ऐसे जीवन का निरतर धारण हो यहिंसा है ।" -- गौतम बुद्ध ने श्रहिंसा नी व्याख्या करते हुए इस प्रकार बतलाया है'वस या स्थावर जीवो को न मार, न मरावे और न मारनेवाले का अनुमोदन करे 18 गीता म श्रीकृष्ण की वाणी इस प्रकार प्रवाहित हुई है-'नानी पुरुष ईश्वरको गवत्र समान रूप से व्यापक हुआ देखकर हिंसा की प्रवृत्ति नही करता, क्यादि वह जानता है कि हिंमा करना खुद अपनी ही घात करने के बराबर है और इस प्रकार हृदय में शुद्ध और पूर्ण रूप मे विकसित होने पर वह उत्तम गति को प्राप्त करता है ।" * पातञ्जन योग के भाप्यवार ने बताया है कि सब प्रकार से सब काल मे भव प्राणियों के साथ श्रभिद्रोह न करना, श्रहिंसा है । " गाधीजी न हिसा की व्याख्या करते हुए लिसा है— "ग्रहमा वे माने सूक्ष्म जातुद्मा मे लेकर मनुष्य तक सभी जीवा के प्रति 1 श्रहिंसा निश्या दिस मुम्मु सनम | 2 मण निच्च दोयन्वय सिया | मयता काय कवरेय एव हवद सनए || -दरावैकालिक 6191 - दशवेकालिक 8131 3 पाये न दाने न घात येय, न घानुमन्या हनत परे । भूत निधाय ये भाग में नमनि लोरे || 4 ममपदि सव समधिनमश्वरन् । तो यानि परां गतिम् ॥ 5 महिमा मा भूनेष्वनम | -सुत निपान धम्मिक युत । - पानजत्र योग सूत्र । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा समभाव । अहिसा का उक्त सभी व्याख्यानो मे दया और करुणा का सागर उमड़ रहा है। प्राय. सभी व्याख्याकारो ने यही बतलाया है कि मन से, वचन से और कर्म से प्राणी को कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है । सूक्ष्म से लेकर स्थूल तक सभी जीवो के प्रति मैत्रीभाव रखना अहिसा है। ___ अहिसा हमे सदा से 'मात्मवत् सर्वभूतेषु' का पाठ सिखलाती रही है। दूसरो द्वारा किये जाने वाले जिस व्यवहार को तुम अपने लिए उचित नहीं समझते वह व्यवहार दूसरो के प्रति करना भी अनुचित है। अपने प्रति किये गये जिस कार्य से तुम्हे पीड़ा पहुँचती है, समझ लो तुम्हारा वैसा कार्य भी दूसरो को पीडा पहुंचाता है। इस प्रकार शान्त मस्तिष्क से न्यायपूर्ण चितन करने पर स्वत हिसा-अहिसा का स्वरूप समझ मे पा जाता है। हिसा-अहिंसा का मानदण्ड अधिक शास्त्रीय भाषा मे हिसा-अहिसा का स्वरूप दर्शाने के लिए प्रतिभासम्पन्न प्राचार्य अमृतचन्द ने कहा है कि कलुपित भावो का प्रादुर्भाव न होना अहिसा है और कलुपित भावो का उद्गम हिंसा है। अहिसा का विपरीत पक्ष ही हिसा है । अहिंसा शब्द से ही हिसा का अपने-आप निरोध हो जाता । आचार्य हरिभद्र के विचारो मे तो आत्मा ही अहिसा है और आत्मा ही हिसा है । अप्रमत्त आत्मा अहिसक है और प्रमादयुक्त जो आत्मा है वह हिसक है । प्रमाद मे हिसा का अधकार है किन्तु अप्रमाद मे अहिंसा का जगमगाता प्रकाश है । यही बात आचार्य उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र मे गूंज रही है-- 'प्रमत्त योग से होने वाला प्राण वध हिसा है। यदि कोई सयमी साधक यतना के साथ सावधाती रखता हुआ 1. गाधी वाणी पृष्ठ 37 2. पाया चैव अहिंसा, आया हिसेति निच्छरो एस । __ जो होइ अप्पमतो, अहिसो हिसत्रो झ्यरो॥ ___~-हरिभद्रकृत अष्टक 7 श्लोक छठवी वृत्ति । 3. प्रमत्त योगात् प्राण व्यपरो पणं हिसा तत्वार्थ सूत्र, श्र078 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा का स्वरूप 146 सनकता से चल रहा है । क्सिी जीव के प्राणो की पात न होने देने की बुद्धि उममे विद्यमान है । ऐसी स्थिति में अचानक कोई जीव उसके पैरा के नीचे आकर कुचल जाता है तो वह साधक हिंसा के पाप मे लिप्त नहीं होना। अभिप्राय यह है कि कपाय और प्रमाद में किया जाने वाला प्राणध हिंसा है। हिमा वी व्याख्या के दो प्रश हैं । एक अश है-प्रमत्त योग अर्थात् रागद्वैप युक्त और दूसरा नाहै--प्राण बघ । पला अस कारण रूप में है, और दूसरा काय रूप मे है। इसका प्रथ यह हुमा विजोप्राण वध प्रमत्त योग से हो वह हिंसा है। एतदथ साधक प्रमाद और कपाय से जितने जितने अशा मे बचने का प्रयास करेगा उतने उतने अशो मे वह हिंसा से बचेगा। पाय और प्रमाद प्रारमा की अशुद्ध परिणति है, और यात्माकी जो अशुद्ध परि णति है वही हिंसा है। अत अहिंसा प्रेमी व्यक्ति इनसे अपने को सदा बचाये रमे, जिसमे कि वह हिंसा के गह्वर से ऊपर उठकर अहिमा के दिव्य पालोव मैं अपनी प्रात्मा का सही मूल्याकन न सके। जन समाज की दिव्य विभूति स्वामी समत भद्र न एक स्थान पर अहिंसा का महात्म्य बतलाते हुए कहा कि "अहिंसा भूताना जगति विदित ब्रह्म परमम् ।।