________________
136
याधुनिक विज्ञान और अहिंसा
शब्दाडम्बर रहित मानव की प्रान्तरिक भावभूमि मे स्पर्श रखता हो, जीवन के सौन्दर्य मे अभिवृद्धि कर अन्तर्मन को तृप्त करता हो।
आज राजनीतिक और धार्मिक मस्याएँ धर्म के मर्म से बहुत दूर या उदासीन है । धर्म की स्वेच्छिक मर्यादाएँ वोझ-मी प्रतीत होती हैं । इसलिए कि मर्यादापो के प्रति जो मानव का विशुद्ध दृष्टिकोण था वह गुप्क विज्ञान की प्रगति के कारण दिनानुदिन विलुप्त हुया जा रहा है । एक समय था धर्म को श्रद्धा के द्वारा ग्रहण किया जाता था पर आज धर्म को विज्ञान या बुद्धि द्वारा ग्राह्य तत्त्व समझा जा रहा है। जहाँ तक चिन्तन का प्रश्न है वह ठीक है कि ससार की प्रत्येक ग्राह्य वस्तु बौद्धिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रात्मस्थ की जानी चाहिए। पर वह चिन्तन और बौद्धिक चातुर्य व्यर्थ है जिससे चिन्तित तथ्य को जीवन मे साकार नही किया जा सकता । प्राचारमूलक श्रद्धान्वित ज्ञान ही वास्तविक चिन्तन का प्रतीक होता है। उत्कर्ष मूलक तथ्य केवल मानसिक जगत की वस्तु नही है, वह लोक कल्याण की वस्तु होती है । यदि मस्तिष्क द्वारा चिन्तित वैज्ञानिक तत्त्वो को अहिंसामूलक परम्परा द्वारा जीवन मे प्रस्थापित किया जाय तो निस्सन्देह इन दोनो के सामंजस्य से न केवल मानवता ही परितुष्ट होगी, अपितु भविष्य मे और भी सुखद परिणाम पा सकते हैं । शक्ति बुरी चीज नहीं है, पर शक्ति का वास्तविक रहस्य उचित प्रयोगता पर निर्भर होता है। रावण और हनुमान शक्ति सम्पन्न व्यक्ति थे। रावण के पास धर्म रहित वैज्ञानिक शक्ति थी तो हनुमान के पास धर्म संयुक्त शक्ति । रावण की शक्ति स्वार्थ साधना मे प्रयुक्त हुई तो हनुमान की शक्ति सेवा और साधना का ऐसा प्रतीक बनी कि आज भी उन्हें अविस्मरणीय कोटि मे स्थान दिया गया है। धर्ममूलक वही शक्ति स्मरणीय होती है जो सुदृढ, स्वस्थ, प्रेरणाप्रद और ऊर्ध्वस्वल परम्परा का सूत्रपात कर सके।
आज की वैज्ञानिक प्रगति की दौड़ मे मानव ने क्या-क्या पाया और क्या-क्या खोया ? इसके विवेचन का यह स्थान न होते हुए भी इतना लिखने का लोभ सवरण नहीं किया जा सकता कि ज्ञान खोकर विज्ञान पाया। श्रद्धा खोकर अभिनता पाई। प्राचार खोकर बौद्धिक क्षेत्र का