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Research Quarterly
नाणस्स
TULSÍ PRAJNÁ
वर्ष 32° अंक 125-126 जुलाई-दिसम्बर, 2004
सारमामारी
निक्स
तुलसी प्रज्ञा
०
Jain Educatio
जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूँ
(मान्य विश्वविद्यालय )
अनुसंधान त्रैमासिकी
JAIN VISHVA BHARATI INSTITUTE, LADNUN
(DEEMED UNIVERSITY)
Private & Personal
मान
ww.jainelibrary.org
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_TULSI PRAJNA
Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute VOL.-125-126
JULY—DECEMBER, 2004
Patron Sudhamahi Regunathan
Vice-Chancellor
Editor in
Hindi Section Dr Mumukshu Shanta Jain
English Section Dr Jagat Ram Bhattacharyya
Editorial-Board Dr Mahavir Raj Gelra, Jaipur Prof. Satya Ranjan Banerjee, Calcutta Dr R.P. Poddar, Pune Dr Gopal Bhardwaj, Jodhpur Prof. Dayanand Bhargava, Ladnun Dr Bachh Raj Dugar, Ladnun Dr Hari Shankar Pandey, Ladnun Dr J.P.N. Mishra, Ladnun
Publisher: Jain Vishva Bharati Institute, Ladnun-341 306
विरमायाले
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Research Quarterly of Jain Vishva Bharati Institute VOL. 125-126
JULY-DECEMBER, 2004
Editor in Hindi Dr Mumukshu Shanta Jain
Editor in English Dr Jagat Ram Bhattacharyya
Editorial Office Tulsi Prajñā, Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
LADNUN-341 306, Rajasthan
Publisher
: Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306, Rajasthan
Type Setting : Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University)
Ladnun-341 306, Rajasthan
Printed at
: Jaipur Printers Pvt. Ltd., Jaipur-302015, Rajasthan
.
The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers, the Editors may not agree with them.
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विषय
Subject
अनुक्रमणिका / CONTENTS
तत्त्वार्थसूत्र का पूरक ग्रन्थ जैन सिद्धान्त दीपिका डॉ. धर्मचन्द जैन
कुमाऊँ में जैन और बौद्ध धर्मों का प्रभाव .....
डॉ. कमला पन्त
क्या विद्युत् (इलेक्ट्रीसीटी) सचित्त तेउकाय है ?
प्रो. मुनि महेन्द्र कुमार
Acārānga-Bhāṣyam
Paryaya in Jain Philosophy
Jains at the Court of Akbar
हिन्दी खण्ड
Jain Religious Orders in the ...
अंग्रेजी खण्ड
लेखक
Author
Acārya Mahāprajña
Acārya Mahāprajña
R. Krishnamurthi
Baij Nath Puri
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अनेक और एक
तुम शाखाओं की अनेकता देख चिन्तित मत बनो। तुम देखो उनका मूल एक है। अनेकता का अर्थ विरोध ही नहीं होता, विकास भी होता है।
तुम दूध और पानी की एकता देख हर्षित मत बनो। इनका मूल एक नहीं है। एकता का अर्थ संवर्धन ही नहीं होता, शक्ति का अल्पीकरण भी होता है। हीन व्यक्तियों को देखकर हीन होने वाले कितने हैं, परन्तु वे विरले हैं, जो दीनों का उद्धार करें।
- अनुशास्ता आचार्य महाप्रज्ञ
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तत्त्वार्थसूत्र का पूरक ग्रन्थ
जैन सिद्धान्त दीपिका
- डॉ. धर्मचन्द जैन
जैन धर्म-दर्शन को संस्कृत-सूत्रों में प्रस्तुत करने का प्रथम श्रेय वाचक उमास्वाति को जाता है, जिन्होंने ईसा की द्वितीय-तृतीय सदी में दश अध्यायों में तत्त्वार्थसूत्र की रचना की। कतिपय सूत्रों पर मतभेद को छोड़कर यह तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्म की समस्त सम्प्रदायों में समान रूप से आदृत है। इसका स्पष्ट निदर्शन है कि पूज्यपाद देवनन्दी, अकलङ्क, विद्यानन्द, श्रुतसागर आदि दिगम्बर, आचार्यों के द्वारा तथा सिद्धसेनगणि, हरिभद्रसूरि, यशोविजय आदि श्वेताम्बर आचार्यों के द्वारा तत्त्वार्थसूत्र पर टीकाएँ लिखी गईं। बीसवीं सदी में तेरापंथ संघ के आचार्य श्री तुलसीजी ने तत्त्वार्थसूत्र की शैली में जैन सिद्धान्त को संस्कृत-सूत्रों में निबद्ध करने का सफल प्रयत्न किया है। उनके द्वारा रचित कृति का नाम है- 'जैन सिद्धान्त दीपिका'। तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में अनेक तात्त्विक एंव दार्शनिक ग्रन्थों तथा टीकाओं का निर्माण हुआ, किन्तु जैन सिद्धान्त को तत्त्वार्थसूत्र की भांति संस्कृत-सूत्रों में उपनिबद्ध करने के व्यवस्थित प्रयत्न का श्रेय आचार्य श्री तुलसी जी को ही जाता है। जैन सिद्धान्त दीपिका आचार्य श्री महाप्रज्ञ द्वारा सम्पादित है तथा तत्त्वार्थसूत्र की भांति दश अध्यायों में विभक्त है, जिन्हें 'प्रकाश' नाम दिया गया है। उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ 344 सूत्र हैं (दिगम्बर परम्परानुसार 357 सूत्र हैं) वहां जैन सिद्धान्त दीपिका में 308 सूत्र हैं। तत्त्वार्थसूत्र का प्रारम्भ जहाँ मोक्षमार्ग के कथन से हुआ है, वहाँ जैन सिद्धान्त दीपिका का प्रारम्भ द्रव्य-विवेचन से हुआ है। जैन सिद्धान्त दीपिका' नाम से यह विदित होता है कि इसकी रचना का लक्ष्य जैन सिद्धान्तों को संक्षेप में
प्रकाशित करना है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 -
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तत्त्वार्थसूत्र और जैन सिद्धान्त दीपिका की विषयवस्तु में पर्याप्त साम्य होना स्वाभाविक है, क्योंकि दोनों ग्रन्थ जैन तत्त्वज्ञान का ही प्रकाशन करते हैं तथापि इस नवग्रन्थ के निर्माण का अपना उद्देश्य है। नवीनता के बिना नई कृति का निर्माण कोई महत्त्व नहीं रखता। तत्त्वार्थसूत्र एवं जैन सिद्धान्त दीपिका का अध्ययन करने पर विदित होता है दीपिका में अनेकविध नवीनताएँ हैं। यहाँ पर यह भी उल्लेख करना प्रासङ्गिक होगा कि जैन सिद्धान्त दीपिका की रचना का प्रारम्भ चुरू नगर में विक्रम संवत् 2002 की वैशाख शुक्ला त्रयोदशी को हुआ था। फिर द्वितीय एवं तृतीय संशोधित एवं परिवर्तित आवत्तियाँ क्रमशः बैंगलोर एवं लाडनूं में तैयार हुईं। आज तृतीय वृत्ति का संस्करण उपलब्ध है। उसी को प्रस्तुत अध्ययन का आधार बनाया गया है।
जैन सिद्धान्तदीपिका के निर्माण के अनेक हेतुओं में एक हेतु तेरापंथ संघ को प्रामाणिक, नया सिद्धान्त सूत्र-ग्रन्थ उपलब्ध कराना भी रहा है, इसीलिए ग्रन्थ की प्रशस्ति में कहा गया है
यावन्मेरुर्धरामध्ये, व्योम्नि चन्द्रदिवाकरः। तावत्तेरापंथाम्नाये, जैनसिद्धान्तदीपिका॥
यहाँ पर यह उल्लेख करना समीचीन प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ भले ही तेरापंथ आम्नाय के लिए निर्मित हुआ हो, किन्तु यह सभी जैन सम्प्रदायों के द्वारा समादृत हो सकता है। एकाध स्थलों के अतिरिक्त यह सम्पूर्ण ग्रन्थ जैनधर्म के किसी भी सम्प्रदाय को अस्वीकार्य नहीं हो सकता।
तत्त्वार्थसूत्र से तुलना करने पर विदित होता है कि जैन सिद्धान्तदीपिका उसका एक पूरक ग्रन्थ भी है। तत्त्वार्थसूत्र में जिन अनेक पारिभाषिक शब्दों के लक्षण उपलब्ध नहीं हैं, उनके लक्षण जैन सिद्धान्तदीपिका में सम्प्राप्त हैं। उदाहरण के लिए लोक, अलोक, परमाणु, स्कन्ध, देश, प्रदेश, गुण, पर्याय, अर्थ पर्याय, व्यञ्जन पर्याय, स्वभावपर्याय, विभावपर्याय, उपयोग, साकारोपयोग, अनाकारोपयोग, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान आदि पाँचों ज्ञानों, अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, औत्पत्तिकी, वैनयिकी आदि चारों बुद्धियों के लक्षण जैन सिद्धान्तदीपिका में सूत्रनिबद्ध हैं। इसी प्रकार इन्द्रिय, मन, भाव, उपशमादि पाँचों भाव, पर्याप्ति, प्राण, अजीव, कर्म, प्रकृति, स्थिति आदि चतुर्विध बन्ध, पुण्य, पाप, मिथ्यात्व-अविरति आदि पाँच आस्रव, लेश्या, करण, सम्यक्त्व, अविरति आदि पाँच संवर, निर्जरा, सिद्ध आदि के लक्षण भी दीपिका की विशेषता को स्थापित करते हैं। षष्ठम प्रकाश में सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अहिंसा, सत्य आदि पाँच महाव्रत,
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ईर्या आदि पाँच समितियाँ, अनुप्रेक्षा, भावना, संलेखना, अनशन आदि द्वादश तपों के लक्षण तथा सप्तम प्रकाश में जीवस्थान, 14 गुणस्थान, शरीर समुद्घात आदि के लक्षण निरूपित हैं। अष्टम प्रकाश में देव, गुरु एवं धर्म तथा लोकधर्म के लक्षणों को स्पष्ट किया गया है। नवम प्रकाश में दया, मोह, राग, द्वेष, माध्यस्थ, असंयम, संयम, उपकार, सुख एवं दुःख के लक्षण दिए गए हैं। दशम प्रकाश में प्रमाण, नय एवं निक्षेप के चारों प्रकारों को लक्षण-सहित स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार शताधिक पारिभाषिक शब्दों के लक्षण जो तत्त्वार्थसूत्र में नहीं है, जैन सिद्धान्तदीपिका में प्राप्त हैं। इससे इस कृति की विशेषता एवं प्रयोजनवत्ता स्पष्ट हो जाती है।
यह एक स्वतन्त्र मौलिक ग्रन्थ है, जो रचयिता के गहन अध्ययन, अनुप्रेक्षण एवं सूक्ष्मेक्षण का परिचायक है। नाम से यह कृति स्वतन्त्र ग्रन्थ की प्रतीति नहीं कराती, क्योंकि 'दीपिका' शब्द का प्रयोग टीका के लिए भी होता रहा है। धर्मभूषणरचित 'न्यायदीपिका' जैसी कृतियाँ इसका अपवाद हैं। न्यायदीपिका जैन-न्याय का स्वतन्त्र ग्रन्थ है। इसी प्रकार 'जैनसिद्धान्तदीपिका' भी स्वतन्त्र कृति होने का परिचय देती है। यह ज्ञातव्य है कि न्यायदीपिका सूत्रग्रन्थ नहीं है, जबकि प्रस्तुत कृति सूत्र ग्रन्थ है। दीपिका' शब्द दीपक का स्त्रीलिङ्ग है। दीपक प्रकाशक होता है। इस अर्थ में जैन सिद्धान्त की प्रकाशक होने से इस कृति का नाम 'जैन सिद्धान्त दीपिका' सार्थक है।
पूर्वोक्त शताधिक लक्षणों के अतिरिक्त जैन सिद्धान्तदीपिका में कतिपय विषय सर्वथा नवीन है, यथा1. चतुर्थप्रकाश में कर्म की बन्ध, उद्वर्तना, अपर्वतना आदि दश अवस्थाओं
का वर्णन, जिसका तत्त्वार्थसूत्र में इनका उल्लेख नहीं है, जबकि जैन सिद्धान्त दीपिका में प्रत्येक अवस्था को स्पष्ट किया गया है। सप्तम प्रकाश में 14 गुणस्थानों का वर्णन। तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थानों का उल्लेख नहीं हुआ है, जैन सिद्धान्तदीपिका में प्रत्येक गुणस्थान का लक्षण सूत्रबद्ध किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में असंख्यगुण अधिक निर्जरा के जिन सम्यग्दृष्टि-श्रावक आदि दश स्थानों का उल्लेख हुआ है, उसका निरूपण
जैन सिद्धान्त दीपिका में अलग से हुआ है। 3. अष्टम प्रकाश में देव, गुरु एवं धर्म का विवेचन। तत्त्वार्थसूत्र में धर्म का
विवेचन तो नवम अध्याय में हुआ है, किन्तु देव एवं गुरु को पृथक् से
महत्त्व नहीं मिला है। आचार्य श्री तुलसी जी ने जैन सिद्धान्त-दीपिका में तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 -
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एक पूरा अध्याय देव, गुरु एवं धर्म की विवेचना में लगाया है। उन्होंने अर्हत् को देव, निर्ग्रन्थ को गुरु एवं आत्मशुद्धि के साधन को धर्म कहा है। धर्म के एक, दो, तीन, चार, पाँच एवं दस प्रकारों का निरूपण किया है। दस प्रकार वे ही क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि हैं, जिनका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में भी हुआ है। किन्तु एक, दो, तीन, चार एवं पाँच प्रकारों का संयोजन नया है। धर्म के एक प्रकार में अहिंसा का, दो प्रकारों में श्रुत एवं चारित्र का तथा संवर एवं निर्जरा का उल्लेख है। तीन प्रकारों में स्वधीत, सुध्यातत्व एवं सुतपस्यित का, चार प्रकारों में ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप का तथा पाँच प्रकारों में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य
एवं अपरिग्रह का उल्लेख है।' 4. दशम प्रकाश में प्रमाण, नय एवं निक्षेप के लक्षण देते हुए चार प्रकार के
निक्षेपों का विवेचन किया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव निक्षेप का उल्लेख मात्र है, जबकि दीपिका में प्रत्येक का लक्षण भी दिया गया है" तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय में निरूपित अनुयोगों के दो सूत्रों (7 एवं 8) का समावेश यहां पर एक ही सूत्र (दशमप्रकाश सूत्र 11)
में कर दिया गया है। तत्त्वार्थसूत्र के जिन विषयों की जैन सिद्धान्तदीपिका में चर्चा नहीं की गई है, वे मुख्यतः इस प्रकार हैं1. नरक एवं देवलोक तथा इनमें रहने वाले नारक एवं देवों का वर्णन।
तत्त्वार्थसूत्र के तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय क्रमशः उपर्युक्त विषयों का वर्णन करते हैं, जिसे आचार्य श्री तुलसी जी ने सम्भवतः आधुनिक युग में अनावश्यक समझ कर छोड़ दिया है। ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों के बन्ध के अलग-अलग कारणों का निर्देश। तत्त्वार्थसूत्र के षष्टम अध्याय में आठों प्रकार के कर्मों के पृथक -पृथक् बन्ध-कारणों का निर्देश है12, जिसे आचार्य श्री तुलसी जी ने
छोड़ दिया है। 3. श्रावक के 12 व्रतों के अतिचार। तत्त्वार्थसूत्र के सप्तम अध्याय में श्रावक
के व्रतों के अतिचारों का नामोल्लेख है, जबकि जैन सिद्धान्तदीपिका में इनकी कोई चर्चा नहीं है।
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4. अष्टविध कर्मों की 97 उत्तर प्रकृतियों के नाम । जैन सिद्धान्तदीपिका में इन
उत्तर प्रकृतियों के नाम परिशिष्ट में हिन्दी में दिए गए हैं, जबकि तत्त्वार्थसूत्र के अष्टम अध्याय में इन नामों को सूत्रों (5-14) में गूंथा गया है। इसमें सभी कर्मों की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति का भी उल्लेख है, जबकि जैन
सिद्धान्तदीपिका में इसकी चर्चा नहीं है। प्रस्तुत निबन्ध में दोनों ग्रन्थों (तत्त्वार्थसूत्र और जैनसिद्धान्तदीपिका) में चर्चित ज्ञान और ज्ञेय के सम्बन्ध में तुलनात्मक विचार करना ही अब प्रमुख लक्ष्य है। ज्ञान निरूपण
जैन दर्शन में प्रतिपादित ज्ञान एवं उनके भेदों में कहीं कोई मतभेद नहीं है, इसलिए ऐसा मतभेद इन दोनों ग्रन्थों में भी नहीं हो सकता। दोनों ही ग्रन्थ सम्यग्ज्ञान को मोक्षमार्ग में सम्मिलित करते हैं तथा उसके पाँच भेदों का निरूपण करते हैं । ज्ञान के पाँच प्रकार हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। दोनों ग्रन्थों में यह तुलना अवश्य हो सकती है कि इनका वर्णनगत वैशिष्ट्य क्या है? यथा1. तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन का तो लक्षण दिया गया है, किन्तु सम्यग्ज्ञान का
लक्षण नहीं दिया गया। जैन सिद्धान्तदीपिका में इसका लक्षण दिया गया है- 'यथार्थबोधः सम्यग्ज्ञानम्'। यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है किन्तु यह लक्षण आगम-परम्परा में मान्य सम्यग्ज्ञान की पूर्ण व्याख्या नहीं करता। आगम के अनुसार सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यक् होता है। उसकी सम्यक्तता अर्थ के अनुरूप होने पर नहीं, अपितु दृष्टि की सम्यक्तता पर निर्भर करती है। यथार्थबोध रूप जो लक्षण है वह 'प्रमाण' के अर्थ में मान्य सम्यग्ज्ञान के लिए उपयुक्त ठहरता है। कदाचित् दृष्टि सम्यक् नहीं होने पर भी वस्तु का संवादी-यथार्थ ज्ञान होता हुआ देखा जाता है। मिथ्यात्वी उसी आधार पर वस्तु को जानते एवं स्मरण आदि करते हैं। उनका यथार्थ बोध संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित होता है, किन्तु मिथ्यात्व से रहित नहीं होता जबकि मोक्षोपायभूत जो सम्यग्ज्ञान है वह मिथ्यात्व से रहित होता है। आचार्य श्री ने प्रमाण का लक्षण 'यथार्थज्ञानं' दिया है। दोनों स्थानों पर जो 'यथार्थ' शब्द है, उनमें क्या भेद है, इस पर विचार अपेक्षित है। यदि सम्यग्ज्ञान के लक्षण में सम्यग्दर्शनं सति' जोड़ दिया जाए तो मोक्षोपायभूत सम्यग्ज्ञान का पूर्ण लक्षण बन जाता है।
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2. जैन सिद्धान्तदीपिका की यह विशेषता है कि इसमें सभी ज्ञानों के लक्षणों
के लिए पृथक् रूप से सूत्र रचे गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र में सबके व्यवस्थित
क्रम से लक्षण नहीं दिए गए हैं, यथा1. मतिज्ञान - इन्द्रियमनोनिबन्धनं मतिः।
अर्थात् इन्द्रिय एवं मन की सहायता से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र में भी लगभग यही लक्षण दिया गया है, यथा- तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्।
2. श्रुतज्ञान - द्रव्यश्रुतानुसारिपरप्रत्यायनक्षमं श्रुतम्।” ___ द्रव्यश्रुत के अनुसार दूसरों को समझाने में समर्थज्ञान श्रुतज्ञान है। द्रुव्यश्रुत का अर्थ है- शब्द, संकेत आदि। तत्त्वार्थसूत्र में इसका लक्षण-विधायक सूत्र नहीं है, किन्तु उसका मतिज्ञानपूर्वक होना कहा गया है
3. अवधिज्ञान - आत्ममात्रापेक्षं रूपिद्रव्यगोचरमवधिः।
इन्द्रियादि सहायता के बिना सीधे आत्मा से होने वाला रूपी द्रव्यों का ज्ञान अवधिज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र में अवधिज्ञान का लक्षण तो नहीं दिया गया, किन्तु अवधिज्ञान के विषय का निरूपण करते हुए उसे स्पष्ट कर दिया गया है, यथा- रूपेष्ववधेः।
4. मनः पयार्यज्ञान - मनोद्रव्यपर्यायप्रकाशि मन:पर्याय:
मनोद्रव्य एवं उसके पर्याय का प्रकाशक ज्ञान मनः पयार्य है। तत्त्वार्थसूत्र में इसका लक्षण न देकर उसके विषय का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि अवधिज्ञान के विषय के अनन्तवें भाग को मनः पर्याय ज्ञान द्वारा जाना जाता है मन भी रूपी द्रव्य है और वह समस्त रूपी द्रव्यों का अनन्तवाँ भाग है।
5. केवलज्ञान - निखिलद्रव्यपर्याय साक्षात्कारि केवलम् ।।
समस्त द्रव्यों एवं उनकी समस्त पर्यायों का साक्षात्कारी ज्ञान केवलज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र में इसके विषय का निरूपण करते हुए कहा गया है- 'सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य। 23
___ यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि जैन सिद्धान्तदीपिका में पाँचों ज्ञानों के लक्षणों का व्यवस्थित प्रतिपादन हुआ है, तत्त्वार्थसूत्र में उसे ज्ञान के विषयनिरूपण आदि के द्वारा भी स्पष्ट किया गया है। दोनों ग्रन्थों में अभिव्यक्त लक्षणों में मतिज्ञान, अवधिज्ञान एवं केवलज्ञान में कोई भेद नहीं हैं। मनः पयार्यज्ञान का लक्षण जैनसिद्धान्तदीपिका में विशेष
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स्पष्ट है। श्रुतज्ञान का लक्षण भी वैशिष्ट्य रखता है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में जिस प्रकार श्रुतज्ञान को मतिज्ञानपूर्वक होना कहा है, उस प्रकार का कोई निर्देश दीपिका में नहीं है। यह तथ्य दीपिका में सोच विचार कर छोड़ा गया है या वैसे ही छूट गया है, ज्ञात नहीं ।
'श्रुतज्ञान' के लक्षण में भी जो 'परप्रत्यायवक्षमं ' विशेषण है, क्या वह एकेन्द्रियादि जीवों में प्राप्त श्रुत-अज्ञान में घटित होता है? विचारणीय है। श्रुतज्ञान दूसरे को बोध कराने के लिए होता है या स्वयं को बोध कराने के लिए भी, यह भी विचार का विषय है ।
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3. जैन सिद्धान्तदीपिका में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के चार भेदों - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के लक्षणों को सूत्र में उपबद्ध किया गया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में इनके नामों का ही उल्लेख है, लक्षणों का नहीं । तत्त्वार्थभाष्य में अवश्य उनके लक्षण प्रदत्त हैं, किन्तु आचार्य श्री तुलसी जी के द्वारा प्रदत्त लक्षण विशेषावश्यकभाष्य एवं प्रमाण शास्त्रीय ग्रन्थों में प्रदत्त लक्षणों से प्रभावित हैं, तत्वार्थ भाष्य से नहीं। दीपिका में प्रदत्त लक्षण इस प्रकार हैं
1. अवग्रह - इन्द्रियार्थयोगे दर्शनानन्तरं सामान्यग्रहणमवग्रह : 124
इन्द्रिय एवं पदार्थ का संयोग होने पर दर्शन के पश्चात् जो सामान्य का ग्रहण होता है, वह अवग्रह है।
यहाँ पर यह विचारणीय है कि अवग्रह एक ज्ञान है। ज्ञान 'विशेष' का ग्राहक होता है और दर्शन सामान्य का । उपर्युक्त लक्षण से दोनों दर्शन और अवग्रह में जो भेद है वह पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता । आचार्य श्री ने ज्ञान को पर्याय का एवं दर्शन को ध्रौव्य (द्रव्य) का ग्राहक प्रतिपादित किया है । 25 ध्रौव्य सामान्य होता है एवं पर्याय विशेष होती है । यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान का विषय समस्त द्रव्यों को एवं उनकी असमस्त पर्यायों को बताया है। यदि ज्ञान पर्याय को ही जानता है तो वह द्रव्य को किस प्रकार जान सकेगा ?
2. ईहा - अमुकेन भाव्यमिति प्रत्यय ईहा । 26
अमुक होना चाहिए, इस प्रकार के प्रत्यय को ईहा कहा जाता है ।
ईहा का यह लक्षण महत्त्वपूर्ण है । अनेक स्थलों पर ईहा को शेष आकांक्षा जिज्ञासा, चेष्टा आदि शब्दों से कहा गया है, जो समीचीन प्रतीत नहीं होता ।
3. अवाय अमुक एवेत्यवाय: 17 अमुक ही है, ऐसा निर्णय अवाय है ।
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4. धारणा - तस्यावस्थितिर्धारणा अवाय रूप निर्णयात्मक ज्ञान की अवस्थिति धारणा है।
(3) जैन सिद्धान्तदीपिका में श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के रूप में वर्णित औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी नामक चार बुद्धियों को विशेष महत्त्व देते हुए उनके पृथकूपेण लक्षण दिए गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र एवं भाष्य में चारों बुद्धियों के सम्बन्ध में कोई वर्णन नहीं है। दीपिका में प्रदत्त लक्षण इस प्रकार हैं
1. औत्पत्तिकी - अदृष्टाश्रुतार्थग्राहिणी औत्पत्तिकी।"
अदृष्ट एवं अश्रुत अर्थ के सम्बन्ध में तत्काल ज्ञान करने वाली बुद्धि औत्पत्तिकी है। इसे प्रतिभा एवं प्रातिभ ज्ञान भी कहा गया है।
2. वैनयिकी - विनयसमुत्था वैनयिकी ३०
विनय से उत्पन्न बुद्धि वैनयिकी है। गुरु की शुश्रूषा अथवा ज्ञान और ज्ञानी के प्रति विनम्रभाव को आचार्य श्री ने विनय कहा है।
3. कार्मिकी - कर्मसमुत्था कार्मिकी।" कर्म अर्थात् अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि कार्मिकी है। 4. पारिणामिकी - परिणामजनिता पारिणामिकी।
परिणाम से उत्पन्न होने वाली बुद्धि पारिणामिकी है। आचार्य श्री ने वयः परिणति को परिणाम कहा है।
(4) तत्त्वार्थसूत्र में अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा के बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव तथा इनके विपरीत अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निश्रित, संदिग्ध और अध्रुव के रूप में 12-12 प्रकार निरूपित हैं, जबकि जैन सिद्धान्तदीपिका में इन्हें छोड़ दिया गया है।
(5) आचार्य श्री तुलसी जी ने जातिस्मरणज्ञान को मतिज्ञान का ही एक भेद प्रतिपादित करने हेतु सूत्र निर्माण किया है- जातिस्मृतिरपि मतेर्भेद:34, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में इसकी कोई चर्चा नहीं है। इस प्रकार यह सूत्र जैन सिद्धान्तदीपिका के वैशिष्ट्य को इंगित करता है।
(6) कर्मग्रन्थ आदि के आधार पर जैन सिद्धान्तदीपिका में श्रुतज्ञान के 14 भेद प्रतिपादित हैं- 1. अक्षरश्रुत, 2. अनक्षर श्रुत, 3. संज्ञिश्रुत, 4. असंज्ञिश्रुत, 5. सम्यक्श्रुत, 6. मिथ्याश्रुत, 7. सादिश्रुत, 8. अनादिश्रुत, 9. सपर्यवसितश्रुत, 10. अपर्यवसितश्रुत,
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11.गमिकश्रुत, 12. अगमिक श्रुत, 13. अङ्गप्रविष्ट श्रुत एवं अनङ्गप्रविष्ट श्रुत। तत्त्वार्थसूत्र में श्रुतज्ञान के अंगप्रविष्ट एवं अनंगप्रविष्ट भेद ही निर्दिष्ट हैं तथा अनंगप्रविष्ट (अंग बाह्य) के अनेक एवं अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान के आचारांग आदि 12 भेद किए गए हैं- श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदम्।
(7) मनः पर्यायज्ञान के ऋजुमति एवं विपुलमति प्रकारों में भेद तत्त्वार्थसूत्र में दो आधारों पर प्रतिपादित हैं- विशुद्धि और अप्रतिपात ऋजुमति मनः पर्यायज्ञान की अपेक्षा विपुलमति मनः पर्यायज्ञान अधिक विशुद्ध होता है तथा ऋजुमति मनः पर्यायज्ञान एक बार होने के पश्चात् नष्ट भी हो सकता है जबकि विपुलमति मनः पर्यायज्ञान केवलज्ञान होने तक बना रहता है। वह एक बार होने के पश्चात् नष्ट नहीं होता। जैन सिद्धान्त दीपिका में मनः पर्यायज्ञान के इन दोनों भेदों को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि सामान्यरूप से मनोद्रव्य को ग्रहण करने वाला ज्ञान ऋजुमति एवं उसकी विशेष पर्यायों को ग्रहण करने वाला ज्ञान विपुलमति कहलाता है। इसमें विशुद्धि की अधिकता का लक्षण तो फलित हो जाता है, किन्तु 'अप्रतिपात' लक्षण छूट गया है।
(8) तत्त्वार्थसूत्र में पाँच ज्ञानों में से प्रथम दो ज्ञानों को परोक्ष प्रमाण तथा अन्तिम तीन ज्ञानों को प्रत्यक्ष प्रमाण में विभक्त कर प्रमाणमीमांसा का व्यवस्थित निरूपण किया गया है, जबकि जैन सिद्धान्त दीपिका के दशमप्रकाश में प्रमाण-लक्षण के अतिरिक्त कोई चर्चा नहीं की गई है।
(9) तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नय को अधिगम का उपाय बताया गया हैप्रमाणनयैरधिगमः”, जबकि जैन सिद्धान्तदीपिका में प्रमाण नय और निक्षेप को तत्त्वों की व्याख्या में उपयोगी स्वीकार किया गया है। तत्त्वानि प्रमाण-नय-निक्षेपादिरभिरनुयोज्यानि, जो विचारणीय है।
(10) जैन सिद्धान्तदीपिका में नय का लक्षण तो प्राप्त है, किन्तु उसके भेदों का कोई उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थसूत्र में नय के भेदों का कथन है, लक्षण का नहीं।
उपर्युक्त बिन्दुओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन सिद्धान्तदीपिका ने जैन ज्ञानमीमांसा के अनेक पारिभाषिक शब्दों के लक्षण दिए हैं, जो अपने आप में योगदान है। ज्ञेय निरूपण
ज्ञेय के व्यापक क्षेत्र में षड् द्रव्यों एवं नव तत्त्वों का समावेश हो जाता है। षड् द्रव्य हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव। नव तत्त्व हैं- जीव, अजीव,
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पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष । इनके सम्बन्ध में दोनों ग्रन्थों में प्रायः पूरी समानता है । जहाँ पर विशेषता या विषमता है, उसकी चर्चा यहाँ की जा रही है
(1) तत्त्वार्थसूत्र में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष- इन सात तत्त्वों का ही निरूपण है। पुण्य एवं पाप तत्त्व का समावेश आस्रव में कर लिया गया है। जैन सिद्धान्तदीपिका में पुण्य एवं पाप को पृथक् तत्त्वों के रूप में स्थान दिया गया है, यथा- जीवाऽजीव- - पुण्य-पापास्रव-संवर - निर्जरा- -बन्ध - मोक्षस्तत्वम् | तत्त्वों की यह गणना आगम परम्परा का अनुसरण हैं । आचार्य श्री तुलसी जी एवं सम्पादक (आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी) ने पुण्य एवं पाप को पृथक् महत्त्व देकर सूझबूझ पूर्ण कार्य किया है, क्योंकि पुण्य-पाप का अपना महत्त्व हैं। पुण्य एवं पाप परस्पर विरोधी हैं । पुण्य (सत्प्रवृत्ति) को पाप की भांति यदि एकान्त त्याज्य मान लिया जाय तो साधना का मार्ग ही अवरुद्ध हो जाता है। पुण्य को पाप के समान त्याज्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि पुण्य कर्म तो सम्यग्दर्शन एवं केवलज्ञान में भी सहायक है, जबकि पाप उसमें बाधक है । आगम में सर्वत्र पाप को ही त्याज्य बताया गया है, पुण्य को नहीं ।
(अ) पुण्य-पाप को आस्रव में सम्मिलित करने से ये दोनों हेय की श्रेणि में आ जाते हैं, जबकि पुण्य को पाप की भाँति हेय नहीं माना जा सकता । कर्मसिद्धान्त के अनुसार जब तक पापकर्म की प्रकृतियों का चतु:स्थानिक अनुभाग घटकर द्विस्थानिक नहीं होता और पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग द्विस्थानिक से बढ़कर चतु:स्थानिक नहीं होता तब तक सम्यग्दर्शन नहीं होता है। इसी प्रकार पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग जब तक उत्कृष्ट नहीं होता तब तक केवलज्ञान प्रकट नहीं होता है । इस तरह सम्यग्दर्शन एवं केवलज्ञान की उत्पत्ति में पुण्य के अनुभाग का बढ़ना एवं पाप प्रकृति के अनुभाग का घटना आवश्यक है । इस दृष्टि से पाप एवं पुण्य एक दूसरे के विरोधी सिद्ध होते हैं । अतः पाप एवं पुण्य का पृथक् कथन आगम एवं कर्म की दृष्टि से उचित ही है । (विशेष विवरण हेतु द्रष्टव्य - जिनवाणी, सितम्बर-अक्टूबर 1999 पृष्ठ 18-19 पर लेखक का लेख- 'उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण और उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना ')
(2) पुण्य और पाप के सम्बन्ध में 'जैनसिद्धान्तदीपिका' में विशेष प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि 'पुण्य' धर्म का अविनाभावी है अर्थात् धर्म के बिना पुण्य नहीं होता है । स्वोपज्ञवृत्ति में स्पष्ट किया गया है कि पुण्य कर्म का बन्ध एकमात्र सत्प्रवृत्ति के द्वारा होता है और सत्प्रवृत्ति मोक्ष का उपाय होने से अवश्य धर्म है । अतः जिस प्रकार धान्य के बिना तुष उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार धर्म के बिना पुण्य नहीं होता । यहाँ पर प्रश्न खड़ा होता है कि मिथ्यात्वी जीव धर्म की आराधना नहीं कर सकता है तब वह
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पुण्य का बन्ध कैसे करेगा? जैनसिद्धान्तदीपिका में आचार्य श्री तुलसी ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि मिथ्यात्वी भी मोक्षमार्ग के देश-आराधक होते हैं। यदि ऐसा न हो तो उनके निर्जराधर्म ही न हो एवं वे कभी सम्यक्त्वी ही न बन सकें। आचार्यश्री ने शुभकर्म को पुण्य कहते हुए जिस निमित्त से पुण्य का बन्ध होता है उसे भी उपचार से पुण्य कहा है। इस प्रकार उपचार से अन्न, पान, अशन, शयन, वस्त्र, मन, वचन, शरीर एवं नमस्कार के आधार पर नौ पुण्य होते हैं। ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों को पाप कहा गया है। उपचार से पाप के हेतु प्राणातिपात आदि को भी पाप माना गया है, जिसके 18 भेद प्रसिद्ध हैं।