1 धम ने मानव जाति को अनेकानेक महान् विभूतियां प्रदान की हैं, पर उन सत्र में हिसाही उत्कृष्ट है । मानव जीवा मे देवत्व और मानवत्व की प्रतिष्ठा करने वाली एकमात्र अहिंसा ही है । यदि मानव में अहिंसात्मक सुमधुर कोमल वमनीय विचारो के विचिमाली का उदय न हुमा तो मानन पिम नगण्यतम स्थिति की अधेरी गुहा मे चला जायगा जिसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है । मानव ने परिवार, समाज और राष्ट्र या निर्माण किया तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बध स्थापित किये, इन सबका मूला धार अहिंसा ही है। व्यक्ति और समाज की जीवन यात्रा का पाथेय भी अहिंसा ही है । महिमा के प्राण ही उसमे स्पदित दिखलाई पडन हैं। प्राण वे प्रभाव में व्यक्ति के शरीर की काई वीमत नही होनी, उसी प्रकार महिमा के प्रभाव म देश, समाज और राष्ट्र का भी कोई मूल्य नही है । 1 हर स्व"मलोत्र । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान और अहिंसा हिंसा मानवता की त्रावारविला है और मानवता का उज्ज्वल प्रतीक है। परिवार, समाज, देश और राष्ट्र में यदि शांति के सदर्शन हो सकते हैं तो वह एकमात्र श्रहिंसा से ही । इस ग्रावार पर हम कह सकते हैं कि हिंसा विश्व की श्रात्मा है, प्राण है, और है चेतना का एक स्पन्दन । 146 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेंतीस अहिंसा को शक्ति बढानी है मुख्यत प्राज दो धाराघों के बीच सघप चल रहा है । एव पश्चिम से सम्बद्ध है जिसका मुख्य प्राधार भौतिकवादी परम्परा होने के कारण सानपान मोर मामोद प्रमोद में जीवन समाप्त करना है। इस विचार परम्परा मी नहीं था सिंचन यमानिए प्रमापनी द्वारा तीत्र गति से हो रहा है। दूमरी विचारधारा भारत से सम्बद्ध है जो प्रत्येर प्रवृत्ति में मयम और त्याग म विश्वास करती हुई सासारिक वामनावधक साधनों पर मधुग मगार जीवन का वास्तपिर माद वैराग्यमानक त्याग में मानती है। या यमाय पानद का उपभोग यही व्यक्ति परसपता है जिसके जीवन ममपम परिम्याप्त हो और वह प्राय ययतामो या दास 7 हो । जीवन या पानद पावश्यरतानों पी स्मृद्धि और अभिवद्धि में ही है। प्रत्युत प्रया या मर्यादिन मारना रसते हुए जीवन यापन परना हो ऐसा औराद निरी परम्परामानय या उरग्वल भरिप्य रिमाण पर सक्ती है । प्रगति प्रदत्त य विगान द्वारा प्रापिएन पस्तु बाहुल्य का यह तात्रय नहीं मिार इनवा दाग वन पर रह । भारत के तत्वचिन्तराने स्पष्ट मपिादिन रियाशिसवा गुम प्राम-चोति में है भोर माम-माति पोरगरि मुगों परित्याग पर निभर है । वे यह भी मायपर मानते हैं रिपधिर मुगाम्पिये मापानमे परिग्रह पृत्ति पानियायत पोपाहोना, नाम प्रसार मी हिंगा है। मपप, विषमता, मौन, पर्ने हिना, गोरापोर मामाग्यमारय मारवृत्ति मे एगे परिणाम है जिन पर मामय नहीं पर । भविष्य की प्रेरना नहीं पित माती। मन मषिष्य लिए मा पापन प्राय पाहा मा, मिहिमा मानि मानव-गमा विमसि पातर है पोरा भी ग शर निर मरिगिहारोगनिमाला मसाय पर Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा है। क्योंकि यह स्पष्ट है कि किसी भी तथ्य को मौलिक रूप से यदि परिवर्तित करने का प्रयास नहीं किया गया तो वह आगे चलकर उतना विस्तृत हो जायेगा कि जिस पर अंकुश भी नहीं लग सकेगा ! ईट का जवाब पत्थर से देना हिंसा को प्रोत्साहित करना