Book Title: Aadhunik Vigyan Aur Ahimsa
Author(s): Ganeshmuni, Kantisagar, Sarvoday Sat Nemichandra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 45
________________ 40 आधुनिक विनान और अहिंसा वैज्ञानिक युग में आवश्यकता ही क्या है ? इन अतिरेकपूर्ण विचार धारा मे कितना तथ्य है । यह बताने की शायद ही आवश्यकता रहती हो, पर इतना कहने का लोभ मवरण नहीं किया जा सकता कि जो धर्म वास्तविकता को लिए हुए है वहाँ तो भंयकर बैषम्य मे भी साम्य प्रस्थापित हो जाता है। विकार और वासना का जहाँ क्षय हो जाय तो फिर विवाद को अवकाग ही कहाँ मिलता है। सच बात तो यह है कि धर्म के नाम यापत्तियां नव बडी होती है जब इस यात्मिक और परम निमल वस्तु के साथ ही अपने-अपने सम्प्रदाय को संयुक्त कर देते हैं और तब असहिष्णु वृत्ति के प्रोत्साहन ने ही धर्म अपयन का भागी बनता है। प्रांतरिक धर्म एकत्व का ही प्रतिपादक है, भेद का नहीं । व्यवहार मे आचरित नियमो में भले ही भिन्नत्व हो ! मौलिक तथ्य तो त्रिकालाबाधित है। धर्म के मर्म को आत्मसात् न करने के कारण ही समाज मे अशांति फैलती है। मैं पूर्ण आस्था और विश्वास के साथ कहना चाहूंगा कि आज के बौद्धिक युग में वास्तविक जीवन के संतुलन को बनाये रखने के लिए परमार्य वृत्ति या धर्म का होना नितान्त आवश्यक है। अनैतिकता द्वारा आज जो राष्ट्रीय चरित्र का दिनानुदिन ह्रास हो रहा है, इसका एक मात्र कारण धार्मिक गिक्षा का अभाव ही है । बालक के मन मे प्राथमिक शिक्षा के साथ ही नैतिकता और धर्म के संस्कार डाल दिये जाएँ तो कोई कारण नही कि राष्ट्रीय चरित्र का धरातल गिरता रहे। ___ यहाँ इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि धर्म के नाम पर साम्प्रदाविक वृत्ति का पोपण न हो, जो राष्ट्रीय विकास की सबसे बडी बावा है। साम्प्रदायिक भावना ने ही धर्म को बदनाम कर रखा है। धर्म समत्व का अमर सदेग देता है। तात्पर्य यह कि वर्म सभी परिस्थितियो में अतीव पावव्यक है वगर्ते कि उस पर साम्प्रदायिकता का प्रावरण न हो। धार्मिक शिक्षा भारतवर्ष अतीतकाल से अव्यात्म-विद्यायो का केन्द्रस्थल रहा है। जहाँ पाश्चात्य वैचारिकों ने अपनी शक्ति का प्रयोग अणु-परमाणु के अन्वेपणा मे किया वहाँ भारत के तत्त्वचिंतक मनीषियों ने आध्यात्मिक तत्त्व की खोज में । इसका अर्थ यह नहीं कि भारतवर्ष भौतिक कला और विद्यालो

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