(3) जैन सिद्धान्तदीपिका के चतुर्थ प्रकाश में ही शुभ एवं अशुभ योग की चर्चा करते हुए आचार्यश्री ने शुभयोग को सत्प्रवृत्ति एवं अशुभयोग को असत्प्रवृत्ति कहा है। शुभ एवं अशुभयोग से क्रमशः शुभकर्म-पुद्गलों एवं अशुभ कर्मपुद्गलों का आस्रव होता है। इस सामान्य नियम का उल्लेख करने के साथ ही एक विशेष उल्लेखनीय सूत्र उपनिबद्ध किया गया है- यत्र शुभयोगस्तत्र नियमेन निर्जरा अर्थात् जहाँ शुभयोग होता है वहाँ नियम से निर्जरा होती है। आचार्यश्री ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा है कि शुभयोग कर्मबन्ध का हेतु होने से आस्रव के अन्तर्गत परिगणित है, किन्तु वह नियम से अशुभ कर्मों को तोड़ने वाला है, इसलिए निर्जरा का कारण भी है। नाना द्रव्यों से निर्मित औषधि जिस प्रकार रोग का शोषण एवं शरीर का पोषण-दोनों कार्यों को सम्पन्न करती हैं उसी प्रकार शुभयोग से पुण्यकर्म का बन्ध एवं अशुभकर्मों का क्षय दोनों कार्य सम्पन्न होते हैं । इस तथ्य की पुष्टि में आचार्यश्री ने उत्तराध्ययनसूत्र से एक उद्धरण भी दिया है, यथा- वंदणएणं भंते! जीवे किं जणयइ? गोयमा! वंदणएणं नीयागोयं कमयं खवेइ, उच्चागोयं निबंधइ इत्यादि।
भगवान महावीर से प्रश्न किया गया कि हे भगवान् ! वन्दना करने से क्या लाभ होता है? भगवान ने उत्तर दिया- गौतम! वन्दना करने से नीचगोत्र कर्म का क्षय और उच्चगोत्र कर्म का बन्ध होता है। यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि शुभयोग के समय अशुभयोग का निरोध होता है। अतः अपेक्षा से संवरधर्म भी पाया जाता है।
(4) मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करते हुए 'जैनसिद्धान्तदीपिका' में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के साथ सम्यक्तप को भी पृथक् से स्थान दिया गया है, यथा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपांसि मोक्षमार्ग:45 तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति द्वारा तप का चारित्र में ही समावेश कर लिया गया है किन्तु चारित्र से तप का पृथक् कथन आगमों में भी प्राप्त होता है, यथा
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नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा। एस मग्गुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसीहिं।।'
जैनागमों में तप एवं चारित्र के भेद अलग से प्राप्त होते हैं तथा दोनों का अपना महत्त्व है। चारित्र जहाँ संयम या संवर की प्रधानता रखता है वहाँ तप में निर्जरा की प्रधानता है। अतः तप' को मोक्षमार्ग में पृथक् से स्थान दिया जाना उचित ही है।
(5) समस्त कर्मों के क्षयरूप मोक्ष का लक्षण तो जैनदर्शन में प्रसिद्ध है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है- कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः।” जैन सिद्धान्तदीपिका में कर्मक्षय के साथ आत्मा का स्वरूप में अवस्थान मोक्ष कहा गया है, यथा- 'कृत्स्नकर्मक्षायादात्मनः स्वरूपावस्थानं मोक्षः' इससे यह भी ध्वनित होता है कि समस्त कर्मों का क्षय होने के पश्चात् आत्मा की सत्ता बनी रहती है तथा वह अपने ज्ञान-दर्शन स्वरूप में अवस्थित रहती है। आचार्य श्री ने सूत्र की वृत्ति में यह भी स्पष्ट किया है कि समस्त कर्मों का क्षय होने के पश्चात् पुनः कर्मों का बन्ध नहीं होता है।
(6) षड्द्रव्यों में जीवद्रव्य का निरूपण करते हुए आचार्य श्री तुलसी ने तृतीय प्रकाश के पञ्चम सूत्र की वृत्ति में पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, अग्निकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में चेतना की सिद्धि के लिए हेतु प्रस्तुत किए हैं, जो उल्लेखनीय हैं। पृथ्वी में चेतना सिद्ध करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार मनुष्य और तिर्यंच जीवों के घावों में सजातीय मांसांकुर उत्पन्न होते हैं, वैसे ही पृथ्वी में खोदी हुई खानों में सजातीय पृथ्वी के अंकुर उत्पन्न होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि पृथ्वी सजीव हैसमानजाती-यांकुरोत्पादात्। जल में जीवन की सिद्धि करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार मनुष्य और तिर्यञ्च गर्भावस्था के प्रारम्भ में तरल होते हैं वैसे ही जल तरल है। अतः वह जब तक किसी विरोधी वस्तु से उपहत नहीं होता तब तक सजीव हैशस्त्रानुपहतद्रवत्वात्। ईंधन आदि आहार के द्वारा अग्नि बढ़ती है, इसलिए अग्नि सजीव है- आहारेणवृद्धिदर्शनात् । वायु बिना किसी प्रेरणा के ही अनियमित रूप से घूमती है, अत: वह सजीव है- अपराप्रेरितत्वे तिर्यगनियमितगतिमत्त्वात् । वनस्पति का छेदन आदि करने से उसे ग्लानि आदि का अनुभव होता है, अत: वनस्पति सजीव हैछेदादिभिग्लानिदर्शनात् । वनस्पति की सजीवता की सिद्धि आचारांगसूत्र में मनुष्य के साथ तुलना करते हुए विस्तार से की गई है।
(7) जैनसिद्धान्तदीपिका में भी तत्त्वार्थसूत्र की भाँति धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव- इन पाँच अस्तिकाय द्रव्यों का कथन करने के पश्चात् काल को औपचारिक
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रूप से द्रव्य माना गया है। आचार्यश्री ने सभी द्रव्यों के संक्षिप्त लक्षण दिए हैं, जो तत्त्वार्थसूत्र से पूर्णतः साम्य रखते हैं। 1. धर्मद्रव्य - गतिसहायो धर्मः
जीव और पुद्गल की गति में उदासीन भाव से अनन्य सहायक द्रव्य
धर्मास्तिकाय है। 2. अधर्मद्रव्य - स्थितिसहायोऽधर्मः।
जीव और पुद्गलों के ठहरने में उदासीन भाव से अनन्य सहायक द्रव्य
अधर्मास्तिकाय है। 3. आकाशद्रव्य - अवगाहलक्षण आकाशः
सभी द्रव्यों को स्थान देने वाला द्रव्य आकाशास्तिकाय है। यहाँ पर वृत्ति में आचार्य श्री तुलसी ने स्पष्ट किया है कि दिशाएँ भी आकाश स्वरूप ही हैं,
वे स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। 4. पुद्गलद्रव्य - स्पर्शरसगन्धवर्णवान् पुद्गलः
शब्द-बन्ध-सौक्ष्य-स्थौल्य-संस्थान-भेद-तमश्छायातपोद्योत प्रभावांश्च। 5. जीव - उपयोग लक्षणो जीवः
उपयोग लक्षण वाला जीव होता है। चेतना के व्यापार को उपयोग कहते हैं। 6. काल - कालः समयादिः
समय, आवलिका, मुहूर्त आदि को काल कहते हैं। यह काल वर्तना,
परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि के द्वारा जाना जाता है। तत्त्वार्थसत्र की सरणि का उपर्युक्त लक्षणों में पूरा उपयोग किया गया है, किन्तु जैनसिद्धान्तदीपिका में परमाणु आदि के लक्षण भी दिए गए हैं, यथा
परमाणु - अविभाज्यः परमाणुः। अविभाज्य पुद्गल ही परमाणु है। स्कन्ध - तदेकीभावः स्कन्धः। परमाणुओं का एकीभाव स्कन्ध है। देश - बुद्धिकल्पितो वस्त्वंशो देशः। वस्तु का बुद्धि कल्पित अंश देश है। प्रदेश - निरंशः प्रदेशः । वस्तु के निरंश अंश को प्रदेश कहते हैं।
(8) जैन सिद्धान्त दीपिका में सभी द्रव्यों के सामान्य और विशेष गुणों को योजित किया गया है। सामान्य गुण हैं- 1. अस्तित्व, 2. वस्तुत्व, 3. द्रव्यत्व, 4. प्रमेयत्व, 5. प्रदेशवत्व, 6. अगुरूलघुत्व। विशेष गुण 16 प्रतिपादित हैं- 1. गति हेतुत्व, तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 -
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2. स्थितिहेतुत्व, 3. अवगाहहेतुत्व, 4. वर्तनाहेतुत्व, 5. स्पर्श, 6. रस, 7. गन्ध, 8. वर्ण, 9. ज्ञान, 10. दर्शन, 11. सुख, 12. वीर्य, 13. चेतनत्व, 14. अचेतनत्व, 15. मूर्तत्व तथा 16. अमूर्तत्व। इनमें से जीव और पुद्गल में 6-6 गुण तथा अन्य द्रव्यों में तीन-तीन गुण पाए जाते हैं।
यथाधर्मद्रव्य- गतिहेतुत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व = 3 गुण अधर्मद्रव्य - स्थितिहेतुत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व = 3 गुण आकाशद्रव्य - अवगाहहेतुत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व = 3 गुण काल - वर्तनाहेतुत्व, अचेतनत्व और अमूर्तत्व = 3 गुण पुद्गल - स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण , अचेतनत्व और मूर्तत्व = 6 गुण जीव - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व और अमूर्तत्व = 6 गुण
सारांश यह है कि आचार्य श्री तुलसी जी ने ई. 20वीं शती में जैन सिद्धान्तदीपिका का निर्माण करके तत्त्वार्थसूत्र का एक पूरक ग्रन्थ प्रस्तुत किया है, जिसमें तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याग्रन्थ, आगम एवं अन्य आचार्यों के मन्तव्य आधार बने हैं । जैन सिद्धान्तदीपिका में किन-किन ग्रन्थों का आधार रहा है, यह पृथक् से शोधालेख का विषय है, किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसमें षड्द्रव्यों, नवतत्त्वों एवं जैनाचार का व्यवस्थित प्रतिपादन हुआ है, साथ ही सूत्रशैली में जैनतत्त्वज्ञान को प्रस्तुत करने की परम्परा पुनर्जीवित हुई है। यह ग्रन्थ अपनी प्रयोजनता लिए हुए है। इसमें शताधिक पारिभाषिक शब्दों के लक्षण भी हैं तो सरलता एवं सूक्ष्मेक्षिका का आदि से अन्त तक निर्वाह भी है। साधारण संस्कृतज्ञ भी इसके हार्द को आसानी से हृदयंगम कर सकता है। तेरापंथ समाज में इसका पठनपाठन प्रचलित है। एकाध स्थलों पर तेरापंथ के मूल प्रवर्तक आचार्य भिक्षु का नाम आने से यह कृति तेरापंथ सम्प्रदाय तक सीमित रह गई है, अन्यथा यह जैन धर्म की सभी सम्प्रदायों और जैन दर्शन के सभी जिज्ञासुओं के द्वारा अध्येतव्य है। जैन सिद्धान्त दीपिका में ज्ञान और ज्ञेय का विशद निरूपण हुआ है, जो इसकी महत्ता और उपयोगिता को स्पष्ट करता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची : 1. जैन सिद्धान्त दीपिका, प्रशस्ति श्लोक 8 2. वही, सूत्र 5 एवं उसकी वृत्ति 3. वही, सूत्र 2 से 16
4. तत्त्वार्थ सूत्र 9.47 5. जैन सिद्धान्त दीपिका, प्रकाश-7, सूत्र 18 6. तत्वार्थ सूत्र 6
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7. जैन सिद्धान्त दीपिका, 8.1-3. 8. तत्त्वार्थ सूत्र, 9.6 9. जैन सिद्धान्त दीपिका, 5-10 10. तत्वार्थ सूत्र 1-5 11. जैन सिद्धान्त दीपिका, 6-9 12. तत्वार्थ सूत्र, 11-26 13. तत्वार्थ सूत्र, 20-31 14. जैन सिद्धान्त दीपिका, 8.2 15. जैन सिद्धान्त दीपिका 2.8 16. तत्त्वार्थसूत्र 1.14 17. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.22 18. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.24 19. तत्त्वार्थसूत्र 1.28 20. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.28 21. तत्त्वार्थ, तदनन्तभागे मन: पर्यायस्य 1.29 22. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.31 23. तत्त्वार्थसूत्र 1.30 24. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.11 25. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.5-6 26. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.13 27. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.14 28. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.15 29. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.17 30. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.18
31. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.19 32. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.20 33. तत्त्वार्थसूत्र 1.16 34. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.21 35. तत्त्वार्थसूत्र 1.20 36. तत्वार्थसूत्र, विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां
तद्विशेष: 1.25 37. तत्वार्थसूत्र, 16 38. जैन सिद्धान्त दीपिका, 10.3
अनिराकृतेतरांशो वस्त्वंशग्राही
प्रतिपत्य्युभिप्रायो नयः, 39. तत्वार्थ सूत्र, 1.34.35 40. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2.1 41. जैन सिद्धान्त दीपिका, 4.13
तच्च धर्माविनाभावि 42. जैन सिद्धान्त दीपिका 4.12 ____ शुभं कर्म पुण्यम् 43. जैन सिद्धान्त दीपिका, 4.27 . 44. उत्तराध्ययनसूत्र 25.10 45. जैन सिद्धान्त दीपिका, 6.1 46. उत्तराध्ययन सूत्र 28.2 47. तत्त्वार्थसूत्र 10.1 48. जैन सिद्धान्त दीपिका, 5.19 49. आचारांग 1.1.5
एसोशिएट प्रोफेसर संस्कृत-विभाग जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय जोधपुर (राजस्थान)
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कुमाऊँ में जैन और बौद्ध धर्मों का प्रभाव
अवशिष्ट चिह्नों के सन्दर्भ में
- डॉ. कमला पन्त
हमारा देश हजारों वर्षों से महान् सभ्यता का केन्द्र रहा है। भारत के मन्दिर और शिल्पकला विशुद्ध भारतीय प्रतिभा हैं। यहाँ के मन्दिर उसी प्रकार की अपनी चीज है जैसे मिस्र के पिरामिड या एथेन्स के पारथेनान।' हमारे देश में विविध आराधना पद्धतियाँ और विचारधारायें पल्लवित और पुष्पित हुई हैं। भारतीय धर्म और आस्था रूपी महावृक्ष की जैसे वैदिक धर्म एक शाखा है उसी प्रकार जैन धर्म और बौद्ध धर्म भी शाखायें हैं। जरा-मरण के क्लेश से मुक्ति पाना प्राचीन उपनिषद्कालीन ऋषियों को भी लक्ष्य था और महावीर और बुद्ध का भी श्रुतिप्रमाण का निषेध करने के कारण ये अवैदिक कहे गए।
___ अपने आराध्यों को देवालयों में स्थापित करने की परम्परा सभी भारतीय धर्मों में दिखायी देती है। विभिन्न सम्प्रदायों की मान्यता, आराध्य और शिल्प के अन्तखश फर्गुसन, फूचे आदि विद्वानों ने मन्दिरों को भी ब्राह्मण मन्दिर, जैन मन्दिर और बौद्ध मन्दिर जैसे वर्गों में बाँटने का प्रयास किया। ब्राह्मण मन्दिरों के शैव और वैष्णव नाम से उपभेद किए गए। मन्दिर बनाने का उद्देश्य थाआध्यात्मिक चिन्तन के लिए शान्त, आराध्य देव की कल्पना से युक्त स्थल, मन्दिर के अन्दर प्रतिष्ठित मूर्ति का चिन्तन और मनन करके मन को एकाग्र करना।
भारत के पश्चिमी उत्तरप्रदेश के पर्वतीय स्थानों में असंख्य मन्दिर हैं। अद्भुत प्राकृतिक सौन्दर्य से समृद्ध उत्तराखण्ड या उत्तराञ्चल के अन्तर्गत कुमाऊँ और गढ़वाल दो मण्डल आते हैं। भारत का यह क्षेत्र ऋषि मुनियों की
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तपोभूमि रहा है। इस पावन भूमि पर हिन्दू धर्म के महात्माओं की ही नहीं अपितु सिख, जैन, बौद्ध आदि समस्त धर्मों के महापुरुषों की चरण धूलि पड़ी है और विविध धर्मों के आराध्य स्थल और आराध्यों के स्मृतिचिह्न मिलते हैं। प्रस्तुत लेख में कुमाऊँ मण्डल में यत्र-तत्र विकीर्ण जैन और बौद्ध मन्दिरों एवं आराध्यों के अवशेष या स्मृतिचिह्नों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
-- भौगोलिक दृष्टिकोण से कुमाऊँ मण्डल का वर्तमान विस्तार 28° 98°- 45" 30° 50° उत्तरी अक्षांश तथा 76°6' 80° 58' 15" देशान्तर के बीच है। यहाँ के लोगों की गहरी आचारनिष्ठा, सरलता, धर्मपरायणता और मन्दिरों का बाहुल्य होने के कारण इस क्षेत्र को देवभूमि भी कहा जाता है। कुमाऊँ मण्डल के अन्तर्गत नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चम्पावत बागेश्वर और अधमसिंहनगर जनपद आते हैं। धार्मिक दृष्टि से कुमाऊँ का क्षेत्र मुख्यतः शैवों और शाक्तों की भूमि रही है। अन्य देवी-देवताओं के मन्दिर इनकी तुलना में बहुत कम हैं। शक्ति के मन्दिर प्रायः चौटियों पर एवं शिव के घाटियों में, नदी तट या श्मशान भूमि पर स्थित हैं। इसके अतिरिक्त विविध ग्राम देवताओं और शक्ति के विभिन्न रूपों की यहाँ पूजा की जाती है।
जैनधर्म भारत का अति प्राचीन धर्म है। इसमें तीर्थंकर आदर्श और आराध्य माने जाते हैं। इन्हें ईश्वरस्थानीय तत्व कह सकते हैं। तीर्थ का अर्थ है- घाट या किनारा। ऐसे जिनों अर्थात् तरन-तारन (भवसागर से पार उतारने वाले) महात्माओं ने असंख्य जीवों को इस संसार से तार दिया, किनारे लगा दिया। अवतार और तीर्थंकर में मौलिक अन्तर है। वैदिक धर्म के अनुसार 'अवतार' ईश्वर के प्रतिरूप होते हैं जो समय-समय पर अनेक रूपों में जन्म लेते हैं। तीर्थंकर एक ऐसी अवस्था है जिसमें मनुष्य आध्यात्मिक शुद्धि करके परमात्मा बन जाता है। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा या ईश्वर बन सकता है किन्तु वैदिक मान्यता का ईश्वर एक है। उसका स्थान अन्य कोई नहीं ले सकता। जैन धर्म में चौबीस तीर्थंकर माने गए हैं- ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनन्दन, सुमतिनाथ, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, मुनिसुव्रत, नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर।
वैसे तो कुमाऊँ में वर्तमान में जैनधर्म के अस्तित्व या प्रभाव का प्रायः कोई भी विशेष प्रमाण नहीं मिल सका है किन्तु कहीं-कहीं पर बिखरे-दबे अवशेषों के आधार पर कहा जा सकता है कि जैन धर्म का अतीत में वहाँ पर कुछ प्रभाव अवश्य रहा है और कुमाऊँ वासी इस धर्म के व्यापक प्रचार-प्रसार से अछूते नहीं रहे हैं।
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अल्मोड़ा जिले में लमगड़ा से करीब 5 किलोमीटर बमनसुयाल में कुछ प्राचीन मन्दिर प्रकाश में आए। इन मन्दिरों के अतिरिक्त यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण पाषाण प्रतिमायें भी हैं। इनमें से एक अल्मोड़ा के जनपदीय पुरातत्त्व संग्रहालय में प्रदर्शित है जिसे जैन तीर्थंकर नेमिनाथ की माना गया है। खण्डित यज्ञ सहित कुछ तीर्थंकरों की प्रतिमायें पर्वत चोटियों पर मिलती हैं। अल्मोड़ा जिले के द्वारहाट के कालीखोली के पास वन के बीच में प्रस्तरखण्ड पर बनी प्रतिमा है। सम्भवतः यह पार्श्वनाथ की है।' गोएट्ज के अनुसार जैन अभिरुचि के अनुसार निर्मित गूजर देवल (ध्वज) मन्दिर द्वारा हाट नगर और उसके आसपास जैनधर्म के अस्तित्व का प्रमाण है। यह गुजरात के माउण्ट आबू और राजस्थान के जैनमन्दिरों के समान बना है।'
सन् 1958 ई. में नैनीताल के नैनादेवी मन्दिर की सफाई और खुदाई की गयी थी। उस समय तीर्थंकरों की एक मथुरा शैली की मूर्ति मिली थी। लाल बलुबा पत्थर की बनी इस मूर्ति के पार्श्व में गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में मूर्ति निर्माण की सूचना देने वाला एक लेख भी अंकित था। सफाई करते समय सिन्दूर की मोटी तह के हटते ही प्रतिमा स्पष्ट दिखायी दी। यह प्रतिमा 211/2 इञ्च लम्बी, 81/2 इञ्च चौड़ी और करीब 4 इञ्च मोटी है। अग्र शिलापट्ट पर 25 मानव आकृतियाँ खंचित हैं। पहली आकृति का सिर कुछ टूट गया है।
प्रत्येक आकृति लगभग दो इञ्च लम्बी है। पहली पाँच पंक्तियों में से प्रत्येक में चार-चार आकृतियाँ हैं और छठी पंक्ति में पाँच हैं। वेशभूषा की दृष्टि से अन्तिम नारी आकृति को छोड़कर सभी मूर्तियाँ नग्न और कायोत्सर्ग (काउस्सग) मुद्रा में अंकित हैं। लम्बे झूलते हुए हाथ, तरुण और स्वस्थ शरीर, रूप भास्वरता, तमो नग्नता इन प्रतिमाओं की निजी विशेषतायें हैं। ये चौबीस नग्न पुरुष आकृतियाँ जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की हैं। सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व (दूसरी पंक्ति में तीसरी प्रतिमा) और 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ (अन्तिम पंक्ति की तीसरी प्रतिमा) के अस्तित्व सभी मूर्तियाँ समान हैं, सिर पर अंकित सात नागफणों के कारण ये दो प्रतिमायें सबसे अलग लगती हैं। ओजस्वी ललाट, मुख पर मृदुल आनन्द की आभा और आत्मीय शान्ति की व्यञ्जना इन प्रतिमाओं की अपनी विशेषता है। मूर्तियों के नीचे उनके विशिष्ट प्रतीक अंकित नहीं हैं। ऐसा मध्ययुगीन जैन मूर्तियों में अपवादरहित रूपेण मिलता है।
जिस फलक पर तीर्थंकरों की प्रतिमायें हैं, उस पर दाहिनी ओर 5 इंच लम्बे और 3.5 इंच चौड़े भाग में एक शिलालेख है। प्रथम पंक्ति में “ओम्' सहित 6, दूसरीतीसरी-चौथी पंक्तियों में प्रत्येक में पांच और अन्तिम में एक अक्षर है। प्रथम पंक्ति से 4
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इंच ऊपर एक कोने पर तीन और अक्षर उत्कीर्ण हैं, इन्हें सम्वत् मान सकते हैं । लेख इस प्रकार है
ओम् आ /चार्य /इन्द्र नन्दि /शि /व्या /य है /द /रिपा /वां य /ति /स्य (ष्य) पौ /लै (ण)
अभिलेख की लिपि गुप्तकालीन ब्राह्मी है, अतः यह प्रतिमा छठी सदी के आसपास की कही जा सकती है।" प्रतिमा के ऊपर सम्वत् में तीन अक्षर क्रमशः 1, 5 और 9 पढ़ें जा सकते हैं। उस समय भारत के अधिकांश अभिलेखों में गुप्त सम्वत् प्रयुक्त हैं जो 319-20 ई. से आरम्भ किया गया है। जैसा कि गढ़वाल क पाण्डुकेश्वर से प्राप्त ताम्रपलों से पता चलता है। अत्यन्त दु:ख की बात है कि ये प्रतिमायें चोरी हो चुकी हैं। इस तरह इसमें आचार्य इन्द्रनन्दी के शिष्य तिष्य द्वारा अर्हत् परिपार्श्व के सम्मान में मूर्ति निर्माण की सूचना देने वाला लेख है। 24 प्रतिमायें, एक नारी प्रतिमा, फलक पर अंकित लेख, उत्कीर्ण सम्वत्, भाव भंगिमायें, वेशभूषा, अन्य पूर्वोक्त अवशेषों आदि से सिद्ध होता है कि कुमाऊँ में तीर्थंकरों का प्रभाव था। यद्यपि नारी प्रतिमा के विषय में अधिक विवरण नहीं मिल सका है।
बौद्धों द्वारा प्रार्थना, स्तुति, गाना बजाना और निराकार शक्ति को पुष्पादि सुगन्धित द्रव्य समर्पित करना वैदिक युगीन प्रकृति पूजा से मिलता था। बाद में बौद्ध पुजारियों ने इसमें तान्त्रिकता और पाशविक पूजा भी सम्मिलित कर ली। कुमाऊँ में कत्यूरी राजवंश का शासन रहा है। इससे सम्बद्ध अनेक जनश्रुतियाँ, लोकपरम्परायें और अभिलेखीय साक्ष्य हैं। उनकी राजधानी कत्यूर आधुनिक गरुड़ वैजनाथ घाटी थी। कत्यूरी राजाओं के बौद्ध धर्म के अनुयायी होने के कारण (राजधर्म-होने से) आठवीं सदी तक कुमाऊँ में बौद्ध धर्म होने के अनेक प्रमाण मिलते हैं, इन प्रमाणों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है।
ह्यन सांग भारत के इस क्षेत्र में भी आए थे और उन्होंने बौद्ध धर्म के यहाँ होने का वर्णन किया है जबकि वे इस क्षेत्र में जैन धर्म के प्रभाव के बारे में मौन हैं, कनिंघम की पुस्तक के अनुसार ह्यनसांग (चीनी यात्री युवान चांग) 643ई. में गोविषाष नगर में आया। आधुनिक काशीपुर का नाम तब गोविषाण था और यह "सुघ्न" राज्य कालसी (देहरादून) का एक भाग था। यह राजधानी 21/2 मील (4 किलोमीटर) की गोलाई में
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थी। यह भूमि ऊँची, मजबूत और कठिनता से पहुँचने योग्य थी। यह स्थान, बागों, तालाबों और मछली के कुण्डों से घिरा था। यहाँ 30 ब्राह्मण धर्म के मन्दिर और दो मठ थे। इनमें 100 साधु थे। नगर के बाहर बड़े मठ में 200 फीट ऊँचा अशोक का स्पूत था, वहाँ महात्मा बुद्ध ने लोगों को धर्मोपदेश दिया था। वहाँ एक स्तूप में बुद्ध के नख और बाल थे। इसके दाहिनी ओर वाले स्तूप में सारिपुत्र और बायीं ओर वाले स्तूप में मौदगलायन के बाल और नाखून सुरक्षित हैं । यहाँ अन्य बौद्ध अर्हतों के बहुत से स्तूप हैं। तथागत के निर्वाण के बहुत समय बाद यहाँ बौद्धधर्म समाप्त प्रायः हो चुका था। शंकराचार्य के समय से तो बौद्ध धर्म का प्रभाव शून्य हो गया था। किन्तु इससे पहले तथागत के निर्वाण के उपरान्त बहुत समय बाद की बात है, उस समय देश के अन्य स्थानों से आकर बौद्ध विद्वानों ने अन्य धर्मों और मतों के आचार्यों को शास्त्रार्थ, वाद-विवाद में पराजित किया एवं इस विजय के उपलक्ष्य में पाँच विहारों का निर्माण किया। इस देश (स्थान) में सौ देवमन्दिर हैं।” दुर्भाग्यवश अब कम देखने को मिलते हैं।
"रामेश्वर माहात्म्य" में चम्पावत के बालेश्वर मन्दिर के पास एक बौद्ध तीर्थ का उल्लेख है। विद्वानों के विचारानुसार यह आधुनिक चम्पावत जिले का घटकेश्वर मन्दिर होना चाहिए। हल्द्वानी और टनकपुर के बीच में स्थित "सीनापानी" में कुछ वर्ष पूर्व एक बौद्ध स्तूप के खण्डहर मिले हैं, मार्गक्रम इस तरह है- हल्द्वानी-चोरगलियाद्योलासाल-पीला पानी (भौरियासिमल) दुगाड़ी-सेनापानी-कलौनीद्दिन-टनकपुर । पीलापानी से दक्षिण की ओर कुछ दूर सुदलीमठ की वन चौकी है। पिथौरागढ़ के ग्रामदेवता "ऐडी" का मूल स्थान जो दुगाड़ी से उत्तर की ओर एक ऊँची पहाड़ी ब्यानधुरा कही जाती है।” कुमाऊँ में ग्राम देवताओं को जागृत (जागर) करने के लिए कथा (जागर) कहने की परम्परा है। ऐडी देवता के जागर में कुमाऊँ में मुगल आक्रमण का उल्लेख है। सम्भवतः सेनापानी और सुदलीमठ के बौद्धस्तूप उस समय नष्ट हुए होंगे। सेनापानी के एक लाल बलुवा पत्थर के स्तम्भ का खण्ड नैनीताल के इतिहास विभाग के संग्रह में हैं। काली कुमाऊँ (चम्पावत) में गोरखनाथ और ढेरनाथ के भी मन्दिर हैं। गोरखनाथ कनफटे साधुओं के गुरु और शिव के अवतार माने जाते हैं। यह 15वीं सदी में हुए थे। इनके गुरु मत्स्येन्द्र (मछीन्द्र) नाथ थे। ये बौद्ध कहे जाते हैं पर बाद में सनातनी हो गए थे।
अल्मोड़ा जिले के वैजनाथ में (आधुनिक नाभ गरूड-वैजनाथ) कत्यूरी शासकों की राजधानी कत्यूर के अवशेष विद्यमान हैं। कत्यूरी नाम प्रो. डी.सी. सरकार के अनुसार कर्तृपुर या कार्तिकेयपुर से लिया गया है। सम्भवतः इसी से इस घाटी का नाम 20 -
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बिगड़ कर कत्यूर हुआ हो । अधिकांशतः यहाँ टूटी हुई मूर्तियाँ हैं । राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यहाँ एक जली हुई कथित बुद्ध मूर्ति भी है । इस तरह बौद्ध धर्म के प्राचीनकाल में कुमाऊँ में व्यापक प्रभाव के अनेक प्रमाण मिलते हैं । यद्यपि वर्तमान में कुमाऊँ से बौद्धधर्म लुप्तप्राय हो चुका है।
उपरोक्त विस्तृत विवरण के निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि कुमाऊँवासियों लिए जैन और बौद्ध धर्म या विचारधारा सर्वथा अनजानी वस्तु नहीं थे । यहाँ के लोगों का उनसे वैचारिक ही नहीं, आस्था और पूजन के स्तर पर भी परिचय रहा है । यद्यपि वर्तमान समय में यहाँ जैन और बौद्ध दोनों धर्मों का प्रभाव नगण्य-सा ही है । पर्वतीय क्षेत्र . होने से समय-समय पर भूस्खलन, प्राकृतिक आपदायें यहाँ की नियति रही हैं। यहाँ की मिट्टी की तहें अपने अन्दर कितनी सांस्कृतिक धरोहरों और धार्मिक सौमनस्य के चिह्नों को अपने अन्दर छुपाए हैं- यह कहा नहीं जा सकता। पुरातात्त्विक दृष्टिकोण से यदि इस क्षेत्र की खोजबीन, उत्खनन आदि किया जाए तो सम्भवत: कई नवीन और रोचक तथ्य उद्घाटित हो सकते हैं ।
सन्दर्भ
1. भारत के मन्दिर, भारत सरकार, प्रकाशन विभाग
2. भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ. 76
3. कुमाऊँ के देवालय, जगदीश्वरी प्रसार, पृ. 3
4.
मध्यकालीन साहित्य में अवतारवाद, डॉ. कपिलदेव पाण्डेय, पृ. 368--369
5. जैनधर्म क्या कहता है? पृ. 11
6.
अल्मोड़ा जनपद: पुरातात्विक दृष्टिकोण, आस्था, 1989-92, अंक, 10, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा की पत्रिका, डी. एन. तिवारी
7. कुमाऊँ के देवालय, जगदीश्वरी प्रसाद, पृ. 208
8.
द आर्ट ऑप चम्बा इन द इस्लामिक रीरिअड, एच. गोएट्ज, जर्नल ऑफ ओरिएण्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा, खण्ड-1, दिसम्बर 1961
9. कुमाऊँ के देवालय, जगदीश्वरी प्रसाद, पृ. 208
10. नैनीताल की जैन तीर्थंकर प्रतिमा, श्री नन्दादेव महोत्सव, नैनीताल की स्मारिका, 1978, ताराचन्द्र
त्रिपाठी, पृष्ठ 29-31
11. वही,
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12. कुमाऊँ के देवालय, जगदीश्वरी प्रसाद, पृ. 207 13. दत्त्वा रुद्धगति: खसाधिपतये देवी ध्रुवस्वामिनी,
यस्मात्खण्डित साहसो निववृते श्री शर्मगुप्तो नृपः। गीयन्ते तव कार्तिकेयनरे स्त्रीणां गणैः कीर्तयः॥ -उत्तराखण्ड का इतिहास, खण्ड-1 पृ. 385, डॉ. शिवप्रसाद डबराल 'चारण', वीरगाथा प्रकाशन,
दोगड्डा, गढ़वाल 14. कुमाऊँ के देवालय, जगदीश्वरी प्रसाद, पृ. 205 15. आर्केइओलॉजी ऑफ इण्डिया, कनिंघम, खण्ड-1 पृष्ठ 252 16. कुमाऊँ का इतिहास, बद्रीदत्त पाण्डेय, पृ. 53-54 17. पिथौरागढ़ः संस्कृति और पुरातत्त्व, अंक 1, 1986, पृ. 7-8 (वाटर्स, पृ. 315-322) 18. पिथौरागढ़ः संस्कृति और पुरातत्त्व, पृ. 14 19. कुमाऊँ के देवालय, जगदीश्वरी प्रसाद, पृ. 204 20. हिमालय का इतिहास, भाग-1, डॉ. मदनचन्द्र भट्ट, विभागाध्यक्ष इतिहास, राजकीय स्नातकोत्तर
महाविद्यालय, गोपेश्वर (चमोली), पृष्ठ 22 1981 21. कुमाऊँ के देवालय, जगदीश्वरी प्रसाद, पृ. 199 22. कुमाऊँ तथा डॉ. आर.सी. मजूमदार- 'चम्पा', पृ. 65, 359, राहुल सांकृत्यायन
डॉ. कमला पन्त C/o प्रो. जे. एन. जोशी कृष्णापुर महल कृष्णापुर तल्लीताल नैनीताल, यू.पी.
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क्या विद्युत (इलेक्ट्रीसिटी ) सचित्त तेउकाय है?
क्या विद्युत् सचित्त तेउकाय है? इस चिन्तन के सन्दर्भ में प्रो. मुनि महेन्द्र कुमारजी द्वारा लिखित समीक्षात्मक आलेख पिछले चार अंकों में क्रमशः पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है। यह सम्पूर्ण सामग्री अब जैन विश्व भारती, लाडनूं द्वारा पुस्तक रूप में प्रकाशित भी हो चुकी है।
_क्या विद्युत् सचित तेउकाय है? यह विषय जितना आगमिक है उतना ही वैज्ञानिक एवं सामयिक है। इस विषय पर मुनिश्री जी ने समीक्षात्मक विचार-प्रस्तुति की है जो अत्यन्त गहन, गम्भीर, आगम सम्मत एवं वैज्ञानिक प्रमाणों के साथ जुड़ी हुई है। आज जरूरत है, विद्वद् वर्ग अनेकान्तिक दृष्टि से वस्तु के प्रत्येक पहलू को समझें और उसे स्वीकार करें । सत्य की खोज का यही सही रास्ता है।
तुलसी प्रज्ञा इस अंक के साथ इस आलेख को पूर्णता दे रही है। इस सन्दर्भ में कुछ और भी जानकारियां, आगमिक ग्रन्थों के सन्दर्भ एवं अन्य चिन्तकों के विचार आप प्रकाशित पुस्तक के माध्यम से पढ़ सकते हैं।
-सम्पादक
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तुलसी प्रज्ञा अंक 124 के बाद प्रश्न- 20 इलेक्ट्रीसीटी को निर्जीव बताने वाला आगम पाठ कौन-सा है?48
उत्तर- यदि किसी आगम में जब यह पाठ नहीं है कि "इलेक्ट्रीसीटी" सचित्त तेउकाय है, तब यह अपेक्षा करना कि उसे निर्जीव सिद्ध करने वाला आगमपाठ कौनसा है कैसे संभव है? इसी प्रकार "यदि इलेक्ट्रीसीटी निर्जीव होती, तो सर्वज्ञ द्वारा जरूर यह बात आगम में प्रतिपादित हो जाती", इस तर्क के प्रतिपक्ष में क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि "यदि इलेक्ट्रीसीटी सजीव होती, तो आगम में यह तथ्य जरूर प्रतिपादित हो जाता"? इस प्रकार के व्यर्थ तर्क-विर्तक से क्या हम किसी नतीजे पर पहुंच सकते हैं?