है, प्रतिहिंसा की भावना को बढ़ावा देना है। यदि हिंसा को न रोका गया तो उसकी परम्परा द्रोपदी का चीर बन कर रहेगी। अव हमे देखना यह है कि इन दो पारस्परिक विचारधामो मे से किसे अपनाने मे मानव और मानवता के साथ प्राणी मात्र का हित निहित है। साथ ही जीवन के क्षेत्र मे कौन-सी सर्वगम्य विचारधारा अधिक प्रभाव उत्पन्न कर स्थायित्त्व परम्परा का रूप ग्रहण कर सकती है । जहाँ तक पूर्व और पश्चिम के दार्गनिको का प्रश्न है, प्रारम्भ से ही दोनो मे पर्याप्त वैभिन्न्य रहा है । पाश्चात्य दर्शन मानसिक श्रम तक ही सीमित है । सभव है उनके चिन्तन का क्षेत्र व तात्कालिक मानवीय समस्याएँ तद्नुकूल ही रही हो । इसके विपरीत भारतीय तत्त्वज्ञान का स्वर मस्तिष्क से सम्बद्ध रहते हुए भी हृदय के मर्म स्थान को स्पर्श किये हुए है। मस्तिष्क द्वारा विश्व रहस्य के अन्तस्तल तक पहुँचने का प्रयास करते हुए भी उसकी सम्पूर्ण प्रवृत्तियाँ अहिंसा व अध्यात्ममूलक रही है । यहाँ दर्शन भी मानसिक विकास तक सीमित न रहकर यात्मिक विकास का सफल सोपान माना गया है । पौद्गलिक शक्तियो द्वारा हिसा प्रोत्साहित होती है तो अाव्यात्मिक शक्ति की किरणो से अहिंसा को बल मिलता है। भारतीय दर्शन का मुख्य आधार ही अहिंसा, अर्थात् समत्त्व है। प्रकर्ष ज्ञान को ही विज्ञान मान लिया जाय तो विज्ञान भी अहिंसा की श्रेणी मे आ ही जायेगा। पर वर्तमान परिभाषा कुछ और ही मार्ग पर इसे प्रेरित करती है। प्रथम विचारधारा भौतिकवादी होने के कारण उन्ही लोगो के सिए श्रेयस्कर है जिनके पास आर्थिक शक्ति प्रवल है, वे ही अधिक से अधिक प्रसाधन वसा कर वैयक्तिक सुखोपलब्धि का अनुभव कर सकते है । अहिंसामूलक प्राध्या त्मिक भारतीय विचार परम्परा और सुखोपलब्धि के उपकरण को ग्रानन्द का कारण न मानकर त्याग और सयम की प्रतिष्ठा मे सुख मानता है और वह अपनी सुखोपलब्धि मे आने वाली वाधानो पर भी समत्त्व ही धारण Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिमा की दाक्ति बढ़ानी है 140 क्येि रहना हा वह अपने सुन के लिए दुसरो से मुखा का हनन नहीं करता वह स्वेच्छया ही सीमित साधनो में व्यापक जीवन यापन का अभ्यस्त है। प्रत यह स्पप्ट ह कि यदि मसार की वयक्तिक सुख-शातिनासमष्टि या म्प देना ह ताजगत और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रहिमा की सवांगीण प्रतिष्ठा अत्यन्त प्रनिगाय है । जगत में महाख किन अमान् हिमा का क्षणिक प्रावल्य भले ही अपना प्रभाव बताता हो पर उसस ससार वे गताप मे ही अभिवृदि हागी। प्राणविक शक्तियों भले ही पातक जमा मम, पर यह नो प्रतिहिमा को ही बल देन वाला सिद्ध होगा। इसका प्रत्युत्तर प्राध्यात्मिक या पहिमाशक्ति ही दे सरती ह । पाचाय परम्परा वी सहाग्य नीति का ममयन परले वाले भी पाज सुरलाथ महिमावा यशोगान ही नहीं करते प्रपितु हिमपारितया विरुद्ध बडे-बडे प्रा दोलन और प्रदान भी उन द्वारा सिजाते । प्रत सामारिन सुख स्मृदि की अभिवद्धि थे तिए भी अहिंसा वाप्रमाण मावश्यक हा पहिंसा-शक्ति को बढ़ाना इसलिए भी प्रावया है पियल इममे वालिस माम्य ही स्थापित होगा अपितु इमयो परम्परा अपनी निमराता में पारण सह्याग्दियो तप मानवता यो अनुमाणित मरती रहेगी। महिमा को पारित वाने के लिए दो माग हो गाने हैं पर तो हिंसा पभराधाप गभी प्रसार ये पुरपायों को प्रोसाहित परना और दूसग पहिंसा में नित नये विमानमम्मन प्रयोग परते ररना । यदि सभी राष्ट्र गानि स्पारनाथ मात्रामर व पाना यादी नीति का प्रति हिमा का परिस्पाग पर गामूहिक रूप में महिला से विभिन प्रयागा द्वारा शान्ति स्थाप नाय प्रयत्न गीर हा तो निरादह हिंसात्मक स्थिति अलग होगी तया दूगरी पोर महिमा को भी विधाया बस प्राप्त हो जायेगा। महिमा भारती अभिपति परती है जो frमी भी राष्ट्र की स्थायी व मौसि पित है। हिंगा पाह रितनी गति गाती हो पर यह पागयिरही है, जिगरा प्रयोग निर्माण के लिए