Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 139
________________ 144 आधुनिक विज्ञान और अहिंसा समभाव । अहिसा का उक्त सभी व्याख्यानो मे दया और करुणा का सागर उमड़ रहा है। प्राय. सभी व्याख्याकारो ने यही बतलाया है कि मन से, वचन से और कर्म से प्राणी को कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है । सूक्ष्म से लेकर स्थूल तक सभी जीवो के प्रति मैत्रीभाव रखना अहिसा है। ___ अहिसा हमे सदा से 'मात्मवत् सर्वभूतेषु' का पाठ सिखलाती रही है। दूसरो द्वारा किये जाने वाले जिस व्यवहार को तुम अपने लिए उचित नहीं समझते वह व्यवहार दूसरो के प्रति करना भी अनुचित है। अपने प्रति किये गये जिस कार्य से तुम्हे पीड़ा पहुँचती है, समझ लो तुम्हारा वैसा कार्य भी दूसरो को पीडा पहुंचाता है। इस प्रकार शान्त मस्तिष्क से न्यायपूर्ण चितन करने पर स्वत हिसा-अहिसा का स्वरूप समझ मे पा जाता है। हिसा-अहिंसा का मानदण्ड अधिक शास्त्रीय भाषा मे हिसा-अहिसा का स्वरूप दर्शाने के लिए प्रतिभासम्पन्न प्राचार्य अमृतचन्द ने कहा है कि कलुपित भावो का प्रादुर्भाव न होना अहिसा है और कलुपित भावो का उद्गम हिंसा है। अहिसा का विपरीत पक्ष ही हिसा है । अहिंसा शब्द से ही हिसा का अपने-आप निरोध हो जाता । आचार्य हरिभद्र के विचारो मे तो आत्मा ही अहिसा है और आत्मा ही हिसा है । अप्रमत्त आत्मा अहिसक है और प्रमादयुक्त जो आत्मा है वह हिसक है । प्रमाद मे हिसा का अधकार है किन्तु अप्रमाद मे अहिंसा का जगमगाता प्रकाश है । यही बात आचार्य उमास्वाति के तत्वार्थ सूत्र मे गूंज रही है-- 'प्रमत्त योग से होने वाला प्राण वध हिसा है। यदि कोई सयमी साधक यतना के साथ सावधाती रखता हुआ 1. गाधी वाणी पृष्ठ 37 2. पाया चैव अहिंसा, आया हिसेति निच्छरो एस । __ जो होइ अप्पमतो, अहिसो हिसत्रो झ्यरो॥ ___~-हरिभद्रकृत अष्टक 7 श्लोक छठवी वृत्ति । 3. प्रमत्त योगात् प्राण व्यपरो पणं हिसा तत्वार्थ सूत्र, श्र078

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