हमें जो चिन्तन करना है वह यह होना चाहिए कि आगम में ऐसे कौन-से तथ्य उपलब्ध हैं जिनके आधार पर यह बहुत स्पष्ट अनुमान किया जा सके कि इलेक्ट्रीसीटी सजीव है या इलेक्ट्रीसीटी निर्जीव है।
हमने प्रारम्भ में ही इलेक्ट्रीसीटी और स्निग्धत्व-रूक्षत्व नामक पुद्गल-गुणों को विस्तार से जो विवेचन किया था, वह आगम आधारित ही है। उसी विवेचन के परिप्रेक्ष्य में-स्निग्ध-रूक्ष-स्पर्श और इलेक्ट्रीसीटी की समानता से यह स्पष्ट होता है कि इलेक्ट्रसीटी मूलत: पुद्गल का मौलिक गुण है। जैन आगमों में स्निग्ध-रूक्ष-स्पर्श के आधार पर ही परमाणु से स्कन्ध बनने की प्रक्रिया को बताया गया है। यह बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि जैन दर्शन और विज्ञान दोनों ने सभी पदार्थों की रचना में स्निग्ध-रूक्ष-स्पर्श अथवा ऋण (Negative) और घन (Positive) इलेक्ट्रीक चार्ज को ही आधारभूत माना है। इससे बढ़कर और क्या आगम प्रमाण इलेक्ट्रीसीटी को निर्जीव मानने के लिए हो सकता है? जैन दर्शन ने शरीर में दस प्राण के रूप में जैव विद्युत् की ऊर्जा को स्वीकार कर तथा अब वैज्ञानिकों ने जैव विद्युत् को समस्त शारीरिक क्रिया का आधार बनाकर स्पष्ट रूप से निरूपण किया है कि यह पौद्गलिक शक्ति किस प्रकार जीव द्वारा प्रयुक्त होती है और सभी प्राणी इस प्राण यानी जैव विद्युत् की ऊर्जा से ही जीवित है। इन आधारों पर कहीं पर भी कोई शंका नहीं रह जाती कि मूलतः अपने आप में इलेक्ट्रीसीटी भौतिक या पौद्गलिक परिणमन है, ऊर्जा है। इसी के विभिन्न परिणमन ध्वनि, प्रकाश, गति, चुंबकत्व, उष्मा आदि के रूप में होने का तात्पर्य यही है कि ये सारे भौतिक ऊर्जा के रूप में इलेक्ट्रीसीटी के रूपान्तरण-स्वरूप उत्पन्न हो सकते हैं। जब तक इलेक्ट्रीसीटी का रूपान्तरण कंबश्चन द्वारा अग्नि का रूप धारण नहीं करता, तब तक वह पौद्गलिक ही
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है। पदार्थ में विद्यमान स्थित विद्युत् (Static electricity) धातु के तार में प्रवाहमान प्रवाह रूप विद्युत् तथा ऑक्सीजन और ज्वलनशील पदार्थ के अभाव में होने वाले 'डीस्चार्ज' रूप विद्युत् आदि अपने आप में निर्जीव हैं ।
प्रश्न-21 " हालाँकि ओघनियुक्ति वगैरह में निर्जीव तेउकाय के नाम मिलते हैं । परन्तु उन निर्जीव तेउकाय के नामों में कहीं भी बिजली का नाम तो देखने को नहीं मिलता। इसके विपरीत बिजली का निश्चय से सजीव होने का उल्लेख ओघनिर्युक्ति में 'विज्जुयाइ निच्छइओ' (गा. ३५८) इन शब्दों से तथा पिंडनियुक्ति में 'विज्युयाइ निच्छयओ' (गा. ३६) इन शब्दों द्वारा मिलता है । ओघनियुक्ति व्याख्या में द्रोणाचार्यजी लिखते हैं कि‘विद्युदादिको नैश्चयिको भवति' (गा. ३५९ वृत्ति) तथा पिंडनिर्युक्तिव्याख्या में समर्थ टीकाकार श्रीमलयगिरिसूरिजी महाराज ने भी अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि 'विद्युदुल्का - प्रमुख : तेजस्कायो निश्चयतः सचित्त:' (गा. ४२ वृत्ति)
ज्यादा महत्त्व की एक बात यह है कि अत्यन्त लाल तपे हुए महाकाय लोहे के गोले के एकदम अन्दर शुद्ध अग्निकाय के जीव तथा ईंट की भट्टी के नीचे के मध्य भाग में निश्चय से बादर तेउकाय के जीव होते हैं - यह बात आगमज्ञों के लिए प्रसिद्ध है । श्रीज्ञाताधर्मकथाव्याख्या में श्री अभयदेवसूरिजी महाराज ने 'शुद्धाग्निः अयस्पिण्डान्तर्गतः अग्निः' (१,१६,१६३) ऐसा बताया है तथा जीवाभिगमसूत्र व्याख्या मे और पन्नवणा व्याख्या में श्री मलयगिरिसूरिजी महाराज ने बताया है कि 'शुद्धाग्निः अयः पिण्डदौ ' (जीवा. १,३३ पन्न, पद- १,३१ वृत्ति) अर्थात् एकदम लाल तपे हुए लोहे के गोले इत्यादि
शुद्ध अग्निकाय जीव होते हैं। मलधारी श्री हेमचन्द्रसूरिजी महाराजा ने जीवसमास व्याख्या में ‘अयस्पिण्डाद्यनुविद्धो ज्वालादिरहितः अग्निः' (गा. ३२) ऐसा कहकर गरम लोहे के गोले में अग्निकाय जीव को स्वीकार किया है । दशवैकालिकवृत्ति में श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने 'अग्नि अयःपिण्डानुगतम्' (द.वै. ८,१८ वृत्ति) ऐसा कह कर अत्यन्त तप्त और एकदम लाल बन चुके लोहे के गोले के भीतर में बादर अग्निकाय जीव होते हैं - ऐसा सूचित किया है । इसीलिए वहाँ ऐसे गरम लोहे के गोलों का संघट्टा (स्पर्श) न हो जाए, इस आशय से सावधानी रखने की सूचना साधु भगवंतों को दी है।
पिंडनिर्युक्ति में अत्यंत स्पष्ट रूप से श्री भद्रबाहुस्वामीजी द्वारा कहा गया है कि 'इट्ठगपागाईण बहुमज्झे, विज्जूयाइ निच्छइओ' (गा. 36) अर्थात् ईंट की भट्टी के मध्य भाग में निश्चय से सजीव बादर तेउकाय होते हैं। ओघनियुक्ति में भी श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने 'इट्ठगपागाइणं बहुमज्झे, विज्जुयाइ निच्छइयो' (गा. ३५९ ) ऐसा बताया है। तदनुसार गच्छाचारपयन्ना व्याख्या में श्रीवानर्षिगणी ने भी 'इष्टकापाकादिमध्यगो विद्युदादिकश्च तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2004
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नैश्चयिक:' (गा.७५) ऐसा कह कर 'ईंट की भट्टी वगैरह के मध्य भाग में स्थित अग्नि तथा बिजली इत्यादि नैश्चयिक सजीव अग्निकाय जीव है' ऐसा स्पष्ट रूप से बताया है।
' जत्थ इंगाला कज्जति सा इंगालकारी, तत्थ य वाऊक्कातो' (१६,१,६६२ ) इस तरह भगवतीचूर्णि के वचनानुसार जहाँ अंगारे बनाने में आते हैं वहाँ वायुकाय होता है, इस प्रकार के सिद्धान्त अनुसार तथा भगवतीसूत्र में 'न विणा वायुकाएणं अगणिकाए उज्जलइ' (शतक - १६, उद्देशो - १, सूत्र - ६६२ ) इस प्रकार बताए अनुसार 'वायु के बिना अग्नि जल नहीं सकती' इस नियम के मुताबिक एकदम लाल हो चुके गरम लोहे के महाकाय गोले के मध्यभाग में, ईंट की भट्टी के अन्दर के मध्य भाग में, कुम्हार की भट्टी के मध्य भाग में बादर वायुकाय का अस्तित्व... मान्य करना पड़ेगा ही । वहाँ वायुकाय किस प्रकार पहुँचेगा? अपने अनुभव में आने वाले वायु का तो दिवाल इत्यादि द्वारा प्रतिघात / प्रतिबंध / अवरोध होता है । इसलिए अत्यन्त तप्त नक्कर लोहे के बड़े गोले के मध्य भाग में तथाविध अप्रतिघाती (लोहे आदि नक्कर धातुएँ भी जिसके आवागमन में अवेराध - अटकाव न करें) ऐसे वायु का अस्तित्व सिद्ध होता है ।
सात लाख योनि वाले विविध वायु के सापेक्ष भाव से प्रतिघाती - अप्रतिघाती इत्यादि प्रकार मानने में किसी भी प्रकार का आगम विरोध नहीं आता है । अत्यन्त लाल तपे हुए नक्कर (ठोस) लोहे के बड़े गोले में किसी भी प्रकार से जिसका प्रतिघात / अवरोध (रूकावट) नहीं हो सकता, ऐसे वायु का प्रवेश हो सकता है तो खोखले/पोले बल्ब में तथाविध अप्रतिघाती वायु का प्रवेश क्यों नहीं हो सकता?
'पुढ़वी दग अगणि मारूअ इक्किक्के सत्तजोणि लक्खाओ' (गा. ९६८ ) ऐसा कह कर प्रवचनसारोद्धार ग्रंथ में माननीय श्री नेमिचंद्राचार्यजी ने अग्निकाय की तरह वायुकाय की भी सात लाख योनि बताई हैं । इसलिए विविध प्रकार के वायु में से कुछ निश्चित प्रकार के वायु का अस्तित्व और प्रवेश तो लाल तपे हुए लोहे के गोले, भट्टी के अन्दर के मध्यभाग, बल्ब इत्यादि में आगमानुसार भी स्वीकार किए बिना नहीं चल
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सकता।'
उत्तर- ओघनिर्युक्ति, पिडंनिर्युक्ति तथा व्याख्या ग्रन्थों (जैसे पिंडनिर्युक्ति व्याख्या, ज्ञाताधर्म कथा व्याख्या, पण्णवणा व्याख्या, जीव समास व्याख्या, दशवैकालिक वृत्ति, गच्छाचारपयन्ना व्याख्या आदि) में जो उल्लेख है, उनमें मूल पण्णवणा, दशवैकालिक आदि आगमों में प्रतिपादित अग्नि के स्वरूप को ही पुष्ट किया गया है, नया कुछ भी नहीं है ।
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शुद्धाग्नि-अयस्पिण्डान्तर्गत ज्वाला-विरहित अग्नि या निरिन्धन अग्नि के रूप में प्रतिपादित है। यह भी अन्य अग्नि की तरह ही अग्नि में लोहे आदि को तपाने पर उत्पन्न होती है।
डॉ. जे. जैन के अनुसार अभिधान राजेन्द्र कोश पृष्ठ-2347 पर तेउकाय की व्याख्या में इन्हीं सब ग्रन्थों के आधार पर अग्नि काय के तीन प्रकार बताये हैं
1. सचित्त, 2. अचित, 3. मिश्र सचित्त के दो प्रकार है- 1. निश्चय 2. व्यवहार
निश्चय से सचित्त के उदाहरण हैं- ईंट की भट्टी या कुम्हार की भट्टी का मध्य भाग अथवा आकाशीय विद्युत् (lighting) ये अग्नियां उत्कट ताप, प्रकाश, ज्वलनशील पदार्थों की विद्यमानता तथा ऑक्सीजन के प्रयोग से प्रकट होती है। इनका अग्निकायिक स्वरूप स्पष्ट ही है।
व्यवहार सचित्त अग्नि में अंगारे, ज्वाला-रहित अग्नि आदि का समावेश है। मिश्र तेउकाय में मुर्मुर (अग्नि में से निकलने वाली चिनगारियां) आदि हैं।
अचित्त तेउकाय में - अग्नि द्वारा पके हुए भोजन, तरकारियां, पेय पदार्थ एवं अग्नि द्वारा तैयार की गई लोहे की सूई आदि वस्तुएं तथा राख, कोयला आदि अचित्त तेउकाय है। भगवती सूत्र, शतक 5, उद्देश्य 2 के अनुसार -
"भन्ते ! ओदन, कुल्माष और सुरा-इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है?" गौतम! ओदन, कुल्माष और सुरा में जो सघन द्रव्य हैं, वे पूर्व पर्याय-प्रज्ञापन की अपेक्षा से वनस्पति-जीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् वे शस्त्रातीत और शस्त्र-परिणत तथा अग्नि से श्यामल, अग्नि से शोषित और अग्नि-रूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है। सुरा में जो द्रव द्रव्य हैं, वे पूर्व पर्याय-प्रज्ञापन की अपेक्षा से जल-जीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निरूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों को शरीर कहा जा सकता हैं।"
"भंते ! लोहा, तांबा, रांगा, सीसा, पाषाण और कसौटी-इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है?"
गौतम! लोहा, तांबा, रांगा, सीसा, पाषाण और कसौटी-ये पूर्व पर्याय-प्रज्ञापन की अपेक्षा से पृथ्वी-जीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निरूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता है।" तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004
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" भन्ते ! अस्थि, दग्ध अस्थि, चर्म, दग्ध चर्म, रोम, दग्ध रोम, सींग, दग्ध सींग, खुर, दग्ध खुर, नख और दग्ध नख-इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है?"
__"गौतम! अस्थि, चर्म, रोम, सींग, खुर और नख-ये त्रस प्राण-जीवों के शरीर हैं। दग्ध अस्थि, दग्ध चर्म, दग्ध रोम, दग्ध सींग, दग्ध खुर और दग्ध नख-ये पूर्व पर्यायप्रज्ञापन की अपेक्षा त्रस-प्राण जीवों के शरीर हैं। उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निरूप में परिणत होने पर इन्हे अग्नि-जीवों का शरीर कहा जाता है।"
"भंते ! अंगार, राख, बुसा, और गोबर-इन्हें किन जीवों का शरीर कहा जा सकता है?
गौतम! अंगार, राख, बुसा और गोबर-ये पूर्व- पयार्य-प्रज्ञापन की अपेक्षा से एकेन्द्रिय जीवों द्वारा भी शरीर-प्रयोग में परिणमित भी है, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों द्वारा भी शरीर-प्रयोग में परिणमित है। उसके पश्चात् वे शस्त्रातीत यावत् अग्नि-रूप में परिणत होने पर उन्हें अग्नि-जीवों का शरीर कहा जा सकता हैं।" "50
भगवती-भाष्य 51 में आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने इन सूत्रों की व्याख्या इस प्रकार की है
"प्रस्तुत आलापक में परिणामवाद अर्थात् तद्रूप अथवा तन्मय पर्यायवाद का निरूपण है। इस सिद्धान्त का प्रयोग दर्शन और ध्यान दोनों क्षेत्रों में होता है। आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार द्रव्य जिस भाव में परिणत होता है, तत्काल वह तन्मय बन जाता है। 2 आत्मा जिस भाव में परिणत होता है, वह उस भाव के साथ तन्मय हो जाता है। यह ध्यान का सिद्धान्त है।
पूर्व पर्याय में जो वनस्पति-जीव का शरीर था, वह अग्निरूप में परिणत होकर अग्नि-जीव का शरीर बन जाता है। यह उत्तरवर्ती पर्याय है। यह पर्याय-प्रवाह का एक निदर्शन है। कोई भी द्रव्य एक रूप में नहीं रहता। उसमें पर्याय का प्रवाह सतत् गतिशील है। इसी सिद्धान्त के अनुसार वनस्पति-जीव, अप्काय-जीव, पृथ्वी-जीव और त्रसकायजीव के शरीर अग्नि-जीव के शरीर-रूप में बदल जाते हैं।
पर्याय-परिवर्तन से होने वाले भावान्तर की चर्चा न्याय और वैशेषिक दर्शन में भी मिलती है। अग्नि के संयोग से पृथ्वी में कुछ गुण-विशेष का प्रादुर्भाव होता है। इसे 'पाकजगुण' कहा जाता है। उसके अनुसार जल, वायु और अग्नि में पाकज गुण नहीं होता।
पाकज गुण परमाणुओं के भीतर पैदा होता है या अवयवी द्रव्य में? इस प्रश्न को लेकर नैयायिकों और वैशेषिकों में मतभेद है। वैशेषिकों का मत है कि अग्नि का संयोग होने पर घट के समस्त परमाणु पृथक्-पृथक् हो जाते हैं और फिर नवगुणोपेत होकर (पककर) वे संलग्न होते हैं। इस मत का नाम 'पीलुपाक' है।
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नैयायिक इस मत का विरोध करते हैं । उनका कहना है कि यदि घट के सभी परमाणु अलग-अलग हो गए, तब तो घट का विनाश ही हो गया। दुबारा परमाणुओं के जुटने से एक दूसरे ही घट का अस्तित्व मानना पड़ेगा। किन्तु पक जाने पर घट के स्वरूप में रंग के सिवा और कोई अन्तर नहीं पाया जाता है। उसे देखते ही हम तुरन्त पहचान जाते हैं। इसलिए घट का नाश और घटान्तर का निर्माण नहीं माना जा सकता। घट-परमाणु उसी तरह संलग्न रहते हैं, किन्तु उसके बीच-बीच में जो छिद्र-स्थल रहते हैं, उनमें विजातीय अग्नि का प्रवेश हो जाने के कारण घट का रूप परिवर्तन हो जाता है। इस मत का नाम 'पिठरपाक' है।54
जैन दर्शन में पर्यायान्तर अथवा परिणामान्तर का सिद्धान्त मान्य है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श पुद्गल के गुण हैं। इनमें प्रयोगजनित और स्वाभाविक दोनों प्रकार का परिवर्तन होता है। ओदन आदि में अग्नि के संयोग से होने वाला परिवर्तन प्रयोगिक परिवर्तन है। परमाणु तथा परमाणु स्कन्धों में सभी वर्गों की सत्ता है, इसलिए काली मिट्टी के परमाणुओं से बना पात्र आग में पकाने पर लाल रंग का हो जाता है। इसकी व्याख्या के लिए किसी नए सिद्धान्त की स्थापना करना आवश्यक नहीं है।"
भगवती सूत्र, शतक 7, उद्देशक 10, सूत्र 229, 230 में अचित्त पुद्गलों द्वारा प्रकाश, ताप, उद्द्योत किस प्रकार हो सकता है, उसका स्पष्ट निदर्शन है
"भन्ते! क्या अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं? उयोतित करते हैं? तप्त करते हैं? प्रभासित करते हैं?
"(कालोदायी) हां करते हैं।"
"भन्ते ! वे कौन-से अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं? उद्योतित करते हैं? प्रभासित करते हैं?"
"कालोदायी! क्रुद्ध अनगार ने तेजोलेश्या का निसर्जन किया, वह दूर जा कर दूर देश में गिरती है, पार्श्व में जाकर देश में गिरती है। वह जहाँ-जहाँ गिरती हैं, वहाँ-वहाँ उसके अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उयोतित करते हैं, तप्त करते हैं और प्रभासित करते हैं। इस प्रकार ये अचित्त पुद्गल भी वस्तु को अवभासित करते हैं, उद्द्योतित करते हैं, तप्त करते हैं और प्रभासित करते हैं।''55 मीमांसा
"ईंट की भट्टी, कुम्हार की भट्टी इत्यादि भट्टियों के मध्य की अग्नि और आकाशीय विद्युत् की अग्नि को निश्चय सचित्त कहा है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार
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'अग्नि' (कंबश्चन)' यानि 'दहन' की क्रिया जिसमें ऑक्सीजन (प्राण वाय) के साथ जलने की रासायनिक प्रक्रिया होती है, उक्त सभी इसी के अन्तर्गत है।
व्यवहार नय में सारी सचित्त अग्नियों में इसी प्रक्रिया को देखा जाता है। इससे स्पष्ट है कि अग्नि को सचित्त बने रहने के लिए प्राणवायु से होने वाली ऑक्सीकरण या दहन क्रिया (कंबश्चन) की एक अनिवार्य अपेक्षा होती ही है।
मिश्र तेउकाय - मुर्मुर आदि में भी जलती अग्नि से छिटकाया हुआ एक जल रहा ठोस पदार्थ है, मूलत: यह अंगारे का ही छोटा रूप है।''56
अचित्त तेउकाय-जो पदार्थ अग्नि द्वारा पके हैं, यानि जो पदार्थ सचित्त तेउकाय के साक्षात् सम्पर्क से तैयार होते हैं, वे पदार्थ जब तक अग्निकाय का सम्पर्क रहता है, तब तक सचित्त बने रहते हैं। इनको भी 'आक्सीजन' की आपूर्ती हो, तब तक ये सचित्त रह सकेगें, बाद में अग्नि का सम्पर्क टूट जाने पर अचित्त हो जाएंगे।
सचित्त अग्नि के मृत शरीर को 'मुक्केलगा' यानी अग्नि जीवों द्वारा मुक्त शरीर के रूप में "अचित्त अग्नि" के पुद्गल के रूप मे बताएं गये हैं। इस आधार पर अग्नि पर पके हुए भोजन, पेय आदि तथा अग्नि द्वारा तैयार की गई लोहे की सूई को अचित्त तेउकाय कहा गया है, क्योंकि जब वे सचित्त अग्नि के संसर्ग में थे, जब उनमें सचित्त अग्नि का प्रवेश हुआ था। इससे यह तात्पर्य होता है कि ज्योंहि सचित्त अग्नि का सम्पर्क टूट जाता है, ये अचित्त तेउकाय के रूप में रह जाते हैं। इनका सचित्त होना अग्नि के सम्पर्क के कारण ही है। ये स्वयं अपने आप में सचित्त नहीं बनते। यदि स्वयं अग्नि के जीवों का सम्पर्क न हो तो ये गर्म होने पर भी सचित्त अग्नि नहीं होते। जैसे-सूर्य के ताप को अचित्त ही माना जाता है। उसके ताप से गर्म हुआ भोजन या लोहे की सूई अग्नि नहीं बन सकता। दूसरे शब्दों में सूर्य का ताप पौद्गलिक है और उससे गर्म होने वाले पदार्थ भी पौद्गलिक ही हैं-अचित्त हैं। ताप, प्रकाश स्वयं सचित्त नहीं है। सचित्त हैं जलने वाले पदार्थ-लकड़ी, ईधन, लपटें, अंगारे आदि। जैसे सूर्य का प्रकाश, ताप अचित्त पुद्गल हैं, वैसे उसके ताप से गर्म किए हुए पदार्थ भी अचित्त ही है। सूर्य से तप्त होने वाली पृथ्वी की सतह या अन्य पदार्थ अचित्त गरम पुद्गल ही रहते हैं, अग्नि नहीं बनते।
लोहे की सूई या गोला जो अग्नि में गर्म किये जाते हैं, अग्नि, के सीधे सम्पर्क में आते हैं । यद्यपि यह गर्म होने से लाल बन जाते हैं, फिर भी वे ताप को केवल सोखते हैं, उत्पन्न नहीं करते।
इसका तात्पर्य हुआ कि इनमें सचित्त तेउकाय के जीव अग्नि में से संक्रांत होते हैं। जहाँ इन जीवों को ऑक्सीजन या प्राणवायु मिलती है, वहाँ वे जीवित रह सकते हैं,
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किन्तु जहाँ इन्हें आक्सीजन नहीं मिलती, वे जीवित नहीं रह सकते हैं, इसलिए गर्म लोहे का अग्नि के रूप में जीवित रहना तब तक संभव है जब तक अग्नि का संपर्क बना रहे तथा जब तक उन्हें प्राण-वायु प्राप्त होती रहे। इन दोनों में एक का भी अभाव होने पर ये अग्नि के रूप में जीवित रह नहीं सकते। लाल गर्म लोहे के भीतर तेउकाय का अस्तित्व इसी अपेक्षा से समझना होगा तथा सम्पर्क टूट जाने के पश्चात् उसे अचित्त तेउकाय के रूप में बताया गया है। मध्य भाग तक पहुचें हुए तेउकाय के जीव भी ऑक्सीजन न मिलने पर अग्नि का सम्पर्क बने रहने पर, दूसरे जीव मध्य तक पहुंच सकते हैं, पर
ऑक्सीजन के अभाव में तुरन्त जीवित नहीं रह सकते। इसका तात्पर्य हुआ कि लोहे का गोला जब तक अग्नि में पड़ा रहेगा, तब तक यह श्रृंखला चालू रहेगी, संपर्क टूटते ही श्रृंखला टूट जायेगी। गोला 'अचित्त' बन जायेगा।
आगम के व्याख्याकारों द्वारा उसे शुद्धाग्नि मानना तथा अग्नि के संपर्क से रहित होने पर अचित्त बताना, इस तथ्य को ही सिद्ध करते हैं कि हमें सचित्त तेउकाय के इस लक्षण को स्वीकार करना ही होगा कि सचित्त तेउकाय के जीव ऑक्सीजन के अभाव में जीवित नहीं रह सकते। गर्म गोले के मध्य भाग तक तेउकायिक जीवों का प्रवेश होना एक बात है, उनका जीवित रहना दूसरी बात है। नए-नए जीव प्रविष्ट होते रहें, तो मध्य भाग सचित्त तेउकाय के रूप में बताया जा सकता है, पर वह केवल इस अपेक्षा से कि तेउकायिक जीवों का धातु के मध्य भाग तक प्रवेश होता रहे, जो केवल अग्नि में धातु का रहना हो तभी संभव है। जैसे ही लोहे के गोले को अग्नि से बाहर निकाला जायेगा, जीवों का प्रवेश बंद हो जाएगा। गोला पुनः अचित्त हो जाएगा।
___ अब प्रश्न होता है-मध्य भाग तक ऑक्सीजन (वायु) जा सकती है या नहीं? इस विषय में निश्चिंतता के साथ कहने में कोई हिचक नहीं कि यह संभव नहीं है। केवल गोले का सतही हिस्सा ही ऑक्सीजन के सम्पर्क में रहेगा, शेष भाग में ऑक्सीजन का प्रवेश हो ही नहीं सकता। जब कांच के गोले में भी बाहर से ऑक्सीजन का प्रवेश नहीं होता, तो लोहे के गोले में उसका प्रवेश न विज्ञान स्वीकार करता है, न जैन दर्शन। विज्ञान और जैन दर्शन यह तो स्वीकार करते हैं कि ठोस से ठोस पदार्थ में सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों का प्रवेश संभव है, किन्तु ऑक्सीजन या प्राण-वायु का प्रवेश इसलिए नहीं हो सकता कि लोहे के परमाणु-गुच्छों (Molecules) के बीच रिक्त स्थान में ऑक्सीजन का परमाणु-गुच्छ प्रविष्ट नहीं हो सकता। यह तभी संभव है जब रासायनिक क्रिया हो, जो सामान्य स्थिति में नहीं होती। जंग लगने की क्रिया में होने वाली रासायनिक क्रिया में आर्द्रता का मोलीक्यूल (H,O)लोहे के मोलीक्यूल के साथ रासायनिक क्रिया करता है, तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 -
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तब लोहे का ऑक्सीजन के साथ रसायनिक बंध होता है जिससे जंग यानी फेरस आक्साइड के रूप मे परिणमन होता है । किन्तु यह प्रक्रिया भी केवल सतही होती है। गोले के भीतर आर्द्रता का प्रवेश संभव नहीं है ।
ठोस, तरल और वायु या वाष्प रूप में पदार्थों का विभाजन इसी आधार पर है कि ठोस पदार्थ के भीतर दूसरे स्थूल पदार्थ (ठोस, तरल या वायु) का प्रवेश नहीं होता । यहाँ तक कि लोहे जैसे ठोस और अपारदर्शी पदार्थों में किरणों का भी प्रवेश भीतर नहीं होता, केवल सतह पर ही उनका प्रवेश होता है। 57 केवल भौतिक प्रक्रिया से यह संभव नहीं है । सर्वत्र आगम वचन की अपेक्षा को समझना जरूरी है। लोहे के अग्नि जीवों का अस्तित्व निरपेक्ष रूप में मानकर फिर यह कल्पना करना कि वायु का प्रवेश उसके भीतर होता ही होगा, न आगम-सम्मत है, न विज्ञान सम्मत, न तर्कसम्मत।
मध्य भाग
न्यूट्रोनों या ऊर्जा - तंरग या पारमाणविक (sub-stomic) कणों का प्रेवश ठोस पदार्थ में भी संभव हो सकता है। इसीलिए इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोनों आदि कण अथवा उष्मा, प्रकाश इलेक्ट्रीसीटी, ध्वनि आदि ऊर्जा-तरंगों के ठोस पदार्थों में प्रवेश या निर्गम की संभावना सबको मान्य है, किन्तु इनसे अग्नि की क्रिया जिसमें ऑक्सीजन की अनिवार्यता है, नहीं हो सकती। आक्सीजन को छोड़कर अन्य वायु (नाइट्रोजन आदि) कहीं हो तो भी वे निष्क्रिय हैं, इसलिए अग्नि जलाने की क्रिया में अक्षम है। आगम के वचन - वायु के बिना अग्नि नहीं होती, की अपेक्षा को न समझने के कारण ही असंगत कल्पना करने की आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रकार अग्नि में तपाए लाल गर्म लोहे के गोले को 'शुद्धाग्नि' के रूप में निरूपण को भी सापेक्षता के साथ समझना जरूरी है।
अत्यधिक उच्च तापमान पर आक्सीजन का संयोग मिलने पर जलने की रासायनिक क्रिया या कंबश्चन की प्रक्रिया हो सकती है - इस सामान्य नियम के आधार पर सचित्त तेउकाय और अचित्त या पौद्गलिक प्रक्रियाओं का पृथक्करण आसानी से हो सकता है।
सचित्त तेउकाय या अग्नि जलने की प्रक्रिया में ताप (ज्वलनबिंदु तक) प्रकाश, ज्वलनशील पदार्थ और ऑक्सीजन- ये चारों अनिवार्य हैं । अब यदि कोई ऐसा पदार्थ हो, जिसमें ताप हो, पर प्रकाश न हो तो उसे सचित्त तेउकाय की गणना में नहीं मान सकते। यही अन्तर बिजली के हीटर और बिजली के वाहक तांबे के तार में है। बिजली के हीटर में प्रयुक्त लोहे का तार विद्युत् प्रवाह के कारण गर्म भी होता है, लाल होकर प्रकाश भी करता है तथा खुली हवा के ऑक्सीजन के साथ मिलकर ज्वलनशील पदार्थ की
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उपलब्धि हो तो अग्नि पैदा कर सकता है, पर तांबे के तार (जो सुचालक है) में विद्युत्प्रवाह बहने पर सामान्य ताप भी बहुत कम होता है और प्रकाश नहीं होता। भीतर ऑक्सीजन का भी प्रवेश नहीं हो सकता। इसलिए वहाँ सचित्त तेउकाय के जीव उत्पन्न नहीं हो सकते। अचित्त के उदाहरण1. जहाँ ताप एवं प्रकाश है-सूर्य की रोशनी में ताप भी है, प्रकाश भी है पर वह
पौद्गलिक यानी -अचित्त ही है। 2. सूर्य की रोशनी से तप्त पृथ्वी अचित्त है। 3. कोयला आदि जलने के बाद बची हुई राख गर्म है, पर अचित्त है। 4. गर्म तवा या गर्म लोहा अग्नि का सम्पर्क छूट जाने के बाद अचित्त है। 5. गरमागरम भोजन अग्नि के संपर्क छूटने के बाद अचित्त है। 6. बादल की अवस्था में स्थित विद्युत् (Static-electricity) यानि ऋण विद्युत्
आवेश वाले बादल, घन विद्युत् आवेश वाले बादल सचित्त तेउकाय नहीं हैं। 7. बल्ब के अन्दर विद्यमान निष्क्रिय गैस या निर्वात में स्थित तन्तु कुण्डली
(Filament coil) में विद्युत्-प्रवाह प्रवाहित हो तो तब ताप व प्रकाश पैदा होता है, पर ऑक्सीजन के अभाव में वह अचित्त है। जलते अंगारे या आकाशीय
बिजली से यह भिन्न है। 8. डॉ. जे. जैन के अनुसार "भट्टी में पकती हुई ईंट या लोहे (लोह-अयस्क) में
साधारणतया अपचयन (reduction) होता है, ऑक्सीडेशन नहीं। सचित्त अग्नि में ऑक्सीडेशन होता है। भट्टी में जो लोह अयस्क हैं वह विज्ञान में FeO या Fe,0, है, उसमें विद्यमान ऑक्सीजन उसमें से निकलकर कोयले को जला सकती है। लेकिन इस प्रक्रिया में केवल कोयले के जलने में ही सचित्त तेउकाय माना गया है, जिस तरह साधारण चूल्हे या भट्टी में सचित तेउकाय है।"58
इसका कारण है कि कुछ पदार्थ ऐसे होते हैं, जो उच्च तापक्रम पर भी पिघलते नहीं हैं। जैसे-जैसे उनका तापमान बढ़ता है, उनकी गर्मी बढ़ती जाती है, रंग बदलता है, अवरक्त किरणों से बढ़कर दृश्य प्रकाश का उत्सर्जन शुरू होता है। भट्टी में तो उसकी रिफ्रेक्टरी (Refactory) भी लगभग उसी तापमान तक गरम होती है, लेकिन उसमें से
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प्रकाश पैदा नहीं होता। वह ठोस रूप में ही बनी रहती है जैसे चूल्हे पर खाना बनता है वैसे ही भट्टी में लोहा बनता/पकता है। लोहा बनाने के लिए भट्टी में उच्च तापमान पर कुछ रासायनिक प्रक्रियाएँ होनी जरूरी हैं, जो उसमें चूना व अन्य पदार्थ लोह अयस्क के साथ डालकर सम्पन्न की जाती हैं। आग भी जलती है- कोयले और हवा, लेकिन सचित्त तेउकाय तो कोयले के जलने में ही है। लोह-अयस्क का अपचयन (reduction) होता है, न कि अग्नि जलने में होने वाला ऑक्सीकरण। इसलिए यह क्रिया लोहअयस्क का जलना नहीं कहलाती।
"इस तरह से बनता लोहा उसी तरह सचित्त तेउकाय नहीं है, जैसे-इंटा-भट्टी में बनती ईंटें सचित्त तेउकाय नहीं है। प्राचीन काल में भी लोहा-भट्टी में लोहा बनाया जाता था, अतः इसकी जानकारी रखते हुए कहा गया है कि भट्टी के मध्य की अग्नि ही सचित्त तेउकाय है। उसमें बनने वाले लोहे को या गर्म अयस्क को सचित्त तेउकाय नहीं बताया गया है, क्योंकि ऐसा उल्लेख नहीं है।"
"यदि लाल गर्म बनते लोहे का सचित्त तेउकाय के रूप में वर्णन नहीं मिलता है, तो उसको कुम्हार के भट्टे में पकते मिट्टी के बर्तन की तरह ही समझा गया है- ऐसा माना जा सकता है। कुम्हार के भट्टे के मध्य में जो अग्नि जल रही है, उसी को सचित्त अग्निकाय माना गया है। यह अग्नि जलना इसीलिए संभव है कि उसमें ऑक्सीजन की उपलब्धि है यानी ऑक्सीजन (हवा) से जलने की प्रक्रिया को ही सचित्त तेउकाय की उत्पत्ति के लिए एक आवश्यक शर्त के रूप में माना गया है, ज्वलन-बिन्दु के ऊपर ऑक्साइड बनाना।"
इसे भगवती में बताया है-"वायु के बिना अग्नि नहीं होती।" ज्वलन-बिन्दु के ऊपर तापमान का होना तथा ऑक्साइड का बनना-ये सचित्त तेउकाय (अग्नि) के अनिवार्य अंग हैं। "अतः ऑक्सीजन (हवा या प्राण-वायु) की प्रक्रिया का होना सचित्त तेउकाय पैदा होने के लिए अनिवार्यता दर्शाना है।''61
__ "जैसे सूर्य की रोशनी से खाना बनता है या पकता है, बिना अग्नि काय को काम में लिए (सौर-चूल्हा) उसी प्रकार बल्ब का फिलामेंट तार गर्म होकर प्रकाश पैदा करता है। बिजली (electricity) के प्रवाह के कारण यानी बिना अग्निकाय के प्रयोग के (क्योंकि प्राणवायु से जलने वाली अग्नि का इसमें अभाव है।) इससे विचार होता है कि जलता बल्ब अचित्त ही है, जब तक उसका फिलॉमेंट प्राणवायु के संदर्भ में आकर जलता नहीं है। 2
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सूर्य की रोशनी और इलेक्ट्रीसीटी के तार में चलता प्रवाह – ये दोनों केवल पौद्गलिक ऊर्जाएं हैं। गैस-फिल्ड बल्ब में भी कोई प्राणवायु नहीं है । निर्वात बल्ब में भी प्राणवायु रहने नहीं दिया जाता।
शुद्ध अल्यूमिनियम धातु की सतह सीधे प्राणवायु के सम्पर्क में आने पर स्वत: मंद गति से ऑक्सीकृत होती रहती है तथा लोहा भी आर्द्रता की उपस्थिति में मंद गति से
ऑक्सीकृत होता रहता है, जिसे "जंग लगना" कहा जाता है। लेकिन यह सारी क्रिया "जलने की क्रिया" नहीं है। साधारण ऑक्सीडेशन और दहन क्रिया रूप कंबश्चन में अन्तर है। कंबश्चन एक्सोथर्मिक क्रिया है यानी उष्मा का उत्पादन होता है।
9. डॉ. जे. जैन के अनुसार आगम में ऐसा कोई उदाहरण नहीं मिलता सचित्त तेउकाय का जिसमें प्राणवायु का उपयोग होता हो। जितने उदाहरण दिए गए हैं उनमें या तो जलने की क्रिया के मुताबिक प्राण-वायु का सीधा उपयोग होता है (जैसे-अग्नि, अंगारे, ज्वाला, मुर्मुर, अर्चि, अलात, शुद्धाग्नि, संघर्ष-समुत्थित अग्नि) अथवा आकाशीय विद्युत्, अशनि, उल्का जिनमें प्राणवायु सहचारी के रूप में उपस्थित होती है। प्लाज्मा या आयनीकरण की प्रक्रिया में डीस्चार्ज होकर भी "प्राणवायु" की उपस्थिति के कारण तथा अत्यंत तीव्र तापमान पर ज्वलनशील पदार्थों का प्रयोग मिलने के कारण केवल क्षणभर के लिए भी सचित्त तेउकाय की उत्पत्ति की स्थिति बन जाती है।
"यह ध्यान देने योग्य है कि भट्टी में लोह-अयस्क से लोहा उस समय भी बनता था, किन्तु उसका नाम सचित्त तेउकाय के उदाहरण में नहीं मिलता है। कुम्हार और ईंट की भट्टी का उदाहरण मिलता है, उसमें भी वहां बनते हुए पदार्थ यानी ईंट व बर्तन को सचित्त तेउकाय नहीं बतलाया गया है, केवल उसके मध्य में जलती अग्नि को ही सचित्त तेउकाय बताया गया है। गर्म हुई सूई को भी अचित्त तेउकाय में बताया गया है।
- "इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि तेउकाय या अग्निकाय में केवल प्रकाश का उद्गम स्थान होना भर ही उसको सचित्त तेउकाय नहीं बना देता। प्राणवायु का प्रयुक्त होना एक आवश्यक शर्त है। वह भी जलने की तरह की रासायनिक क्रिया के रूप में।
10. डॉ. जे. जैन ने फिर अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है - यदि प्राणवायु-शून्य वातावरण में गर्म पिघले हुए लोहे को (जो लाल तो होता ही है), दूसरी अग्नि से या अन्य ताप-शक्ति से गर्म करते जाएं तो वह पहले ताप को सोखेगा फिर वो ताप व प्रकाश देता रहेगा, लेकिन यह ताप व प्रकाश खुद पैदा नहीं करता है । यह उसका अपना Self sustaining (स्वपोषी) ताप-प्रकाश नहीं है। यह तो उसको अन्य अग्नि से मिलता रहा,
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तो उसको वह ग्रहण करके छोड़ता रहता है। यह ताप का मिलना/प्राप्त करना जैसे अन्य अग्नि से होता है, वैसे सूर्य की गर्मी से भी हो सकता है। अत: वह पिंड अचित्त की श्रेणी में ही है।
प्रश्न-22. भगवतीसूत्र में तो स्पष्ट रूप से वायुकाय को अग्निकाय की तुलना में अल्प अवगाहना वाला (कद वाला) बताया है तथा वायुकाय से अग्निकाय स्थूल ही है। ये हैं भगवतीसूत्र के शब्द- 'भंते! तेउक्काइयस्स वाउक्काइयस्स कयरे काए सव्वबायरे कयरे काए सव्वबायरतराए? गोयमा! तेउक्काए सव्वबादरे तेउक्काए सव्वबादरतराए' (भग. 19/3/763) इस प्रकार तपे हुए लोहे के गोले में स्थूल अग्निकाय और वायु का प्रवेश शास्त्र सिद्ध होने से प्रकाशमान बल्ब में आवश्यक वायु का प्रवेश होने में कोई शास्त्रविरोध दिखलाई नहीं पड़ता।
1. वायुकाय की अवगाहना तेउकाय से अल्प है तथा वह तेउकाय की अपेक्षा सूक्ष्म है। इस बात से तो यही सिद्ध होता है कि विद्युत्-प्रवाह तेउकाय नहीं है, क्योंकि विद्युत्-प्रवाह निश्चित रूप से वायु से सूक्ष्म है। विद्युत्-प्रवाह में जो इलेक्ट्रोन कण हैं, वह वायु यानी ऑक्सीजन के मोलीक्यूल (0) की अपेक्षा सूक्ष्म हैं। यदि इलेक्ट्रोन-प्रवाह को तेउकाय माना जाए तो आगम विरुद्ध वचन होता है।
2. जलते हुए दीपक पर काँच का गोला ढ़कने पर दीपक थोड़ी देर में बुझ जाता है, क्योंकि वायु (ऑक्सीजन) का प्रवेश गोले में नहीं होता। यदि सूक्ष्म वायु गोले में प्रवेश नहीं कर सकती तो उससे स्थूल तेउकाय का प्रवेश या निर्गम उसमें कहां से होगा? किन्तु जो दीपक के प्रकाश को भी तेउकाय मानते हैं, वह तेउकाय वायुकाय से स्थूल हैं, फिर भी वह प्रकाश कांच के गोले से बाहर प्रसारित होता है, पर वायु का प्रवेश जो सूक्ष्म है, अन्दर नहीं होता।
3. उक्त आगम वचन की संगति तब होती है जब१. इलेक्ट्रोन के रूप में विद्युत्-प्रवाह को तेउकाय न माना जाए। २. दीपक के प्रकाश को तेउकाय न माना जाए।
३. वायुकाय की सूक्ष्मता को अग्नि की अपेक्षा से इस आधार पर समझा जाए कि अंगारा आदि की अग्नि चक्षु:ग्राह्य है, जबकि हवा या ऑक्सीजन के रूप में वायु चक्षु का विषय नहीं है।
भगवती में जीव की तुलना की गई है। इन स्थावर जीवों की अवगाहना एक
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अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी प्रतिपादित है और उनमें तुलनात्मक दृष्टि से वायुकाय के जीव की अवगाहना से तेउकाय के जीव की अवगाहना अधिक बताई है।
प्रश्न-23 शायद किसी को शंका हो सकती है कि 'चूल्हा, दीया, लालटेन, गैसें' इत्यादि में जो अग्नि पैदा होती है, वह ईंधन के आधार पर उत्पन्न होती है तथा ईंधन की कम या ज्यादा मात्रानुसार वह भी कम या ज्यादा होती है। इसलिए उसे सजीव माना जा सकता है। किन्तु इलेक्ट्रीसीटी में तो किसी भी प्रकार के ईंधन की आवश्यकता नहीं रहती। तो फिर उसे किस प्रकार सजीव माना जा सकता है? ईंधन (खुराक) बिना तो जीव की उत्पत्ति-स्थिति-वृद्धि किस प्रकार से संभव है?