गमय हो रही है। निपप राजनपिपागा मन्तव्य है निशामन जैग गठोर माग म यति पहिगारमा पनि पामोहित रिया गया पर ज माय नसता पूरा प्रसारण दिया गया तो गज सोर दृष्टिगे निराकग्निरा जायेगा। पिना दमयस्यारे पाग Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा कैसे रुकेंगे। आज के प्रगतिशील युग मे इसका विस्तृत उत्तर देने की अपेक्षा इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि महात्म गाधी ने हिंसा के प्रयोगो द्वारा 40 करोड़ जनता को वर्षों की पराधीनता के बाद स्वाधीनता का अनुगामी बनाया, जबकि इनके समक्ष भी गासन द्वारा हिसात्मक प्रयोग कम नही किये गए | तथापि श्रहिना द्वारा प्राप्त ग्रात्मवल का राजनैतिक प्रयोग कितना सफल रहा यह कहने की बात नही है, जनता-जनार्दन ने स्वयं अनुभव किया है | गावी युग की स्वाधीनता की देन तो चिरस्मरणीय घटना है ही पर इससे भी अधिक गाधी के दर्शन से स्वभावत. जो श्रमात्मक वायु मण्डल की विश्वव्यापी सृष्टि हुई है वह अधिक मूल्यवान है। उनकी राजनीतिक श्रहिंसा ने कम से कम ऐसी स्थिति तो उत्पन्न कर ही दी है कि आज हमे सा और उसकी समर्थ शक्ति के लिए विश्व को अधिक समझाने की श्रावश्यकता नही है । जहाँ कार्य शक्ति प्रत्यक्ष रूप से साकार खड़ी है, वहां वाणी को विकसित करने की विशेष ग्रावश्यकता नही रह जाती। हिंसा की रोकथाम के लिए और साथ ही ग्राहसा की शक्ति को बढाने के लिए प्रथम उपाय है— धार्मिक और ग्राध्यात्मिक शिक्षा का प्रसार । इस शिक्षा का अभिप्राय किसी सम्प्रदाय या पथ के अमुक ग्रन्थों को रट लेना नही, वरन् धर्म के उन उदार, उदात्त और दिव्य सिद्धान्तों से परिचित और अभ्यस्त होना है, जिनसे व्यक्ति, व्यक्ति न रहकर विशाल विश्व वनता है । उसका 'अहं' संकीर्ण दायरे से बाहर निकलकर भूत-मात्र मे परिव्याप्त हो जाता है । व्यक्ति की सवेदना, करुणा और सहानुभूति चींटी से लेकर कुजर तक फैल जाती है । मनुष्य का दृष्टिकोण निर्मल और श्रेयोगामी बनता है । इस प्रकार की धर्मशिक्षा मानव को बाल्यकाल से ही मिलनी चाहिए, ताकि विज्ञान का उपयोग करते समय वह हिताहित में विवेक रख सके, कार्याकार्य की छंटनी कर सके, उसके पास उचित अनुचित के निर्णय की एक अभ्रान्त कसौटी हो और वह अहिंसा को प्रोत्साहन देने वाले पदार्थों के अतिरिक्त प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिंसावर्द्धक पदार्थों को कतई न अपनाए । धर्म-शिक्षा विभिन्न मत-पथो मे प्रचलित निष्प्राण रूढियों को समझ लेना नही है । जीवन और उसके वास्तविक ध्येय की पहचान इसी शिक्षा से Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा को शक्ति बढानी है 151 होती है । जब यह शिक्षा जीवन मे तमय हो जाती है तो मनुष्य 7 वैवल मनुष्य का, अपितु प्राणी-मात्र को प्रामभाव में ग्रहण करता है। उसमे सव. भूतात्मभूना या उदार दृष्टिकोण विकसित हो जाता है । वह दूसरों के सुखदुम्ब को अपना ही सुसन्दुस मारता है। इस प्रकार शिक्षित एव सस्त मनुष्य वितान के प्रयाग या उपयोग के मवसर पर जीवन वे इसी सही दृष्टिकोण से देखेगा और नाप-तौल कर हेयोपादेय या विवेक रखेगा, तब उसके लिए विमान महारक्ये बदले उद्धारक वन जाएगा। धम शिक्षा से दृष्टि विशाल बन जाने पर मनुष्य प्रत्यर प्रवृत्ति उच्च पोटि के विवेक ये प्रकाश मे करेगा। वह खाने पीने के समय सोचेगा कि मेरा खान-पान दूसरो को भूखा मारने वाना तो नहीं है मेरा वभव विसी कोदरिद्र बनाने या यारण तो नही है ? वहयावश्यर वस्तुमोबाही मर्यादित उपयोग बरेगा, अनथ दह नहीं य रैगा, निरयन वस्तुमा के संग्रह से दूर । इरावे प्रतिरिक्त, जिन वस्तुमा के उपयोग से जीवन म अनतियता, मालस्य, अपमण्यता और विषमता पी वद्धि होती है, उच-नीच की भ्राति कोप्रथय मिलता है, उहें वह न म्परा ही करेगा और 7 उनका उपयोग परिवार को हो परने देगा। इस प्रकार ए परिवार ये सस्वारी हा जाने पर घोरे पीरे