Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 137
________________ बत्तीस अहिंसा का स्वरूप अहिंसा का उदय ___ अहिंसा शब्द का प्रयोग कब से और क्यो होने लगा, तथा जन-जीवन मे अहिंसा की प्रवल वेगवती भावना का उदय कव से हुआ, यह बतलाना तो असभव है । हाँ, साहित्य तथा कल्पना लोक से भले ही इसका कुछ अनुमान लगाया जा सकता है, किन्तु इसकी सुनिश्चित रूप-रेखाखोचना टेढ़ी खीर है। इतना तो हम अवश्य कहेगे कि यह अहिंसा अनादि और अनन्त है। किसी भी काल विशेष मे इसके अभाव की कल्पना नही की जा सकती। विश्व के सभी दर्शनों ने अहिंसा को प्रधानता प्रदान की है परन्तु जैन दर्शन के लिए तो अहिंसा प्राणभूत तत्त्व है । अथवा यों कहना चाहिए कि इसकी विशद व्याप्ति मे ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि सभी व्रतों का समावेश हो जाता है। धर्म का मौलिक स्वरूप अहिंसा है और सत्य आदि उसका विस्तार है। इसीलिए जैन दर्शन के एक महान् प्राचार्य ने एक स्थान पर कहा है "अवसेसा तस्स रखठ्ठा" शेष सभी व्रत अहिसा की सुरक्षा के लिए हैं। जैसे अर्थ की रक्षा के लिए तिजोरी की आवश्यकता रहती है। उसके बिना अर्थ सुरक्षित नहीं रह सकता । उसी प्रकार अहिंसारूपी धन की रक्षा के लिए इतर व्रत तिजोरी के सदृश है। साराश यह है कि अहिंसा व्रत के अतिरिक्त जो व्रत हैं वे सारे अहिंसा तत्त्व के ही पोषक है। वे उनसे कभी भी अपना अस्तित्व अलग-थलग नही कायम कर सकते । वल्कि अहिंसा भगवती के ही संरक्षण होकर रहते है । अहिंसा की परिभाषा अहिंसा का विशद स्वरूप समझने के पूर्व अहिसा क्या है, और उसकी परिभाषा क्या हो सकती है ? इसको जानना आवश्यक है । यो तो हमारे यहाँ सभी धर्मो ने अहिंसा की विभिन्न व्याख्याये की है, जिनमें एक ही स्वर

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