परन्तु यह शंका उचित नहीं है, क्योंकि तमाम प्रकार की अग्नि को ईंधन (व्यक्त खुराक) की आवश्यकता हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। चूल्हे इत्यादि में उत्पन्न होने वाली अग्नि को ईंधन की आवश्यकता होती है। परन्तु आकाशीय बिजली, इलेक्ट्रीसीटी, बल्ब-प्रकाश इत्यादि स्वरूप तेउकाय के जीवों के लिए ईंधन की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, क्योंकि वह शुद्ध अग्नि है।
श्री दशवैकालिक चूर्णि में श्री जिनदासगणी महत्तर ने 'इंधनरहिओ सुद्धागणि' (4/12) ऐसा कहकर ईंधनरहित अग्नि को शुद्ध अग्नि रूप में बताया है। श्री दशवकालिक सूत्र व्याख्या में श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज ने भी 'निरिन्धन:-शुद्धः अग्निः' (अध्ययन 4/12 वृत्ति)। यह कहकर ईंधनरहित अग्नि को शुद्ध अग्निकाय जीव बताया है। श्वेताम्बरमान्य जीव समास ग्रंथ में तथा दिगंबरमान्य मूलाचार ग्रंथ में 'इंगाल-जालअच्ची मुम्मुर-सुद्धागणी य अगणी य' (जी.स. 32 + मूला. गा 221) इत्यादि रूप में जो अग्निकाय जीव के प्रकार बताए हैं, उनमें आकाशीय बिजली को शुद्ध अग्निस्वरूप बताया गया है। मलधारी श्रीहेमचंद्रसूरिजी महाराज ने जीवसमास व्याख्या में 'शुद्धाग्निः = विद्युदग्निः' (गा. 32) बिजली स्वरूप अग्नि को शुद्ध अग्निस्वरूप बताया गया है। मलधारी श्री हेमचंद्रसूरिजी महाराज ने जीवसमास व्याख्या में 'शुद्धाग्निः = विद्युदग्निः' (गा. 32) बिजली स्वरूप अग्नि को शुद्ध अग्निस्वरूप ही स्पष्ट रूप से बताया है। इसलिए अवकाशीय विद्युत्, इलेक्ट्रीसीटी, बल्ब के फिलामेन्ट में उत्पन्न होने वाला प्रकाश, बल्ब-प्रकाश की ज्योति (रोशनी) (उजाला), दूर तक फैलती दीये की ज्योति इत्यादि ईंधनशून्य होने के कारण शुद्ध अग्निरूप सिद्ध होती है। इस प्रकार ईंधन के बिना उसकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि इत्यादि दिखाई देने के कारण आगमानुसार बिजली वगैरह शुद्ध अग्निकाय जीव स्वरूप सिद्ध होते हैं । तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004
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उत्तर-जिसे जिनदास महत्तर ने दशवैकालिक चूर्णि में ईंधन रहित अग्नि या शुद्धाग्नि कहा है, वह आग में प्रविष्ट लोहे के गोले को बनाया है। जीवसमास व्याख्या में मलधारी हेमचन्द्रसूरि द्वारा शुद्धाग्निः विद्युदग्निः कहा गया है, वह आकाशीय चमकने वाली बिजली ही है। आकाशीय चमकने वाली/ कड़कने वाली विद्युत और इलेक्ट्रीसीटी के रूप में प्रवाहमान विद्युत्-प्रवाह की भिन्नता के विषय में पहले ही स्पष्टता की जा चुकी है। इस कथन से तो यही सिद्ध होता है कि इलेक्ट्रीसीटी या बल्ब-प्रकाश अग्नि नहीं है, न निरिन्धन अग्नि है, न विद्युत् (Lightning) अग्नि है, न ईंधन के आधार पर जलने वाली अग्नि है।
प्रश्न-24. दूसरी महत्त्व की बात यह है कि जीवसृष्टि की उत्पत्ति और स्थिति भी विभिन्न प्रकार से देखने को मिलती है तथा हवा, पानी, खुराक की आवश्यकता भी अनेक प्रकार से दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर मनुष्य, मछली और मगर इत्यादि प्राणी ऑक्सीजन के आधार पर जीवित रहते हैं। परन्तु उसमें भी तफावत है -1. मनुष्य हवा में से ऑक्सीजन लेता है। 2. जबकि मछली पानी में से ऑक्सीजन लेकर जीवित रहती है। पानी के बाहर हवा में ऑक्सिीजन पर्याप्त मात्रा में होने पर भी यदि मछली को पानी से बाहर निकाली जाए तो वह मर जाती है। पानी में ऑक्सीजन होते हुए भी यदि सामान्य व्यक्ति को पानी में डुबाया जाए तो वह मछली की भाँति जीने के बजाय मर जाता है। 3. जबकि मेंढक इत्यादि उभयचर प्राणी सागर और जमीन दोनों जगह पर ऑक्सीजन लेकर जीवित रहते हैं। इसी प्रकार से अग्निकाय की बात भी समझी जा सकती है।
पन्नवणासूत्र में अग्निकाय की सात लाख योनि बताई गई है। सात लाख योनि वाले तेउकाय जीवों में से (1) मोमबत्ती, अगरबत्ती, दीपक, गैस, लकड़ी इत्यादि की अग्नि तो खुले वातावरण में से डायरेक्ट प्राप्त हो सके, वैसी हवा के आधार पर अपना अस्तित्व टिकाए रख सकती है। इसलिए प्रस्तुत में 'जलती हुई मोमबत्ती, अगरबत्ती इत्यादि के ऊपर यदि काँच का ग्लास उलटा रखा जाए तो कुछ समय में वह क्यों बुझ जाती है? यदि तार के माध्यम से बल्ब में वायु पहुँच सकती है तो ग्लास और जमीन के बीच में से अन्दर जा सके, ऐसे वायु से मोमबत्ती क्यों जलती हुई नहीं रह सकती?' ऐसे प्रश्न को कोई अवकाश ही नहीं रहता, क्योंकि सब प्रकार की पद्धति से मिलते सभी बादर वायुकाय अग्नि-उत्पादक होते ही हैं, ऐसा आगम की मान्यता के अनुसार नहीं लगता है अन्यथा खुली हवा में रहे हुए ऑक्सीजन के आधार पर पानी के बाहर लम्बे समय तक मछली क्यों जीवित नहीं रह सकती? तथा पानी में रहे ऑक्सीजन के आधार 38 -
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पर समुद्र में डुबा हुआ मनुष्य क्यों लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकता ? ऐसी समस्याएँ मुँह फाड़कर खड़ी रहेंगी । समस्या का समाधान तो दोनों पक्षों को समान रूप से मान्य एक ही होना चाहिए न ! तथाविध शारीरिक रचना = झालरयुक्त फेफड़े तंत्र की विशिष्ट रचना के अनुसार मछली जीने के लिए पानी में से ऑक्सीजन को अलग करके ग्रहण करती है जबकि मनुष्य खुली हवा में से ही नाइट्रोजन मिश्रित ऑक्सीजन लेकर जिन्दा रहता है । इसी प्रकार मोमबत्ती आदि खुले वातावरण में ऑक्सीजन के माध्यम से जलती है जबकि बल्ब के फिलामेंट में उत्पन्न हुए प्रकाश (बादर तेउकाय) के लिए यह कहा जा सकता है
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(2) बल्ब, मर्क्युरीलेम्प वगैरह के फिलामेंट में उत्पन्न हुए अग्निकाय के जीव खुली हवा के बदले इलेक्ट्रीसीटी जिस वायर में से पसार होती है, उस वायर के माध्यम से अथवा अन्य कोई प्रकार से वहाँ आने वाले वायु के द्वारा अथवा बल्ब में स्थित वायु के द्वारा अपना अस्तित्व टिका सकते हैं। अपनी सजीवता बनाए रखने के लिए, जीवननिर्वाह के लिए बल्बप्रकाश अपने प्रायोज्य वायु को विलक्षण पद्धति से प्राप्त कर ही लेता है । इतना तो सुनिश्चित ही है । अत्यंत गरम लालभभूके लोहे के ठोस - निच्छिद्र गोले में रही हुई अग्नि अपने योग्य वायु को किसी भी प्रकार से प्राप्त करती ही है न!
3. इसी प्रकार हीटर की अग्नि, इलेक्ट्रीक सगड़ी की अग्नि इत्यादि खुले वातावरण और स्थूल वेक्युम - दोनों में अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं । इस तरह अग्निकाय के भी स्थूल दृष्टि से तीन भेद तो समझ ही सकते हैं। इसलिए बल्ब टूट जाने पर, फिलामेन्ट के जल जाने के कारण, खुली हवा में पैदा न होने की वजह से बल्बप्रकाश को निर्जीव नहीं कह सकते ।
कुछ लोगों की मान्यता ऐसी है कि 'अग्नि को जलने के लिए ऑक्सीजन वायु जरूरी है। इसलिए जलती हुई मोमबत्ती इत्यादि के ऊपर ग्लास उलटा रखने पर बुझ जाती है। यद्यपि पूर्व में (पृष्ठ 32 ) हमने ऑक्सीजन बिना भी आग लग सकती है, उसके अनेक उदाहरण दिखाए ही हैं। फिर भी 'ऑक्सीजन के बिना आग नहीं लगती' इस बात को हम एक बार सत्य मान लें, तो प्रस्तुत में ऐसा कह सकते हैं कि मोमबत्ती, अगरबत्ती, तैल या दीया, कोयला इत्यादि में जो अग्नि उत्पन्न होती है वह ईंधन वाली है। वह ऑक्सीजन नामक वायु द्वारा अपना अस्तित्व बनाए रख सकती है। इसलिए उस पर ग्लास आदि ढंकने में आए तो वह पुराना ऑक्सीजन खलास हो जाने पर नया ऑक्सीजन नहीं मिलने के कारण बुझ जाती है । परन्तु आकाशीय बिजली, इलेक्ट्रीसीटी, विद्युत् प्रकाश वगैरह तो पूर्व में बताए अनुसार इन्धनरहित - निरिन्धन अग्निकाय है । निरिंधन
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अग्निकाय को अपना अस्तित्व बनाए रखने में ऑक्सीजन ही जरूरी है, ऐसा मानने की आवश्यकता नहीं है। ऑक्सीजन के अलावा दूसरे उपयोगी वायु से भी वह अपना अस्तित्व बनाए रख सकती है, ऐसा माना जा सकता है। शास्त्र में जो 'जहाँ अग्नि होती है, वहाँ वायु होता है' इतना बताया है। 'जहाँ अग्निकाय होता है, वहाँ ऑक्सीजन नामक वायु होता है' --- ऐसा नहीं बताया है। इसलिए 'ऑक्सीजन नहीं होने से बल्ब में अग्निकाय जीव उत्पन्न नहीं हो सकते'- ऐसा नहीं कहा जा सकता।
एक ओर महत्त्व की बात यह है कि नाइट्रोजन, आर्गन वगैरह उमदा वायु में ऑक्सीजन वायु का प्रमाण कुछ-न-कुछ मात्रा में होता ही है। यह बात 'विज्ञानकोशरसायन विज्ञान' 'विज्ञानकोश-रसायन विभाग, भाग-5, गुजरात युनिवर्सिटी ऑफ अहमदाबाद' नामक पुस्तक में डॉ. सी.बी. शाह (M.Sc., Ph.D.) द्वारा बताई गई है। उस ऑक्सीजन का शोषण हो सकता है, वह बात अलग है।
___ नाइट्रोजन वगैरह वायु उमदा-निष्क्रिय होने के कारण किसी भी उच्च तापमान पर भी स्वयं के इलेक्ट्रोजन नहीं गुमाते तथा लकड़े वगैरह की तरह नष्ट नहीं होते, इसलिए ही वह लम्बे समय तक बल्ब में प्रकाश-गरमी वगैरह को उत्पन्न करने में उपयोगी बन सकते हैं। यह बात विज्ञानकोश (भाग-5, पृष्ठ 412) पुस्तक में डॉ. (श्रीमती) एम.एस. देसाई ने स्पष्ट रूप से बतलाई है। इसके पूर्व (पृष्ठ 28) में बताए अनुसार फिलामेंट में आग न लग जाए, जल न जाए, इसके लिए बल्ब में नाइट्रोजन वगैरह उमदा वायु का अस्तित्व तो विज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार भी सिद्ध होता ही है।
इस प्रकार से विचार करने में आए तो नाइट्रोजन और ऑर्गन नाम के वायु बल्ब में अग्निकाय को प्रकट करने में/उत्पन्न करने में सहायता करते हैं। कोई दूसरा स्थूल वायु यह कार्य नहीं कर सकता, ऐसा मान सकते हैं। मछली ऑक्सीजन के आधार पर जीवित रहती है किन्तु पानी में से ऑक्सीजन मिले तब ही वह उसे स्वीकार करती है। उसी प्रकार 'जहाँ अग्नि है, वहाँ वायु है'- यह बात सच्ची है। किन्तु बल्ब वगैरह में इलेक्ट्रीसीटी के माध्यम से जो अग्निकाय के जीव उष्णता और प्रकाश के रूप में उत्पन्न होते हैं, उनके अस्तित्व के लिए बाहर की खुली हवा प्रतिकूल है। पर एकदम पतली हवा, वायर वगैरह के माध्यम से मिलने वाली हवा अथवा नाइट्रोजन, ऑर्गन स्वरूप वायु ही उपयोगी बन सकते हैं, ऐसा कह सकते हैं। ऐसा मानने में कोई शास्त्रविरोध, साइन्सविरोध, अनुभवविरोध या युक्तिविरोध नहीं आता है।
विज्ञ वाचक वर्ग को यहाँ एक बात विशेष ध्यान में रखनी चाहिए कि 'विज्ञान के अनुसार बल्ब में रही हुई हवा के कारण बल्ब प्रकाशित होता है ' ऐसा मैं नहीं कहता। 'बल्ब को प्रकाशित करने में वायु उपयोगी है - ऐसा आधुनिक साइन्स मानती है', ऐसा
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भी मैं नहीं कहता। मगर 'आगमानुसार अग्निकाय के लिए वायु जरूरी है'- ऐसा मैं बता रहा हूँ तथा फिलामेंट जल न जाए, इसके लिए आधुनिक साइन्स के सिद्धान्त के अनुसार, बल्ब में प्रविष्ट किए गए नाइट्रोजन वायु और ऑर्गन वायु वहाँ हाजिर हैं ही। अतः अग्निकाय के लक्षण बल्ब प्रकाश में दिखाई देने से तथा बल्ब में वायु विद्यमान होने से वहाँ आगमानुसार सजीव तेउकाय के उत्पन्न होने में किसी भी प्रकार का आगमविरोध नहीं आता । यही बताने का हमारा आशय है।
उत्तर - चाहे मनुष्य हो या मछली, चाहे फेफड़े से श्वास ग्रहण करें या झालरयुक्त फेफड़ों से- सभी जीवों को "ऑक्सीजन" ग्रहण करना ही पड़ता है— इस सत्य के आधार पर प्रश्न यही है कि क्या ऑक्सीजन के बिना भी अग्नि के जीव बल्ब में पैदा हो सकते हैं या जीवित रह सकते हैं?
निष्क्रिय वायुओं द्वारा अग्नि की प्रक्रिया विज्ञान द्वारा अस्वीकृत होते हुए भी उस संबंध में यह आग्रह कहाँ तक संगत होगा कि "ये वायु अग्नि प्रकट करने में सहायता करते हैं।" बल्ब की समग्र प्रणाली इतनी स्पष्ट है कि शंका का कोई अवकाश ही नहीं है। प्रस्तुत प्रश्न में उठाई गई बातों पर हम विस्तृत चर्चा कर चुके हैं। वायर के माध्यम से किसी भी प्रकार की वायु बल्ब तक नहीं पहुंच सकती।
दूसरी बात है-बल्ब को निरिन्धन अग्नि मानकर उसे ऑक्सीजन की जरूरत नहीं है, ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है। पहले तो बल्ब को निरिन्धन अग्नि मानना ही गलत है। फिर उसके लिए ऑक्सीजन के सिवा अन्य कोई वायु की अपेक्षा मानना तथा उस वायु की पूर्ति तार के माध्यम से मानना-ये सारी विसंगत बातें हैं। फिर वापिस ओर्गोन या नाइट्रोजन में ऑक्सीजन का कुछ-न-कुछ मात्रा में होना मानकर ऑक्सीजन से ही उसकी पूर्ति करवाना--इसकी क्या आवश्यकता है?
विशुद्ध दशा में निष्क्रिय गैसों में ऑक्सीजन का शोषण शत-प्रतिशत करने की अक्षमता को मान भी लिया जाए तो आखिर वह ऑक्सीजन कब तक बल्ब के फिलामेंट को जलाएगा? ऑक्सीजन के साथ ज्वलन-क्रिया होते हुए भी बल्ब का फिलामेंट क्या अक्षुण्ण रह पाएगा?
पुनः ओर्गोन या नाइट्रोजन को ही बल्ब के फिलामेंट को जलने में सहायक बताना कैसे संभव होगा? जबकि ये वायु निष्क्रिय हैं। सत्य तो यही है कि
1. न पतली हवा का अस्तित्व बल्ब में है। 2. न वायर के माध्यम से कोई हवा वहां पहुंच सकती है। 3. न आर्गोन, नाइट्रोजन आदि को ग्रहण कर बल्ब जलता है।
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प्रश्न - 25. विज्ञान तो मिनरल वाटर को निर्जीव कह कर दें, अण्डों को शाकाहारी कह कर दें, लसन - प्याज को भक्ष्य ( = खाने योग्य) कह कर दें, पेप्सी को पेय (= पीने योग्य) कह कर हम को दें तो क्या हम उसका उपयोग कर सकते हैं? क्या विज्ञान के पास सजीव-निर्जीव, भक्ष्य - अभक्ष्य, पेय-अपेय, गम्य- अगम्य वगैर की तात्त्विक व्यवस्था है ? विज्ञान द्वारा इन सभी प्रश्नों का जवाब कहाँ से मिलेगा ?
वर्षों से जो निरन्तर परिवर्तनशील है, जिसके सिद्धान्तों में दिन-प्रतिदिन परिवर्तन होते रहते हैं, जो स्वयं सम्पूर्ण सत्य को प्राप्त नहीं कर सकने का स्वीकार करता है, ऐसे आज के विज्ञान को ऑथेन्टिक मानकर उसके समीकरण अनुसार शास्त्रीय सत्य को नापने के बजाय सर्वज्ञ भगवंत ने निःस्वार्थभाव एवं करुणादृष्टि से बताए हुए शास्त्रों को, शास्त्रीय तथ्यों को, अतीन्द्रिय पदार्थों को सत्य के रूप में हृदय से स्वीकार करके सर्वज्ञ कथित तत्त्वों के साथ आधुनिक साइन्स कितनी हद तक किस प्रकार से शेकहेन्ड करती है? इस विषय की सूक्ष्म दृष्टि से खोज़ करना वही सच्चा - सलामत और सरल मार्ग है 168
आगम और विज्ञान में परस्पर कहाँ तक समन्वय होता है, कहाँ तक नहीं - यह अपने आप में एक स्वतंत्र अन्वेषण का विषय है । परन्तु किसी भी विषय की मीमांसा को सत्यपरक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि अनेकान्त दृष्टिकोण का प्रयोग हो और एकान्तिक आग्रह के आधार पर चिन्तन न हो, भले यह विषय विद्युत् के सचित्त-अचित्त का हो या पदार्थों के भक्ष्य - अभक्ष्य आदि का । जब हम किसी बिन्दु पर विज्ञान की दृष्टि से विचार करते हैं तो इसका अर्थ यह कर लेना कि हम उसके (विज्ञान के) समीकरण अनुसार शास्त्रीय सत्य को नापने का प्रयत्न कर रहे हैं, ठीक नहीं है ।
हमने प्रारम्भ में ही इस विषय में काफी स्पष्ट कर दिया था कि जो बात आगमप्रमाण द्वारा स्पष्ट है, उसे विज्ञान की ओथेन्टीसीटी की अपेक्षा नहीं है, पर जिन विषयों पर आगम में स्पष्ट नहीं है, उन्हें विज्ञान के सन्दर्भ समझने की कोशिश करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। साथ में जिन अपेक्षाओं से जो तथ्य आगमों में निर्दिष्ट हैं, उन अपेक्षा या दृष्टि को स्पष्ट करने में जहाँ विज्ञान हमें सहायक होता है, वहाँ उसको यह कहकर अस्वीकार करना कि " वह निरन्तर परिवर्तनशील है, उसके सिद्धान्तों में दिन-प्रतिदिन परिवर्तन होते रहते हैं, वह स्वयं पूर्ण सत्य को प्राप्त नहीं कर सकने को स्वीकार करता है", कहाँ तक ठीक है?
जहाँ तक स्थावर-काय के जीवत्व का प्रश्न है, विज्ञान ने केवल वनस्पतिकाय के जीवत्व को स्वीकार किया है, शेष स्थावर कायों के जीवत्व को नहीं । इसलिए हम
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विज्ञान के आधार पर स्थावर जीवों के जीवत्व - अजीवत्व की मीमांसा कैसे कर सकते हैं? पर पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु के स्वरूप समझने में यदि हमें वैज्ञानिक सिद्धान्त सहायक होते हैं, तो भी उनका परहेज करना यह कहाँ तक ठीक है?
एक ओर विज्ञान को अपूर्ण बनाकर उसकी ओथेन्टीसिटी को अस्वीकार करना और दूसरी ओर उसी के आधार पर विद्युत् को सचित्त सिद्ध करने की कोशिश करना - क्या ये दोनों असंगत नहीं हैं ?
हम न विज्ञान को ओथेन्टिक मानकर उसके समीकरण अनुसार शास्त्रीय सत्य को नापते हैं और न ही अतीन्द्रिय पदार्थों को अस्वीकार करने की बात कहते हैं, न हम आगम प्रधानता की अपेक्षा विज्ञान-परस्तता के हामी हैं । हमने आगम के आधार पर ही विद्युत् की अचित्तता तथा विज्ञान के आधार पर ही उसकी पुष्टि करने का प्रयत्न किया है । आगमसम्मत वैज्ञानिक तथ्यों को झुठलाकर अवैज्ञानिक ( मनगढ़न्त) कल्पनाओं के आधार पर विद्युत् की सचेतनता को सिद्ध करने का प्रयत्न करना- - यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि भ्रांतियों एवं पूर्वाग्रहों के जाल से मुक्त हुए बिना न आगम की सही श्रद्धा की पुष्टि हो सकती है और न विज्ञान की आगम- अविरोधी तथ्यों की सही जानकारी ।
प्रश्न - 26. क्या त्रिकाल अबाधित आगमों में शोध का अवकाश है ? और वह भी विज्ञान के द्वारा आगम को शुद्ध करने का ? क्या सर्वज्ञकथित आगम कमज़ोर हैं कि उन्हें अपनी सत्यता साबित करने के लिए विज्ञान का सहारा लेना पड़े? विज्ञान के आधार पर आगम में शोध-खोज़ की आवश्यकता हो तो मुख्यतया विज्ञान की साबित होगी या आगम की? तीर्थंकर भगवंत सर्वज्ञ होने से साक्षात् प्रत्यक्ष रूप से तीन जगत के तमाम पदार्थों को जानते हैं, देखते हैं जबकि विज्ञान के पास तो जानने के साधन भी कमजोर हैं । विज्ञान के साधन कितने भी सक्षम क्यों न हों, फिर भी उनके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार हो सके, ऐसी कोई संभावना भी नहीं है ।
एक तरफ विज्ञान के साधनों को पंगु स्वीकार करना और इसके बावजूद भी विज्ञान के आधार पर आगम में छानबीन करनी यह तो फ्रेम के नाप अनुसार ऐतिहासिक चित्र को काटने जैसा हुआ । इसमें विद्वत्ता भी किस प्रकार से कही जा सकती है।
वास्तव में तो फ्रेम के नाप अनुसार फोटो को काट कर दीवार पर लटकाने के बजाय फोटो के नाप के अनुसार फ्रेम तैयार करनी, यही बुद्धिमत्ता की निशानी है। फोटो यानी सर्वज्ञ- वीतरागकथित तत्त्व और फ्रेम यानी आधुनिक साइन्स के समीकरण ।
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आत्मा, कर्म, स्वर्ग, नरक, निगोद में अनंत जीव, मोक्ष, आश्रव, संवर, बंध, निर्जरा वगैरह में से एक भी तत्त्व को नापने की फुटपट्टी जिस आधुनिक साइन्स के पास नहीं है, उसके आधार पर सर्वज्ञकथित आध्यात्मिक अतीन्द्रिय तत्त्वों को नापना-जाँचना यह तो जन्मांध व्यक्ति द्वारा दिए गए श्वेत-श्याम आदि रूप के फैसले को मान्य रखने जैसी बात हुई। श्वेत आदि रूप से सम्बन्धित निर्णय करने में हजारों जन्मांध व्यक्तियों के फैसले की तुलना में किसी एक ऐसे व्यक्ति का फैसला, जो आँख से देख सकता है, उसे मान्य करने में ज्यादा बुद्धिमत्ता है। छद्मस्थ जीव बुद्धिशाली हों, फिर भी अतीन्द्रिय बाबत में तो केवल सर्वज्ञ वीतराग भगवंत का ही निर्णय मान्य हो सकता है।
उत्तर-जहां आगम द्वारा स्पष्ट प्रतिपादन उपलब्ध हो, वहां विज्ञान के आधार पर आगम की छानबीन की अपेक्षा नहीं होती पर जिस विषय में आगम स्पष्टतः कोई विधान-निषेध नहीं करता वहां विज्ञान द्वारा प्रस्तुत अवधारणा से बिल्कुल परहेज करना सत्य-संधित्सु के लिए कहां तक उचित होगा?
आज विज्ञान के क्षेत्र के ऐसे विवेचन हमें उपलब्ध हो रहे हैं, जो सामान्य इन्द्रियज्ञान से जानना संभव नहीं है। उनके आधार पर हम सत्य की खोज की दिशा में आगे बढ़े तो उसमें कहाँ आगम के प्रति हमारी श्रद्धा में कमी आती है? बल्कि बहुत-से ऐसे विषय जो आगमों में केवल संकेत रूप में या अज्ञात अपेक्षा से प्रतिपादित हैं, उन्हें विज्ञान द्वारा स्पष्ट करना हमारी आगम-श्रद्धा को और अधिक दृढ़ करता है। जहां जैनाचार्यों द्वारा यहां तक की उदारता व्यक्त है
__पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु।
युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः॥ "न मेरा वीर के प्रति पक्षपात है, न कपिल आदि के प्रति द्वेष है। जिसका वचन युक्तिसंगत है, उसका ही ग्रहण करना चाहिए।" वहां यदि कोई विज्ञान के युक्तिसंगत ही नहीं, स्पष्ट प्रयोगों से प्रमाणित सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष पर आधारित और आगम अविरोधी तथ्यों को भलीभांति कसकर काम में लेता है, तो भी उसे ऐसा मानना कि वह फ्रेम के अनुसार फोटो की कांटछांट कर रहा है, क्या अपनी आग्रह-बुद्धि का ही प्रदर्शन नहीं है?
जब "इलेक्ट्रीसीटी" का विषय सीधे रूप में आगम में चर्चित ही नहीं है, वहां आगम द्वारा प्रदत्त अन्य संकेत तथा विज्ञान द्वारा प्रदत्त सर्वमान्य/सर्वग्राह्य अवधारणा को आधार मानकर उसके स्वरूप का विवेचन ही हमारे लिए "व्यवहार" का सर्वश्रेष्ठ मार्ग बचता है।
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आचार्य महाप्रज्ञ ही नहीं, अनेक अन्य जैन विद्वानों तथा दूसरे विद्वानों ने सैकड़ों • ऐसी बातों को विज्ञान के आधार पर स्पष्ट कर जैन दर्शन की वैज्ञानिकता को 'व्यवहार'
के धरातल पर सुस्पष्ट किया है, वहां अगर ऐसा माना जाए कि सर्वत्र-प्रणीत तत्त्व को विज्ञान के द्वारा नापने की कोशिश हो रही है या सर्वज्ञ के प्रति अश्रद्धा हो रही है, तो उचित नहीं है। जैसे पहले भी बताया गया है कि सर्वज्ञ प्रणीत बहुत सारे तथ्य सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए अथवा उसके पीछे रही सापेक्षता क्या है, उसे भलीभांति ग्रहण करने के लिए विज्ञान की अवधारणाएँ जहां सहायक बनती हैं, वहां उनका उपयोग हमारे सम्यग् बोध को ही स्पष्ट करेगा, सर्वज्ञ प्रणीत तत्त्व के प्रति अश्रद्धा नहीं।
अस्तु प्रस्तुत प्रसंग- इलेक्ट्रीसीटी क्या है? सजीव है या निर्जीव? आकाशीय विद्युत् (lighting), तार में प्रवाहमान विद्युत् प्रवाह (electric current) और मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के जीवित शरीर में कार्यरत विद्युत् (bio-electricity) कहां तक सदृश है, कहां तक विसदृश आदि विषय तो निश्चित रूप से विज्ञान की अवधारणाओं, सिद्धान्तों और प्रयोगों से जितने स्पष्ट समझे जा सकते हैं, उतने एकांगी ज्ञान से नहीं— यह अपने आप में ही निर्विवाद है। उदाहरणार्थ वनस्पति जीव है, यह जैन आगमों में प्रतिपादित है। आज विज्ञान ने अनेक प्रयोगों से वनस्पतिकाय में होने वाले संवेदन, भाव आदि को स्पष्ट कर दिया है। इससे उन जीवों में विद्यमान आहार-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा, परिग्रहसंज्ञा आदि स्थानांग सूत्र में प्रतिपादित दस संज्ञाओं को भली-भाँति समझने में और सुविधा होती है। तो क्या हम ऐसे वैज्ञानिक तत्त्वों की उपादेयता को अस्वीकार करें? प्रत्युत् इन प्रयोगों से तो सर्वज्ञ-प्रणीत ज्ञान के प्रति हमारी श्रद्धा और सुदृढ़ होगी। इसी प्रकार यदि कोई वैज्ञानिक शोध आदि द्वारा पृथ्वी आदि जीवों के जीवत्व को समझाने में सुविधा होगी तो क्या हम उन्हें नहीं मानेंगे?
