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आधुनिक विज्ञान और अहिंसा
उसके लिए आपने 18 वर्ष वर्वाद कर कोई बुद्धिमानी तो नहीं की। अाज के विज्ञान पर यह पाख्यान चरितार्थ होता है । सम्पूर्ण जीवन की साधना के फलस्वरूप यदि विनाशशील सृप्टि के माधन प्राप्त हो तो उसे जीवन कहने की अपेक्षा मरण का पूर्ण रूप कहना अधिक उपयुक्त होगा।
विजयदोन्मत्त सिकन्दर अपनी विशाल सेनानी के साथ ईरान की सड़को पर जा रहा था, भयभीत नागरिक झुक झुककर अभिवादन कर रहे थे । सिकन्दर के बदन पर गर्व-मिथित मुस्कान उत्तरोत्तर वृद्धिगत होती जा रही थी। सामने एक निप्रिय संतो की ऐसी जमात दीख पड़ी जिसका ध्यान सिकन्दर और उसके वैभव पर विलकुल नहीं या । वे अपनी मस्ती मे झूमते हुए चले जा रहे थे । सिकन्दर के मन मे विना अभिवादन किये या अपनी पोर तनिक भी सत मण्डली की योर से आकर्षण के भाव न दिखने के कारण पाश्चर्य मिश्रित क्रोध आ गया। सतों से कहा क्या तुम्हे मालूम नही इस मार्ग से सिकन्दर महान् प्रयाण कर रहा है। मण्डली के एक वृद्ध तपस्वी ने हास्य मिश्रित स्वर मे कहा-"राजन् तू किस भ्रम में भ्रमित है, तू नहीं जानता कि तेरा यह विशाल वैभव तृणवत है । लोभ और तृष्णा के वशीभूत होकर बढ़ाया गया यह वैभव-जिसका कि तू दास बना हुआ है, हमारे चरणो मे लोटता है। अत तू तो दासो का दास है।" सावना जनित वाणी का सिकन्दर पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह तत्काल निप्प्रभ हो गया।
आज का मानव भी विज्ञान के वैभव पर साम्राज्य स्थापित करने की अपेक्षा उसका दास बना हुआ है । यात्मशक्ति से उन्मुख है। भौतिकशक्ति चाहे कितनी ही जावन के लिए उपादेय प्रतीत होती हो, वह पौद्गलिक होने से नश्वर है। वह गासन के योग्य है, पर मनुष्य इसके द्वारा शासित हो रहा है । अतएव विज्ञान पर नियन्त्रण नितान्त आवश्यक है। और वह अहिंसा द्वारा ही सम्भव है। नियन्त्रित विज्ञान मानव जाति को वर्वरता, अहं वृत्ति और लोलुप्ता से सुरक्षित रख सकेगा। विस्टन चर्चिल के शब्दो मे-"मानव जाति इस प्रकार की स्थिति मे कभी नही रही। अपगे सद्भावी, मंगलकारी एव श्रेयस्कर गुणों मे अभिवृद्धि किये विना ही उसके हाथो में इस प्रकार के शस्त्रास्त्र या गए है, जिनसे वह निश्चित रूप से ही