उसरा प्रभाव समाज में फ्लेगा। विमान ी भांति भांति के यत्रो का निर्माण पर मनुष्य को सुसगोल वनात हा वकारी वो भी उत्तेजन दिया है । धम शिला प्राप्त विवेकशील मनुप्य पत्र के प्रयोग में पूरी मर्यादा पार चलगा। जब वह देरोगा कि विसी यत्र के प्रयोग ग बारी पड़ रही है, हमारा की रोजी धोनी जा रही है मोर ग प्रकार हिंगा को प्रोलान मिल रहा है, तो वह उमरा प्रयाग ही क्यों करेगा? साय हो जिन यत्रों में मानव में पालम्य और मरमप्यना पासमार होना हो, गुबुमारता मौरसतानो बढ़तीहा, उारे द्वारा उत्पादित वस्तुपो पा उपयाग या उपभाग परन म धामा दृष्टि-महिंगम दृष्टि समन पवित भयप हिमनगा। वह यतिष्ठा सोही घाटेगातया प्रपन गरीब गाईपापी माजीविषामो धोने या प्रयत नहीं परगा। समाज में Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 आधुनिक विज्ञान और अहिंमा आज धनिक और निर्धन के बीच जो गहरी खाई विद्यमान है और उसके कारण जो विषमता बढी हुई है, अनैतिकता, धूनखोरी, चोरी आदि पाप बढ़ते जा रहे है, सही अर्थ में धर्मनिष्ठ व्यक्ति उन्हें नहन नहीं करेगा। वह ग्रामोद्योग-निप्पन्न वस्तुयो का उपयोग करेगा, जिससे गरीबों को रोटी-रोजी मिले, वे भूखे न मरे, उनका गोषण न हो, महारंभी (यन्त्रोत्सन) वन्तुयो को सस्ती देखकर वह अपने अहिनक विवेक को ओझल नहीं होने देगा। वह महाहिना के द्वार पर नहीं जायेगा। अाज नही तरीके की धर्म-निक्षा न मिलने और धर्म पालन में विवेक न होने के कारण प्राय. प्रत्येक धर्म के लोग अहिंसा को स्वीकार करते हुए भी ऐसे पदार्थों का उपयोग करते है जो फैगन, विलास, वेकारी और आलस्य बढ़ाने वाले है, सादगी और संयम को नप्त करने वाले हैं। किन्तु जहाँ मूल में ही अवर्म है, वहाँ धर्म और धर्म के फल की क्या आशा की जा सकती है ? ___ अतएव यंत्रो से निप्पन्न प्रत्येक वस्तु का उपयोग करने से पूर्व अहिंसाव्रती को विवेक करना होगा । तभी अहिंसा की शक्ति वढेगी। केवल 'अहिंसा परमो धर्मः' का नारा लगाने से,अहिंसा भगवती की मूर्ति बनाकर पूज लेने से या अहिंसा के उपदेश की स्तुति अथवा पूजा कर लेने मात्र से अहिमा की शक्ति नहीं बढ सकती। शुष्क चर्चा निरर्थक है । अहिंसा भोवपीठ बनाकर उसकी गोध नहीं की जा सकती। जीवन व्यवहार के द्वारा ही उसकी प्रतिष्ठा हो सकती है। इस प्रकार यदि समाज के विभिन्न क्षेत्रों मे हो रही महाहिंसा की रोकथाम की गई और नवीन-नवीन अहिंसा के प्रयोग जारी रखे गये तो अहिंसा की शक्ति बढ़ेगी, इसमे कोई संदेह नहीं । अहिंसा की गक्ति वड़ने पर ही मानव जाति की संजीवनी शक्ति बढ़ेगी। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौंतीस सामूहिक अहिंसा के अभिनव प्रयोग प्राचीन काल में कुछ अपवादा को छोडकर, अहिंसा के प्रयोग प्राय ___ व्यक्तिगत हुए हैं किन्तु महात्मा गाधी 1, भगवान महावीर, महात्मा बुद्ध और ईसा ममोह प्रादि महापुरषो द्वारा प्रतिपादित महिमा कामथन करने अनेक सामूहिक प्रयोग कर बताय थे । अतएव अाज अहिमा के सामूहिक प्रयोग पठिन नहीं हैं। विनान प्राज वदी तेजी म छलांग मार रहा है और इस कारण विश्व अत्यन्त छोटा बन गया है। वनानिक मुविधामा के कारण प्राज एवं देश का मानव दूसरे देश के मानब से अधिक दूर नहीं मालूम होता । अतएव अहिंसा की गति भी तीन करनी होगी। निष्ठापूवव सामूमि प्रयोग ही हिंमा की गति मे तीव्रता ला सरते हैं और उसे अधिर क्षमतावान् या सरते हैं। प्राचीन काल मे तीव्र वेगी वज्ञानिव माधन न होने से एक देश से दूसरे देश तप मवाद पहुंचाने में महीना लग जाते थे, वप भी व्यतीत हो जाते । अतएव एक देश की घटना का प्रभाव दूसर देश पर नगम्य-गा होता था। परन्तु आज यह बात नहीं रही। प्राज एवं देश को गतिविधि पा प्रभाव दूसरे देगा पर तसाल पडना है। हिमप प्रभाव उत्पन रन वाली घटनाएँ वठी तजी मे पंचती हैं । अहिमा की गति वेगवान नहाने से उसका प्रभाव बहुत बम होता है । अतएव यह प्रत्यावश्या