प्रश्न-27. दूसरी एक महत्त्व की बात यह है कि ओघनियुक्ति, आचारांगसूत्र वगैरह आगमों में बताए अचित्त अग्निकाय, अचित्त अप्काय वगैरह पदार्थों की निर्जीव मानने में और हमारे प्रस्तुत विश्लेषण में कोई भी विरोधाभास नहीं है। सूत्रकृतांग (श्रुतस्कंध-1/अध्य. 5/उद्देशो 1/गा. 10 से 39) और उत्तराध्ययन (19/24-44-45) सूत्र में बताए मुताबिक नरक में अग्निकाय जीव नहीं होने पर भी वहाँ पर सख्त गरमी होने को हम स्वीकार करते हैं । सूर्य के गरम किरणों को हम शास्त्र अनुसार निर्जीव ही मानते हैं। ये सभी बातें निर्विवाद रूप से हमें मान्य ही हैं। हम जुगनू को अग्नि नहीं मानते तथा शरीर की गर्मी को अथवा चन्द्रमा के किरणों को या स्वयं प्रकाशक मणिरत्न इत्यादि के उद्योत को सजीव अग्निकाय नहीं मानते। किन्तु 'बिजली निर्जीव तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 -
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अग्निकाय है' ऐसा कोई भी शास्त्र-पाठ बताए बिना उसे अचित्त निर्जीव के रूप में किस प्रकार से जाहिर किया जा सकता है? शास्त्राधार बिना अपनी मरज़ी के मुताबिक विद्युत्-प्रकाश को निर्जीव रूप से ज़ाहिर करने का अधिकार असर्वज्ञ को किस प्रकार से मिल सकता है?'
उत्तर - जैसे सूर्य का आतप शास्त्राधार से निर्जीव मानने में कोई आपत्ति नहीं है, वैसे ही इलेक्ट्रीसीटी (यानी स्निग्ध-रूक्ष गुणधर्म) को भी पौद्गलिक परिणमन की क्रिया-रूप स्वीकार करने में कहाँ आपत्ति है? शब्द, आतप आदि की भाँति ही यह एक सार्वभौम पौद्गलिक परिणमन ही है, जो वैस्रसिक, प्रायोगिक और मिश्र- तीनों रूप में संभव है। शास्त्रों में पुद्गल के परिणमन के अन्तर्गत जो स्निग्ध की चर्चा है, वह "इलेक्ट्रीसीटी" की ही है। केवल शब्दान्तर या भाषा-प्रयोग का अन्तर है। इसी प्रकार तेजोलेश्या या (तैजस् वर्गणा के पुद्गलों) के संबंध में उपलब्ध शास्त्रीय चर्चा से भी इलेक्ट्रीसीटी की पौद्गलिकता भली-भाँति सिद्ध हो जाती है।
इस विषय की चर्चा भी हम प्रश्न 20 के उत्तर में कर चुके हैं। प्राचीन साहित्य की भाषा को समझना जरूरी है। स्निग्ध-रूक्ष का अर्थ ऋण-घन विद्युत् के रूप में स्वीकृत होने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि इलेक्ट्रीसीटी स्वयं पुद्गल के मूल स्पर्श गुण की द्योतक है। रूक्ष-स्निग्ध से आकाशीय विद्युत् की उत्पत्ति बताने वाले प्राचीन पाठ (जिसको उद्धृत किया जा चुका है) इस तथ्य के प्रमाण हैं। जैन दर्शन में वर्णित पुद्गल परमाणु और पुद्गल-स्कन्ध के निर्माण में मूल भूमिका स्निग्ध-रूक्ष की है, वैसे विज्ञान के अनुसार सभी मूलभूत तत्त्व (element) के परमाणु की संरचना में ऋण और घन विद्युत् की ही मुख्य भूमिका है। जब इतना स्पष्ट प्रमाण हमें मिल जाता है, तब फिर क्यों हम उसे स्वीकार न करें? इसमें कहीं भी संशय या अनिश्चय नहीं है।
प्राण, लेश्या आदि का शास्त्रीय विवेचन भी भली-भांति बताता है कि ऋण-घन विद्युत्, विद्युत्-चुम्बकीय तरंगों का विकिरण आदि को आगमकारों ने अपनी शब्दावली में प्रस्तुत किया है।
दूसरी ओर जब विज्ञान प्रत्यक्षतः इन जैन अवधारणाओं का ही समर्थन करता हुआ जैविक प्रक्रियाओं के लिए जैव विद्युत्, आभामण्डल आदि को व्याख्यायित करता है, तब जैन दर्शन में श्रद्धाशील के लिए तो बहुत ही गौरव का विषय बनता है कि कैसे हमारे प्राचीन ज्ञानियों ने इतने सूक्ष्म विषयों को अपने प्रकार से स्पष्ट किया था। आज तो विज्ञान के क्षेत्र में प्राण-प्रक्रिया, आभामण्डलीय परिणमन (यानी लेश्या के रंगों के
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प्रभाव) के क्षेत्र में होने वाले अनुसंधान जैन अवधारणाओं को और अधिक उजागर करते दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
प्रश्न 28-प्रकाश चाहे दीपक आदि अग्नि का हो या विद्यत (इलेक्ट्रीसीटी) के उपकरणों का हो, उसे ही कुछ जैन ग्रंथ सचित्त तेउकाय बताते हैं । ऐसा मानने में क्या आपत्ति है?
उत्तर-प्रकाश को जैन आगामें में कहीं पर भी अग्निकाय या तेउकाय नहीं बताया है। उसको पौद्गलिक परिणमन या पर्याय के रूप में ही प्रस्तुत किया है। प्रकाश चाहे सूर्य का हो, चन्द्रमा का हो, तारा का हो, आकाशीय विद्युत् का हो या अग्नि-अंगारों का हो-वह निर्जीव है। उसके स्पर्श को आगमों में कहीं वर्ण्य नहीं बताया है। ऐसी स्थिति में कुछ उत्तरकालीन ग्रंथकारों की मान्यता के आधार पर उसे सचित्त तेउकाय मान लेना तथा वैज्ञानिक अवधारणाओं की काल्पनिक व्याख्या कर अपने पक्ष में प्रस्तुत करना-कहां तक उचित्त है? इस विषय की सम्पूर्ण शास्त्रीय मीमांसा एवं वैज्ञानिक सिद्धान्तों की वास्तविकता प्रस्तुत करना बहुत जरूरी है। (देखें परिशिष्ट-1)
जिन उत्तरकालीन ग्रंथों के सन्दर्भ उद्धृत हैं, वे सब जैन परम्पराओं में मान्य ग्रंथ नहीं हैं। इसी प्रकार पंचांगी आगम का प्रामाण्य भी केवल सम्प्रदाय-विशेष में ही स्वीकृत है, शेष अन्य सम्प्रदायों द्वारा वे आगम के रूप में मान्य नहीं हैं।
विज्ञान ने इलेक्ट्रोन, फोटोन आदि के सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट रूप से अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है। फोटोन-प्रकाशाणु किस प्रकार प्रकाश-ऊर्जा की इकाई है तथा किस प्रकार उसका कण रूप एवं तरंग-रूप प्रकट होता है, इसे भली-भाँति समझने के बाद कहीं पर भी यह आशंका नहीं रहती कि वह सजीव हो। फोटो-इलेक्ट्रीक प्रक्रिया में फोटोन की पौद्गलिक ऊर्जा का ही रूपान्तरण इलेक्ट्रोन के विकिरण का निमित्त बनता है। आगमों में जब सूर्य की किरणों के फोटोन को निर्जीव-पौद्गलिक बताया है तथा उसका स्पर्श यदि वर्ण्य नहीं है, तो उसे (फोटोन को) उत्तरकालिक ग्रंथों के आधार पर सजीव मानकर इलेक्ट्रोन को भी उसके आधार पर सजीव बताना आगम की मान्यता का ही खण्डन करना है। सूर्य-किरणों वाले फोटोन और मोमबत्ती, दीये या अग्नि के प्रकाश के फोटोन को विज्ञान शत-प्रतिशत एकरूप-समान मानता है। फिर तो सूर्य के प्रकाश का स्पर्श भी वर्ण्य मानना चाहिए।
प्रश्न-29. "अध्यात्म मार्ग का आधार अहिंसा है। इसलिए आरम्भ-समारम्भ छोड़ना प्रत्येक साधक का महत्त्व कर्त्तव्य बन जाता है। सभी आरम्भ छूट न सकें, फिर
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भी महाआरम्भ को तो छोटे-बड़े प्रत्येक साधक को छोड़ना आवश्यक है। उपर्युक्त अनेक आगम प्रमाणों की साक्षी से विद्युत् प्रकाश सजीव सिद्ध होने से उसकी विराधना को छोड़ना प्रत्येक साधक का कर्त्तव्य बन जाता है । तदुपरांत षड्जीवनिकाय की विराधना में भी अग्निकाय की विराधना महाआरम्भ स्वरूप होने से जरूर त्याग करने के योग्य बन जाती है ।"
भगवतीसूत्र में भगवान श्रीमहावीर स्वामीजी कालोदायी को बताते हैं कि – 'जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव महासवतराए चेव महावेयणतराए चेव । ..जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जाले से णं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारंभति, बहुतरागं आउक्कायं समारंभति, अप्पतरायं तेऊकायं समारंभति, बहुतरागं वाऊकायं समारंभति, बहुतरागं वणस्सइकायं समारंभति, बहुतरागं तसकायं समारंभति' (भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशो 10, सूत्र 307 )
अर्थात् “ अग्निकाय को जलाने वाले जीव बहुत से पृथ्वीकाय, जलकाय इत्यादि जीवों को नष्ट कर डालते हैं । इसीलिए वे महाकर्म बंध करते हैं, महाआरम्भक्रिया करते हैं, महाआश्रव का भोग बनते हैं, षड्जीवनिकाय को महावेदना देते हैं।" इससे अग्नि को जलाने वाले तथा बल्ब वगैरह के चालू करने के द्वारा विद्युत् प्रकाश को उत्पन्न करने वाले व्यक्ति वास्तव में महाआरंभ ही करते हैं - ऐसा सिद्ध हाता है। 75
इसी प्रकार आचारांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, निशीथभाष्य, निशीथसूत्रचूर्णि, प्रश्नव्याकरणसूत्र आदि में भी अग्निकाय के महाआरम्भ संबंधी सन्दर्भ प्राप्त हैं । "
उत्तर - अग्निकाय तेउकाय की हिंसा को जिस रूप में महाआरम्भ बताया है, उस रूप में उसे महाआरम्भ स्वीकार करने में कहां आपत्ति है? उसी प्रकार तेउकाय को आचारांग में दीर्घलोकशस्त्र, उत्तराध्ययन में सव्वभक्खी, दशवैकालिक में तीक्ष्ण शास्त्र के रूप में जो प्रतिपादित किया है, उसे कौन अस्वीकार करता है?
यदि विद्युत् (इलेक्ट्रीसीटी) भी तेउकाय (अग्नि) रूप सिद्ध हो जाए, तो उस पर भी वही बात लागू हो जाएगी। इलेक्ट्रीसीटी किस रूप में तेउकाय बन सकती है और किस रूप में नहीं, इसकी विस्तृत चर्चा हम कर चुके हैं। इसलिए जहाँ इसका तेउकायिक रूप प्रगट होता है, वहाँ उसको अग्नि की भाँति ही महाआरम्भ माना ही जाए पर जहाँजहाँ वह केवल पौद्गलिक परिणमन के रूप में ही है, वहाँ-वहाँ आरम्भ वाली बात लागू नहीं होती।
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प्रश्न-30. "प्रकाशमान बल्ब की गरमी के कारण उसकी बाहर की स्पर्श में आने वाले वायुकाय के जीवों की भी हिंसा होती है तथा रात्रि में लाईट के कारण आने वाले अनेक त्रसकाय के जीवों की भी विराधना होती है।''7
उत्तर-यदि बल्ब की गरमी के कारण बाहर की सतह पर स्पर्श में आने वाले वायुकाय के जीवों की हिंसा हो तो फिर किसी भी गर्म पदार्थ के कारण पात्र आदि के गर्म होने पर स्पर्श में आने वाली वायुकाय के जीवों की हिंसा माननी पड़ेगी। लाईट पर आने वाले त्रस जीवों की हिंसा लाईट जगाने वाले के प्रमाद से सम्बद्ध हैं । उसमें भी कृत, कारित, अनुमोदित, मनसा, वाचा, कायेन जुड़ने वाला दोषी होगा। (जैसा पंखे के विषय में बताया गया, वैसा यहाँ पर भी लागू होगा)।
प्रश्न-31. जहाँ विद्युत् प्रवाह से न प्रकाश होता है या न तापमान तीव्र होता है, बल्कि केवल विद्युत् ऊर्जा का गति ऊर्जा में रूपान्तरण होता है, वहाँ सचित्त तेउकाय की विराधना या हिंसा होती है, ऐसा मानना कहाँ तक संगत है? उदाहरणार्थ- हाथ घड़ी।
उत्तर- हाथ घड़ी में सेल से विद्युत्-प्रवाह घड़ी की इलेक्ट्रोनिक सिस्टम को संचालित करता है। इसमें कहीं भी अग्नि या तेउकाय का कोई लक्षण प्रगट नहीं होता। उस स्थिति में यह स्पष्ट है कि यह केवल (कोरा) पौदगलिक परिणमन ही है। सामान्य घड़ी जो स्प्रींग की यांत्रिक ऊर्जा से चलती है, वह सेल वाली घड़ी में विद्युत् की ऊर्जा से चलती है। यदि विद्युत् का यांत्रिक ऊर्जा में परिणमन मात्र ही सचित्त तेउकाय है, तो फिर शरीर में भी होने वाली यांत्रिक क्रिया को सचित्त तेउकाय मानना होगा।
शरीर में विद्युत-ऊर्जा से संचालित गति आदि यांत्रिक क्रिया में जैसे कहीं भी तेउकाय की विराधना नहीं है, वैसे ही घड़ी में भी कहीं ऐसी विराधना नहीं होती, यह स्पष्ट है।
प्रश्न-32. माईक के एम्प्लीफायर के ऊपर लगी हुई लाईट, आवाज के आरोहअवरोह के साथ जलती-बुझती है और उसमें ओर भी दूसरी लाइटें चालू होती हैं। इसके अलावा ट्रांजिस्टर्स, रेजिस्टर्स, डायोड्स इत्यादि भी उसमें लगे हुए होते हैं तथा माईक चालू हो तब उसमें से कुछ पार्टस तो बहुत गरम हो ही जाते हैं। ____ यह बात सिर्फ माईक के एम्प्लीफायर के विषय में ही नहीं किन्तु इलेक्ट्रीसिटी आधारित फोन (मोबाइल भी), फैक्स, कम्प्यूटर, केल्क्युलेर इत्यादि तमाम चीजों में समान रूप से लागू पड़ती है। इसमें ट्रांजिस्टर कितना भी छोटा क्यों न हो फिर भी वह गरमी का उत्सर्जन करता ही है। तुलसी प्रज्ञा जुलाई -दिसम्बर, 2004 -
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पेंटीयम वगैरह कम्प्यूटर्स की मुख्य चीप भी गरम होती ही है। इसलिए उसको aust करने के लिए हीटसिंक और पंखे का उपयोग किया जाता है। इसलिए वहाँ भी जीव - विराधना होती है, यह स्पष्ट ही है । "
उत्तर - इलेक्ट्रीसीटी स्वयं निर्जीव है, ऐसा स्पष्ट सिद्ध होने पर भी इन सब साधनों का साधु स्वयं संचालन कर सकते हैं, ऐसा मानना उपयुक्त नहीं है। जिन साधनों के प्रयोग में किसी भी प्रकार की हिंसा कृत, कारित, अनुमोदित रूप में न हो तथा अन्य महाव्रतों, समिति, गुप्ति की विराधना न हो, ऐसे साधनों का उपयोग साधु स्वयं करे या न करे, यह व्यवहार का प्रश्न है। उदाहरणार्थ - - सेल द्वारा संचालित घड़ी का प्रयोग करने में ऐसा कहीं पर नहीं होता, इसलिए यह वर्ज्य नहीं है। माइक या लाईट गृहस्थों के उपयोग के लिए गृहस्थ प्रयुक्त करे, इसमें साधु को दोष कैसे लगेगा? फोन, फैक्स, टेलेक्स आदि भी व्यवहार के विषय हैं। जो-जो चीजें कल्पनीय हैं, वे सारे करना साधु के लिए जरूरी नहीं हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षाओं के आधार पर इनका प्रयोग- अप्रयोग निर्दिष्ट हो सकता है ।
इसी प्रकार माईक आदि का प्रयोग भी गृहस्थ लोग अपनी सुनने की सुविधा के लिए करते हैं । जैसे पण्डाल, स्टेज आदि सभा की सुविधा के लिए निर्मित होते हैं, वैसे ही माइक, स्पीकर, एम्पलीफायर आदि का प्रयोग भी गृहस्थ लोग अपनी सुविधा के लिए करते हैं । यदि पण्डाल, स्टेज आदि का उपयोग साधु करते हैं तो उन्हें दोष नहीं लगता तो माईक में साधु की आवाज चली जाने से उसका दोष साधु को कैसे लगेगा? (टेलीफोन की प्रक्रिया में विद्युत् ऊर्जा का ध्वनि के रूप में परिवर्तित होना भी पौद्गलिक परिणमन है। जहाँ तक तेउकाय की विराधना का संबंध है, टेलीफोन में बात करने से ऐसा होने की संभावना नहीं है ।)
सौर सेल में सौर ऊर्जा से विद्युत् ऊर्जा पैदा की जाती है। इसमें भी केवल पौद्गलिक परिणमन ही है, सचित्त तेउकाय का प्रसंग नहीं बनता। जहां माईक आदि में गर्मी होती है, तो यह वह जीव कृत नहीं हैं, इस प्रश्न का उत्तर हैं बहुत सारे पौद्गलिक परिणमन ऐसे हैं, जहाँ गर्मी या उष्मा पैदा होती है, विस्त्रसा परिणमन केवल पौद्गलिक हैं, उन्हें जीव द्वारा कृत नहीं माना जा सकता। परम्पर रूप में सृष्टि के सभी परिणमनों में जीव और पुद्गल का संयोग किसी-न-किसी रूप में जुड़ा हुआ है । किन्तु उसका तात्पर्य यह नहीं है कि अनंतर रूप में सभी परिणमन में जीव का योग अवश्य है । (विस्तृत चर्चा प्रश्न 23 के उत्तर में की जा चुकी है ।)
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प्रश्न-33. एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि तेरापंथी साधु-साध्वी पंखे का उपयोग करते हैं। उसमें उनका आशय शासन की प्रभावना करने का है या शरीर की सुखशीलता को पुष्ट करने का है? पंखे के उपयोग में वायुकाय की विराधना तो स्पष्ट है ही। तदुपरांत कितनी बार उड़ते हुए पंछी वगैरह की भी वहाँ विराधना होती है। तब फिर पंखे का उपयोग तेरापंथी साधु किस लिए करते हैं? यह बात समझ में नहीं आती। क्या इससे जीवनभर षड्जीवनिकाय की हिंसा का त्याग करने का महाव्रत दूषित नहीं होता?
14 पूर्वधर श्री स्वयंभवसूरिजी महाराज ने तो दशवैकालिकसूत्र में 'चलेण वा चेलकणेण वा हत्थेण वा मुहेण वा अप्पणो वा कायं बाहिरं वा वि पुग्गलं न फुमेज्जा न वीएज्जा' (द.वै. 4/4) ऐसा कह कर 'वस्त्र द्वारा या वस्त्र के अंचल से अथवा हाथ द्वारा या मुंह द्वारा स्वयं के शरीर को अथवा बाहर की किसी भी चीज़ को फूंकने का, बुझाने का कार्य साधु मन-वचन-काया से करना-कराना-अनुमोदना छोड़े'इस प्रकार की वायुकाय की रक्षा की बात बताई है। 14 पूर्वधर श्री भद्रबाहुस्वामीजी महाराज ने भी आचारांग नियुक्ति में
'वियणे अ तालयंटे सप्पसियपत्त चेलकण्णे य। अभिधारणा य बाहिं गंधग्गी वाउसस्थाई॥' (आ.नि.श्रु. 1/अ. 1/3.7/गा. 170)
ऐसा कहकर उन्होंने वीजणापंखा वगैरह की, वायुकाय की हिंसा के साधन के रूप में पहचान कराकर उनसे दूर रहने की सलाह दी है।"
उत्तर- पंखे के चलने से वायुकाय की विराधना होती है, जो साधु के लिए कृतकारित-अनुमोदित मनसा, वाचा, कायेन वर्ण्य है। किन्तु जहाँ पंखा चलता हो, वहाँ बैठने से वायुकाय की विराधना का कोई प्रसंग नहीं होता। यदि पंखे को साधु चलवाये या चलते हुए का अनुमोदन करे, तो अवश्य वह दोष का भागी बनेगा। जहाँ साधु बैठे हों वहाँ अन्य कोई व्यक्ति अपनी सुविधा के लिए पंखा चलाए, तो उसमें साधु को दोषी ठहराना संगत नहीं है। उस स्थिति में साधु का कर्तव्य है कि वह अपने भावों का संयम करें- पंखे से मिलने वाले सुख की कामना न करे। मन से भी अनुमोदन न करे। यदि कोई ऐसा करता है तो उसे निश्चित ही दोष लगेगा, यह स्पष्ट है। जैसे गृहस्थ हिंसा कर अपने निमित्त से भोजन, पानी, वस्त्र, मकान, औषध आदि का निर्माण करता है और साधु को देने पर साधु उसे शुद्ध (निर्दोष) आहार, पानी आदि के रूप में ग्रहण करता है, तो साधु को कोई दोष नहीं लगता, पर यदि साधु के भावों में इन सबके प्रति किसी प्रकार की भावना हो या मानसिक अनुमोदन भी हो तो साधु दोष का भागी बनता है। वैसे ही तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 -
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पंखे के संबंध में है। पंखे की हवा लगने मात्र से उसकी हिंसा में साधु को संभागी मान लेने का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता।
इसमें कहीं दो राय नहीं हैं कि साधु को न स्वयं विद्युत् संचालित पंखा चलाना कल्पता है, न चलवाना और न अनुमोदन करना। इसमें भले ही विद्युत् निर्जीव है, हाथ पंखा भी तो निर्जीव ही है, पर उसका प्रयोग साधु के लिए त्रिकरण-त्रियोग से वर्ण्य है। उसी प्रकार विद्युत् चालित पंखे में भी है।
___ अब यदि गृहस्थ अपनी सुविधा के लिए पंखा चलाता है, वहां साधु को रहना कल्पता है या नहीं? इस प्रश्न का गंभीर चिन्तन जरूरी है। यदि साधु गृहस्थ द्वारा चालित पंखे का अनुमोदन (मनसा, वाया, कायेन) न करे और माध्यस्थ भाव से वहां स्थित हो तो वायुकाय की विराधना का दोष साधु को कैसे लगेगा? क्योंकि पंखे द्वारा हो रही वायुकाय की हिंसा में साधु की उपस्थिति किसी भी रूप में निमित्तभूत नहीं है। इस विषय की चर्चा पहले भी की जा चुकी है। यदि जहां पंखा चलता हो वहां साधु को रहना ही नहीं कल्पता तो फिर पंडाल आदि में रहना कैसे कल्पेगा?
इसलिए यह स्पष्ट है कि जिस क्रिया में साधु त्रिकरण-त्रियोग से जुड़ा हुआ नहीं है, उसका दोष साधु को नहीं लगता।
. गृहस्थ अपने उपयोग के लिए जिन साधनों का प्रयोग करता है और उनमें वहां वायुकाय या त्रसकाय या अन्य कोई भी जीवों की हिंसा होती है, तो उसका पाप गृहस्थ को लगता है। यदि साधु उसको न करता है, न कराना है, न अनुमोदन करता है तो उसका दोष साधु को नहीं लगेगा।
माइक, लाईट आदि की चर्चा भी हम कर चुके हैं।
प्रश्न-34. दूसरी एक महत्त्व की बात यह है कि विद्युत् प्रकाश के उपयोग में मात्र स्थावरकाय और त्रसकाय जीवों की विराधना का दोष लगता है, ऐसा नहीं है। इलेक्ट्रीसीटी की उत्पत्ति में भी बहुत सारे त्रसकाय पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा का महादोष लागू पड़ता ही है। जिन महानदियों में डेम बाँधकर टरबाइन के माध्यम से विद्युत् उत्पन्न की जाती है, वहाँ टरबाइन के तीक्ष्ण दाँतों से लाखों मछलियों की हिंसा होती है। टरबाइन के दाँतों में फंसकर कटी हुई मछलियों के थोकबंद माँस से टरबाइन बंध न हो जाए, इसलिए प्रत्येक छ:-आठ घंटों के अन्तर में उसके दाँतों को साफ करते हैं। उसमें से टनबंध माँस निकलता है। टरबाइन के पास में बहता हुआ पानी भी मछलियों के खून से लाल हो जाता है। इतनी घोर हिंसा के बाद इलेक्ट्रीसीटी उत्पन्न होती है। इस प्रकार की हिंसा का
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पाप इलेक्ट्रीसीटी का उपयोग करने वाले को अवश्य लगता है । इसलिए इलेक्ट्रीसीटी के उत्पादन में हिंसा और वह सजीव होने के कारण उसके उपयोग में भी हिंसा का दोष स्पष्ट रूप से दिखाई देता है । वास्तव में त्रस - स्थावर दोनों प्रकार के ढ़ेर सारे जीवों की हिंसा से कलंकित हुए माईक - लाईट फोन- फैक्स वगैरह का उपयोग जीवन पर्यन्त सर्व हिंसा के त्यागी ऐसे जैन साधु-साध्वी जी भगवंत किस प्रकार से कर सकते हैं? ऐसा करें तो उनका अहिंसा महाव्रत किस प्रकार से निर्मल रह सकता है?
उत्तर - जैन साधु ऐसी कोई चीज का प्रयोग नहीं कर सकता, जिसमें महाआरम्भ तो क्या, अल्प आरम्भ भी हो। इसीलिए आहार आदि भी सहज - निष्पन्न होने से ही साधु ग्रहण करते हैं । आहार की भांति ही वस्त्र, पात्र, उपकरण, स्थान, औषध आदि सभी चीजें बिना आरम्भ कहीं नहीं बनती। इनके आरम्भ में भी बिजली का प्रयोग अनंतर या परंपर रूप में होता ही है । यदि बिजली की उत्पत्ति में महाआरम्भ के आधार पर उसके उपयोग को सदोष माना जाए तो फिर बिजली की सहायता से निष्पन्न उक्त चीजों का भी उपयोग साधु कैसे कर सकते हैं? जिस प्रकार सहज निष्पन्न उपयुक्त चीजों का उपयोग साधु के लिए विहित है, उसी प्रकार माइक, लाईट आदि गृहस्थों की सुविधा के लिए प्रयुक्त गृहस्थों द्वारा हो तो उसका दोष साधु को कैसे लगेगा? टरबाइन में मछली आदि के कटने की हिंसा की क्रिया उन्हें लगेगी जो कृत, कारित, अनुमोदित रूप में उसमें जुड़ते हैं, फिर भले ही वे साधु हो या गृहस्थ । गृहस्थ की अपनी सुविधा के लिए लगे माइक, लाइट आदि का दोष यदि साधु को भी लगेगा तो फिर गृहस्थों के लिए निर्मित पंडाल, स्टेज, मकान (उपाश्रय) आदि का दोष साधु को क्यों नहीं लगेगा? जहां तक धर्म-प्रचार का सम्बन्ध है- हिंसा के माध्यम से धर्म प्रचार करना ही जब अधर्म है तो हिंसा के द्वारा धर्म-प्रचार करना विहित कैसे होगा ? पर जैसे पुस्तक - मुद्रण आदि में लगने वाली क्रिया साधु को नहीं लगती वैसे ही माइक आदि की क्रिया भी साधु को कैसे लगेगी? यदि धर्म-प्रचार के लिए पुस्तक आदि का लेखन साधु कर सकते हैं तो फिर अपनी यतनापूर्वक उपदेश देने में साधु कैसे दोषी होगा? माइक आदि गृहस्थ अपनी सुविधा के लिए लगाते हैं, यह बात वैसी ही है जैसे पुस्तक का मुद्रण आदि गृहस्थ अपनी सुविधा के लिए करते हैं । न पुस्तक- मुद्रण में साधु कृत, कारित, अनुमोदित रूप में संलग्न हो सकता है, न माइक आदि के प्रयोग में ।
जैन साधु पांच महाव्रतों का पालन करते हुए ही धर्म-प्रचार करते हैं । इसीलिए वे पुस्तक- मुद्रण जैसी सावद्य प्रवृत्तियों को न कर सकते हैं, न करवा सकते हैं, न उनका अनुमोदन कर सकते हैं। यदि इस संबंध में महाव्रतों का पालन वफादारी से कर सकते तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2004
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हैं तो फिर धर्म-उपदेश एवं प्रचार के कार्य को उस प्रकार क्यों नहीं कर सकते? पुस्तक मुद्रण और माइक, लाइट आदि के साथ साध्य की संलग्नता समान है। निश्चित ही संयम-धर्म को विशुद्ध रखकर ही जैन साधु धर्म-प्रचार करे, यही वांछनीय है।
आचार्य तुलसी ने तेरापंथ की नीति को स्पष्ट करते हुए "माइक आदि विषय" की चर्चा इस प्रकार की हैतटस्थता की नीति
संशोधन और परिवर्तन की नीति के साथ कुछ विषयों में हमने तटस्थता की नीति अपनाई है। फोटो, टेपरिकॉर्डिंग, बिजली आदि कुछ ऐसे विषय हैं। गृहस्थ अपने प्रयोजनों से इनका प्रयोग करता है, उसमें साधु तटस्थ रहे तो कोई दोष प्रतीत नहीं होता। तटस्थता की नीति से मेरा अभिप्राय है-निषेध और अनुमोदन, इस द्वंद्व से बचकर अप्रमत्तभाव से व्यवहार करने की नीति ।
प्रमादवश कुछ भूलें हो जाना असम्भव नहीं है। भूल का समर्थन भी नहीं किया जाना चाहिए। यदि इन कार्यों में साधु की प्रेरणा या लगाव हो तो वह वांछनीय नहीं है। इसके साथ-साथ यह मानकर भी नहीं बैठना चाहिए कि इन कार्यों में प्रेरणा या लगाव हुए बिना कोई रह ही नहीं सकता। व्यवहार की ऐसी अनेक प्रवृत्तियाँ हैं, जिनसे साधु को तटस्थ रहना जरूरी होता है- समर्थन और निषेध, इन दोनों से बचकर अपनी स्थिति में रहना होता है।
माइक का प्रयोग मुख्यतः सुनने वालों की उपयोगिता है। साधु इस पर बोले तो उसकी भी पूरी तटस्थता बरतनी होती है। इसका निषेध न करे तो उसकी प्रेरणा भी नहीं करनी चाहिए। निषेध और प्रेरणा के बीच का रास्ता अवश्य ही बहुत संकरा है। किन्तु उस पर चला नहीं जा सकता, ऐसा नहीं माना जा सकता।
उक्त प्रवृत्तियों में मुनि निमित्त बनता है और निमित्त बनने से बचना देह धारणा और व्यवहार की स्थिति में सम्भव भी कहाँ है? यदि मुनि उन प्रवृत्तियो में लिप्त न हो तो वह उनकी आसक्ति से अपने आपको बचा सकता है।
प्रश्न-35. एक ओर महत्त्व की बात तो यह है कि सचित्त (सजीव) तेउकाय के लक्षण जिसमें दिखाई देते हैं, वैसी इलेक्ट्रीसीटी और बल्बप्रकाश में निर्जीवता का निश्चय असर्वज्ञ को किस प्रकार से हो सकता है? असर्वज्ञ व्यक्ति तो ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता। यदि स्वयं के पास उपलब्ध साधन सामग्री द्वारा किसी चीज की निर्जीवता
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का अभ्रान्त निर्णय नहीं हो सकता तो छद्मस्थ साधु-साध्वीजी भगवंत उस चीज़ का उपयोग-उपभोग उत्सर्ग मार्ग से नहीं कर सकते। यह बताने के लिए तो श्रमण भगवान महावीर ने केवलज्ञान के बल से तालाब के पानी को निर्जीव जानते हुए भी अत्यन्त प्यास से व्याकुल साधुओं को उस प्रासुक-निर्जीव जल को पीने की अनुज्ञा नहीं दी, क्योंकि केवलज्ञान द्वारा निर्जीव दिखाई देने वाला वह पानी छद्मस्थ जीवों के पास रहने वाली ज्ञान-सामग्री से निर्जीव स्वरूप निश्चित हो सके, ऐसा संभव नहीं था। ऐसा होने पर भी प्यास से व्याकुल साधुओं को यदि वैसे पानी को पीने की छूट दें तो भविष्यकाल में अनेक साधु अपने पास उपलब्ध साधन-सामग्री से निर्जीव स्वरूप नहीं जान पाने वाली चीज़ वस्तुओं का भी प्रस्तुत दृष्टान्त से आलंबन द्वारा उत्सर्ग मार्ग से उपयोग करने लगेंगे- यह प्रबल संभावना थी। ऐसी गलत परंपरा का प्रारम्भ हो जाएगा। परमकृपालु परमात्मा कैसे होने देते? इसलिए उन्होंने वह पानी निर्जीव होते हुए भी उस पानी को पीने की आज्ञा नहीं दी। यह समस्त घटना आचारांगवृत्ति में श्रीशीलांकाचार्य ने इस प्रकार से बताई है
'कालतस्त्वचित्तता स्वभावतः स्वायुःक्षयेण वा। सा च परमार्थतोतिऽतिशयज्ञानेनैव सम्यक् परिज्ञायते, न छाद्मस्थिकज्ञानेनेति न व्यवहारपथमवतरति। अतएव च तृषाऽतिपीड़ितानामपि साधूनां स्वभावतः स्वायु:क्षयेणाऽचित्तीभूतमपि तड़ागोदकं पानाय वर्धमानस्वामी भगवान् नानुज्ञातवान्, इत्थंभूतस्याऽचित्तीभवनस्य छद्मस्थानां दुर्लक्ष्यत्वेन मा भूत् सर्वत्राऽपि तड़ागोदके सचित्तेऽपि पाश्चात्यसाधूनां प्रवृत्तिप्रसंग इति कृत्वा' (आचारांगनियुक्ति अध्ययन-1, पृथ्वीकाय/गा. 13 की वृत्ति)
इस अति उत्तम ऐतिहासिक और आगमिक आदर्श को नजर के समक्ष रखकर, प्रकाश-दाहकता इत्यादि तेउकाय के लक्षण जिसमें दिखाई देते हैं, वैसी इलेक्ट्रीसीटी का, विद्युत्प्रकाश का, इलेक्ट्रीसीटी पर आधारित समस्त साधनों का औत्सर्गिक उपयोग, सर्व हिंसा का जीवनभर त्याग करने वाले साधु-साध्वीजी भगवंत किस प्रकार से कर सकते हैं?
