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क्षणिक मुख सष्टि कर उनति की श्राभा दिखला दे पर न तो यह स्थायी है श्री न चिर शान्ति वा प्रतीक ही । चिराचरित साधना द्वारा प्राप्त वस्तु देश की ऐसी सम्पत्ति होनी चाहिए, जिसका विनिमय वृद्धि की चार सवेत करता हो ।
शक्ति के स्रोत को तब ही समुचित स्थान प्राप्त हो सकता है जब उनके वहन की क्षमता उस पृष्ठभूमि में विद्यमान हो । अत्यधिक शक्ति मचम उचित उपयोग के प्रभाव म साध पैदा कर देता है । विवास ग्रव बाग चाहता है । मनुष्य ऐसा मानता है कि आज वह उन्नति और विकास की सर्वोच्च सीमा पर पहुँच गया है। हाँ, इसम बोई नही कि पूर्वापया श्राज वह प्रकृति का दासत्व उतना स्वीकार नहीं करता जितना विगत ताब्दिमा का मानव करता आया है । पूणता केवल इतनी ही ह ि ग्राज वहिदष्टिमूलर जीवन पद्धति के परिणामस्वरूप वह प्राध्यात्मिक जागरण के उज्जस्वल पथ को विम्मत किये हुए है। उसका मानस ज्ञानविमान के प्रति वटा उदार है। वह प्रत्यक वस्तु को तक वो कमाटी पर वसन वा अभ्यस्त हो चुका है । पर विनम्र शब्दो मे कहना चाहूँगा कि आचार निहीन नान सत्य के प्रति प्रागे बढने में बाधा उपस्थित करता है । और न ससार की सभी वस्तुएँ तक्गम्य है । मत्योपल ध के लिए गहन अनु भन, विचार, भाषा और सर्वोकृष्ट भाव शुद्धि श्रपक्षित है और वह सस्कृनिनिष्ठ श्रयात्मिक परम्परा के विकास द्वारा ही सम्भव है जिसका मूल आधार अहिंसा है ।
श्रहमा भारतीय मस्कृति का श्रात्मा है । वयक्तिक, सामाजिक यार राष्ट्रीय जीवन का शाश्वत विकास अहिमा की सफन साधना पर ही यव लम्मित है । जिम प्रकार अहिंसा तरन द्वारा आध्यात्मिन पृष्ठभूमि का पोषण होता है उसी प्रकार जीवन का भौतिक क्षेत्र भी सतुलित रह मक्ता है । कहने की शायद ही आवश्यकता रहती है कि वह केवल प्रातरिख जगन के उन तक भी सीमित नहीं है अपितु राजनीतिक क्षेत्र तक म इसी प्रतिष्ठा निर्विवाद प्रमाणित हो चुकी है। भयात्रान्त मानव श्रहमा की श्रोर दष्टि गाय हुए है। विधान के विकास वा खूब अनुभव हो चुका है । श्रप वह पुन लोटवर देखना चाहता है कि हम ऐसे तत्व की आवश्य