है कि महिंसा वी गति को बढ़ाया जाय और उममा उपाय है सामाजिक जीवन के विभिन क्षेत्रा म महिसा का अधिक से अधिक प्रयोग वग्ना। किमी भी समाज या राष्ट्र म परिपतन लाने के लिए तीन बातो की पारपाता होती है। हृदय-परिपतन, विचार-पग्वितन पोर परिस्थिनि-परिवतन। माज के विमान से प्रभावित मगार में परिवतन साने के लिए तथा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान और ग्रहिसा समाज की अर्थ- प्रधान और भौतिक दृष्टि बदलने के लिए हमे श्रहिसा का ही सहारा लेना पड़ेगा। मार-काट, वलात्कार, दड या अत्यधिक दबाव द्वारा समाज में परिवर्तन का क्षणिक प्राभास हो सकता है, परन्तु वास्तविक या स्थायी परिवर्तन नही आता । समाज मे स्थायी परिवर्तन लाने के लिए हमे अहिसा के माध्यम से उपर्युक्त त्रिपुटी को अपनाना होगा । विचारक्रान्ति द्वारा पहले व्यक्ति के हृदय में परिवर्तन होगा, शनै गर्नः व्यापक रूप से उन विचारो के फैल जाने पर समाज का विचार परिवर्तन होगा | फिर भी सारा समाज उन विचारो के अनुसार व्यवहार नही करने लगेगा । उसके लिए परिस्थिति मे परिवर्तन लाना आवश्यक होगा । परिस्थिति परिवर्तन के लिए अहिंसा के दो प्रकार के प्रयोग करने होगे —— प्रतिकारात्मक और विधेयात्मक । इन दोनों प्रकार के प्रयोगों मे हिंसा भगवती के दोनो चरणो— सयम और तप का उपयोग होगा । तभी परिस्थिति मे परिवर्तन होगा और अन्त मे सरकारी कानून भी उस पर अपनी मुहर लगाने आ जाएगा। एक उदाहरण से हमारा भाव स्पष्ट हो सकेगा । 154 मान लीजिए, किसी गाँव मे 20 बुनकर परिवार है । वे बुनाई का धन्धा करते है | परन्तु मिल का कपड़ा गाँव मे फैल जाने से उनका व्यवसाय ठप हो गया है । वे वेकार और वेरोजगार हो रहे है । ऐसी स्थिति मे ग्राम के ग्रहिंसा प्रेमी विचारक ग्रामवासियो को अपने अहिंसा सम्बन्धी विचार समझाएँगे । कहेगे मिल के वने वस्त्र खरीदकर गाँव के लोगो को भूखा मारना हिंसा है । ग्रहिसा इसी मे है कि ग्राप बुनकर भाइयो के हाथ के वने वस्त्र ही खरीदे, फिर भले ही वे महँगे ही क्यो न हो । 1 यह विचार उनके गले तक तो उतर जाएगा परन्तु प्रार्थिक पहलू और सामाजिक प्रतिष्ठा उनमें से बहुतो को तदनुसार व्यवहार करने से रोकेगी । किन्तु जिनका हृदय परिवर्तन हो चुका है और जो अहिसा के महत्त्व को समझ चुके है वे निष्क्रिय होकर नही बैठेगे । वे ग्राम सभा मे अपने विचार प्रस्तुत करेंगे । सभा इस वात को स्वीकार करेगी और उसकी स्वीकृति नियम का रूप धारण कर लेगी। अगर कोई उस नियम को भी चुनौती देगा और प्रेमपूर्वक समझाने पर भी नहीं मानेगा तो ग्रहिंसक शुद्धिप्रयोग Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 155 सामूहिक हिंसा के अभिनव प्रयोग किया जाएगा। इससे उस भाई का भी हृदय परिवर्तन हो जाएगा और वह सही रास्ते पर या जाएगा। इस प्रकार एक गाँव मे परिस्थिति परिवर्तन होने पर कई गाँवो पर उसका असर होगा और अन्तत सम्पूर्ण प्रदेश को फिजों ही बदल जाएगी । इस पद्धति से सारे समाज और राष्ट्र में, यहा तब पि अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी परिस्थिति परिवर्तन लाया जा सकता है । घर मे थोडी गटपट होती है तो क्या उसके निपटारे के लिए यायालय वी शरण ली जाती है ? परिवार के गुत्थियाँ उण्डो से नही सुलभाई जाती और न बावचात मे अदालत के द्वार खटखटाय जाते हैं । तो जिस प्रकार परिवार की उलभनो को सुलझाने के लिए अहिंसात्मक प्रयोग विये जाते हैं, वस ही ग्राम, नगर, प्राप्त और राष्ट, समाज एव विश्व यो समस्याग्रो ये समाधान के लिए भी किया जा सकता है | भाज अन्तर्राष्ट्रीय विवाद तक सुलभान म अहिमन प्रयोग सफल हो गया है । सयुक्त राष्ट मघ इसका जीता जागता प्रमाण है, जिसने कई विवाद प्रापणी समभीते से निपटाये हैं । -- अतएव विवाद, सघप, बलह और कोई भी समस्या सुनभाने के लिए सर्व प्रथम कदम है— समभाना, बुभाना, पास बठकर वार्तालाप