इससे निष्कर्ष निकलता है कि केवलज्ञान द्वारा निर्जीव स्वरूप में निश्चित हुआ पानी भी श्रुतज्ञान की दृष्टि से निर्जीव रूप सिद्ध न हो तब उसका सजीव के रूप में व्यवहार करना यही सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवंतों को मान्य है। मतलब कि सजीव-निर्जीव का व्यवहार तथा निर्णय करने के लिए हमारे लिए केवलज्ञान की तुलना में श्रुतज्ञान बलवान प्रमाण सिद्ध होता है। इस अपेक्षा से केवलज्ञान की तुलना में श्रुतज्ञान बलवान सिद्ध होता है तो मंदबुद्धि या शुष्क तर्क की तुलना में तो श्रुतज्ञान ज्यादा बलवान बनता ही है। हमारे तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004 -
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लिए तो श्रुतज्ञान की ही सबसे ज़्यादा विश्वसनीयता-उपादेयता-प्रमाणरूपता है- ऐसा सूचित करने के लिए तो 'श्रुतधर गवेषणा करके, श्रुत के उपयोग से निर्दोष स्वरूप जानने के बाद, जो गोचरी लाते हैं, वह गोचरी केवली को दोषित दिखाई दे तब भी केवलज्ञानी उस गोचरी का उपयोग करते हैं अन्यथा श्रुत अप्रामाणिक हो जाता है'- ऐसा भद्रबाहुस्वामीजी ने पिंडनियुक्ति में बताया है।
'आहो सुओवउत्तो सुयनाणी जइ वि गिण्हइ असुद्ध। तं केवली वि भुंजइ अपमाणं सुयं भवे इह रा॥' (गा. 524)
इसीलिए तो किसी भी प्रकार के अतीन्द्रिय पदार्थ के स्वरूप वगैरह विषय में हमारे सभी संशय दूर करने के लिए श्रुतज्ञान ही अत्यन्त आदरणीय परम विश्वसनीय, दृढ़ आधारभूत और प्रबल प्रमाणभूत है। ___वर्तमान में उपलब्ध पंचांगी आगम और आगमावलंबी श्रुत के माध्यम से उपर्युक्त प्रकार से विचार-विमर्श करते हुए हमें तो 'इलेक्ट्रीसीटी और बल्बप्रकाश वगैरह सजीव अग्निकाय ही हैं'- ऐसा निश्चित रूप से मालूम पड़ता है। भवभीरू-पापभीरू मुनिमुमुक्षु-श्रद्धालु आराधक व्यक्ति इस बाबत में मध्यस्थता से आगामानुसार निर्णय कर सकें, इस आशय से आगमादि के वचन तथा विज्ञान को भी आदर की दृष्टि से देखते हुए आराधक, विज्ञान और आगम के समन्वय से निश्चित कर सकें, इसलिए आधुनिक साइन्स के सिद्धान्तों को भी प्रस्तुत विचारणा में आधार रूप से बताए हैं। दोनों दृष्टि से विचार करने से हमें 'इलेक्ट्रीसीटी और विद्युत् बल्ब का प्रकाश -- ये दोनों सजीव अग्निकाय हैं,' ऐसा निसंदिग्ध रूप से ज्ञात होता है। 28
उत्तर-किसी चीज की सजीवता-निर्जीवता को सर्वज्ञ द्वारा विहित निर्देशों के आधार पर असर्वज्ञ जान सकता है। जैसे उष्ण जल या शस्त्रपरिणत जल साधु ग्रहण करता है, उस समय वह सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट कसौटियों को आधार बनाता है, वैसे ही अग्निकाय के लिए सर्वज्ञों द्वारा निर्दिष्ट कसौटियों को कसकर यह निर्णय लेना असर्वज्ञ के लिए कोई कठिन नहीं है कि विद्युत् (इलेक्ट्रीसीटी) अपने आप में निर्जीव है। उसके कौन-से प्रयोग में अग्निकाय या वायुकाय या त्रसकाय या अन्य कोई जीव की हिंसा हो सकती है या नहीं हो सकती- उसका निर्णय भी सर्वज्ञ द्वारा निर्दिष्ट कसौटियों के आधार पर भलीभांति किया जा सकता है। जैसे- हाथ-पंखी या पंखे का प्रयोग वायुकाय की विराधना में स्पष्टतः कारणभूत बनता है, वैसे ही बिजली द्वारा चालित पंखा भी वायुकाय की विराधना का कारण बनता ही है। इसीलिए जैन साधु न स्वयं बिजली के
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पंखे को चलाए, न औरों से चलवाए और न ही चलते हुए का अनुमोदन करें, किन्तु गृहस्थों द्वारा अपनी सुविधा से चलाए गए पंखों के नीचे बैठे हुए साधु को वायुकाय की विराधना का दोषी कैसे माना जाएगा? यदि मन से भी उसका अनुमोदन वह कर देगा, तो दोष लगेगा ही ।
जैन साधु जो भी चीजें ग्रहण करते हैं, वे अचित्त (निर्जीव) हैं, ऐसा निर्णय आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत – इन पांच व्यवहारों के आधार पर करते हैं। इस विषय में श्रीमज्जयाचार्य ने बहुत स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया है। (देखें टिप्पण 42 )
इसी आधार पर तेरापंथ धर्मसंघ में राख या चूना से परिणत पानी को अचित्त मानकर ग्रहण किया जाता है। फल आदि संन्दर्भ में भी कौन - सा फल किस स्थिति में सचित्त है, किस स्थिति में अचित्त है, इसका निर्णय करने हेतु अलग-अलग कसौटियां निर्धारित की गई हैं। उसी तरह सैल द्वारा संचालित घड़ी का प्रयोग विहित माना गया है। बहुत सारी प्रवृत्तियां सदोष न हो, फिर भी जब तक उन्हें वर्ज्य माना जाता है, कोई भी साधु तेरापंथ धर्मसंघ में उन प्रवृत्तियों को नहीं कर सकता। इसी आधार पर माइक, लाईट आदि का प्रयोग साधु स्वयं नहीं करते । गृहस्थ अपनी सुविधा के लिए करे, तो वे जानें किन्तु माइक में साधु का शब्द जाने से साधु को दोष नहीं लगता, सहज - निष्पन्न लाइट आदि का प्रकाश काम में लेने से भी साधु को दोष नहीं लगता, इसलिए इस प्रकार के कार्यों का विधान तेरापंथ की मर्यादा में चिंतनपूर्वक किया गया है ।
श्रुतधर ( मुनि) गवेषणा करके श्रुत के उपयोग से निर्दोष स्वरूप जानने के बाद जो ग्रहण करता है, वह केवली को अशुद्ध ( दोषयुक्त) दिखने के बाद भी केवली उसका उपयोग करते हैं अन्यथा श्रुत अप्रमाणित हो जाता है ।
यह उद्धरण ही बहुत स्पष्टतया श्रुतज्ञान के निर्णय को कसौटियों पर कसने के पश्चात् शुद्ध बताता है । विद्युत्-विषयक अवधारणा पर जो चिन्तन प्रस्तुत किया गया है, वह निर्जीव रूप में उसे सिद्ध करते हैं । इस श्रुतज्ञान का आधार ही व्यवहार में स्वीकार्य है । यह पहले भी स्पष्ट कर चुके हैं कि जहां तक प्रामाण्य का संबंध है, तेरापंथ मूल 32 आगमों को ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। पंचांगी का प्रामाण्य मान्य नहीं है ।
प्रश्न - 36. " पिंडनिर्युक्ति में 'जं संकियमावन्नो पणवीसा' (गा. 521 ) ऐसा कहकर श्रीभद्रबाहुस्वामीजी द्वारा बताई गई एक ओर बात यहाँ अनिवार्य रूप से याद आ जाती है । गोचरी लेने गए साधु को 'सामने पड़ी हुई भोजनादि सामग्री सचित्त है अथवा अचित्त?' इस बात की यदि शंका हो जाए और उसका समाधान न होने पर यदि वह उस चीज़ को ग्रहण करता है तो उस साधु को सचित्तभक्षणनिमित्तक कर्मबंध होता है कि
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अचित्तभक्षणनिमित्तकलाभ। इस दृष्टिकोण से विचार करते हुए कह सकते हैं कि उपर्युक्त अनेक आगम प्रमाण इत्यादि द्वारा किसी व्यक्ति को 'इलेक्ट्रीसीटी और विद्युत् प्रकाशदोनों सजीव हैं' यह निर्णय न होने पर भी 'यह सजीव है या निर्जीव?' इस प्रकार की शंका भी हो तो ऐसे शंकाग्रस्त साधक को माइक-लाइट इत्यादि का उपयोग करने से तेउकाय विराधना-निमित्तक कर्मबंध ही होता है। इतनी बात तो निश्चित ही है। अभी तक जो यहाँ विचार किए गए हैं, उनसे प्राज्ञों को इलेक्ट्रीसीटी और बल्बप्रकाश इत्यादि की सजीवता के सम्बन्ध में शंका भी उत्पन्न न हो, क्या यह संभव है?' *84
उत्तर–सर्वप्रथम तो शंका के लिए स्थान ही नहीं है। उपर्युक्त समग्र विवेचन से जब यह भली-भाँति स्पष्ट है कि इलेक्ट्रीसीटी अपने आप में केवल पौद्गलिक परिणमन ही है, तब फिर शंका के लिए अवकाश कहां है? जहां तक लाइट-माइक आदि का सम्बन्ध है, उसके लिए जैसे ऊपर स्पष्ट किया गया है कि यदि साधु कृत-कारितअनुमोदित से मुक्त रहता है तो फिर उसे कैसे उसका दोषी माना जाएगा?
___अपने व्यवहार में अपने निर्णय का आधार अपना विवेक एवं संयम ही बनता है। भोजन आदि के ग्रहण में भी शंका का निवारण का आधार अपना विवेक एवं संयम ही होता है। उसके आधार पर शंका-रहित होकर ही साधु भोजन आदि ग्रहण करते हैं। उसी प्रकार प्रस्तुत प्रसंग में भी जब यह शंका नहीं है कि इलेक्ट्रीसीटी शायद सजीव हो तो उसी आधार पर निर्णय किया जाएगा। इलेक्ट्रीसीटी के कौन-से प्रयोग में यह संभावना है, इसका निर्णय करके ही यानी शंकामुक्त होकर ही उस संबंध में व्यवहार किया जाए तो कहां आपत्ति है?
सन्दर्भ : 48. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 64 49. वही, पृष्ठ 65-67 50. भगवती सूत्र (भगवई), अंगसुत्ताणि खंड 2, 5/2/51-54 51. "अह णं भंते! ओदणे, कुम्मासे, सुरा-एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिय् ?
गोयमा! ओदणे, कुम्मासे, सुराए य जे घणे दव्वे एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च वणस्सइजीवसरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया, सत्थपरिणामिया, अगिणज्झामिया, अगणिझूसिया, अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया। सुराए य जे दवे दव्वे-एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च आउजीवसरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया॥
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52. अह णं भंते ! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया-एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! अये, तंबे, तउए, सीसए, उवले, कसट्टिया-एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च
पुढवीजीवसरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया ॥ 53. अह णं भंते! अट्ठी, अटिज्झामे, चम्मे, चम्मज्झामे, रोमे, रोमज्झामे, सिंगे, सिंगज्झामे, खुरे,
खुरज्झामे, नखे, नखज्झामे-एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया? गोयमा! अट्ठी, चम्मे, रोमे, सिंगे, खुरे, नखे-एए णं तसपाणजीवसरीरा । अट्ठिज्झामे, चम्मज्झामे, रोमज्झामे, सिंगज्झामे, खुरज्झामे, नखज्झामे-एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च
तसपाणजीवसरीरा। तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीरा ति वत्तव्वं सिया॥ 54. अह णं भंते ! इंगाले, छारिए, भुसे, गोमए-एए णं किंसरीरा ति वत्तव्वं सिया?
गोयमा! इंगाले, छारिए, भुसे, गोमए-एए णं पुव्वभावपण्णवणं पडुच्च एगिंदियजीवसरीरप्पयोगपरिणाममिया वि जाव पंचिंदियजीवसरीरप्पयोग-परिणामिया वि। तओ पच्छा
सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीर ति वत्तव्वं सिया।" 51. आचार्य महाप्रज्ञ, भगवती भाष्य (खंड 2), पृष्ठ 141, 142 52. प्रवचनसार, गाथा 8-"परिणमदि जेण दव्वं, तक्कालं तम्मयत्ति पण्णत्तं।" 53. तत्त्वानुशासन, गाथा 190
परिणमते येनात्मा भावेन सतेन तन्मयो भवति।
अर्हद् ध्यानाविष्टा भावार्हन् स्यात् स्वयं तस्मात्॥ 54. प्रो. हरिमोहन झा, भारतीय दर्शन परिचय, द्वितीय खंड, वैशेषिक दर्शन, पृष्ठ 121 55. "अत्थिणं भंते! अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति? उज्जोति? तवेंति? पभासेंति? हंता अत्थि।
"कयरे णं भंते! अच्चित्ता वि पोग्गला ओभासंति? उज्जोवेंति? तवेंति? पभासेंति? कालोदाई! कुद्धस्स अणगारस्स तेय-लेस्सा निसट्ठा समाणी दूरंगता दूरंनिपतति, देसं गता देसं निपतति, जहिं-जहिं च णं सा निपतति तहिं-तहिं च णं ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति, पभासेंति। एतेण कालोदाई! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उज्जोवेंति, तवेंति,
पभासेंति॥" 56. डॉ. जे. जैन, पूर्व उद्धृत लेख, पृष्ठ 23 57. Prof. A. K. Shaha, op. cit, p. 286
"It is to be noted that solid bodies and the majority of liquid bodies can be considered as impenetrable to rays, i.e. are opaque. Rays cannot penetrate inside these bodies and cannot be emitted from within. In the opaque bodies, radiation, absorption and reflection of within. In the opaque bodies, radiation, absorption and reflection of rays occur only on the surface. Gases
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are permeable to rays and rays can pass through them freely. Some of the gases such as CO2, H2O, CH4 etc. are endowed with the property of radiation and emit Grey radiation. However gases exhibit the property of radiation and absorption in respect of the rays of particular wavelengths
only.” 58. डॉ. जे. जैन, पूर्व उद्धृत लेख, पृष्ठ 50 में भट्टी की प्रक्रिया को वैज्ञानिक आधारों पर
समझाया गया है। वे स्वयं इसी विषय के विशेषज्ञ हैं। 59. वही, पृष्ठ 49 60. वही, पृष्ठ 50 61. वही, पृष्ठ 50 62. वही, पृष्ठ 51 63. वही, पृष्ठ 55, 56 64. वही, पृष्ठ 59, 60 65. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 67, 68 66. वही, पृष्ठ 68, 69 67. वही, पृष्ठ 69-74 68. वही, पृष्ठ 74, 75 69. वही, पृष्ठ 75, 76 70. (क) ठाणं (स्थानांग सूत्र), 10/105-117
"दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा, कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा। णेरइयाणं दस सण्णओ एवं चेव। एवं णिरंतरं जाव वेमाणियाणं ॥"
(ख) विज्ञान के अन्वेषणों के लिए उदाहरणार्थ देखें-- “sectret life of plants" 71. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 77 72. यह पूरा प्रश्न मुनि यशोविजयजी ने अपने ग्रन्थ 'विद्युत् : सजीव या निर्जीव?' में पृष्ठ 78___99 में विस्तार से प्रस्तुत किया है। इस प्रश्न के विस्तृत उत्तर के लिए मुनि नंदीघोषविजयजी
द्वारा लिखित 'जैन दर्शन : वैज्ञानिक दृष्टिए' में पृष्ठ 61-68 द्रष्टव्य है। (इसे हमने प्रस्तुत
पुस्तक में अन्त में परिशिष्ट-1 में उद्धृत किया है।) 73. श्रीमद् जयाचार्य, प्रश्नोत्तर-तत्त्व बोध, प्रकरण 15, '45, बत्तीस आगम अधिकार', पृष्ठ
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568. "पंच अनै चालीस में, जे चउसरण विचार।
नाम भक्तपरिज्ञा, बली, फुन पइन्नो संथार ॥ 1 ॥ 569. जीतकल्प, पिंडनियुक्ति, पचखाण-कल्प अवलोय।
ए षट् नी नंदी विषे, साख नहीं छै कोय ॥ 2 ॥ 570. महा-निशीथ विषे का, द्वितिय अध्ययन मझार।
कुलिखत दोष देवो नहीं, तसुं कारण अवधार ।। 3 ।। 571. एहिज महानिशीथ में किहां क अर्द्ध सिलोग।
किहां सिलोग, किहां अक्षर नी, पंक्ति ओली प्रयोग।4।। 572. किहांयक पानो अर्द्ध ही, किहां पत्र बे तीन।
गळ्यो ग्रन्थ इम आदि बहु, इह विध कह्यु सुचीन' ॥5 ।। 573. बलि कडं तृतिय अध्येन में, ए पुस्तक रै मांहि ।
चैंठो इक पाना थकी, बीजो पानो ताहि ॥6 ॥ 574. ते माटे ए सूत्र ना, अलावा न पामेह ।
तिहां भणणहार सूत्रां तणा, त्यां अशुद्ध लिख्युं हुवै जेह।7।। 575. दोष न देवो तेहनी, खंड-खंड थइ एह।
पत्र सड़या खाधी बलि, जीव उद्देहि जेह॥8॥ 576. हरिभद्र निज मति करी, सांधी लिख्युज ताम।
इम कर्दा महा-निशीथ में, बलि अन्य आचारज नाम' ॥9॥ 577. तिण सूं महानिशीथ पिण, डोहलाणो छै एह ।
सर्व मूलगो नहि रह्यो, निपुण विचारी लेह ॥ 10॥ 578. शेष रह्या षट तेह में, कांइक कांइक बाय।
अंग सूं न मिलै तेह वच, किम मानीजै ताय॥ 11 ॥ 579. टीका चूर्णि दीपिका, भाष्य निर्युक्ती जाण।
किंणहिक री दीसै नथी, तिण सूं एह अप्रमाण ॥ 12॥ 580. एकादश जे अंग थी, मिलता वचन सुजाण।
सर्व मानवा जोग्य मुझ, पइन्ना प्रमुख पिछाण ॥ 13 ॥ 581. धुर वे अंग नी वृत्ति जे, शीलाचारज कीध।
अभयदेव सूरी करी, नव अंग वृत्ति प्रसीध ॥ 14॥ 582. फुन अभयदवे सूरे रचित, प्रथम उपंग प्रबंध।
चंद्र सूरि विरचित वृत्ति, निरावलिया श्रुतस्कंध ॥ 15 ॥ तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2004
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583. to 3471 F G ft, Actafilf gran uttell
urar are 7627, 37047TER FE II 16 11 584. ETET, gara cofa qui
भाष्य अनै बलि चूर्णि पिण, पूर्वाचार्य रचित ।। 17 ॥ 585. Fan T T # afa sast, gafar el
feros faut 7 HARI, TES GET H II 18 || 586. Na ten arila 5, FAUT JE BITI
Teef FACTA BRT TOT, ET HIU r II 1911 74. Satish K. Gupta, op. cit., pp. 1085-1088
"Photon A photon is a packet of energy, It possesses energy given by E=hv Where h = 6.62 x 10-34 J s is the Planck's constant and v is the frequency of the photon. If is the wavelength of the photon, then C= v Here, c = 3 x 108 m s-1 is velocity of light. Therefore, E = hv = h c Photoelectric effect Hallwach discovered that an insulated zinc plate connected to a gold leaf electroscope and charged negatively lost its charge, when a beam of ultraviolet light was directed on the plate. In order to explain this observation, Haliwach suggested that the metal surface loses negative charge due to ejection of electrons from its surface by the ultraviolet light. The was termed as photoelectric effect. The phenomenon of ejection of electrons from a metal surface, when light of sufficiently high frequency falls upon it, is known as the photoelectric effect. The electrons so emitted were called photoelectrons. J.J. Thomson showed that the photoelectrons were not sifferent from the ordinary electrons. Laws of photoelectric emission. The various experimental observation led to the various conclusions, which became known as the laws of photoelectric emission, as explained below : 1. The emission of photoelectrons takes place only when the frequency
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of the incident radiation is above a certain critical valer, characteristic of that metal. The critical value of frequency is known as the threshold frequency for the metal of the emitting electrode. The emission of photoelectrons starts as soon as light falls on metal surface. It has been found that the time lag between the incidence of photon
and the emission of electron is less than 10-8 s. 3. The maximum kinetic energy with which an electron is emitted from a
metal surface is independent of the intensity of the light and depends
only upon its frequency. 4. The number of photoelectrons emitted i.e. the photoelectric current is
independent of the frequency of the incident light and depends only
upon its intensity. Einstein's Photoelectric Equation To explain photoelectric effect, Einstein postulated that the energy carried by a photon of radiation of frequency v is hv. According to him, the emission of a photoelectron was the result of the interaction of a single photon with an electron, in which the photon is completely absorbes by the electron. We know that to remove an electron from a metal, a certain minimum about of energy w, called word function of the metal, is required. Theus, when a photon of energy hv is absorbed by an electron, an amount of energy at least equal to w (provided hv>w) is used up in liberating the electron free and the difference hv – w becomes available to the electron
as its maximum kinetic energy.” 75. uft unfauteui, je p, 48 100 76. 61, 78 101, 102 V au farfsir À fac 77. qet, u8 103 78. JET, 48 103, 104 79. , u 116, 117 80. het, ye 104, 105 81. तेरापंथ युवक परिषद् जयपुर द्वारा प्रकाशित 'जय शासन जय अनुशासन' में आचार्य तुलसी
का भगवान महावीर के 2500वें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर दिए गए एक उद्बोधन के आधार पर 'विकास का आधार-आत्मानुशासन' नामक लेख, पृष्ठ 7
gaat all leis - fatto?, 2004 C
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81. (a) स्थानकवासी और तेरापंथ धर्मसंघ में बर्तनों का धोवण पानी अचित्त मानकर ग्रहण
करने की परम्परा प्राचीन काल से प्रचलित थी। जब इस पर कुछ लोगों ने यह कहकर आपत्ति की कि इसमें दो घड़ी में द्वीन्द्रिय आदि जीव पैदा हो जाते हैं, तो आचार्य भिक्षु ने उसका स्पष्टीकरण किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि धोवण पानी अचित है तथा उसमें द्वीन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति की बात आगम-मान्य नहीं है। देखें, आचार्य भिक्षु कृत श्रद्धा की चौपाई ढाल 31, श्री भिक्षु-ग्रन्थ-रत्नाकर (खंड-1), प्रकाशक तेरापंथी महासभा, कलकत्ता, सन् 1960, पृष्ठ 772-777, आचार्य भिक्षु, श्रद्धा की चौपाई, ढाल 32
ढाल : 31
दुहा केई जेंनी नांम धराय नें, बोले झूठ अतीव । साधु धोवण बहरे तेह में, कहे बेईद्री जीव ।।1।। ते पोतें तो धोवण पीवें नहीं, पिये त्यांने निंदे दिन रात। ते अन्हाखी थका बकवो करे, त्यांरा घट मांहें घोर मिथ्यात ।। 2 ।। जिभ्या रो स्वाद तज्यां बिना, धोवण पियो किम जात। तिणसूं धोवण उथा बहरणो, झूठी कर कर मुख सूं बात॥ 3 ॥ केई कहे वासी आहार में, एकण रात रे मांहिं । जीव बेइंद्री उपजें, तिण सूं साधां ने वहरणो नांहि ॥ 4 ॥ पोतें ठंडो आहार भावे नहीं, तिण सूं उंधी परूपें एम। एहवा हिंसाधा रा लक्षण बुरा, ते सुणज्यो धर प्रेम ।। 5 ॥
ढाल कसाई विचे तो कुगुर बुरा ए, त्यारे दया नहीं लवलेश। छ काया मारण तणो ए, दे पापी उपदेश । पाखंडी गुर एहवा ए, उन्हों पांणी धरावे करे आमना ए।। 1 ।। पछे भर भर ल्यावे ठांम, आधाकर्मी भोगवे ए। त्यांरा दुष्ट घणा पिरणांम, भविक निरणो करो ए॥ पा.2 ।। करडो काठो धोवण भावे नहीं ए, उन्हों पाणी लागे स्वाद। तिण सूं अन्हाखी थका ए, करे कूडी विषवाद ॥ 3 ।। कहे धोवण में उपजे घणा ए, दोय घडी पाछे जीव। ए उंधी परूपनें ए, दे छे कुगति नी नींव॥ 4 ॥ धोवण इकवीस जाति नों ए, साधु नें लेणो कह्यो जिण आप। आचारांग सूतर' में ए, ते कुगुरां दीयो उथाप॥ 5 ॥
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इकवीस जाति सूं मिलतो थको ए, घणी जाति रो धोवण जांण। ते पिण लेणो ए, तिणरी न करे मूढ पिछांण॥ 6 ।। अनेरो सस्त्र परिणम्यां थकां ए, वर्ण ने रस फिर जाय। ते धोवण लेणो साधु नें ए, ते विकलां में खबर न काय ॥7॥ कहे धोवण में जीव उपजें ए, दोय घडी में आय । ते पिण सूतर में नहीं ए, झूठा थका बोले मूसाबाय॥ 8 ॥ ततकाल रो धोवण नहीं वेंहरणों ए, घणी बोलां रो धोवण लेणो जांण। दसवैकालक' में कह्यो ए, तोही करे अग्यांनी तांण ।। 9॥ कहे धोवण में जीव उपजें ए, ते अन तणे परवेश। एहवो झूठ बोलनें ए, कर रह्या कूड कलेश॥10॥ जो धोवण में जीव उपजें ए, तो रोटी में ई उपजे आंण। दोय घडी मझे ए, ए लेखो बरोबर जाण ॥ 11 ॥ इमहिज दाल खीच घाट में ए, इत्यादिक सगली अन जांण। सगलां में जीव उपजें ए, धोवण सूं यांने ल्यो पिछाणं ।। 12॥ कठे पांणी थोडो नें अन घणो ए, कठे अन थोडो पाणी अत्यन्त। पांणी नें अन सर्व में ए, यां सगलां रो एक विरतंत॥ 13॥ दूध री जावणी रा धोवण मझे ए, यांमें उपजें बेइंद्री आय। तो दूध में पिण उपजें ए, पांणी मिले * तिण मांय ॥ 14 ॥ वले दही में छाछ रा धोवण मझे ए, यांमें उपजें बेइंद्री। तो उपजें दही छाछ में ए, पांणी मिले छे यारे ई मांय 15 ।। जिण जिण दरब रा धोवण मझे ए, जो उपजें बेइंद्री आय। तो दरब में ई उपजें ए, पांणी मिले छे दरब रे मांय 6 ॥ इतरा काल पछे जीव उपजें ए, ते सूतर में न कह्यो भगवंत।
उपजता जीव जांण नें ए, बहरें नहीं मतिवंत ॥ 17 ॥ 81. (b) तेरापंथ धर्म-संघ में आचार्यों द्वारा सचित्त-अचित्त के विषय में जो निर्णय किए जाते
हैं, उन्हें मर्यादावली में मर्यादा के रूप में मान्य किया जाता है। उदाहरणार्थ देखेंश्रीमज्जयाचार्य कृत मर्यादा-वृहद् मर्यादा (बड़ी मर्यादा) सं. 1908 का माघ सुदी 15 के दिन जयाचार्य पाट बिराज्या पछे त्यां विशेष बंद्योबस्ती कीधी ते लिख्यते(आचार्यों द्वारा समय-समय पर व्यवहार के आधार पर कृत मर्यादाएं-)
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(4) सेक्या मोथ्या तथा त्यारे संघटै पिण बहिरणो नहीं। अनै गिणवा दाणा वीखरया सेक्या
दीसै। तिणरे संघटे बहिरयां अटकाव नहीं। .. (5) मोगरी भुंगारी लेणी नहीं। इम फली सांगरी कैर फोग धूंगाऱ्या लैणा नहीं। मां है
मिरच्यां रा बीज री तथा काचरयां रा बीज री फU री संका ते माटै। (6) केला फुतरा सहित तथा त्यारै संघटे बहिरणो नहीं। फुतरा बिना लैवे तो अटकाव नहीं। (7) मिरचा राती कूटी घांस अर्थे तेल घाल्योडी ते बीज सहित लैणी नहीं। (8) सिंघोडा सूका भागा बीज सहित लेणा नहीं। (9) आंबारो छंदो फोंतरा देशी आंब कीसागां सागां खांड का फरस विना लेणी नहीं।
परदेशी आंब की बात न्यारी। (17) काचा पाणी मैं तेल रा हाथ घाल्यां चीगर रा तरावारा दीसे ते लेणो नहीं। (18) लूण मिरच जीरो हलदी घाल्योडो मसालो लेणो नहीं। (24) खरबूजा रो खांड घाल्योडौ पुणो बीज सहित लेणो नहीं, बीज विना अटकाव नहीं। (25) बालण काकडी रो पुणो लेणो नहीं। (26) मतीरा को पाणी लेणो नहीं। (27) ऊन्हो पानी तथा गोबरादिक को धोवण रो पालो जम्यो ते लेणो नहीं। (28) दरिया नीला दाडिमरा कुलिया लूंण मिरच लगायोडा लेणा नहीं। ए 36 बोलांरी बंधोबस्ती विशेष कीधी। खोपरा बीज सहित वर्जणा तो आगे ई हूंती। पिण मूणरा खोपरा बीज गलिया जाण ने लेता ते छोड्या।.. आचार्य री बांधी मर्यादा आचार्य रे हाथे छ। (49) दीवारै चानणै पाना वांचणा नहीं। (57) पाणी सचित री पारखा अर्थे हाथ घालणो नहीं। ववहार में अचित जाणे तो बहिर
लेणों। 81. (c) मर्यादावली, व्यवस्था सूत्र 16 (अप्रकाशित):
"सेल, बेटरी वाली घड़ी की तरह कर्णयंत्र भी सेल-संचालित है। उसमें तेजस्काय की
अजयणा की संभावना नहीं लगती, अतः काम में लिया जा सकता है।" 82. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 106-108 83. देखें, टिप्पण संख्या 73 84. मुनि यशोविजयजी, पूर्व उद्धृत ग्रन्थ, पृष्ठ 109
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Acaranga-Bhāṣyam
CHAPTER-II
PONDERING OVER THE NATURE OF THE WORLD
SECTION - 5
- Acārya Mahaprajña
2.104 jamiņam virūvarūvehim satthehim logassa kammasamārambhā kajjamti tam jahā-appaṇo se puttāṇam dhūyāṇam suṇhāṇam ṇātīņam dhātīṇam rāīņam dāsāṇam dāsīņam kammakarāṇam kammakarīṇam āesāe, pudho paheṇāe, sāmāsāe, pāyarāsāe.
The various acts of violence to fire-bodied beings that one commits -are: looking for the sake of oneself, sons, daughters, daughters-in-law, kinsmen, wet-nurses, kings, male and female slaves, servants and maid servants and for hospitality, festival gifts, supper and breakfast.
Bhāsyam Sūtra 104
A man indulges in sinful activities related to the world of firebodied beings' by means of various kinds of weapons. For instance, such acts are for oneself, for sons, daughters, daughtersin-law, relations, wetnurses, kings, male and female slaves, male and female labourers, for hospitality,2 for festival sweets, 3 for evening meals, for morning meals.
2.105 sannihi-sannicao kajjai ihamegesim māṇavāṇam bhoyaṇāe.
Stocking and hoarding are done for entertaining others.
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Bhāsyam Sūtra 105 For the sake of relatives and for entertaining other people, stocking and hoarding of goods are made." The instinct to accumulate is a basic instinct. The family is the field of application of such instinct. Human beings amass huge possessions for the prosperity of the family. 2.106 samutthie anagăre ārie āriyapanne āriyadamsi ayam samdhitti
adakkhu. The self-disciplined ascetic who is noble, endowed with noble wisdom and noble vision discovered and identified the pitfall
(samdhi). Bhāsyam Sūtra 106 For the practice of non-violence and conquering taste, the self-disciplined monk who is noble endowed with noble wisdom and noble vision found out that stocking and hoarding were pitfalls. Here samdhi means aperture or hole. The accumulation of a huge quantity of food by a monk from a particular house, though he ought to get alms from different houses is a dangerous pit that augments the lust for food. In those days some monks were used to collect food from a particular house. In order to counter the addiction to food, Lord Mahāvīra prescribed getting alms from different houses. 2.107 seņāie, nājāvae, ņa samanujāņai.
A monk should not accept, nor make others accept, nor approve
of others accepting the food that stimulates attachment. Bhāsyam Sutra 107 One should not accept himself or make others accept or approve of such acceptance in respect of stocked or hoarded food. 2.108 savvāmagamdham parinnāya, ņirāmagamdho parivvae.
One should comprehend and give up addiction to all kinds of
food, and live an unaddicted life of an Ascetic. Bhāsyam Sūtra 108 The acceptance of special food prepared and stocked for close relatives, such as sons and daughters is despicable. Therefore, the monk should discern and avoid the despicable food, * comprehend it as addiction to food, and source of possession. Thus being unaddicted to food, he should live a life of non-possession." 68 cm
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2.109 adissamāne kaya-vikkaesu. Seņa kine, na kiņāvae, kinamtam na
samaņujāņai. Not indulging in buying and selling, one should neither buy
nor make others buy nor approve of the act of buying. Bhāsyam Sūtra 109 The monk, free of the sense of mine'-ness, should keep away from buying and selling, that is, he should not engage himself in such acts. He does not buy anything for food, nor make others do so, nor approve of such act of buying by others. Buying and selling are related to possession. Therefore, such activity is undesirable for a monk who is free of all kinds of possession. This follows easily from the Sūtra. 2.110 se bhikkhū kālanne balanne māyanne kheyanne khaņayaņņe
vinayanne samayanne bhāvanne, pariggaham amamāyamāņe, kāleņutthāi, apadīnne. The monk should comprehend the proper time for the almsround, the condition of his health, the quantity of food, the proper place of begging, proper behaviour while begging, discipline of begging, the doctrine and the attitude of the giver. He should not have any attachment to alms. He should practice the discipline in proper time and should be free of selfish
motive and prejudice. Bhāśyam Sūtra 110 On his alms-round, the monk, guarding his vow of non-possession, should be conversant with the various details of the alms-tour. These details are articulated in this Sūtra. For instance - [I] He knows the time-schedule - he should know the proper time
for alms-round of the particular locality. The exertion of one who begs in time becomes fruitful. Untimely begging becomes futile. Says the Daśvaikālika,"You are on begging tour untimely, you do not abide by the proper time, and thereby you are torturing
yourself and blaming the area." [2] He knows his own physical strength. When excessively tired, he
does not feel like eating. Therefore, he goes out for alms, judging
his own physical strength. [3] He knows the quality of food he needs. At ordinary times, the
measure is distributed as: out of four parts, two parts for solid
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food; one for liquid, one for air. The measure of food is not the same in all the seasons. It differs from season to season. The measure is also determined by the nature of food-material, it changes according to the nature of food stuff. For instance, in a balanced diet, there is discrimination of measures.
[4] He knows the place fit for begging. He knows the proper place where the food is to be obtained from.
[5] He knows the proper moment for begging. He knows what to speak and what not to speak, when the proper moment for begging arrives.
[6]
He is familiar with the code of conduct. He does not tresspass; he duely controls his senses and does not intently look at the private parts and ornaments of the donors.
[7]
He knows the doctrine. He knows the doctrines of his own and those of the heretics. A monk, not properly conversant with the doctrines cannot clarify the question asked by the donors.
[8] He knows the donor's intention. He knows the favourable and unfavourable dispositions of the donor.
[9] He does not have any sense of 'mine'-ness' for the alms.
[10] The monk exerts himself for the discipline enthusiastically at the proper time. Under item one, the proper time for begging was identified. Here the proper time for exertion is intended.
[11] The monk is free of all selfish motives and prejudices. He does not accept alms only for himself, but for the order as a whole.
In the Curni (pp.79,80), the phrase 'free of selfish motives and prejudies is explained thus: 'I shall not use the alms alone but share it with tile fellow monks'. He does not beg only for himself This is freedom from prejudices.
'Free of prejudices' also means freedom from any pre-meditation about the selection of houses for the alms tour.
In this connection, the case of the monk wandering alone is also mentioned in the Curni. Such monk is also free of any selfish motives and prejudices, but begs for a life of self-restraint devoted to increasing his knowledge, fortifying his faith and so on.
The sutras that follow illustrate the application of the above principle by the monks in his begging tour.
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2.111 duhao chetta niyai.
Desisting from both lust and hatred, the monk rightly leads a self-disciplined life.
Bhāṣyam Sutra 111
The ascetic controls both attachment and aversion and lives a disciplined life. The love and hate for the agreeable and the disagreeable is the cause of accepting the unacceptable. Therefore, abstinence from both attachment and aversion is prescribed here.
2.112 vattham padiggaham, kambalam pāyapumchanam, uggaham ca kaḍāsa-nam-etesu ceva jāejjā.
He should only beg for clothes, pots, blankets, dusters, shelter,
strawmats.
Bhasyam Sutra 112
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The ascetic should beg only for such articles that are necessary for sustenance of life, viz., clothing, pot, blanket, duster, shelter and strawmat.10 He should control his inclination to beg for anything else. 2.113 laddhe ahāre anagāre māyam jāņjejjā, se jaheyam bhagavayā
paveiyam.
He should know the proper quantity of food obtained, as prescribed by the Lord.
Bhasyam Sutra 113
The monk should know the quantity of food needed by him. As regards the quantity, the monk should obey the prescription of the Lord, says the Sutra. The following quantity is prescribed in the Bhagavati (7.24):
'The consumer of eight morsels of food each morsel no bigger than a henegg, is the eater of the least. The consumer of twelve morsels is the eater of less than what fills his half stomach; The consumer of sixteen morsels is the eater of what fills half stomach. The consumer of twenty-four morsels eats what fills less than the full stomach; The consumer of thirty two morsels eats what fills his full stomach. The monk consuming even one morsel less than thirty-two is not considered greedy of palate'.11
2.114 labho tti na majjejjā.
