Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 43
________________ आधुनिक विज्ञान और अहिंसा व्याख्याकार मात्र सम्प्रदाय या अपने धर्म तक ही सीमित रहता है । किसी भी प्रकार के व्यामोह या पूर्वाग्रह से प्रभावित व्यक्ति से व्यापक या सर्वजनगम्य व्याख्या की ग्रागा नही की जा सकती है । धर्म शब्द की उत्पत्ति इस प्रकार की जाती है- "धारणात् धर्मः" जो धारण किया जाय वही धर्म है। धर्म शब्द धू धातु से निप्पन्न हुआ है जिसमे 'मय' प्रत्यय जोडने से धर्म शब्द बनता है, जिसका तात्पर्य हे धारण करने वाला । पर वह क्या धारण करता है ? यह एक प्रश्न है । जहाँ तक धारण करने का प्रश्न है समस्त धर्म र सम्प्रदाय इससे सहमत है पर जो धारण कराया जाता है मत भिन्नता वही है । क्योकि प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय के सदस्य अपने अनुकूल तथ्यों को ही धारण करते हैं और वह ही आगे चलकर उनकी दृष्टि मे धर्म बन जाता है। जैन दर्शन बहुत ही व्यापक और व्यक्तिस्वातत्र्यमूलक दर्शन के रूप मे बहुत प्राचीन काल से प्रतिष्ठित रहा है । प्राणी मात्र का सर्वोदय ही इस दर्शन का काम्य है । वह मानव-मानव मे उच्चत्व, नीचत्व की कल्पना का विरोधी है । वह प्राणीमात्र के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है । वह इतनी क्रांतिकारी घोषणा करता है कि अपने उत्थान - पतन मे किसी को साधक-बाधक नही मानता, वह अपने विकास के लिए ईश्वर तक की पराधीनता मे तनिक भी विश्वास नही रखता । उत्थान-पतन का दायित्व व्यक्ति के पुरुषार्थ पर अवलम्बित मानता है । वरदान या अभिशाप जैसी कोई वस्तु जैन दर्शन मे नही पनपी । अवतारवाद को भी वह अस्वीकार करता है । वह मनुष्य को इतना विकसित प्राणी मानता है कि उसे परमात्मा तक होने का अधिकार प्राप्त है । परमात्मा मे और मानव मे केवल इतना ही अन्तर है कि परमात्मा ने प्रकाश का पूर्णत्व प्राप्त कर लिया है, और मानव अपने मे स्थित प्रकाश को आवरण द्वारा ढंके रखने के कारण ही मानव बना हुग्रा है । यदि मनुष्य चाहे तो विशिष्ट प्राध्यात्मिक पुरुषार्थ द्वारा अनावृत्त होकर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है । 36 जहाँ त्यागमूलक जीवन-यापन करने वाले मनीषियो द्वारा धर्म जैसे पवित्र तत्त्व की व्याख्या प्रस्तुत की जाय वहाँ स्वभावतः सर्वजनोपयोगी व्यापक दृष्टिकोण रहे यह स्वाभाविक है । आचार्य कुन्दकुन्द ने धर्म की

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