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याधुनिक विज्ञान और ग्रहिंसा
मूलक दृष्टिकोण का विकास नहीं हो जाता तब तक नैतिक दृष्टि से भी विश्वशांति की समस्या को समुचित प्रोत्साहन नही मिलता । मनुष्य स्वेच्छया अपनी इच्छाओ को जब तकं वश में नहीं करता तब तक किसी भी प्रकार के संकट कालिक अवसरो का मुकावला नही किया जा सकता । भारतीय संस्कृति का तो यह ग्रमर स्वर रहा है कि राष्ट्रीय चरित्र व नैतिकता का प्रेरणास्पद विकास तभी संभव है जब व्यक्ति का जीवन आदर्शमूलक, नैतिक परम्पराम्रो से श्रोत-प्रोत हो । जब तक व्यक्ति मे श्रात्मिक शांति का उद्भव न होगा तवतक समाज और राष्ट्र में शांति की स्रोतस्विनी वह नही सकती । व्यक्ति समाज का विस्तृत रूप ही तो राष्ट्र है ।
ससार मे वैयक्तिक स्वार्थमूलक परम्पराओ से प्रभावित व्यक्तियों द्वारा सामान्य जनपर अत्याचार बढ़ने लगे और मानवता पर वर्वरता का आवरण चढने लगा व शान्ति के स्थान पर अशान्ति की ज्वालाएँ प्रज्ज्वलित होने लगी, धर्म के नाम पर पाशविकता का पोषण प्रारम्भ हुआ । उस समय किसी न किसी विशिष्ट शक्ति ने जन्म लेकर उस तिमिर को मिटाकर प्राणवान् प्रकाश किरणों से ससार को प्रभावित कर प्रशस्त पथ का निर्देशन किया है । प्रत्येक युग की अपनी समस्याएँ होती है, उन्ही के सहारे अवतरित शक्ति अहिंसा की पृष्ठभूमि मे सुख के साधन सजोती है । श्रादि तीर्थंकर ऋषभदेव ने तात्कालिक यौगलिक जनता मे अत्यधिक बढ़नेवाले पारस्परिक सघर्ष को अहिंसक नीति द्वारा धार्मिक शिक्षा का प्रसार कर दूर किया था । वे सफल भी रहे । वैदिककाल मे धर्म के नाम पर प्रचुर परिमाण मे पशुवलि का प्रचार था । वे ग्रहिसा के नाम पर प्राणी उत्पीड़न को धर्म का ग माने हुए थे । स्वार्थी पुरोहित स्वएहिकवृत्ति पोषणार्थं मानव को धर्म के नाम पर विलक्षण मार्ग पर मोड़े हुए था । कपिल का तापत्रय निवृत्तिवाद शुकपाठवत् रटा जा रहा था। जीवन मे भयकर विपाद परिव्याप्त था । वर्ण-व्यवस्था के नाम पर वर्ग संघर्ष पनप रहा था । सुख-शान्ति का ठेका एक वर्ग विशेष के अधिकृत था । उस समय श्रमण भगवान् महावीर ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे अहिंसा के प्रयोगो द्वारा शान्ति स्थापित करने का सफल प्रयास किया था । यद्यपि अद्यतनयुगीय मनीपी अहिसा का जहाँ प्रश्न उपस्थित होता है वहाँ महात्मा बुद्ध का नाम सर्वप्रथम उल्लेखित करते है ।
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