करना । इस प्रकार पारस्परिक समझौता हो जान से दो वद लाभ होते हैं। प्रथम, यह कि विवाद की परम्परा प्राग नही बढती, जिससे मानसिक हिंसा से बचाव हो जाता है, दानो पा में श्रान्तरिय शान्ति हो जाती है। दूसरे, गुपदम बाजी में होनवाली हैरानी, परेशानी और फिजूल खर्ची से मनुष्य वच जाता है । इस भाग का मदम है-मध्यस्थ या पच वा निर्वाचन | अगर पारस्परिय यातनाप और समझौते ने मामला न सुलभता हो ता निष्पक्ष और सदा पचा को नियुक्ति की जानी चाहिए और उगवा निर्णय दाना पता को मान्य होना चाहिए। नान्य यह है कि व्यक्ति-व्यक्ति बीच, व्यक्ति और समाज के बीच इसी प्रकार राष्ट राष्ट्र के बीच मी भी विषय मकाई भी वह विवाद यागधप उपस्थित हान पर महिमात्मव प्रयोगास लाभ उठाना चाहिए। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याधुनिक विज्ञान और हिंसा लेकिन यह विश्वास करने का कोई कारण नहीं है कि प्रत्येक पक्ष मदा सर्वदा पचनिर्णय को स्वीकार कर ही लेगा । जब ऐसी स्थिति मामने ग्राए तो पचनिर्णय से श्रागे का कदम उठाना होगा और वह होगा सत्याग्रहप्रयोग और शुद्धि प्रयोग । 156 जब किसी विचार धारा का सामूहिक रूप से प्रचार करके उसे क्रियान्वित कराना होता है प्रथवा किसी पर ग्रन्याय प्रत्याचार करके कोई व्यक्ति मव्यस्थ के निर्णय को स्वीकार करने को तैयार नही होता है, तव हिंसक शुद्धि प्रयोग अनिवार्य हो जाता है । ग्रमिक शुद्धि-प्रयोग की अनिवार्य शर्त यह है कि दोषी व्यक्ति के प्रति किसी प्रकार का द्वेष, क्रोध या उसे नीचे दिखाने का ग्राशय न हो । केवल उसकी ग्रात्मा पर आये हुए स्वायं के प्रावरणों को दूर करने के पुनीत हेतु से, उसके हृदय को निर्मल बनाने के लिए, उसकी अन्तरात्मा के साथ अपनी ग्रात्मा का सम्बन्ध स्थापित करने के लिए और इस प्रकार उसके विवेक को जागृत करने की पवित्र और शुद्ध भावना से 'श्रात्मवत् सर्वभूतेषु' की दृष्टि से स्वय, तप, त्याग, करना चाहिए । वातावरण को जगाने के लिए सहायक उपवासियो के द्वारा भी उपवास किया जाता है तथा प्रार्थना, घुन, प्रवचन, प्रभातफेरी ग्रादि उपायो द्वारा भी समाज का ध्यान उक्त विचारधारा या वस्तु की ओर केन्द्रित किया जाता है । समाज के बहुभाग जनो की सहानुभूति उस विचार के पक्ष मे जागृत करनी होती है, तव दोषी व्यक्ति, समूह या समाज का हृदय हिल उठता है । उसके हृदय में न्याय सगत विचार उत्पन्न होता है, उसका विवेक ग्रगडाई लेता है और वह न्याय्य पथ पर या जाता है । गाधी युगीन विज्ञों ने सत्याग्रह के चार विभाग किये हैं- ( १ ) सविनय असहयोग, (२) सविनय कानून भग, (३) पिर्केटिंग और (४) वैयक्तिक उपवास । गाधीजी ने ब्रिटिश शासन काल मे सत्याग्रह - का कई वार प्रयोग किया और सफलता भी प्राप्त की । उस समय विदेशी राज्य था और कानून के निर्माण मे जनता की सम्मति नही ली जाती थी । इस कारण कानून-भंग भी न्यायसंगत था, लेकिन आज भारत मे लोकतत्रीय राज्य है और प्रजा के बहुमत के आधार पर कानून वनाये जाते है, अतएव अव सत्याग्रह में कानून भग को स्थान नही दिया जा सकता । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामूहिक अहिमा वे अभिनव प्रयोग 157 पिकटिंग भी अहिंसक और सौम्य हाना चाहिए । तोड फोड, मारपीट, या गाली गलौज आदि झिापूण कायवाहिया शतानी पद्धतियां हैं। सत्या ग्रह या शुद्धि प्रयोग मे इसके लिए कोई अवकाश नहीं है । इसी प्रकार द्वेप वश किसी को काले झंडे दिखलाना, अपमानित करना या हिसोत्तेजक अन्य प्रवृत्ति करना सत्याग्रह की आत्मा का हनन करना है। आधुनिक युग में शस्त्रास्त्र बहुत बढ़ गय है । विज्ञान नये नय तेज और सहारव शस्त्र निर्माण कर रहा है। अतएव जव विसी राष्ट्र मे, नगर में या प्रान्त मे या किसी विशेप को लेकर सघप होता है तो वह दंगे का रूप ले लेता है । लोग तुरन्त शस्त्रो से पात्रमण करने पर उतारू हो जाते हैं । अहिंसर'ममाज रचना के लिए यह ठीक