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________________ पर समुद्र में डुबा हुआ मनुष्य क्यों लम्बे समय तक जीवित नहीं रह सकता ? ऐसी समस्याएँ मुँह फाड़कर खड़ी रहेंगी । समस्या का समाधान तो दोनों पक्षों को समान रूप से मान्य एक ही होना चाहिए न ! तथाविध शारीरिक रचना = झालरयुक्त फेफड़े तंत्र की विशिष्ट रचना के अनुसार मछली जीने के लिए पानी में से ऑक्सीजन को अलग करके ग्रहण करती है जबकि मनुष्य खुली हवा में से ही नाइट्रोजन मिश्रित ऑक्सीजन लेकर जिन्दा रहता है । इसी प्रकार मोमबत्ती आदि खुले वातावरण में ऑक्सीजन के माध्यम से जलती है जबकि बल्ब के फिलामेंट में उत्पन्न हुए प्रकाश (बादर तेउकाय) के लिए यह कहा जा सकता है - (2) बल्ब, मर्क्युरीलेम्प वगैरह के फिलामेंट में उत्पन्न हुए अग्निकाय के जीव खुली हवा के बदले इलेक्ट्रीसीटी जिस वायर में से पसार होती है, उस वायर के माध्यम से अथवा अन्य कोई प्रकार से वहाँ आने वाले वायु के द्वारा अथवा बल्ब में स्थित वायु के द्वारा अपना अस्तित्व टिका सकते हैं। अपनी सजीवता बनाए रखने के लिए, जीवननिर्वाह के लिए बल्बप्रकाश अपने प्रायोज्य वायु को विलक्षण पद्धति से प्राप्त कर ही लेता है । इतना तो सुनिश्चित ही है । अत्यंत गरम लालभभूके लोहे के ठोस - निच्छिद्र गोले में रही हुई अग्नि अपने योग्य वायु को किसी भी प्रकार से प्राप्त करती ही है न! 3. इसी प्रकार हीटर की अग्नि, इलेक्ट्रीक सगड़ी की अग्नि इत्यादि खुले वातावरण और स्थूल वेक्युम - दोनों में अपना अस्तित्व बनाए रखती हैं । इस तरह अग्निकाय के भी स्थूल दृष्टि से तीन भेद तो समझ ही सकते हैं। इसलिए बल्ब टूट जाने पर, फिलामेन्ट के जल जाने के कारण, खुली हवा में पैदा न होने की वजह से बल्बप्रकाश को निर्जीव नहीं कह सकते । कुछ लोगों की मान्यता ऐसी है कि 'अग्नि को जलने के लिए ऑक्सीजन वायु जरूरी है। इसलिए जलती हुई मोमबत्ती इत्यादि के ऊपर ग्लास उलटा रखने पर बुझ जाती है। यद्यपि पूर्व में (पृष्ठ 32 ) हमने ऑक्सीजन बिना भी आग लग सकती है, उसके अनेक उदाहरण दिखाए ही हैं। फिर भी 'ऑक्सीजन के बिना आग नहीं लगती' इस बात को हम एक बार सत्य मान लें, तो प्रस्तुत में ऐसा कह सकते हैं कि मोमबत्ती, अगरबत्ती, तैल या दीया, कोयला इत्यादि में जो अग्नि उत्पन्न होती है वह ईंधन वाली है। वह ऑक्सीजन नामक वायु द्वारा अपना अस्तित्व बनाए रख सकती है। इसलिए उस पर ग्लास आदि ढंकने में आए तो वह पुराना ऑक्सीजन खलास हो जाने पर नया ऑक्सीजन नहीं मिलने के कारण बुझ जाती है । परन्तु आकाशीय बिजली, इलेक्ट्रीसीटी, विद्युत् प्रकाश वगैरह तो पूर्व में बताए अनुसार इन्धनरहित - निरिन्धन अग्निकाय है । निरिंधन तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, Jain Education International 2004 For Private & Personal Use Only 39 www.jainelibrary.org
SR No.524620
Book TitleTulsi Prajna 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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