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रहेगा या नहीं - यह प्रश्न हे !
ग्रहिसा मानवीय व्यवस्थित जीवन पद्धति का ग्रालोकपूर्ण पथ है । सर्वागीण जीवन के सहग्रस्तित्व के आधार पर किए जाने वाले विकास को आलोकित करती हैं । मानव मे ऋजुता उत्पन्न कर समत्व की साधना की र सकेत कर प्राणी मात्र का सर्वोदय ही इसका मुख्य लक्ष्य है। विज्ञान पर भी हिंसा का कुछ ग्रव तो परिस्थितिजन्य विषम वातावरण को देखते हुए अनिवार्य - सा प्रतीत होने लगा है। पारस्परिक निर्वैरभाव जगत को अहिसा की साधना ही वल प्रदान कर मानव को मानव के नाते जीवित रहने की प्रेरणा देती है । संस्कृति और सभ्यता का वास्तविक विकास अहिंसा और विज्ञान के समन्वयात्मक सुख प्रयत्नो पर निर्भर है ।
प्रस्तुत कृति मे यथामति विज्ञान की श्रावश्यकता, लाभालाभ और इस की सर्वोत्तम परिणति ग्रादि विषयो पर सक्षेप मे प्रकाश डालने का प्रयत्न कर मानव काम्य तत्त्वो के प्रति ध्यान आकृष्ट करने का प्रयत्न किया गया है । यह विज्ञान के सामान्य बोधगम्य तथ्यो का एक प्रकार से सकलन-सा है ।
प्रस्तुत कृति के प्रथम प्रेरक सर्वोदयी सत श्री नेमीचन्द जी है, जिन्होने मुझे उत्साहित करते हुए सुझाया कि अहिसा के ग्रालोक मे विज्ञान पर मै कुछ लिखूँ । परिणाम प्रापके सम्मुख है । उन्होने इसके सपादन के लिए जो श्रम किया है, तदर्थ किन गब्दो मे कृतज्ञता व्यक्त करूं ।
जब 1960 का व्यावर का वर्षावास समाप्त कर उदयपुर पहुँचने पर मुनिश्री कातिसागर जी का समागम हुआ, प्रस्तुत कृति अवलोकनार्थ उन्हें दी गई । ग्रापने इसकी उपयोगिता को देखकर भाषा विषयक आवश्यक सपादनार्थ सुझाव प्रेपित किये। मुझे भी जँचा कि सचमुच कुछ ग्रावश्यक और भी परिवर्तन करने पर कृति मे निखार आ जायेगा । यह परम सौभाग्य है कि मुनिश्री ने इसके सपादन व श्रावश्यक परिवर्तन-परिवर्द्धन का दायित्व स्वीकार कर लिया, साथ ही चार शब्द भी लिखकर जो अनुग्रह किया है, वह शब्दातीत है ।
सर्वप्रथम मै सद्गुरुवर्य श्रद्धेय मंत्री श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के ति कृतज्ञता प्रकट करना चाहूँगा कि उन्ही की प्रवल प्रेरणा और दिशा