Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 138
________________ श्रहिमा का स्वरूप 143 लहरी गूज रही है । शार्यारत के महामानव भगवान् महावीर ने श्रहिंसा की परिभाषा इस प्रकार की हे 'प्राणी मात्र के प्रति सयम रखना हो श्रहिंसा है।'' इसी प्रकार अहिंसा की घोर भी व्याख्या प्रस्तुत करते हुए कहा है, 'मन, वचन और काया इनम से किसी एक के द्वारा किसी प्रकार के जीवो वी हिमा न हो, ऐसा व्यवहार करना ही सयमी जीवन है । ऐसे जीवन का निरतर धारण हो यहिंसा है ।" -- गौतम बुद्ध ने श्रहिंसा नी व्याख्या करते हुए इस प्रकार बतलाया है'वस या स्थावर जीवो को न मार, न मरावे और न मारनेवाले का अनुमोदन करे 18 गीता म श्रीकृष्ण की वाणी इस प्रकार प्रवाहित हुई है-'नानी पुरुष ईश्वरको गवत्र समान रूप से व्यापक हुआ देखकर हिंसा की प्रवृत्ति नही करता, क्यादि वह जानता है कि हिंमा करना खुद अपनी ही घात करने के बराबर है और इस प्रकार हृदय में शुद्ध और पूर्ण रूप मे विकसित होने पर वह उत्तम गति को प्राप्त करता है ।" * पातञ्जन योग के भाप्यवार ने बताया है कि सब प्रकार से सब काल मे भव प्राणियों के साथ श्रभिद्रोह न करना, श्रहिंसा है । " गाधीजी न हिसा की व्याख्या करते हुए लिसा है— "ग्रहमा वे माने सूक्ष्म जातुद्मा मे लेकर मनुष्य तक सभी जीवा के प्रति 1 श्रहिंसा निश्या दिस मुम्मु सनम | 2 मण निच्च दोयन्वय सिया | मयता काय कवरेय एव हवद सनए || -दरावैकालिक 6191 - दशवेकालिक 8131 3 पाये न दाने न घात येय, न घानुमन्या हनत परे । भूत निधाय ये भाग में नमनि लोरे || 4 ममपदि सव समधिनमश्वरन् । तो यानि परां गतिम् ॥ 5 महिमा मा भूनेष्वनम | -सुत निपान धम्मिक युत । - पानजत्र योग सूत्र ।

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