He should not be infatuated with the gain of food.
2.115 alabho tti na soyae
Nor should he feel depressed for lack of gain.
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Bhagyam Sutra 114-115 On getting alms, one should not be proud of it. Nor should one feel sorry for lack of gain. One should preserve equanimity, whether one gets or not. The pride finds vent in judgements like: 'I get sufficient food, but others do not'. 'The judgment of depression is 'I am unfortunate, and so I do not get enough food'. The Cūrni explains the resistance to depression in the verse: 'If it is obtained, well and good. If not, even then it is good. If not obtained there is increase in the penance; if obtained there is sustenance of life.'12 2.116 bahumpi laddhum ņa ņihe.
He should not lay up on getting excess. Bhāsyam Sutra 116 The houseless wanderer should not lay up food even if it is available in abundance. This rule holds good in respect of clothes, pots etc. 2.117 pariggahão appāṇamavasakkejjā.
Keep yourself away from possessions. Bhāsyam Sūtra 117 The houseless wanderer should not hold them as possession when he gets food, clothes, etc.. The sense of 'mine'-ness' like ''I myself alone shall consume this food and shall not share it with others'' is a kind of possessiveness. "'These articles, food, etc., belong to the preceptor"-thinking thus he should avoid falling a prey to possessiveness. He should not become attached or have a sense of mine'-ness' to such articles.'13 2.118 annahā ņam pāsae pariharejjā.
The seer should use the articles in manner different from that
of the common people. Bhāsyam Sūtra 118 The homeless wanderer perceives himself, and also the ultimate truth. This is why he is called a 'seer'. Such wanderer should use things in quite a different manner. He should not receive them as a possession like the householder. Understanding that these things are religious materials belonging to the preceptor, he should receive them without any kind of attachment or sense of mine'-ness to them.
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The principle of impersonal use of articles is worthy of being followed even by the householder engaged in the practice of spiritual discipline. Unlike the householder who uses the articles out of excessive clinging to them on account of his ignorance about the essence of spirituality, the householder who understands spirituality does not do so. There is bondage of karma on account of excessive clinging, whereas the bondage is loose when the clinging grows thin." 2.119 esa magge āriehim paveie.
This is the way declared by Jinas. Bhāsyam Sūtra 119 This way of non-possessiveness related to the articles like food has been declared by the noble ones. Here the expression ‘noble one' refers directly to Lord Mahavira, and indirectly to other ford-makers. 2.120 jahettha kusale novalimpijjāsi tti bemi.
The way how the prudent should avoid getting bogged down
in the mire of possession is declared by me. Bhāsyam Sūtra 120 The word 'way' in the Sūtra 119 refers to the way of non-possession. Mere accumulation of things is not possession. The clinging to those things is also possession. When his clinging grows thin the person is not proud of his gain, nor is he depressed in the absence of gain. He does not stock or hoard when he gets in excess. Such person is the seer. His entire behaviour is unlike that of the person under the sway of clinging. In conclusion, it is shown how a prudent ascetic, following this path, avoids getting bogged down in the mire of possessiveness. 1.121 kāmā duratikkamā.
The desires are difficult to control. Bhāśyam Sutra 121 The root of possessiveness is desire. The desire is of two kinds: desire as wish, that is hankering after things like gold, etc., desire as lust, that is, the desire for the sensual objects like sound, colour, etc. The instinct of sex originates from long drawn-out motives and inclinations. And, therefore, sexual desires are insurmountable. The surmounting of the desires is like swimming upstream while the senses flow along the stream. Surmounting them therefore is difficult.
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1.122 jīviyam duppadivahaņam.
It is difficult to hold life. Bhagyam Sutra 122 Life is short while the desires are very many. In a short life it is not possible to satisfy them. The desires increase in proportion of their enjoyment, but the span of life is difficult to prolong likewise. This is the primary reason for the insurmountability of desires. 2.123 kāmakāmi khalu ayam purise.
The pursuer of desires is indeed this man. Bhāoyam Sūtra 123 By nature the man is a pursuer of desires. The desire is a basic instinct and so very difficult to get rid of. This is the second reason for the insurmountability of the desires. 2.124 se soyati jūrati tippati piddatti paritappati.
He grieves, feels depressed, is angry, sheds tears, experiences
pain and torment. Bhāoyam Sūtra 124 Having shown the nature of desires, the Sūtra now shows the process of meditation called contemplation on the harmful karmic consequence. Until his desires are surmounted, the state of the man is delineated thus: He grieves being smitten with sorrow or filled with aspirations and ambitions. He feels depressed1s', that is, he becomes irritated not getting the desired object, and angry on heing deprived of it. He sheds tears. He is oppressed, that is, feels pain on the memory of the objects of desire. He feels, tormented being stricken by sexual desires, that is, he feels agony in thought, word and deed caused by the environment outside and the mind within. The torment produced by anger and the like is temporary but the agony due to desires is long-drawn and persistent. Grief, depression, anger, tear-shedding, pain and torment are the evils26 that originate from the sexual urge. It is necessary therefore to find out the means to get rid of the urges which are the sources of all evils. 2.125 ayatacakkhu loga-vipassi logassa aho bhāgam jāņai, uddham
bhāgam jāņai, tiriyam bhāgam jāņai.
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The wide awake monk, with controlled eyes, perceives the structure of the world: he knows the lower, the upper and the
middle region. Bhāsyam Sūtra 125 In the Sūtra, the process of meditation called contemplation on the harmful karmic consequences??is shown. There is a means to surmount the desires. It is perception or the pure state of the perceiver. The person with 'widely open eyes” means the person with controlled eyes, that is, unwinking eyes. 'World' means the body!' which is the structure of the universe. This interpretation can be supported by the Brahminical works like Sivasamhitā, Tantrasangraha, and Carakasamhita (Sarīrasthāna 9/3). In these works the world is compared to the brahmānda, which is also called 'purusa' i.e. the cosmic person. In the Sūtra under comment, the word 'Loka' (world) has other meaning too. It can mean the body of a person which is a sensuous object with three parts: the lower, beneath the navel; the upper above the navel, and the middle, the region of the navel itself. Thus, the perceiver of the body is “logavipassi.” Put in another way, these three parts are: the depressed part consists of socket of the eyes, thyroid cartilage, the middle of the face (cheeck bones); the protruding part consists of knees, chest, forehead; and the plain part is the flat surface. Again the mediator should perceive the secretion in the upper, lower and middle parts of the body, which can be identified with the endocrine glands and the cakras (psychic centres) of ancient Indian physiology. The practice of perceiving the body as a whole is an important aspect of the discipline of meditation. This practice has found elaborate treatment in the Visuddhimagga(chapter 6). The Sūtra can be explained in yet another way. The experienced meditator perceives the lower, upper and the middle parts of the universe as striken with grief due to indulgence in sensual desires. Yet another way of explaining the sūtra is to discern those states of the soul which lead it to the lower realm of hells or the upper realm of heavens or the middle realm of humans and animals. The Sūtra under comment can also be explained as describing the practice
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of concentrating of the wide open and unblinking eyes on a particular object, which is called trātaka. By the successful practice of trātaka the meditator can know the nature of the three worlds: lower, upper and middle. Lord Mahāvīra frequently practised trāțaka to enter into deep mediatation. (See āyāro 9/4/14). The following three ways of meditation follow from the practice of trātaka: [1] Concentration on the sky. [2] Concentration on the wall in front.
3] Concentration on the interior of earth. While looking at the sky above, Lord Mahāvira meditated on the objects situated there. While looking at the wall in front, he meditated on the objects of the middle region. Likewise, while looking at the interior (part) of the earth below, he meditated on the objects there. Reflection on the objects of the upper, the lower and the middle regions supports the enthusiasm, the strength and exertion of the meditator. The perception of the structure of the world can be compared with the fourth variety of analytic meditation, namely meditation on the structure of the world. Now to revert to the question of the three parts of the body, for the purpose of vipaśyanā meditation, the three parts of the body are: the region of the navel - the middle part of the world; the part beneath the navel-the lower part of the world, the part above the navel - the upper part of the world. The person who perceives the body with unwinking eyes, merely perceives all the three parts, but does not produce empathy to them. Such person is able to surmount the desires.20 2.126 gadhie aņupariyattamāne.
Tied to the desires, he revolves round them. Bhāsyam Sūtra 126 The person tied to the desires revolves round them. The contemplation on this revolving is the second means to release from the desires. The enjoyment of desires is not conducive to pacification of the hankering. A desirous person constantly revolves round them. The desire is calmed down by non-desire, and not by the repeated indulgence in desire. The awakening of such understanding is a powerful support to the release from desires.
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2.127 samdhim vidittā iha macciehim.
One should get rid of addiction to desires by disarming the
joining point in the mortals. Bhāśyam Sūtra 127 In the scripture, the word 'sandhi' (Joining point) is used in various senses. It is found in six places in the present scripture: [1] The noble self-disciplined ascetic (2.106) endowed with noble
wisdom and noble vision discovered the sandhi(pitfall). Here it
means aperture. [2]
The present Sūtra - here it means joint of the bones. [3] Having known the 'sandhi' of all beings (3.5 1) - here it means
intention; the content of the Sūtra is repeated in 3.3 and 3.77. The monk devoted to the doctrine of the Jina, restraints his body and perceives the 'sandhi'(5/20) - here it has two meanings - the aperture in the karmic body which is the cause of the rise of extrasensory perception; a physical organ which is a psychic centre
that preserves the continuity of vigilant perception. (5) For the monk who perceives the 'sandhi'is engrossed in the single
path of detachment, is free from worldly possessiveness, is completely free from violent activities; there is no specific path for emancipation because he has reached the culmination of spiritual discipline - Thus do I say (see 5.30). The devout practice of the 'sandhi'which I followed is difficult to find elsewhere (5.41) - here 'sandhi'means aperture or devout
practice of knowledge, intuition and conduct. In the Visuddhimagga, 21 the perception of 'sandhi' (joints) is approved as a support to detachment. In the present context, the perception of the joints in the human body is the third means to the release from attachment to desires.22 2.128 esa vire pasamsie, je baddhe padimoyae.
Praise-worthy indeed is the hero who delivers beings from the
bondage of desires. Bhasyam Sūtra 127 The release from desires is possible by valiant exertion. Therefore, in this path of discipline, only the person who has the courage of exertion in selfgoet 451 IMS-Fahhof, 2004 C
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control is considered praiseworthy for his success in getting release from desires. 2.129 jahā amto tahā bāhim, jahā bāhim tahā amto.
The external of the body is like the internal and the internal is
like the external. Bhāsyam Sūtra 129 The fourth means of release from the bondage of desires is the absolute disgust for worldly life. It is the cause of detachment from the body. The nature of the body is loathsome as made of primary ingredients like blood, flesh, etc. inside; it is so externally too. The exterior of the body is as much impure as the interior of it.23 2.130 amto amto pūtidehamtarāni pāsati pudhovi savamtāim.
The spiritual aspirant, while contemplating on the loathsome condition of the body by deeply looking into it, perceives the interior apertures of the disgustful body as well as the various
secreting sources. Bhāsyam Sūtra 130 In the male, there are nine apertures whereas in the female there are twelve. By the perception of the loathsome nature, there is release from the attachment to the body, leading to the attenuation of the attachment to desires. The following two verses are quoted in the Vștti24 in support of the contemplation of the loathsome nature of the body: "There can be no reason for attachment to the impure body covered by a sheath of skin which is loathsome, ugly and foul, on account of its being full of flesh, bone, blood, sinews, liquid of embryo, fat and marrow; and also full of excreta, urine and sweat flowing, oozing and rotting on all sides." 2.131 pamạie padilehãe.
The learned monk should look at the result of indulging in de
sires. Bhāsyam Sūtra 130 The wise monk, contemplating on the hollowness and impurity of the body and also the results of indulgence in enjoyments, should examine himself, that is, reflect deeply and inscribe the impress or reflection on his mind.
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The desires that have been abandoned by means of self-examination should not be indulged in again. This is a support to the nature of thoughtful contemplation. 2.132 se maimam pariņņāya, māya hu lālam paccāsi.
The intelligent monk should comprehend the nature of de
sires and abandon them; he should not lick his own saliva. Bhāśyam Sutra 132 The intelligent aspirant has got rid of the desires by the practice of the twofold comprehension. Comprehension means discrimination. It is twofold: comprehension qua knowledge of the resultants of desires, and comprehension qua abandonment of the desires. In this Sūtra, the meditative thought is impressed upon the disciple: “You should not lick back your own saliva. The desires vomitted should not be licked back." 2.133 mā tesu tiricchamappāņmāvātae.
One should not surrender oneself to the desires. Bhāsyam Sūtra 133 There are desires in human beings and there are apertures in the body for sensual desires. So long as there is attachment to his body, a person clings to those apertures. The body may be at any place, but the mind runs to those apertures again and again. In reference to such state of the mind, the Lord has given the instruction: One should not throw25. one self into those apertures. 2.134 kāramkase khalu ayam purise, bahumāi, kadeņa mudhe puno tam
karei lobham. The person is full of lust for desires, he deceives many in various ways, and deluded by his deeds he repeatedly indulges in
greed (for the desires). Bhāsyam Sūtra 134 The desires are twofold: wishful desires and sexual urge. The lustful person26 takes resort to various deceitful devices to satisfy his desires. He is deceitful in multiple ways. He is greedy of various objects. To the query: why is one so greedy, the Sūtra gives the doctrine of the origin of persistent habits. A habit or instinct is produced in the person according to his deeds. That instinct or habit persistently follows him, that is, finds expression in him again and again, the implication is: the person indulges
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in greed, etc., impelled by his instincts and habits. It is, therefore, said that deluded by his own deeds, he greedily hankers after the objects of his desires. Such person on account of the worries and anxieties loses his power of discerning his duties and responsibilities and is designated a deluded person. He hankers after happiness, but subjects himself to suffering instead. He does not sleep, nor takes care of his body, nor takes his food in time. All his actions are topsy-turvy. He lives in dream and is entangled in imaginary problems, being quite ignorant of the problems that beset him. 2.135 veram vaddheti appaņo.
By his greed a person multiples his enmity. Bhāśyam Sutra 135 The Sūtra points out the pitfalls of the passion of the greed. A person under the sway of lust and desires strengthens his inimical disposition. Anger accompanied with pride is enmity. Enmity is the cause of suffering or producer of evil karma. 2.136 jamiņam parikahijai, imassa ceva padibühaņayāe.
The view that 'the lust for desires gives satisfaction' is a mis
conception. It augments the discontent instead. Bhāsyam Sūtra 136 The dictum: 'deluded by his past deeds, he repeatedly indulges in greed' means that hankering after the sensual object augments his lust. The implication is: The deluded person indulges in the satisfaction of desires for the purpose of doing away with the suffering, but he does not know that such indulgence leads to the strengthening of the desires. It has therefore been said: 'A person tormented by sufferings indulges in sensu things which cause suffering. If suffering is not dear to you, it is not proper for you to indulge in them (the sensual objects).27 2.137 amarāyai mahāsaddhi.
The believer in desire and greed behaves like an immortal be
ing. Bhāsyam Sūtra 137 A person who has deep interest in the objects of desire and the means of their acquisition, namely, wealth, is a person of great ambition, behaving like an immortal being, 28 apparently free of the fear of death. 80 C
A AT Y511 310 125-126
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2.138 attametam pehāe.
Look at the agony of such people. Bhagyam Sūtra 137 A person excited by the thought of sexual desires and the fortune needed for its satisfaction is a person in anguish, that is, distressed and miserable. Observing this state of the anguished person you should know that sexual desire and wealth are the source of misery and suffering. 2.139 aparinnāe kamdati.
The person not abstaining from accumulation of wealth be
wails in the long run. Bhāsyam Sūtra 139 Ignorant of the true nature of desires and the wealth and their consequences, he weeps. He bewails out of unfulfilled ambition when the object is not achieved, and sheds tears out of grief when the object is lost. 2.140 se tam jānaha jamaham bemi.
Think of what I say. Bhāsyam Sūtra 140 You should understand what I say. The Sūtra draws the attention of the disciple towards the remedy of the sexual malady. 2.141 teicchampamạite pavayamāņe.
The learned physician (heretic) proposes the treatment (of sexu
ality). Bhāsyam Sūtra 141 There is a learned heretic who declares the remedy: ''I can cure the sexual desire as well as any physical ailment." In the present context, the cure refers to the treatment of the sexual urge.29 The subjugation of the sexual urges is intended here. Such subjugation requires a definite remedy. The spiritual remedy was indicated in the preceding Sūtras. In the Tantric discipline, the herbal treatment is also available. The injury to vegetation is indispensable is such treatment. This is clearly indicated in the sūtra. 2.142 se hamtā chetta bhettă lumpaitta vilumpaittā uddavaittā.
He indulges in injuring, cutting, piercing, breaking, massa
cring and killing. TAHT WENI ICS - Fytale, 2004 C
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| Bhagyam Sūtra 142
The expert in the therapy of sexual ailments injures, cuts, pierces, breaks',' massacres, and kills beings.31 2.143 akadam karissāmiti mannamāņe.
Thinking that, I will do something extraordinary 'not done'
by other, he (the sexologist) indulges in violent actions. Bhāsyam Sūtra 143 'Not done' means 'the treatment of sexual desire was not attempted by anybody else. 'It shall be done by me'. Thus determined, he indulges in the acts of injuring living beings. 2.144 jassa vi ya ņam karei.
And also the patient whom he treats indulges in violence. Bhāsyam Sūtra 144 The patient whom he gives such treatment involving injury to living beings is also a partner in commission of violence. 2.145 alam bālassa samgenam
What is the purpose of association with the ignorant? Bhāṇyam Sūtra 145 The person engaged in violence does not observe abstinence. Such person is designated as ignorant (immature in wisdom). How can such ignorant person be able to cure the disorders of the sexual urge? Therefore, what is the need of the association with such person? This is the instruction given by the Sūtra.132 2.146 je vā se kārei bāle
He too who offers such treatment is ignoramous. Bhāsyam Sutra 146 The person who gets done such treatment of sexual desires involving injury to living beings is an ignorant person in the true sense of the term. What end does he achieve by such acts! 2.147 ņa evam anagārassa jāyati. - tti bemi.
The homeless monk does not lend himself to such treatments. Thus do I say.
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Bhajyam Sutra 147 Such thought does not arise in the mind of the homeless wanderer. He treats his sexual malady by means of meditation and penance, not by taking resort to the science of Tantra. In the treatment of the diseases, in ancient times, the acts of injuring, cutting, piercing etc. were prevalent. In Lord Mahāvīra's view, the physician practising medical treatment by means of torturing living beings was an ignorant person who did not understand the truth. There was no need of such treatment for a homeless wanderer engaged in the practice of the discipline of detachment to the body. Even if a medical treatment becomes necessary for him, it should be done by a method that did not involve any kind of injury to life.
References:
1.
Atra lokapadam agnisūcakamasti. idam padam 1.39 sütre jalasya sūcakam tathā 1.66 sütre agnisūcakam vidyate, atra pākaprakarane asya agnisūcakatvam svābhāvikam. Apte, ādiśa- A sacrifice offered to a particular deity. Cūrnikāreņāpi yajñasya ullekhaḥ krtah-appano ceva koi yāgam karemti (Ā. Cū p. 77) kintu adesasya arthaḥ bhinnah krtosti-ādisati kesam vā kareti, jam bhanitam-pāhuņao (Ācārānga Cūrni p.77) Vrttau kesa padasya arthah åtitheyaḥ krtosti- adiśyate parijano yasmimannāgate tadatitheyāya .... (Ācārānga Vrtti, patra 118). Tatkālinayañapradhānaparamparāyām idedpadasya yajñavācaka-tvamapi nāsti asamgatam. See, Ayāro, 2.18. Niśithabhāsye dośapūrnāhāragrahanena caritram amam avipakvam bhavati ityuktamastiuggamadosādiya, bhāvato assamjamo ya ämavihi. anno vi ya ãeso, jo vāsasatam na pūreti.. āhākammādi uggamadosā, ādisaddão esanadosā, upāyaṇā ya dosā, bhaniyam ca savvāmagamdham parinnāya nīrāmagamdho parivvae. Jao tehi uggamādidosehim gheppamānehi cārittam avipakkam apajjattam āmam bhannāti. asam jamo vi āmavidhie ceva bhavati, jato caraṇassovaghāyakäri. kim ca jo varisasatāyupuriso varasasatam atarettāamtare maremto amo bhannati. (Niśitha Bhāsya Cürni, part 3. Gă 4716, p. 485). 104-108 paryantam sūtresu kaścit samband ho na parilabhyate, sandhiśabdasya nisicato-rtho pi nopalabhyate. Cūrnau bhikṣākālah tathā vaikalpikarūpena bhāvasandhih iti arthadvayam drsyate (Cūrni, p. 7778) 107 sūtre - nādadyād ityullekho sti, kintu kim nāda-dyāditi nāsti
pūrvāyātam. Cürnau anesanijjam nādadyad iti vyākhyātamasti. Kintu kuta Istit tall CS - F&50R, 2004 C
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āyatamidam ? eteşām praśnānām sandarbhe nirdistasūträņāmarthah cintanīyah prātibhāti. Dasaveāliyam, 5.2.5: akāle carasi bhikkhu, kālam na pasilehasi. Appäņam ca kilāmesi, sannivesam ca garihāsi. Ācārānga Curņi, p. 79: pariggahoņāma atirittam samjamovakaraṇāto jam bhamdayam, bhanitam ca- jam jujjati uvagāre uvagaranam tamsi hoti uvagaranam, ihatu āhārādhikāre vattamāne jattiyam anesanijjam kimci davam tamsamjamassa uvaghātottikāum jenehim padikuttham bhavatitti, esaņijjampi arimattāe na ghittavvam, mattājuttampi na etam maya gurumāīņam ņa etam. (a) Cūrņau Vịttau ca punaruktiparaśnaḥ evam carcito'sti - sati ya utthānakamma-bala-viriya-purisagāra-parakkame, äha - jati utthānabalāna egatthā tam teņa balagrahanā utthānagrahaņā ya punaruttam esaņijjamti, bhannati - avviriyakāraṇāņa punaruttam, tattha nāņam iham karanam, kālo balam khittam avvivariyam āyariyavvam tena na punaruttam (Cūrņi, p. 79) kālānutthāi yadyasmin kāle kartavyam tattasminnevānuśthātum śīlamasyeti kālānusthāyī, kälānatipātakartavyodyato, natu cāsyārthasya se bhikkhù kālanne ityanenaiva gatārthavāt kimartha punarabhidhiyate iti? naisa dosah, tatra hi jñapariñaiva kevalā bhihitā, kartavyakālam jānāti, iha punarāsevanăparijñā, karttavyakāle, kārya vidhatta iti. (Vrtti, patra 120). Acāränga Curņi, p. 80: ayam pimdasamdhiti ādhavittä jāva kāle nutthāe apaļiņno etesim egāhiyäriehim suttehim ekkārasa pimdesaņão nijjüdhão. eto vatthasaņapātesaņāo nijjūdhão (Ā. Cū. P. 80) eto suttā sejjāņijjūdhā (Ibid, p. 80) It is not, possible to lay down the exact quantum of food. It depends upon one's appetite. Neither do all persons have the same appetite nor do they take the same quantum of food. Even then, Bhagavān Mahāvira has indicated the average qantum of food as thirty-two morsels and has admonished the monks to take a little less than that, Ācārānga Cūrni, p. 81 labhyate labhyate sādhu, sādhu eva na labhyate. Alabdhe tapaso vrddhirlabdhe dehasya dhāraņā... Even while acquiring food, clothing, etc. the monk should abstain from acquisitiveness. The thrust "I will use this food and clothing for myself only and will not share it with others," is also acquisitiveness. "This, what I have obtained, does not belong to me, but belongs to the Preceptor and to the order" - thinking thus, he should avoid falling a prey to acquisitiveness. Not to take unacceptable food, clothing etc., not to get attached to and not to hoard acceptable food, clothing etc., duly obtained -all these are necessary to cultivate non-acquisitiveness.
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Even for leading an ascetic life certain minimum utilities are necessary. They have to be obtained. Even then, he should keep in mind that just as a voyager does not get attached to a boat which is essential to him for crossing the sea, so also a monk should not become attached to the utilities which otherwise are necessary merely for sustaining life. Things are either consumed or renounced. In practice, however, renunciation has certain limits. To keep body and soul together, one has to use and consume things. A seer of reality uses and consumes them, so does a common man, but there is a world of difference between their objects, feelings and the ways in which they utilise and consume them:
14.
Object Common man Material pleasure
Feeling Way of attachment non-disciplined
Seer
self-disciplined
Sustaining the body for spiritual development
of nonattachment
15.
17.
18.
Prākrte khid-krudhoh jūra ityādeśo bhavati. Acārānga Cürņi, p. 83 tassa avāya .... jatā ya tesim kāmäņam ihameva dosā. (a) Acārānga Cūrni, p. 83: ubhayalogaavāyadamsi .... (b) Dhavalā, book 13, khanda 5, part 4, sūtra 26, gāthā 39. P. 72. Apte, āyata - Curbed, Restrained. (a) Sivasamhitā, 2.5, 37; brahmändasmjñake dehe yathādeśam vyavasthitaḥ. mekasrurige sudhāraśmimarbahirastakalāyutah. 5 brahmandasamjñake dehe sthānāni syurbahuni ca. mayoktāni pradhānāni jñātavyāniha śāstrake ... 37 Tamtrasamgraha, part 2, p. 309, śloka 29: brahmāndalkaṣaṇam sarvam, dehamadhye vyavasthitam. sākārāśca vinaśyanti, nirākāro na naśyati. Carakasam hitā, Sārirasthāna 5.3 - purusoyam lokasam jäitah ityuvācabhagavān punarvasurătre-yah, yāvanto hi loke (mūrtimamtaḥ) bhāvaviśesāḥ tāvantah puruse, yāvantah puruṣe tāvanto loke iti. The first medium of disinfecting the mind from voluptuousness is the meditation of loka (universe): The term loka(universe) means objects of pleasure. One such object is the body. Therefore, the term loka here stands for 'body'. It has three sections, viz. The lower one - below the navel; The upper one - above the navel; The middle one - the navel itself
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(1)
(a) (b) (c)
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(C)
(1)
(2) (3)
Put in another way, these are: The lower one - the socket of the eyes, thyroid cartilage, the middle of the face (cheekbones). The upper one-knees, chest, forehead: these are the protruding parts. The middle one - the plain region. A sādhaka should visualise that there are outlets everywhere viz. in the lower, the upper and the middle sections, (see, 4.118). The meditational technique of visualising the body in its totality has been very significant. The present sūtra is a pointer to it. The reader is referred to the sixth chapter of the Visuddhimagga, part I, pp. 160-75. Bhagavān Mahāvīra used to go in trance by meditating upon the upper, lower, and middle worlds (vide, Ayāro, 9.4.14). Three methods of meditation are indicated by this, viz. Concentration of perception on the vault of Heaven. Fixing the eyes on the vertical or slanting wall. Concentration of perception on the interior of the earth. Through the above three methods of meditation, Bhagavān Mahāvīra contemplated over the corresponding elements present in the three worlds respectively. Thus contemplation of the world has been prescribed as a medium of meditation. Concentration of the mind on the objects present in the upper, lower and the middle world is the medium through which enthusiasm, boldness and perseverance are respectively nourished. (Cf. Namaskāra Svādhyāya, p. 249) The second interpretation of the sūtra is: a farsighted sādhaka notices that the lower world is afflicted with misery owing to attachments to sexual pleasure. So are the upper and the middle worlds. The third interpretation of this aphorism is as follows: Bhagavān Mahāvira used to go in trance by meditating. A sadhaka with vision knows full well the thought processes contributory to the elevation, degradation and medialization. The fourth interpretation can be in terms of trātaka. Concentrating on a point with dilated and unblinking eyes is called trāțaka. By accomplishment of this sādhanā (of trāțaka), one can perceive all the three worlds viz, upper, lower and middle. The third means of banishing sensuality from the mind is the perception of the joints of the body. This means to realize that the body is mortal and just a conglomeration of various joints. The body is believed to have a hundred and eighty joints in all, out of which fourteen are called "great joints" These are three joints in the right hand - shoulders, elbow and wrist, three in the left hand, three on the right side below the trunk - hipjoint knee, ankle, three on the left side below the trunk, one in the neck and sacrolumbar joint. (Cf. Visuddhimagga, part I, 165).
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22. (a) Susrutasamhitāyām sandhisamkhyā ittham nirdistasti -
samkhyātastu daśottare dve sate, tesyām sākhāsvaştaşasti. ekonaşastih koşthe, grīvām pratyūrdham tryasitiḥ.
(Suśrutasamhita, Sārirasathānam, 5.27) (b) Suśrutasamhitā, 5.28
asthanām tu sandhyo hye te kevalāḥ parikirtitāḥ.
peśisnäyusatānām tu sandhisamkhyā na vidyate. 23. (a) See-Bhāşyam of Āyāro, 5.118. (b) Compare - Atharvaveda 2.30 : yadantaram tad bāhyam, yad bāhayam
tadantaram. (c) The alternate translation of this aphorism is as follows:
There should be complete harmony between the internal self and the external behaviour of a sādhaka. Some philosophers stressed on the purity of the internal self, while others that of the external behaviour. Bhagavān Mahāvīra did not accept either of these views. He viewed them together, and said: It is not enough to have the purity of the inner self only. The external conduct should also be pure, because it is the reflection of the inner self. It is not also enough to have purity of the external behaviour only. Without the purity of the inner self, it will be repression. That is why the inner self also should be pure. Confluence of the purity of the inner self as well as the external behaviour leads one to perfection of religious life. Ācārānga Vrtti, patra 124: mamsatthi-ruhira-nhāruvanaddha-kalalamaya-meya-majjāsu. punnammi cammakose, duggamdhe asuibībhacche. samcārima-jamta-galamta-vacca-muttamta-sea-punnammi.
dehe hujjā kim rāgakāranam asuiheummi ? 25. Tiryageva tiraścinam. Tiryagśabdasya vakraḥ sarpākāraḥ madhyaḥ
ityādayo neke arthā vidyante. (Apte - Samskrta English Dictionary). Atra madhyavācī arthaḥ abhipretosti. Vrttau 'käsamkāse (patra 125) iti păthah vyākhyāto sti. Sa na samicīnaḥ praribhāti. asya sthāne 'kāmam kama' iti pāthaḥ sambhāvyate. Prācīnalipyām sakāramakārayoḥ sādrśyamiva bhäti. Asmin păthe lipidoşeņa sakāramakārayoḥ viparyayo jāta iti kalpanā nästi asvābhaviki. Cūrņau kāmam käme iti pătha vyākhyātosti, kāmam käme Khalu ayam purise imam ajja karemi imam hijjo kāhāmi, ahavă imam puvvam imam pacchā, bhaniyam caimam tāvat karomyadya, śvaḥ karişyāmi vā param. cintayan kāryakāryāņi, pretyārtham nāvabuddhayate. (A Cū. P. 85) jamiņam parikahijjai - asmin uttaravartisūtre pi kamam kamasya vāradvayam ullekho drśyate - jamiņam garihijjati jaditi aņudditthassa gahaņam bhannati - katarassa anudditthasa ? kāmamkamassa bahumāyaiņo mūdhassa...
24.
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ahavā imassa ceva paribühaṇatãe, kāmamkame bahumayi puno tam kareti. (Ā Cū. P. 86)
Cūrṇisammatapāṭapāṭhasya vyakhyā svābhāviki vidyate. The word kāmamkame can be compared with kamakami in Gita: apuryamāṇamacalaprariṣṭham samudramapaḥ praviśanti yadvat. tadvatkāmā yam praviśanti sarve sa santimäpnoti na kāmakāmi.. (Gită, 2.70)
Acāranga Cūrņi, p. 86:
duḥkharttaḥ sevate kāmān, sevistaste ca duḥkhadāḥ
yadi te na priyam duḥkham, prasamgasteṣu na kṣamaḥ
A dancing girl named Magadhasenā lived in the city of Rajagṛha. There came the owner of a caravan, called Dhana. He was very rich. Being attracted by his good looks, youth and riches, Magadhasenā accosted him. But he was preoccupied with accounts of his income and expenses. He did not even care to cast a glance upon her. She was hurt and became very sad.
She at once left his place and went to the palace. There Jarasandha, the King of Magadha, inquired of her, äWhat made you so dejected? Who made you unhappy?ä
"A self-styled 'immortal' man had done so", quipped back the dancing girl.
"What do you mean by 'immortal' person?"
"Dhana, the owner of the caravan. I wonder how a person who is always obsessed with riches, and who did not even notice my presence, can ever visualise the presence of Death?"
It is true that an avid person cannot feel the presence of Death and the person who feels the presence of Death cannot be avid.
Cūrṇikāreņa mukhyatvena vyādhicikitasāparo vyākhyātosau ālāpakaḥ. Vaikalpikarupeņa kāmacikitsāparaśca. (Curņi, p. 87-88)
ṭīkākarena mukhyatvena kāmavikitsāmadhikṛtyāsauālāpako vyākhyātaḥ gauṇarüpena vyādhicikit-sāparo pi. (Vṛtti, patra 126)
Apte, lup - to break.
Ibid, dur to injure.
There were two classes of ascetics munis who were members of an order and those who were independent.
The former used to take care of their bodies, while the latter did not. The latter did not take medical treatment, even when they suffered from diseases. It seems that this difference in practices came about in the postMahāvīran era. In the beginning, Bhagavan Mahāvīra prescribed that munis should not undergo medical treatment. This was possible because of two reasons non-violence and non-attachment to the body.
In medical treatment, many an occasion arises, when causing of violence
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becomes necessary. A medical practitioner causes violence as a part of treatment and this has been clearly brought out in the Sūtra 142. There is no denying that use of certain medicines will cause violence to worms etc. Attachment to the body is also a form of acquisitiveness. A sādhaka practising non-acquisitiveness should be non-attached even to his own body. One who has given up attachment to his body and is completely indifferent to it, and who is in complete unison with his own soul, does not desire medical treatment. He leaves bodily affliction to take its own natural course. He endures it considering it as a result of his karma. He looks at life and death with equanimity and as such does not struggle for life nor try to avoid death. That is why, he never thinks about medical treatment. There was a change in this line of thought during the post-Mahāvīran era. At that time, two categories of sadhanā came about. In the first one, a medical treatment, in which no violence was caused by the medical practitioner, was permissible.
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Paryāya in Jain Philosophy
- Ācārya Mahāprajña
The definition of sat(reality) given by Umāsvāti is based on the trinity of utpad (creation), vyaya (cessation) and dhrauvya (persitnce. The sat is neither absolutely permanent or kutastha nitya (absolutely eternal)nor absolutely transitory or absolutely utpād-vyayātmaka.
In the Bhagavati Sūtra’, we get the explanation of satthrough two terms viz., sthira and asthira. According to this, that part which is asthira (transitory) undergoes change, or is amenable to change, that part which is sthira (permanent) does not undergo change, or is not amenable to change; that is it remains unchanged.
This concept of satgives rise to the doctrine of eternal-cumnon-eternal sat, which propounds that the substance is neither absolutely permanent, nor absolutely impermanent, but it is permanent-cum-impermanent.
Paryāya(mode) is not entirely different from the substance (drvya); at the same time it is not entirely identical with it. Hence, the sat is defined by a couple of terms - dravya and paryāya.
There are two types of change that take place in the dravyainnate (svābhāvika) and Vaibhāvika (extraneous). The svābhāvika change are subtle; they are compared with the waves in ocean -
anādinidhane dravye, saparyāyā pratiksaņam/ utpadyante vipadyante, jalkallolavat jale//
Mathematically, such change is explained through 12 expressions
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1. ananta-bhāga-vrddhi 2. asamkhyāta-bhāga-vrddhi 3. samkhyāta-bhāga-vrddhi
samkhyāta-guna-vrddhi
asamkhyāta-guna-vrddhi 6. ananta-guna-vrddhi 7. ananta-bhāga-hāni 8. asamkhyāta-bhāga-hāni 9. samkhyāta-bhāga-hāni 10. samkhyāta-guna-hāni 11. asamkhyāta-guņa-hāni
12. ananta-guna-hāni
The svābhāvika changes are perceptible only through extra-sensory consciousness. Such change takes place continuously in all dravyas. On the other hand, the vaibhāvika change takes place only in the embodied jīvas and the pudgala (physical substance).
When the question was asked - Is the jiva eternal or non-internal?, the answer to it was given through anekānta(non-absolutistic) drsti(view) as follows:
The structure of dravya is two fold æ 1. pradeśa-rāśi(the total number of pradeśasi.e., the ultimate
units)
2. bhāva (state) or paryāya (mode).
