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आधुनिक विज्ञान और अहिंसा तर्क को वास्तविकता की कसौटी पर कसकर उसका समीचीन समाधान भी करता है । जगत् के मूल मे कौन-सा तत्त्व काम करता है ? जीवन का उस तत्त्व के साथ क्या सम्बन्ध है ? आध्यात्मिक और भौतिक तत्त्वो की सत्ता मे क्या अन्तर है ? जीव और शीव के बीच कौन-सा तत्त्व वाधक है ? वह उनसे भिन्न कैसे हो सकता है ज्ञान और वाह्य पदार्थों के बीच क्या सम्बन्ध हो सकता है ? हेय, जेय और उपादेय का सम्यक् विश्लेपण करना आदि तात्त्विक विपयों की खोज ही दर्शन का प्रमुख समुद्देश्य है। दर्शन भौतिक विज्ञान की भांति वस्तु या पदार्थ का विश्लेपण ही नहीं करता, किन्तु उसकी उपयोगिता पर भी विचार करता है। वह जीवन और जगत् की वास्तविकता, अवास्तविकता का भी पूर्ण परिचय कराता है । इस प्रकार दर्शन का स्वरूप दर्शाने के पश्चात् दर्शन का उद्गम स्थल कौन-सा है, और क्या हो सकता है, इस पर विभिन्न परम्पराग्रो का दृष्टिकोण प्रकाश मे लाना आवश्यक हो जाता है। दर्शन का उद्गम स्थल
मानव चिन्तनशील प्राणी है । चिन्तन मानव का आदि स्वभाव है। वह प्रत्येक वस्तु पर चिन्तन-मनन करता है । जहाँ से मानव चिन्तन-मनन प्रारम्भ करता है, वही से दर्शन प्रारम्भ हो जाता है। इस सिद्धान्तानुसार दर्शन उतना ही पुरातन है जितना कि मानव स्वय । फिर भी दर्शन की उद्भूति के सम्बन्ध मे दार्शनिक विद्वानों के विभिन्न दृष्टिकोण रहे हैं। जिनको जैसी परिस्थिति तथा वातावरण प्राप्त होता रहा, उसके अनुरूप दर्शन उद्भूत चिन्तन की अनुभूति होती रही है। किसी ने तर्क को प्रधानता दी, किसी ने वाह्य जगत् को, किसी ने आत्म तत्त्व को तो किसी ने सन्देह और आश्चर्य को। इन सव दृष्टिकोणो के अतिरिक्त इसमे कुछ और भी वाह्य परिस्थितियाँ कार्य करती हुई दिखलाई पडती है।
तर्क-कुछ दार्शनिको का यह अभिमत है कि दर्शन का उद्गम स्थल तर्क है। "कि तत्त्वम्' इस तर्क से ही दर्शन का आविर्भाव होता है। दर्शन युग के प्रसव से पूर्व श्रद्धा युग था। श्रद्धा युग मे प्राप्त पुरुपो की वाणी को अत्यन्त श्रद्धा की दृष्टि से मानते थे। क्योकि मानवों के मस्तिष्क मे यह कल्पना होती थी कि यह जो कहा जारहा है वह हमारे परम आराध्य देव के श्रीमुख से उच्च