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________________ सोलह विज्ञान के नये उच्छ्वास माना हा क्या, प्राणीमान म जिजीविषा और विजिगीषा मुख्यत दो वृत्तियां फायशील है। पथात् जीन की और जीतन की इच्छा। दोषकाल तक जीन को और ऐश्वयपूर्वक दूसरो पर आधिपत्य जमाने की स्वाभाविप इच्छा मनुष्य में पाई जाती है । जोन की इच्छा ही जीतन की इच्छा को प्रात्साहन देती है। स्वल्प जीवन के लिए मनुष्य प्राकाश, पाताल एक करता है। समस्त यज्ञानिक प्राविकार दीर्घकाल तक सुखपूर्वक जीवन यापन के परिणाम हैं । मनुष्य दोष और व्यापक दृष्टि का त्याग कर जब पेवल अपनी निकटवर्ती दुनिया को समीण प म सोचता है तब उसने सम्मुस ससार को मन्य गिदगियों नगण्य मातुम हाती हैं। जीवन की पापागा सभी का होती है, पर वह मात्रामर न होनी चाहिए । स्वजीवन कालिए प्रन्या ट पहुँचाना हिमा है । भले ही कभी-कभी परिस्थिति का इसमें सफलता प्राप्त हो नी जाय, पर यह परम्परा प्रशम्य नहीं। अनादिकम इन दा मुस्य वृत्तिया को लेकर नष्टि के रहस्या की सोज के लिए मानर प्रयत्नशील है। शताब्दिया के श्रम म जल मोर याम का अपना अनुचर बनाएर उनरा उपयोग पाराम के लिए पिया। प्रटारहवी शताब्दी तक भाप दौर-सौरा रहा रिन्तु उन्नीरावी नदी म इसरा स्थान विद्युत्न प्रहण पर लिया पोर मानवीय जीवन का वह एक प्रग बनाई। पाय तोगनि मायाति मिली । मनुष्य प्रातो गुला के लिए पधिा गावधान रहन लगा । वो का पाप घटा म पूण होन पर ना मानव मशान्त था। नित नवान पनि उमरे हृदय-मन्दिर में भारपण मौर निजागा की स्पानि जनता हो रही । पुरुपाय जारी रहा, परिणामस्वरूप पशु तर उमलो पाप बुद्धि पहुँच गः । अणु मी नाप न मावा गरों मत बना दिया। उन अनुभव रिमा पिपिय की प्रतुल सम्पत्ति
SR No.010855
Book TitleAadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
PublisherAtmaram and Sons
Publication Year1962
Total Pages153
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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