The dravya-rāśior the pradeśa-rāśiof a dravya is always constantnot a single pradeśa or paramāņu írom the total number either increases or decreases. Whatever amount was there in the past remains in the present and will remain in the future - not a single unit can be added to it nor a single unit can be subtracted from it. With respect to this pradeśa-rāśi, the jīvais eternal. At the same time, every dravya undergoes transformation or change with respect to this, it is non-eternal.
Alike the Jiva, the praramānu is also both eternal and non-eternal. With respect to the substance, the paramiņuis eternally its existence is tritemporal its substance hood (dravyatva) never perishes. Its colour, smell, taste and touch go on changing, therefore, with respect to the mode, it is non-eternal.
JATHT XE TAIS - f&tytote, 2004
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Both jiva and pudgala (matter or physical) substances are directly associated with the changes that take place in the universe. Both thus can be considered as the fundamental constituents of the universe. Both are amendable to both kinds of changes - svābhāvika and vaibhāvika.
The paryayas that take place in the jïva dravya on account of its association with karma are vaibhāvika paryayas. Re-birth is one of such paryayas, because that takes place due to karma (bound by the jïva), Also the vaibhavika paryayas take place in pudgala dravya, they are on account of the effect of time (kāla). A paramāņu may remain in the state of paramāņu as well as it may change in the state of skandha (aggregate of atoms) by uniting with other paramāṇu or paramāņus. Such kind of association in accordance with the universal laws on account of the effect of time on paramāņus.
One meaning of the term paryāya is kriyāi.e. action. When the jïva undertakes an action, there occurs vibhāva paryāya during that period, as a result of which it experiences the states such as birth, death and the like.
In the Bhagavati Sūtra, the various states of kriya of jīva are described by some technical words like ejana (vibration), vyejana (different kinds of vibration), calana (motion), spandana (minute vibration), ghaṭṭana (friction), kṣobhana (disturbance in the present state) and udīraṇā (premature rise of karma). The jīva undergoes transformation in various forms through all these kriyās. So long as this cycle of kriyas goes on antakriyā (attainment of liberation) of jīva is not possible even at the and of life. There must occur a state of akriyā (non-action) in between the state of kriyā and antakriyā. In other words, liberation (mokṣa) can take place only if there occurs a state of akriyā (prior to antakriyā). After attaining the state of liberation, the jīva). Svābhāvika kriyā however takes place in the state of mokṣa.
Some paryayas are explicit (vyakta), while some are only implicit (avyakta). There are again some paryāyas which are perceptible through sense-organs, while there are others which are not perceptible through sense- organs. Thus the cycle of transformation ever goes on continuously no existence or dravya can remain free from it. The svabhāvika transformation is called artha-paryāya (non-manifest mode), which is very subtle. It is through this transformation that a substance maintains its own existence while passing from one instant to another one. It is not perceptible through senses.
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Another kind of paryaya, which is called vyañjana paryāya (explicit or manifest mode), is a gross one. Some forms of them are perceptible through sense-organs. Human form (of a jīva) is only a paryaya and not the fundamental substance (dravya). It is an explicit paryāya, which we can know (through sense organ). But the soul itself is a subtle substance, we cannot know it (through sense-organ).
We may conclude by saying that all our knowledge (which is sensory) is limited to know only the paryayas, we cannot know directly the dravya itself, we can know it only through the paryayas.
Reference:
1.
2.
3.
4.
5.
Tattvārtha Sūtra, 5/29 - utpăda-vyaya-dhrau-vyātmakam sat. Bhagavai, 1/440
Ibid, 1/440
Ibid, 14/49-50 Ibid, 3/143-148
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2004
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Jains at the Court of Akbar
- R. Krishnamurthi
In the chapter on Jains in ''Din-i-Ilahi", Mr. Roychoudhury has dismissed the relationship of Akbar with that community with scant attention. This is due to the fact that he has been ignorant of the numerous works in Sanskrit that give us a remarkably full idea of the subject. He has also been led into some errors of generalisation as well as of detail.
He starts by saying that during the early Muslim period the Muslims did not come into clash with Jainism. This is not so. There is plenty of evidence to show that the Muslim rulers contacted the Jains from the early Muslim rule in India' and the absence of mention of the Jains in the Muslim histories is due to the simple fact that the Muslims put down the Jains also as Hindus. Even during the time of Akbar and the later Mughals, the Muslim historians often mean Jains when they write Hindus.
Akbar's contact with the learned among the Jains did not begin in 1582 as Mr. Roychoudhury states but much earlier, i.e., a few years prior to 1568 and the close contact continued certainly till the death of Akbar and there is no ground to say that''we do not hear much of the Jains after the death of Hiravijaya Suri in 1592." The first Jain, so far as we know at present, to influence Akbar and gain his intelligent patronage was Padmasundara.? His work “Akbarshahisringaradharpana, written under the direct patronage of the Emperor, makes it clear that Akbar's interest in learned pundits of other faiths and his discussions on religious matters with them date back to his youth and the early years of his reign.
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Padmasundara was the pupil of Padmameru and belonged to Nagpuria Tapagaccha' and was honoured by Akbar with various gifts on his success in literary contests. About the year 1568 A.D. a debate was held in Akbar's court between Buddhisagara of Nagpuriya Tapagaccha and Sadhukirti of Kharataragaccha on the subject of a Jaina religious ceremony called "'Paushada", in which Sadhukirti won and was conferred by Akbar the title of 'Vādindra". Padmasundara was alive then and did not take part in the contest. He died in a short time and although it is likely that the imperial contact with the Jains did not cease with his death, there is no mention of important Jains at the imperial court till the advent of Hiravijaya Suri.
Hiravijaya Suri (Harji Sur of Ain) was born at Palanpur and by his learning and piety soon rose to be the leader of the Tapagaccha section of Jain ascetics. According to the wishes of Akbar communicated through Shihabuddin Ahmad Khan, Governor of Gujarat, Hiravijaya Suri went to the court at Fatehpur on 18th June, 1582 A.D.' On arrival a discussion took place between the Suri and Abul Fazl in which the Suri propounded the doctrines of Karma and an impersonal God. The Suri defining true religion said that the foundation of a faith should be compassion.' Akbar made mention of Padmasundara, his dear friend" whose scriptures he had preserved in his palace and these he offered to the Suri as a gift, Pressed by the Emperor to receive something from him, the Suri requested that all the caged birds and prisoners may be set at liberty and the slaughter of animals during the eight Jaina holidays (Paryūshana) may be enforced at Agra. The Emperor granted the request for that year. The next year, 1583 he influenced the Emperor to enforce the order in the whole empire for all
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In June 1584 the title of Jagadguru (World Preceptor) was conferred upon Hiravijaya Suri. On this occasion caged birds on the banks of ''Babar" were ordered to be released. The Suri left for Gujaratin 1586 (not in 1584 as mentioned by Mr. Roychaudhury). Arriving in 1582 he spent four monsoons at the capital and neighbourhood. During his stay not only did he impart a knowledge of Jainism to the Emperor but he also got various concessions to their faith in the form of farmans to promote non-killing. Fishing in the lake of "'Dabar“ was prohibited. The Emperor is said to have taken a vow to refrain from hunting!? (but hunting was not stopped by Akbar, as stated by Mr. Roychaudhury) and expressed a desire to leave off meat-eating for ever as it had become repulsive. CATAT SET 14019 – fehac, 2004 -
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When Hiravijaya took his departure Santichandra was left in his place at the court where the latter stayed till 1587.13 Mr. Roychaudhury seems to have been ignorant of Santichandra having immediately followed Hiravijaya at the court as he says that after the Suri's departure, Bhanuchandra remained at court and at another place confuses Santichandra with Siddhichandra who are two quite different persons.
To resume our narrative, Santichandara wrote a panegyric on the Emperor ('Krpa Rasa Kośa') and when leaving for Gujarat took with him farmans prohibiting the slaughter of animals and proclaiming the abolition of the Jazya and Pilgrim tax in Gujarat.14 The forbidden days were extended so as to comprise six months of the year.1
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Santichandra left Bhanuchandra at the court. He and his pupil Siddichandra16 remained to influence Akbar for the rest of his life. Bhanuchandra accompanied the Emperor to Kashmir and persuaded him to issue a farman abolishing the tax which was then levied on Jaina pilgrims to Satrunjaya.17 The hill was granted to Hiravijaya Suri as the head of the Svetambara Jains; he received the farman in 1592 with a request to send his pupil Vaijayasena Suri. The latter accordingly reached Lahore in 1593 and distinguished himself in many debates with Brahmans and successfully refuted the idea of certain Brahmans that the Jains did not believe in God. Some of the fruits of Vijayasena's influence were in the farmans prohibiting the slaughter of cows, bulls and buffaloes, repealing the law of confiscation of the property of the deceased and the capture of prisoners as hostages.18 The Emperor was so struck by the learning and saintliness of Vijayasena19 that he conferred on him the title of "Savai Hiravijaya Suri" (in a way superior even to Hiravijaya Suri) and had the title of Upadyaya conferred upon Bhanuchandra by Hiravijaya Suri. Vijayasena was instrumental for the order prohibiting fishing in the Indus and the waters of Cutch for four months. Abul Fazl studied under Bhanuchandra "Şaddarshana Samuccaya".21 It was Bhanuchandra who composed a set of 1000 names of the Sun for Akbar and recited it with him every morning.22 When the Jam of Cutch was defeated by Aziz Koka, Bhanuchandra influenced Akbar to order the release of all prisoners of war. 23 The influence of the Jains reached such proportions as to invite the jealousy of the chief Brahmans of the court. Together with Bhanuchandra his pupil Siddichandra was also much respected by Akbar. An extremely handsome man and endowed with amazing knowledge he was given the title of "Khus faham" by the Emperor,24 allowed to visit the harem, and studied Persian by suggestion of Akbar on the death of Hiravijaya Suri Bhanuchandra secured from Akbar
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a grant to the Jaina community of a piece of land for the construction of a stupa in memory of the monk. Both Bhanuchandra and his pupil were associated with the education of the Emperor's sons and grandsons respectively,25 and accompanied the Emperor to the Deccan. Both remained at court till Akbar's death wielding great influence, and were instrumental in securing rights to build temples in various cities and in enforcing farmans granted but not observed at times by local officials.
So much for the Jaina Svetambara Tapagaccha. While the predominant Jain influence on Akbar seems to have been from this sect, the Kharataragaccha was not unrepresented at the court. Smith was largely unaware of Akbar's connection with this sect and so has been Mr. Roychoudhury.
In 1591 hearing of a great Jaina teacher Jinachandra Suri presumably through Mantri Karamchand, a lay member of the Kharataragaccha, Akbar who was then at Lahore invited the holy man to the capital. Reaching Lahore in 1592,26 he gained the respect of the Emperor. In the same year he requested his patron to protect all Jaina temples, on hearing that the temples near Dwaraka were demolished by Naurang Khan.?? A farman was issued granting Satrunjaya and other Jaina places to Karamchand. 28 His disciple Man Singh with others accompanied the Emperor to Kashmir where fishing was prohibited in all the lakes of Kashmir.-9 Akbar conferred the title of Yugapradhan on Jinachandra and the title of Acharya to Jinasimha Suri. At the instance of the Suri fishing and animal slaughter were prohibited in Cambay for one year and in Lahore animal slaughter for the same period. 3° Other monks of the Kharataragaccha who are known to have had intercourse with Akbar were Harsasara and Jayasoma who secured a victory at a debate conducted at the court of Akbar.
Mr.Roychoudhury has been ignorant of the above relations of the Kharataragaccha Jains with Akbar. Following Smith he says, In 159031 one Siddichandra visited Akbar at Lahore and was honoured with a title. He was placed in charge of the holy places of the Jains in the empire. The tax on pilgrims to the Satrunjaya hills was abolished in the same year. 32 Smith seems to have made a mistake and somehow mixed up Siddhichandra with Jinachandra Suri about whom he knew nothing. While it is true that Siddichandra the pupil of Bhanuchandra had been with Akbar since at least a few years prior to Hiravijaya's death no other Siddichandra visited Akbar and received an honorary title and was granted the control of the holy places of his faith.
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Now the one Jain of importance to 'visit' Lahore about 1592 was Jinachandra who received the title of 'Yugapradhan'. It was to Mantri Karamchand that the Jaina places were made over and not to Siddichandra.33 Smith errs again in saying that the temple of Adiswara at Satrunjaya was consecrated by Hiravijaya in 1590.34
References:
Vide Itihask Jain Kavya Sangraha by Agarchand and Bhanwarlal Nahta. Akbarshahisringaradharpana by Padmasundara, MS of Anup Sanskrit Library, Bikaner, dated V.S. 1626 (1569 A.D.) Mr. Dasrath Sharma has fixed the date of the work as about 1560 A.D.
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This corroborates the view of Abul Fazl that Akbar even during the years when he did not take much interest in the affairs of the kingdom, till 1560, he was showing the religious bent of mind which later became one of his most pronounced characteristics. A further corroboration is to be found in the saying of Akbar: "On the completion of my twentieth year (1562) I experienced an internal bitterness, and from the lack of spiritual provision for my last journey my soul was seized with exceeding sorrow. - Ain III p.
386.
According to Pattavali Vide "Anekant", Ed. in Hindi, Vol. IV, p. 470 ff. Ibid: Also Bhanuchandracharita Ed. By Mohanlal Dilichand Desai p. 12. Bhanuchandracharita p. 14 Itihasik Jain Kavya Sangraha p. 140 ff.
Sureshwar and Samrat p. 105
Ibid p. 110
Bhanuchandracharita p. 9
Hirasaubhagya Kavya, Ch. 14, Verses 91 ff.
The farman was made in six copies and sent to six different parts of the Empire - Vide Krpa Rasa Kosa, Introduction, p. 19 also farman, Bhanuchandracharita, Appendix 1, p. 77.
Perhaps only on certain days. Bhanuchandracharita, Introduction P. 7 Hirasaubhagya Kavya, Chapter 14, Lines 199 ff quoted in Krpa Rasa Kosa. Mr. Roychaudhury says, "We do not hear much of the Jains after the death of Hiravijaya Suri in 1592. (Din-i-Illahi p. 162). He seems to have been curiously ignorant of the fact that important Jains lived in the court of Akbar till the very end and continued to reside in the time of Jahangir. Bhanuchandra and Siddichandra remained near Akbar till his death and later.
Sureshwar and Samrat p. 140.
Hirasaubhagya Kavya 14th Ch. Lines 273 ff.: Badaoni (Blochmann) p. 321 (1583 A.D.). Seems only to have been meant for Surat sarkar as inferred from later farman, Bhanuchandracharita. Introduction-Appendix p. 82.
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Mr. Roychaudhury errs when he says "This Siddichandra is possibly the Santichandra of Rev. Heras" (p. 161)
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Vijayaprashastisar by Muni Vidyavijaya p. 47.
Vide farman, dated 1601, Bhanuchandracharita, Introduction-Appendix p. 80.
After a debate on the Sun and the Ganges with the Brahmans, Suresh and Samrat p. 164 ff.
Ibid p. 165. A farman of 1601 (Ibid 379) makes mention of a previous one regarding non-killing on certain days (about six months in the year), and the desirability of abstention from eating meat even on other days and impresses upon all the officials to observe the order scrupulously. Vide also farman 1604 (Krpa Rasa Kosa p. 33) given to Jina Singh and Man Singh prohibiting slaughter on eight days in the Subah of Multan, referring therein to Hiravijaya and Jinachandra Suri and prohibiting slaughter during the twelve days including Paryusana and eight days from Asada Sukla. Vide also Yugapradhan Jinanchandrasuri by Agarchand and Bhanwarlal Nahta p. 91. Vide also inscription dated 1597 A.D. at temple at Patan which enumerates these results of Jinachandra's influence on Akbar: Photograph of inscription with Mr. Bhanwarlal Nahta, Bikaner.
A treatise expounding the six systems of Philosophy.
Bhanuchandracharita p. 29. Jain respect for the Sun, Vide Suresh and Samrat p. 163 ff.
Bhanuchandracharita p. 29.
Mr Roychaudhury is puzzled about the statement in the Lekha-Likhanpaddhati where it is mentioned that Jahangir (and not Akbar) is said to have conferred the title of "'Ghus Faham" on Siddhichandra and also the title of Nadir-i-Zaman on him. The fact is that Akbar did confer the title of "Khus Faham" on Siddhichandra and later Jahangir also conferred the same title as well as the titles of Nadir-i-Zaman and Jahangir Pasand (Favourite of Jahangir) on Siddhichandra as indicated by his prose works, - Vide Bhanuchandracharita p. 65.
Ibid. P. 42 ff.
Karamchandravamsothkirthan (Hindi translation) p. 85
Yugapradhan Jinachandrasuri p. 89 ff.
Ibid. 280 ff where a translation of the original farman now in Brahad Jnana Bhandparastha, Big Upasraya, Bikaner, is given
Ibid, p. 98.
Yugapradhan Jinachandrasuri p. 102 Karmachandravamsothkirthan P. 85 Wrongly quoted as Smith states the year 1593.
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32. Smith p. 167 Roychoudhury p. 161 ff.
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Mr Roychoudhury again misquoting Smith says "In 1590, the temple of
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Adiswara on the hills of Satrunjaya was consecrated to Hiravijaya." Smith writes "consecrated by Hiravijaya" - Smith is wrong in the date. Hirasaubhagya Kavya quoted in Suresh and Samrat (p. 259 ff) says that Tejpal Soni had repaired an old temple of Rishbadev called Nandivardhan, at Satrunjaya, in 1649 S.V.(1592) Hiravijaya was invited to consecrate it. At the same time the Suri also consecrated another new temple which had been prepared by others. It was with reference to this visit that Bhanuchandra had a farman granted exempting the Suri and his followers from taxes. This farman dated V.S. 1649 (1592) (Krpa Rasa Kosa p. 25) was received by the Suri at Radhanpur in March-April 1593 A.D. The incident is narrated in Bhanuchandracharita, Chapter III, lines 48-71. Akbar and Bhanuchandra were then at Kashmir. The Emperor started for Kashmir in Aug. 1592 and came back in the winter of the same year. The date therefore given by Smith for the visit of Suri., viz., 1590 is erroneous and Mr. Roychoudhury has followed him into the error. The date of the composition of Hemavijaya at the Satrunjaya hills, viz., 1593 was the year when the Suri visited the place and consecrated the temple. Smith also errs with reference to the date of the Suri's death (Mr. Roychoudhury follows him here also), which he puts down as 1592. The correct date is 1595 (S.V. 1652) as stated in the inscription quoted by Smith himself in Bhandarkar Commemoration Vol. II, p. 272-3. Still in his Akbar he states that ''In 1592 Hiravijaya Suri starved himself to death." The date given in the inscription No. 4 Vijayasena Suri, ''Latest date S.V. 1650" obviously refers to the return of Vijayasena Suri to Gujarat from the imperial capital with the farman forbidding the slaughter of cows, bulls, buffalowcows, etc. Smith erroneously construed the date to be the date for the whole inscription. This explains the fact that the inscription refers to the death of Hiravijaya as taking place in S.V. 1652, a fact which could not have been recorded if the whole inscription had been done in S.V. 1650.
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Jain Religious Orders in the
Kushana Period
- Baij Nath Puri
The importance of Mathurā as a great Jain centre is revealed by a number of Brāhmi epigraphic records belonging to the Kushāņa period. A number of Jain religious orders were flourishing side by side without creating any spirit of antagonism. These schools popularly known as gañas were divided on the lines of teachers who were known through their respective 'kulas'. The teachers grouped into a 'kula' were branched off into śākhās or branches. Sākhās were the lines which branched off from each teacher. Besides these there were Sambhogas or division. To put the whole framework of religious orders in a nutshell,' firstly there were ganas or different schools of thought. Among these schools, sets of teachers formed kulas or family and each teacher was then branched off into his sākhā. Before going into a detailed study of these Jain religious orders it is better to take note of some of the very important Brāhmi Jain records which throw light on the subject
Inscription No. 12 from Mathurā records the dedication of an image of Vadahamāna (Vardhamāna) by khudā (kshudrā) who belonged to the Kottiva gana, the Bahamadāsika kula and the Uchenāgarī sākhā. The inscription is dated in the year 5 of Devaputra Kanishka.
Another inscription' incised on the pedestal of a fourfold image (chaturmukhi) consisting of four naked standing, jinas records the dedication at the request of venerable Mātridina (Mātridatta) by the first wife of one Suchila who belonged to the
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Kottiya gana, the Thānīya kula, the Śrīgriha Sambhoga and the Ānyya-Vērī (Arya-vajri) śākhā. The inscription is dated in the year 19.
Another inscription" incised on pedestal and on sides of a small seated Jain statue records the dedication by Kumār-bhați at the request of his mother Kumāra-mitrā who was the female pupil of the venerable Baladina (Baladatta) out of the Kottiya gana, the sthānīya kula, the Vairā sakhā and the Sirika Sambhoka (Sambhoga).
There is an inscription" incised on the base of a quadruple image of four standing naked Jains recording the gift at the request of a gani whose name is mutilated, out of the Kottiya gana and Vachchhaliya Kula. The name of the Sākhā is mutilated and the inscription is dated in the year 18.
There is yet another mutilated inscription mentioning another kula and Sākha in the Kottiya gaņa. The kula is Pa-vaha-ka which may be identified with Prasnavāhanaka of the Kalpa Sūtra. The Sākhá mentioned in the inscription is Majhamā which may be identified with the corresponding Sākhă Madhyāmikā; Prakrit-Majjhimilla of the Kalpa Sūtra:
There are numerous other records of the Kottiya gana which mention the same kulas, sākhās and Sambhogas. It is not worth-while mentioning all those records. The following table may be drawn of this school.
Kottiya Gaņa
1. Brahmadāsika kula
Uchenāgari Sākhā 2. Thānīya kula
Āryyaveri (Ārya-vajrī) Sākhā 3. Sthāniya kula
3. Vairā sākhā 4. Vachchhaliya
4. Majhamā (Madhyāmikā) Śākhā 5. Pa-vaba-ka (Praśnavāḥanaka)
The Kottiya gana, as we know from the Kalpasūtra’ was founded by Susthita and Supratibuddha surnamed Kauţika and Kākandaka. They belonged to the Vyāghrāpatya gotra. According to the same sūtra it was divided into Uchanāgari, Vidyādhari, Vajri and Mādhyamikā (Pr. Majjhimilla) Säkhās and its kulas were Brahmaliptaka, Vātsalīva (Pr. Vachhālija) Vaniya (Pr. Vānijja) and Prasnavāhanaka kulas. Now the Brahmadāsika kula of the epigraphic records may be identified with Brahmaliptaka, Vachchaliya with Vātsaliya, Pa-va-naka with Prasnavāhanaka and Thāniya or Sthāniya kulas with Vānīya kula of the
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Kalpasūtra. Both appear to be the same kula though there appears to be a little difference in the Sakhās of these kulas. The thāniya kula of the epigraphic record has Aryyaveri (Arya-vajrī) and the Sthāniya kula has Vaira-śākhā of the Kalpasūtra. The two other Sākhās-Uchchanāgari and Madhyamika are also to be found in the inscriptions. The names of the Śākhās associated with Vachchaliya kula is mutilated in that record where it is found. Possibly it was the Vidya-dhari Sākhā of the Kalpa Sutra as the three other Śākhās are already associated with the three other kulas of the Kottiya gana in the Kuṣaṇa inscriptions.
The next gana or school in order is Vāraṇa which is identified by Buhler with Carana gana of the Kalpa Sutra. Its existence along with a number of kulas and Sākhā in the Kuṣāņa period is testified to by the Brahmi records of the Jains unearthed at Mathura. Only some important epigraphic records of the gana may be considered for enumerating its different kulas and Sākhās. The following important epigraphic records which enumerate the names of kulas and Śākhās in this gana may be taken into consideration.
An inscription' incised on the pedestal of a Jain statue records the gift by the cherished daughter of Grahahathi at the request of Gahaprakiva pupil of the venerable Data a ganin in the Vārana gana and the Pusyamitrīya (Pushyamitriya) kula, in honour of the Arhat. The inscription is dated in the year 29 of the great king.....shka.
There is another inscription1o dated in the year 44 of the great king Huvishka recording a dedication at the request of the venerable Nagaseṇa the pupil of Haginamd, a preacher (Vācaka) in the Vāraṇa, in the Aryyacetiya kula (Arya-Chețika) in the Harītamālakaḍhi (Harītmālagaḍhi) Śākhā
It is dated in the year 44.
The inscription" on the base of a seated Jain records the dedication from the Vārana gana and from the Petivāmika kula.
An inscription12 discovered by Dr. Fuhrer mentions Kaniyasika kula in the Vārana gana. The name of the Sākhā is mutilated though the first two letters 'od' are apparent.
Another kula Aya-Hāṭṭiya (Arya-Haliya) of the Varaṇa gana is mentioned in an inscriptions13 found on the base of a seated Jina statue. The Vajanagari Sākhā (Vārjanagari) and Ārya-Śirikiya Sambhoga are also mentioned. This kula is also mentioned in an inscriptions1 dated in the year 4.
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There is another inscription 15 mentioning the dedication at the, request of Sāditā, female pupil of.. .. .. dhuka, a preacher in the Vārana gana and Nädika kula. The name of the Sākhā is mutilated.
The last kula of this gana is mentioned in another inscription, 16 The name is Ayyabhyista kula, the Sākhā is Samkāsiyā and the Sambhoga is Sirigriha (Srigriha). The inscription is dated in the year 50. Ayya-Jinadasi (Arya-Jinadāsī) the female pupil of Samadi... is mentioned as the teacher. Besides these important inscription there are a number of other records repeating the same kulas and sākhās Vārana gana. A perusal of the above records would show that the Vāraṇa gana was divided into a number of kulas with their corresponding Sākhās or branches and Sambhogas i.e. divisions. On the basis of these records a table may be shown.
Vāraņa Gana
1. Puśyamitriya 2. Ārya-chetiya kula
2. Harītamālakadhi Sākhā 3. Petivāmika kula 4. Kaniyasika kula
4. Od... Sākhā 5. Aya-Hāttiya
5. Vajanāgarī säkhā 6. Nādika kula 7. Ayyabhyista
7. Samkāsiyā Now according to the Kalpa Sūtra,17 the Cāraņa gana which is evidently identical with the Vāraña gana was divided into four Sākhās and seven kulas. The kulas were Vätsalīya (Pr. Vakkhalija), 2. Prītidharmika, 3. Hāridraka (Pr. Halijja), 4. Pushyamitrika, 5. Mālayaka (Pr. Mālijja) 6. Ārya-chedaya and 7. Kaņhasaha. The four sākhās mentioned are Samkāśika, Vajjanāgari, Gavedhukā and Hāriyamālāgārī.
If we compare the list of kulas mentioned in the inscription with the list of Sthāviras preserved in the Kalpa Sūtra, we would find that the Puşyamitriīya can beidentified with the Pushyamitrika (Puşamitijja), ĀryaChețaya with Āryya-cedaya, Kaņiyasīka with Kanhasaha, Petivāmika with Prīdharmika and Aya-Hattiya with Hāridraka as the sākhās of both namely Vajanāgarī and Vajjanāgarī are identical. The only two kulas left to be identified are Ayyabhyista kula and the Nādika kula.The Sākhā of the Ayyabhista kula is Samkāsiyā while the name of the śākhā associated with Nādika kula is mutilated. Now in the list of the Kalpa Sūtra, Samkāsikā is
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associated with Vachchhalijja kula. It therefore seems certain to identify Ayyabhyista kula with the Vachchhalijja kula of Kalpa Sūtra. The last kula Nādiya may probably be identified with Malayaka Mālijja kula of the Kalpa Sūtra. These are the only two kulas left unidentified in the two lists. Therefore it may be possible to identify the Nādika kula of the epigraphic records with the Māllijja kula of the Kalpa Sūtra. A perusal of the estampage of the inscription published in the Epigraphic Indica" along with that inscription reveals that between the words ''kula' and Sākhā there is the space for four letters. These four letters must mean the name of the Sākhā. Of the four Sākhās in the Chārana gana three Sākhās namely Samkāśikā, Vajjanāgarī and Hāriyamālāgāri are already mentioned in the inscriptions as being associated with three different kulas namely Ayyabhyista (Vachchhalijja), Ayya-Hattiya (Hālījja) and Arya-chețiya (Arya-chedaya) kulas of the Vārana gana respectively, the fourth Sakhā Gavedhuka is to be associated with some kula. It cannot however, be said with certainty that this Sākhā may be associated with Malijja kula but the probability seems to be that Nädika kula may be identical with Mālijja kula and the Sākhā of both the kulas was Gavedhukā.
The next gana mentioned in the Kushāna epigraphic records is AryyaUdekiya gana. This gana is mentioned in two records. An inscription2o on the base of a large seated Jina statue discovered by Dr. Burgess on the South East of Kaňkālī Tila mentions Aryyodehikiya (Arya-Uddehikīya) gana, and Aryya-Nāgabhutikiya (Ārya-Nagabhūtikiya) kula. The names of the Sākhā and the donor are not given. The inscription is dated in the year 7 of the great king, supreme king of kings (Rājātirājasya), the son of the gods (Devaputrasa), Shāhi Kanishka. The names of the tea mentioned in this record are preacher Aryya Sandhika, the pupil of the ganin Āryya-Buddhaśiri (Arya-Buddhaśīri).
The next recordal of this gana or school is dated in the year 98 of king Vāsudēva. The inscription records the gift at the request of venerable Dēvadata (Devadatta) out of the Venerable Dehikiya (gana) which may be short form of Uddehikiya gana, the Pandhāsika kula, the Pētaputrikā (Paitāputrikā) Sākhā.
According to the Kalpa Sutra, 22 the Uddeha gana founded by Arya Rohana of the Kaśyapa gotra. It was divided into four Sākhās and six kulas. The Sākhās were Udumbarikā (Pr. Udumbarijjiyā, 2 Māsapūrikā, 3. Matipatrikā and 4. Pūrna-Patrikā (Pr. Punnapattiyā) The six kulas were Nāgahūta, 2. Somabhūta, 3. Ullagakka (or Ardrakakkha?) 4. Hastilipta (Pr. Hatthilijja). 5. Nāndika (Pr. Nāndijja) and Parihāsaka.
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The two kulas Nāgabhutiya and Paridhāsika may be easily identified with the Nagabhuta and Parihāsaka of the Kalpa Sūtra. According to Prof. Luders?the form Paridhāska shows that the Parihāsaka of the Kalpa Sūtra must be rendered in Sanskrit by Paridhāsika, and not be Parihāsaka as done in the 'Sacred book of the East'. The solitary Sākhā mentioned in the second record as Petaputrika seems to be equivalent to Sanskrit Paitāputrika. It is the same as Pūrņapatrika of the Kalpa Sūtra.
The name of another gana Veśavadiya is not apparently mentioned in the Kushāna records, but the name of its kula is mentioned in the two epigraphic records, which may just show that this gaņa or school also existed in the Kushāņa period. An inscription4 dated in the year 15 records the dedication at the request of venerable Vasulā, female pupil of the venerable Sangamikā the female pupil of the venerable Jayabhūti out of the (Me) hika kula.
The other inscription25 incised on the pedestal of a small seated Jina statue records some dedication at the request of Venerable Vasulā, pupil of the Venerable Sangamikā. It is dated in the year 86. The name of the kula is considerably mutilated. Buhler26 has assumed that the teachers mentioned in both the records are the same, therefore the kula of the second record must be Mehika. In this he has perhaps not considered the difference in the date of the two records. The first is dated in the year 15 while the second is dated in the year 86. There is a different of 71 years and it would be too much to assume that the teacher and the pupil continued to live for 71 years. Any way for our purpose it is clear from the first record that there was a Mehika Kula.
According to the Kalpa Sūtra,27 Kāmarddhi of the Kundala gotra founded the Veśvāțika gana which was divided into four sākhās and into four kulas. The Sākhās were, 1. Srāvastikā, 2. Rājyapālikā (Pr. Rajjapāliyā), 3. Antarañjika, (Pr.Antarijjiyā) and Kshemaliptikā (Pr. Khemalijjiya). The four kulas were 1. Gaņika, 2. Maighika 3. Kāmarddhika and Indrapuraka. Only the Maighika kula which is identical with Mehika kula is mentioned in the Kushāņa records.
Thus it would appear that out of all the 8 ganas only the names of four ganas are found in the epigraphic records of the Kushāṇas. Many more may have been in existence but we dont know about them. These records throw some light on the working of these Jain religious orders in the Kushäņa period. From these records it is apparent that each gana or religious sanghā had both male as well as female members. They were
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known as ganin. The membership was confined to those who were not living as householders. They had renunciated the world and were in search of enlightenment through some teachers. The teachers had male as well as female pupils. It was the duty of the pupils to see that the house-holders created endowments. These endowments were in the shape of erecting the statues of Vardhamāna or some other statues. Among these records, about ten records the erection of the statues of Arhat Vardhamāna, four record the erection of a four-fold image, three mention the dedication of Ayāgapata (tablet of homage) and one each mentioning the setting up of the image of Divine Santi (probably Santināth), Pārsva (Parasnath), Sarasvati and a Vusuya. It seems strange how a jain could erect the statue of a Brahmanical Goddess. Possibly the goddess of learning like the goddess of wealth (Lakshmi) was worshipped by all the people irrespective of their difference in belief and religion
The organisation of the Jain religious orders was in the hands of the heads of the church known as Samghprksta and Samghapramukha.28 The first title means the superiors of the Samgha or those who had a voice in the Samgha while Saṁghapramukha would mean the chief of the Samgha.29 Possibly Saṁghapramukhāh or the chiefs of the Samgha were heads of different Jain religious ganas or orders. It is not easy to pronounce due to the paucity of evidence how the ganas actually worked, but they seem to have been working very smoothly and soundly. The very fact that we find sufficient records of dedications which was the result of their labour, is a sufficient proof of the sincerity of their mission for which they had renounced the world and joined the orders. The mission of each member of the Jain churches or ganas was not merely a theoretical advancement in his spritual knowledge but the practical side was as much important for him as the life inside the Samgha. It was the duty entrusted on each member of the Samgha to fill up his quota of securing dedications by householders.
References: 1. Cf. Kalpa Sūtra, S.B.E., Vol. XXII, p. 288n.
Ep. Ind., Vol. I, No. 1, p. 381. Ep. Ind., ibid., p. 382, No. III Ep. Ind., Vol. I, No. VII, p. 386 Ep. Ind., Vol. II, No. XIII, p. 202
Ibid., No. XXII, p. 205. 7. S.B.E., Vol. XXII, p. 292
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El quis-faqtok, 2004
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15.
16.
17. S.B.E., Vol. XXII, p. 291
18.
19.
20.
21.
The Indian Sect of the Jains, p. 59.
Ep. Ind., Vol. I, No. VI, p. 385.
Ibid., No. IX. P. 387.
Ibid., No. XX, p. 391
Ep. Ind., Vol. I, No. XXIII, p. 392.
Ibid., No. XXXIV, p. 397
Ibid., Vol. II, No. XI, p. 201.
108
Ibid., Vol. II, No. XXVIII, p. 206
Ibid., No. XXXVI, p. 209
Ep. Ind., Vol. II, No. XXVIII, p. 206.
Ibid.
Ep. Ind., Vol. I, No. XIX, p. 391.12
Mathura Jain Inscription of Sam. 98, I. A. 1904., p. 108, No. 23
22.
23.
24.
25.
26.
27. S.B.E., Vol. XXII, p. 291
28. Vogel, Catalogue of the Mathura Museum, Nos. 24 and p. 37. Kale, Sanskrit Dictionary, p. 755.
29.
SBE, Vol. XXII, p. 290
Epigraphical Notes I. A. 1904, p. 109
Ep. Ind., I, No. II, p. 382.
Ep. Ind., Vol. I, No. XII, p. 388
The Indian Sect of Jains, p. 60
Chowk, Lucknow
तुलसी प्रज्ञा अंक 125-126
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________________ Postal Department : NUR 08 R.N.I. No. 28340/75 MINI बुराई करने वाला अवश्य ही बुरा होता है पर बहुत अच्छा तो वह भी नहीं जो बुराई के भार से दब जाए। बुराई को पैरों से रौंदकर चलने वाला ही अपने मन को मजबूती से पकड़ सकता है। With Best Compliments From : M. G. SARAOGI FOUNDATION (Mahadev Lal - Ganga Devi Saraogi Foundation) 41/1C, Jhowtalla Road KOLKATA-700019 प्रकाशक - सम्पादक - डॉ. मुमुक्षु शान्ता जैन द्वारा जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं के लिए प्रकाशित एवं जयपुर प्रिण्टर्स, जयपुर द्वारा मुद्रित / Beersonal use