नहीं। ऐसे समय मे नागखिो मे उत्तेजना फरजाती है और वे शात्ति के लिए पुलिस की सहायता लेते हैं । पुलिस आती है और भीद को बेकाबू देखती है ता लाठी, गोली, नथुगम, बदू आदि का प्रयोग करती है । एसे अवसर पर अहिंसव लोगा का क्त्तव्य है कि वे शानि सनिव बनवर, निभयतापूर्वक, अहिंसक ढग से, हृदय की सद्भावना को ही सवल स्त्र वनावर दगाइयो को प्रेम से समभावें और गात करें। अगर दो विरोधी पक्षा मे से कोई पक्ष उन पर प्रारमण करता है, मार पीट करता है, लाठी का प्रहार करता है या प्रय कोई हिसापूण हरक्त करता है तो नाति से मन कर ! कदाचिन प्रेमपूर्वक समझाते-समझात प्राणो पर प्रा पन तो सहप प्राण देने में भी सकाच करें। __ऐसे हिमावीर मर पर भी अमर हो जान है । उनको अहिंसा का प्रभाव दगाझ्या ये हृदय का बदन देता है और उनकी बलि कभी निग्यक नहीं जाती। पर ऐमे गान्ति सनिका की मेना व्यवस्थित म्प में तालीम पाई हुई पहले से ही तयार हानी चाहिए, तभी वह एन मौके पर अपने उद्देश्य म सफलता प्राप्त बरसपत्ती है। प्राचाय विनोबा जी और श्री सन्त घालजी ने इस प्रकार की नाति सेना तयार की है जो अनेक प्रमगो पर सफर हुई है । इस सना का प्रयोग सभी प्रकार के दगा के अवसर पर किया जा साता है। सामा य दगा का इस प्रकार हिसर प्रतिकार किया जा मरता है, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा किन्तु बड़े-बड़े युद्धो का, जिनमे करोड़ों की जान जाती है, लाखों बीमार और अपाहिज हो जाते हैं, धन-सम्पत्ति की अपार क्षति होती है, किस प्रकार प्रतिकार किया जा सकता है ? यह एक विकट समस्या है। परन्तु यह निश्चय है कि हिंसा की अपेक्षा अहिंसा अधिक क्षमतामालिनी है / अतएव उन से उग्र और प्रचण्ड से प्रचण्ड हिसा का भी अहिंसा से मुकावला किया जा सकता है। पर यह ध्यान रखना होगा कि औषध रोग के मुकाबले अधिक उग्र हो। अगर विश्व के प्रत्येक राष्ट्र मे निष्ठावान् गाति-सनिक पर्याप्त संख्या मे फैले होगे तो वे महायुद्धो पर भी विजय प्राप्त कर सकेंगे। उनके गांति प्रयास ऐसे युद्धो की भूमिका ही निर्मित न होने देगे। इसके लिए वे बड़े से वडा कप्ट झेलने को तत्पर होगे और जव यह होगा तभी समग्र विश्व मे अहिंसा की विजय वैजयन्ती फहराएगी / अहिंसा के भक्त ऐसे नाजुक प्रसंग पर सोते रहे तो अहिसा की शक्ति कैसे चमकेगी ? हिन्दुस्तान मे हुई शांति परिपद् मे हेनरी चक्रसंचुटजी नामक एक जर्मन प्रतिनिधि भी आया था। वह युद्ध का प्रवल विरोधी था और इसी कारण उसे अनेक मुसीवते झेलनी पड़ी। सन् 1922 मे उसे इसा अपराध मे 30 वर्ष की सजा हुई, मगर किसी कारण वह बीच मे ही सन् 1945 में छोड दिया गया / इस प्रकार अहिसा सिद्धान्त के लिए वह सभी कष्ट झेलता रहा। ___ ईसाइयो में क्वेकर नामक सम्प्रदाय के अनुयायी बडे शांतिवादी होते है। वे अहिंसा मे गहरी आस्था रखते है और शाकाहारी होते है / सन् 1940 में जब जापान और रूस के वीच संग्राम छिड़ा तो उन्हे सेना में भर्ती होने को विवश किया गया किन्तु नरसंहारक युद्ध उनके सिद्धान्त के विरुद्ध था। उन्होने साफ इन्कार कर दिया। कई लोगो को मृत्यु-दड भोगना पड़ा। कहते है, उनमे से कुछ लोग टाल्स्टाय की सहायता से अमेरिका में जा बसे और वहाँ खेती करके निर्वाह करने लगे, लेकिन अपने सिद्धान्त से विचलित न हुए। अगर अहिसा पालन के लिए सभी राष्ट्रो मे इस प्रकार तपस्या करने की क्षमता या जाए तो युद्धो का निवारण करना क्या कठिन वात है ? अणु-अस्त्र प्रयोग और परीक्षण के विरुद्ध भी सक्रिय अहिंसात्मक प्रतिकार किया जा सकता है। मगर इस प्रकार के प्रतिकार के लिए संगठित Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामूहिक अहिमा वे अभिनव प्रयोग 159 प्रयल होना चाहिए। अय देशा का लोक्मत भी तैयार करना चाहिए। अहिंसा के पक्ष म सघन वातावरण का निर्माण होना चाहिए। ऐसा होने पर अवश्य ही अहिंमा हिमा पर विजय प्राप्त कर सकेगी।