Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 145
________________ 150 याधुनिक विज्ञान और अहिंसा कैसे रुकेंगे। आज के प्रगतिशील युग मे इसका विस्तृत उत्तर देने की अपेक्षा इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि महात्म गाधी ने हिंसा के प्रयोगो द्वारा 40 करोड़ जनता को वर्षों की पराधीनता के बाद स्वाधीनता का अनुगामी बनाया, जबकि इनके समक्ष भी गासन द्वारा हिसात्मक प्रयोग कम नही किये गए | तथापि श्रहिना द्वारा प्राप्त ग्रात्मवल का राजनैतिक प्रयोग कितना सफल रहा यह कहने की बात नही है, जनता-जनार्दन ने स्वयं अनुभव किया है | गावी युग की स्वाधीनता की देन तो चिरस्मरणीय घटना है ही पर इससे भी अधिक गाधी के दर्शन से स्वभावत. जो श्रमात्मक वायु मण्डल की विश्वव्यापी सृष्टि हुई है वह अधिक मूल्यवान है। उनकी राजनीतिक श्रहिंसा ने कम से कम ऐसी स्थिति तो उत्पन्न कर ही दी है कि आज हमे सा और उसकी समर्थ शक्ति के लिए विश्व को अधिक समझाने की श्रावश्यकता नही है । जहाँ कार्य शक्ति प्रत्यक्ष रूप से साकार खड़ी है, वहां वाणी को विकसित करने की विशेष ग्रावश्यकता नही रह जाती। हिंसा की रोकथाम के लिए और साथ ही ग्राहसा की शक्ति को बढाने के लिए प्रथम उपाय है— धार्मिक और ग्राध्यात्मिक शिक्षा का प्रसार । इस शिक्षा का अभिप्राय किसी सम्प्रदाय या पथ के अमुक ग्रन्थों को रट लेना नही, वरन् धर्म के उन उदार, उदात्त और दिव्य सिद्धान्तों से परिचित और अभ्यस्त होना है, जिनसे व्यक्ति, व्यक्ति न रहकर विशाल विश्व वनता है । उसका 'अहं' संकीर्ण दायरे से बाहर निकलकर भूत-मात्र मे परिव्याप्त हो जाता है । व्यक्ति की सवेदना, करुणा और सहानुभूति चींटी से लेकर कुजर तक फैल जाती है । मनुष्य का दृष्टिकोण निर्मल और श्रेयोगामी बनता है । इस प्रकार की धर्मशिक्षा मानव को बाल्यकाल से ही मिलनी चाहिए, ताकि विज्ञान का उपयोग करते समय वह हिताहित में विवेक रख सके, कार्याकार्य की छंटनी कर सके, उसके पास उचित अनुचित के निर्णय की एक अभ्रान्त कसौटी हो और वह अहिंसा को प्रोत्साहन देने वाले पदार्थों के अतिरिक्त प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिंसावर्द्धक पदार्थों को कतई न अपनाए । धर्म-शिक्षा विभिन्न मत-पथो मे प्रचलित निष्प्राण रूढियों को समझ लेना नही है । जीवन और उसके वास्तविक ध्येय की पहचान इसी शिक्षा से

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