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आधुनिक विज्ञान और अहिंसा बग कवि की वाणी मे--"याज की सभ्यता के शरीर पर तो मखमल की बनी हुई चिकनी पोगाक है मगर उसके नीचे अस्त्र-शस्त्रो के क्षत चिह्न के
हुए है।"
आज का मानव भले ही अपने को सन्य या अति सभ्य मान रहा हो, पर अपने जीवन में वह संस्कृतिमूलक सभ्यता को कहाँ तक स्थान देता है यह सचमुच विचारणीय है। 'सभायां सावुः सभ्यः', जो सभा में बैठने योग्य हो, सज्जन हो, वही सभ्य है। इस कसौटी पर शायद ही कोई राष्ट्र खरा उतरे, जो हिंसा-लिप्त है। सभ्यता का तात्पर्य केवल वाह्य दृष्टि से धवल वसन, साधारण मिप्ट सभापण और वाक्पटुता ही नहीं है, अपितु प्रत्येक प्राणी के साथ सुकुमार व्यवहार और उसका यथेप्ट विकास ही है और वह अहिंसा द्वारा ही सम्भव है । एक तक यह भी दिया जाता है कि महात्मा वुद्ध और भगवान् महावीर जैसे महात्माग्री ने अपनी कठोर जीवन की साधना के बाद जो उपदेश दिया उसते कौन-सी हिंसक वृत्ति जगत से समाप्त हो गई? उनके समय में भी तो धर्म और संस्कृति के नाम पर भयकर हिंसाएँ प्रचलित थी। पर यह कोई तर्क नहीं है, क्योकि संमार मे कॉटे सर्वत्र विखरे हुए है, जो इनसे बचना चाहे, पदवाण की व्यवस्था कर ले। ससार सही विचारधारापो का केन्द्र रहा है । संसार के कई मसले अहिंसा के द्वारा हल हुए हैं । नादिरशाह, चगेजखां, हिटलर और कस, दुर्योधन तथा रावण द्वारा अपनाये गये घोर हिंसात्मक मार्ग से कोई समस्या सुलझी हो ऐसा अनुभव नही है । हिटलर के अप्रत्याशित याक्रमण से भी कोई राष्ट्र स्वेच्छया अपनी भूमि देने को तैयार नहीं था, पर ४० करोड़ जनता के अहिंसात्मक आन्दोलन के समक्ष ब्रिटिश राजसत्ता को नतमस्तक होना पड़ा । अतः स्वाधीनता प्राप्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अहिंसा कतई अव्यावहारिक नहीं है । सेना पर किया जानेवाला विपुल व्यय अहिंसा के प्रयोगो पर किया जाए तो निस्सन्देह व्यक्ति समाज और राष्ट्र के लिए श्रेयस्कर हो सकता है। विश्व वन्धुत्व की सृष्टि हो सकती है, मारने की अपेक्षा, वीरत्व के साथ मरना कही ज्यादा अच्छा है। हिंसा साम्राज्यवाद 1. सभ्यतार अंगे राखा मखमलेर चिकण पोशाक ।
वीचे तार वर्म्य दाका, अस्त्र आर शस्त्र क्षत पाग ||